Author : Hari Bansh Jha

Published on Nov 06, 2017 Updated 0 Hours ago

म्यांमार से रोहिंग्या लोगों के पलायन का सबसे अधिक असर बांग्लादेश और भारत जैसे देशों पर पड़ा है, लेकिन इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि वे नेपाल तक जा पहुंचे हैं।

जरूरी है नेपाल, बांग्लादेश और भारत में रोहिंग्या संकट से निपटना

पिछले कुछ वर्षों से, दुनिया भर में अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का सबसे ज्यादा ध्यान अपनी ओर खींचा है, तो वह है म्यांमार का रोहिंग्या समुदाय। रोहिंग्या का छोटा सा समुदाय बांग्लादेश, थाईलैंड और मलेशिया देशों में भी रहता है। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार 78 प्रतिशत रोहिंग्या बेहद गरीबी की हालत में रहते हैं और दुनिया का सबसे ज्यादा दमित जातीय समुदाय माने जाते हैं।

अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार रोहिंग्या अराकान, जिसे अब रखाइन के नाम से जाना जाता है, में अनंत काल से रहते आए हैं। लेकिन म्यांमार में रहने वाले बौद्ध, जो वहां की आबादी का 80 प्रतिशत हैं, वे रोहिंग्या लोगों को बांग्लादेश से आए “गैर कानूनी प्रवासियों” के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि वे लोग 1826 में ब्रिटेन के म्यांमार पर कब्जे के बाद रखाइन राज्य में आए थे। [1] इसलिए वे उन्हें आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 135 जनजातीय समूहों की सूची में भी नहीं शामिल करते और उन्हें 1982 के बाद से नागरिकता भी नहीं दी जा रही।

ऐसी खबरें हैं कि म्यांमार की सेना और बौद्धों लोगों की भीड़ रोहिंग्या लोगों का नरसंहार कर रही हैं, जबकि रोहिंग्या, म्यांमार की पुलिस और सेना की चौकियों पर हथियारों से हमले कर रहे हैं। म्यांमार में सैनिक शासन के दौरान रोहिंग्या पर हिंसक हमले आम बात थी, लेकिन अगस्त 2017 में, म्यांमार में आतंकवादी गुट करार दिए गए अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) द्वारा सीमा चौकियों पर किए गए कथित हमलों के बाद उनका दमन बढ़ गया है। इन हमलों में नौ अधिकारी और 400 लोग मारे गए थे। [2] तभी रखाइन के गांवों से रोहिंग्या का सफाया एक तरह से वाजिब मान लिया गया है। नतीजतन लाखों रोहिंग्या जान बचाने के लिए सड़क मार्ग या नौका के जरिए म्यांमार छोड़कर पड़ोसी देशों में जाने को मजबूर हो गए हैं। [3]

मानवाधिकार समूहों ने रखाइन में आम लोगों की हत्याओं के लिए म्यांमार की सुरक्षा एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराया है। उनके सुर में सुर मिलाते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने भी कहा है कि म्यांमार के सुरक्षा बलों ने बड़ी बेरहमी के साथ पांच लाख रोहिंग्या लोगों को रखाइन से बाहर निकाल दिया है। ऐसी खबरें हैं कि इन लोगों के मकानों, फसलों और गांवों को आग लगा दी गई है, ताकि इन लोगों की अपने मूल स्थान पर लौटने की कोशिशों को रोका जा सके। [4] यहां तक कि महिलाओं के साथ दुष्कर्म किए गए हैं। इसलिए म्यांमार से रोहिंग्या लोगों का पलायन लगातार जारी है।


मानवाधिकार समूहों ने रखाइन में आम लोगों की हत्याओं के लिए म्यांमार की सुरक्षा एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराया है।


हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत निकी हेली ने म्यांमार के हालात बयान करते हुए वहां “एक जातीय अल्पसंख्यक समुदाय का लगातार बेरहमी से सफाया’ होने की बात कही थी। [5] “वैसे म्यांमार के सेकेंड वाइस प्रेसीडेंट हेनरी वेन थियो का दावा है कि देश के अंदरूनी हालात सुधर रहे हैं और 5 सितम्बर के बाद से वहां कोई बड़ी झड़प नहीं हुई। इसी बीच, म्यांमार की सेना के सबसे ताकतवर जनरल मिन आंग हेलाइंग ने कहा है कि रोहिंग्या म्यांमार के मूल निवासी नहीं हैं, बल्कि वे स्थानीय बंगाली हैं, जो एआरएसए के नेतृत्व में सुरक्षा बलों और आम जनता पर हमले करते हैं। [6]

