Author : Mannat Jaspal

Published on Jan 19, 2022 Updated 0 Hours ago

जलवायु से जुड़े जोख़िमों को लेकर दुनिया भर में एक जैसी सोच विकसित होती जा रही है. कारोबार में इन जोख़िमों को जोड़कर देखे जाने को लेकर आम सहमति बनती जा रही है.

उद्योग जगत के संचालन में ‘जलवायु’ परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को जगह देना ज़रूरी

ये लेख गवर्नेंस प्रॉपोज़िशन ऑफ़ 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


वर्ल्ड इकॉनोमिक फ़ोरम ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट 2019 में वैश्विक तौर पर कंपनियों के लिए जोख़िम से जुड़े पांच सबसे बड़े कारक गिनाए गए हैं. इनमें जलवायु परिवर्तन की रोकथाम और उसके हिसाब से ढलने, मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं से पार पाने में नाकामयाबी सबसे प्रमुख जोख़िमों में शुमार हैं. ऐसी घटनाओं की आशंकाएं और कंपनियों पर इनके प्रभाव पड़ने के ख़तरे सबसे ज़्यादा हैं. बहरहाल जलवायु से जुड़े जोख़िमों को लेकर दुनिया भर में एक जैसी सोच विकसित होती जा रही है. कारोबार से जुड़े आम तौर-तरीक़ों के साथ इन जोख़िमों को जोड़कर देखे जाने को लेकर आम सहमति बनती जा रही है. निश्चित रूप से जलवायु से जुड़े इन जोख़िमों से भारी वित्तीय नुकसान होने का ख़तरा रहता है. इतना ही नहीं इसकी चपेट में आने से पूरी वित्तीय व्यवस्था के संकट के तेज़ भंवर में घिर जाने का जोख़िम रहता है. 

जलवायु के मोर्चे पर पैदा होने वाली विकट परिस्थितियां एक ओर भारी जोख़िम का सबब बनती है तो वहीं दूसरी ओर अपने साथ बेहिसाब अवसर भी लेकर आती हैं. विश्व की कंपनियों को धीरे-धीरे इन बातों की पहचान होने लगी है. 

यही वजह है कि दुनिया भर की कंपनियों ने जलवायु परिवर्तन से जुड़ी पेचीदगियों को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है. जलवायु के मोर्चे पर पैदा होने वाली विकट परिस्थितियां एक ओर भारी जोख़िम का सबब बनती है तो वहीं दूसरी ओर अपने साथ बेहिसाब अवसर भी लेकर आती हैं. विश्व की कंपनियों को धीरे-धीरे इन बातों की पहचान होने लगी है. 

जलवायु से संबंधित वित्तीय जोख़िमों और अवसरों से बेहतर तरीके से निपटने के लिए नए-नए मानक तय किए जाने लगे हैं. कंपनियों के लिए मानक तय करने वाले निकायों ने इस सिलसिले में कई दिशानिर्देशक सिद्धांत तैयार कर आगे बढ़ाए हैं. इनमें टास्क फ़ोर्स ऑन क्लाइमेट रिलेटेड फ़ाइनेंसियल डिस्क्लोज़र (TCFD) के सुझाव सबसे अहम माने जा रहे हैं. TCFD का गठन फ़ाइनेंसियल स्टेबिलिटी बोर्ड के द्वारा किया गया था. नियामक संस्थाएं भी कंपनियों को टिकाऊ तौर-तरीक़े अपनाने और उनके हिसाब से ख़ुद को ढालने के लिए प्रेरित कर रही हैं. वर्ल्ड फ़ेडरेशन ऑफ़ एक्सचेंजेंस अपने पर्यावरणीय, सामाजिक और प्रशासकीय (ESG) दिशानिर्देशों और विचारों की TCFD की सिफ़ारिशों के हिसाब से समीक्षा करता रहेगा. सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (SEBI) भी वित्तीय वर्ष 2022 से भारत की शीर्ष 1000 सूचीबद्ध इकाइयों (बाज़ार पूंजी के हिसाब से) के लिए बिज़नेस रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग (BRSB) से जुड़ी क़वायद को अनिवार्य बनाने जा रही है. ग़ौरतलब है कि वैश्विक ढांचों पर आधारित ये प्रक्रिया फ़िलहाल एक स्वैच्छिक गतिविधि है. 

