जम्मू⎯कश्मीर में कठुआ दुष्कर्म मामला और सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों का राष्ट्रीय ध्वज के पीछे इकट्ठा होना वास्तव में धार्मिक राष्ट्रवाद में मौजूद खामियों को प्रदर्शित करता है। हाल के दौर यह पहला मामला नहीं है, जब जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाले लोग राष्ट्रीय ध्वज और अपनी धार्मिक पहचान के पीछे जा छुपे हों।
यह भारत में मुमताज कादरी जैसी घटना है (कादरी पाकिस्तान के एक गवर्नर सलमान तासीर का सुरक्षाकर्मी था, जिसने ईशनिंदा कानून के खिलाफ बोलने पर तासीर की हत्या कर दी थी)। कादरी को अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था और बहुत ही आक्रामक भीड़ उसके समर्थन में सड़कों पर उतर आई थी। लेकिन, भारत को इनका — कठुआ दुष्कर्म मामला और रैली का अंदेशा हो जाना चाहिए था, जिन्होंने देश में नैतिकता की कसौटी के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है।
इससे पहले, उदयपुर में शम्भुलाल गुज्जर नाम के शख्स ने लड़कियों को ‘लव जिहाद’ से बचाने और राष्ट्रवाद के नाम पर 50 साल के मोहम्मद अफराजुल की बेरहमी से हत्या कर दी थी। जब उसको अदालत में पेश किया गया, तो उसके समर्थन में भीड़ जमा हो गई थी।
कठुआ में, आठ साल की आसिफा बानो के साथ मंदिर में दुष्कर्म करने के आरोपियों को पुलिस का समर्थन हासिल था और बाद में वकीलों तथा आम लोगों ने हिंदू एकता मंच के संरक्षण में उनका बचाव किया। यह रैली भारतीय लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग के समान थी और जम्मू⎯कश्मीर सरकार के दो मंत्रियों ने इसमें शिरकत करके इसे और भी बदतर बना दिया।
बच्ची के बुरी तरह शत⎯विक्षत शव को उसके रिश्तेदारों और परिवार की जमीन पर दफनाने की इजाजत भी हिंदू दक्षिणपंथी युवाओं ने नहीं दी। उन्होंने शव को वहां दफनाए जाने पर दंगों की चेतावनी दी।
आरोपियों को भीड़ द्वारा निर्दोष करार देने की हाल की घटनाएं धार्मिक शत्रुता से प्रेरित हैं, जो देश में अंध धार्मिक राष्ट्रवाद का परिणाम है। हाल ही में देश के भीतर मुस्लिम समुदाय को, जिसकी पहचान दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों द्वारा परिकल्पित भारत की छवि के विपरीत है — पिछड़े और अतिवादियों के समान मानते हुए बदनाम करने के सम्मिलित प्रयास किए जाते रहे हैं ।
दुनिया के अन्य धुर⎯राष्ट्रवादियों की ही तरह, वे भी बहुसंख्यक समुदाय के अस्तित्व के खतरे के बल पर फलते⎯फूलते हैं। वे संस्कृति की चर्चा किसी ठोस (नॉन⎯फ्लुइड) इकाई की तरह करते हैं और एक ऐसे सुनहरे अतीत की चर्चा करते हैं, जिसे मौजूदा व्यवस्था की जगह लेने की जरूरत है और जिसको कभी किसी ने नहीं देखा। रूढ़िवादी मुसलमानों द्वारा खिलाफत वापस लाने का प्रयास करने और हिंदुत्व समर्थकों द्वारा ‘राम राज्य’ वापस लाने का प्रयास करने में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है।
कठुआ मामला दो कारणों का परिणाम हो सकता है—पहला, हिंदुओं और ‘अन्य लोगों‘ यानी मुसलमानों के बीच बढ़ता फासला और इसे भेद को कश्मीर संघर्ष, खास तौर पर जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों के संदर्भ में लागू करना।
विद्वानों ने राष्ट्रवाद को ‘स्वयं को दूसरे के संबंध में स्थापित करने’ के अंदाज के तौर पर देखा है। हिंदू राष्ट्रवादी जिस अंदाज से इसे परिभाषित करने का प्रयास कर रहे हैं, उसका परिणाम भारत की आजादी के समय से स्थापित आधुनिकता की प्रक्रियाओं में फूट के रूप में हो सकता है।
मौजूदा व्यवस्था इतिहास को नए सिरे से लिखने तथा बहुसांस्कृतिक ताने⎯बाने को चुनौती देने के प्रोजेक्ट के तहत शुरू की गई है, जो बरसों से हिंदुओं को इस धरती के प्रथम निवासियों के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के तौर पर स्थापित करने पर आधारित है। वे हिंदुओं पर आधारित राष्ट्रीय पहचान बनाने के इच्छुक हैं। जहां बहुतों को इसमें कोई समस्या दिखाई नहीं देती, लेकिन पड़ोसी देशों पर गौर करने से पता चलता है कि अगर एक बार धर्म आधारित राष्ट्रवाद का जिन्न बोतल से बाहर आ गया, तो उसे वापस अंदर डालना मुश्किल होगा।
राष्ट्र की अवधारणा के अस्तित्व में आने के समय से ही, इसे अनेक तरह से परिभाषित किया जाता रहा है। कुछ विद्वान राष्ट्र के निर्माण के लिए समान भाषा, धर्म या जातीयता के अलावा आदिकाल के सांचे पर भी बल देते हैं; अन्य समान अनुभवों की बात कहते हैं। वैसे, महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी जिस तरह चाहे, वैसे ही राष्ट्र को परिभाषित कर सकता है।
इसलिए, 21वीं सदी में अगर भारत खुद को ‘हिंदू राष्ट्र‘ के तौर पर परिभाषित करने का चयन करे, तो उसे यह याद रखना होगा कि यह रास्ता ‘अन्य लोगों‘ जिनका आशय यहां मुस्लिम समुदाय से है, के साथ अमानवीयता तथा बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के जहन के अपराधीकरण से होकर गुजरता है।
इसका दूसरा कारण जम्मू और कश्मीर के बीच हिंदू⎯मुस्लिम के भेद के प्रिज्म का लागू होना है। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने भाजपा के साथ पीडीपी के गठबंधन का कारण जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को जोड़ना बताया था। हालांकि भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से बलपूर्वक बात मनवाए जाने के कारण इस बढ़ती दूरी को पाटने के लिए कुछ ज्यादा नहीं किया जा सका।
इस नफरत के भंवर में खानाबदोश समुदाय बकरवाल फंस गया है, आठ साल की बच्ची का ताल्लुक इसी समुदाय से है। आरोपी कथित तौर पर गांव में रहने वाले इस समुदाय को वहां से खदेड़ने के मकसद से प्रेरित थे।
बकरवाल लम्बे अर्से से भारतीय सुरक्षा बलों की आंखें और कान रहे हैं, और तो और करगिल संघर्ष के दौरान उन्होंने ही सबसे पहले इसकी इत्तिला दी थी। उनके मुसलमान होने के कारण जम्मू का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय उनके साथ बुरा बर्ताव करता है और अक्सर उनकी बस्तियों को क्षेत्र के लिए जनसांख्यकीय खतरे के तौर पर देखता है। प्रदर्शनकारी वकील आरोपियों की गिरफ्तारी को ‘अल्पसंख्यक‘ डोगरा समुदाय पर हमला करार देते आए हैं।
आरोपियों के समर्थन में हुए प्रदर्शन में भाग लेने वाले भाजपा के दोनों मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने परोक्ष रूप से इस अपराध का जिक्र ‘घटना’ के तौर पर करते हुए कहा है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन, राष्ट्र को इस बारे में चिंतन करने की जरूरत है कि जो पहले बातें केवल अंतरंग चर्चाओं तक सीमित थीं, वे देश की मुख्य दास्तान कैसे बन गईं। और, ऐसा नहीं कि देश के बहुसंख्यक समुदाय को उसके वजूद के संकट में पड़ने के भय को बढ़ावा देने का काम केवल भारत के दक्षिणपंथी ही कर रहे हैं — दरअसल आईएसआईएस के कट्टर मुसलमान, श्रीलंका या म्यांमार के बौद्ध, यूरोपीय देशों और अमेरिका के रूढ़िवादी ईसाई भी इसी दलील के हिमायती हैं।
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