कंपनियों को जलवायु से जुड़े अल्पकालिक, मध्यम अवधि और दीर्घकालिक जोख़िमों और अवसरों का आकलन करते हुए जलवायु से जुड़े तमाम संकेतकों और पैमानों पर हासिल होने वाली प्रगति पर नज़र और निगरानी रखनी होगी.

संस्थागत निवेशकों की तत्परता

हालांकि, नीतियों को अमली जामा पहनाने का भार कंपनियों के ज़िम्मे है. उन्हें अपनी प्रबंधकीय प्रक्रियाओं में जलवायु प्रशासन के प्रभावी ढांचों को जगह देनी होगी. साथ ही इन्हीं के हिसाब से रणनीतिक फ़ैसले लेने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना होगा. कंपनियों को जलवायु से जुड़े अल्पकालिक, मध्यम अवधि और दीर्घकालिक जोख़िमों और अवसरों का आकलन करते हुए जलवायु से जुड़े तमाम संकेतकों और पैमानों पर हासिल होने वाली प्रगति पर नज़र और निगरानी रखनी होगी. बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा संचालित कॉरपोरेट गवर्नेंस की व्यवस्था शीर्ष से सही दिशा तय करने में बेहद अहम भूमिका निभाती है. आगे चलकर यही तौर-तरीक़ा नीचे के प्रशासकीय ढांचों तक फैल जाता है. इससे प्रबंधन के ठोस और टिकाऊ उपाय सुनिश्चित करने में भारी मदद मिलती है. 

दुनिया भर में जलवायु से जुड़े मसलों की हिमायत बढ़ती जा रही है. पर्यावरण के मामलों को लेकर शेयरहोल्डर्स की सक्रियता का स्तर भी बढ़ता जा रहा है. ऐसे में अगर कंपनियों के बोर्ड इन मसलों पर तत्परता दिखाने में नाकाम रहेंगे तो उनमें से कइयों पर धराशायी हो जाने का ख़तरा मंडराने लगेगा. इस सिलसिले में हमारे सामने एक दिलचस्प मिसाल मौजूद है. सैन फ़्रांसिस्को के फ़ंड Engine No. 1 का ExxonMobil के स्टॉक्स में महज़ 0.02 प्रतिशत हिस्सा है. इसके बावजूद Engine No. 1 ने स्वच्छ ऊर्जा के मसले पर ExxonMobil के बोर्ड के सामूहिक तजुर्बे की आलोचना करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी. और तो और वो ExxonMobil के बोर्ड में अपने तीन निदेशकों को शामिल कराने में भी कामयाब हो गया. बताया गया है कि ये निदेशक भविष्य में कंपनी को जीवाश्म ईंधन से हटकर परिवर्तनकारी नीतियां बनाने में मदद करेंगे. भारत में भी शेयरहोल्डरों की सक्रियता का ये चलन ज़ोर पकड़ता जा रहा है. हालांकि यहां ज़्यादातर संस्थागत निवेशकों के स्तर पर ही इस तरह की तत्परता दिखाई दे रही है. इनमें म्यूचुअल फ़ंड, पेंशन फ़ंड, बीमा कंपनियां और विदेशी संस्थागत निवेशक शामिल हैं. 

भारत में भी शेयरहोल्डरों की सक्रियता का ये चलन ज़ोर पकड़ता जा रहा है. हालांकि यहां ज़्यादातर संस्थागत निवेशकों के स्तर पर ही इस तरह की तत्परता दिखाई दे रही है. इनमें म्यूचुअल फ़ंड, पेंशन फ़ंड, बीमा कंपनियां और विदेशी संस्थागत निवेशक शामिल हैं. 

कंपनियों की रणनीतिक निर्णय प्रक्रिया के हिसाब से जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसले बेहद अहम हैं. धीरे-धीरे बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स भी इस बात पर सहमत होते जा रहे हैं. हालांकि, निदेशकों में पर्यावरण से जुड़े मसलों की समझ का अभाव है. इसके अलावा वित्तीय प्रदर्शन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में भी पर्याप्त जानकारी की कमी है. इन तमाम ख़ामियों के चलते इस मसले पर आगे बढ़ने में बाधा आ रही है. इस सिलसिले में ये ज़रूरी हो जाता है कि जलवायु से जुड़े कारकों को बहाली, भर्ती और मेहनताने से जुड़ी प्रक्रियाओं के साथ जोड़ दिया जाए. जानकारी साझा करने और ESG से जुड़े प्रशिक्षण की व्यवस्था को कंपनियों द्वारा बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स और प्रबंधकीय कर्मचारियों के लिए अनिवार्य कर देना चाहिए. टिकाऊ तौर-तरीक़ों से जुड़े लक्ष्यों को एक्ज़ीक्यूटिव और ग़ैर-एक्ज़ीक्यूटिव निदेशकों के मौजूदा प्रोत्साहन ढांचों के साथ जोड़ने का विचार कारगर साबित हो सकता है. 

जोख़िमों और अवसरों की पहचान

बहरहाल, बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के सामने शुरू से ही एक बड़ी समस्या आती रही है. दरअसल, जलवायु से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए उनके पास वक़्त की कमी होती है. बोर्ड के एजेंडे में ढेरों मसले होने की वजह से पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का तो बस आते-जाते ज़िक्र ही मुमकिन हो पाता है. लिहाज़ा इस विषय पर पर्याप्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए कंपनियों द्वारा एक विशिष्ट सस्टेनेबिलिटी कमिटी के गठन को अनिवार्य बनाने वाला क़ानून पारित किया जाना चाहिए. मौजूदा स्वरूप में कंपनीज़ एक्ट 2013 की धारा 135 के तहत एक निश्चित दर्जे से ऊपर की कंपनियों के लिए कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) कमेटी का गठन किया जाना अनिवार्य है. वक़्त का तक़ाज़ा है कि हम इसके दायरे को और बढ़ाकर CSR को एक विस्तृत सस्टेनेबिलिटी कमेटी के भीतर ले आएं. इस समिति को कॉरपोरेट सेक्टर के लिए टिकाऊ रणनीतियां तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए. इसके साथ ही टिकाऊ और सतत विकास से जुड़े जोख़िमों और अवसरों की पहचान, आकलन और प्रबंधन करना भी इसके कार्यक्षेत्र में शामिल किया जाना चाहिए. निम्न कार्बन उत्सर्जन की ओर परिवर्तनकारी रूप से आगे बढ़ने, विज्ञान पर आधारित लक्ष्य तय करने और ESG से जुड़े तमाम संकेतकों और पैमानों के मुताबिक प्रदर्शन पर निगरानी रखने और उनकी जानकारी देने का दायित्व भी इसी संस्था को दिया जाना चाहिए. इस समिति में जलवायु के मसलों की समझ रखने वाले योग्य एक्ज़ीक्यूटिव और ग़ैर-एक्ज़ीक्यूटिव सदस्य रखे जाने चाहिए, जो ऑडिटर्स और प्रबंधन से मुश्किल और पैने सवाल करने की क्षमता रखते हों. समिति के लक्ष्यों के प्रति इन सदस्यों की जवाबदेही तय होनी चाहिए. उन्हें नियमित तौर पर बोर्ड को अपने कामकाज की जानकारी मुहैया कराने का दायित्व सौंपा जाना चाहिए.  

बोर्ड के एजेंडे में ढेरों मसले होने की वजह से पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का तो बस आते-जाते ज़िक्र ही मुमकिन हो पाता है. लिहाज़ा इस विषय पर पर्याप्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए कंपनियों द्वारा एक विशिष्ट सस्टेनेबिलिटी कमिटी के गठन को अनिवार्य बनाने वाला क़ानून पारित किया जाना चाहिए.

कारोबारी वजूद को बरकरार रखने के लिए जलवायु के मोर्चे पर दीर्घकालिक मज़बूती क़ायम करना भविष्य के लिहाज़ से एक अहम रणनीति बन जाएगी. वित्तीय मसलों और लेखा-जोखा रखने के नए तौर-तरीक़ों के साथ-साथ कारोबार से जुड़े तमाम किरदारों की सक्रियता बढ़ती जा रही है. इससे कंपनियों में टिकाऊ विकास से जुड़े मानकों का स्तर ऊंचा उठेगा. आज कॉरपोरेट गवर्नेंस से जुड़े पूरे ढांचे में क्लाइमेट गवर्नेंस को भी जोड़ा जाना अहम हो गया है.  आने वाले समय में कंपनी के प्रदर्शन का प्रबंधन करने और लोगों के मन में संगठन की अच्छी छवि बनाने और धाक जमाने के लिहाज़ से ये उपाय बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं. 

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