मीडिया रिपोर्ट्स से पता चलता है कि म्यांमार से रोहिंग्या लोगों के पलायन का सबसे अधिक असर बांग्लादेश और भारत जैसे देशों पर पड़ा है, लेकिन इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि वे नेपाल तक जा पहुंचे हैं, जो म्यांमार से 1391 किलोमीटर की दूरी पर है और उसके साथ म्यांमार की कोई साझा सीमा भी नहीं है। नेपाल और म्यांमार के बीच में भारत और/या बांग्लादेश हैं। यह अब तक पता नहीं चल सका है कि वे लोग म्यांमार की हिंसा के कारण 2012 से पलायन करते हुए नेपाल की राजधानी काठमांडू तक कैसे पहुंच रहे हैं।

ऐसे अनुमान हैं कि नेपाल में रोहिंग्या लोगों की तादाद लगभग 500 है। वे काठमांडु के कापन में निजी जमीन पर बने अस्थायी शैड्स में रहते हैं और उन्हें संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग द्वारा भोजन उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन कुछ हलकों में ऐसी आशंका व्यक्त की गई है कि बहुत से रोहिंग्या सरकारी अधिकारियों की नजर में पड़ने से बचने के लिए नेपाल के विभिन्न हिस्सों, खासतौर पर तराई क्षेत्र में रहने वाले मुसलमानों के बीच घुल—मिल गए हैं।

नेपाल की मीडिया रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि अभी हाल तक नेपाल सरकार को देश में रोहिंग्या लोगों की मौजूदगी की भनक तक नहीं थीं। इसलिए न तो उन्हें शरणार्थियों के रूप में मान्यता दी गई और न ही उन पर कोई कानूनी कार्रवाई ही हुई।


नेपाल की मीडिया रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि अभी हाल तक नेपाल सरकार को देश में रोहिंग्या लोगों की मौजूदगी की भनक तक नहीं थीं। इसलिए न तो उन्हें शरणार्थियों के रूप में मान्यता दी गई और न ही उन पर कोई कानूनी कार्रवाई ही हुई।


हाल ही में, सरकार ने रोहिंग्या लोगों को देश में दाखिल होने से रोकना शुरू कर दिया है। उनमें से कुछ को तो नेपाल—भारत सीमा के बीरगंज बॉर्डर प्वाइंट से नेपाल में दाखिल होने का प्रयास करते समय वापस भेज दिया गया। हाल ही में, नेपाल के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता राम कृष्णा ने बताया, ” नेपाल ने म्यांमार में रोहिंग्या संकट उत्पन्न होने के बाद और ज्यादा रोहिंग्या लोगों को अपने देश में दाखिल होने से रोकने के लिए सीमा पर चौकसी बढ़ा दी है,क्योंकि हम और ज्यादा संकट बर्दाश्त नहीं कर सकते।”[1]

विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल को रोहिंग्या लोगों को देश से तत्काल वापस भेज देना चाहिए,क्योंकि वे देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं। पूर्व गृह सचिव गोविंद कुसुम ने आशंका व्यक्त की है कि वे इस्लामिक स्टेट से भी प्रभावित हो सकते हैं और ऐसे में वे देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं। इसलिए उन्होंने संबंधित अधिकारियों को चेतावनी दी है कि वे उन्हें वैसा शरणार्थी का दर्जा प्रदान न करें, जैसा दर्जा नेपाल सरकार ने तिब्बती और भूटानी शरणार्थियों को प्रदान कर रखा है।

 11 सितम्बर, 2017 में रोहिंग्या संकट के विकराल रूप धारण करने के बाद से, नेपाल के तराई क्षेत्र के पश्चिमी हिस्से में बांके जिले की नेपालगंज नगरपालिका में रहने वाले मुस्लिम समुदाय ने रैली निकाली। उन्होंने चीफ डिस्ट्रिक ऑफिसर रमेश के सी को ज्ञापन भी सौंपा। उनकी मांग थी कि नेपाल सरकार, म्यांमार सरकार पर रोहिंग्या लोगों का दमन रोकने का दबाव बनाए।

अकेला नेपाल ही नहीं है, जो रोहिंग्या को अपनी सुरक्षा के लिए खतरे के तौर पर देख रहा है, बल्कि बांग्लादेश और भारत में भी बिल्कुल इसी तरह से इन्हें सुरक्षा के लिए खतरा माना जा रहा है, जहां वे शरणार्थी के रूप में काफी बड़ी तादाद में रह रहे हैं। बांग्लादेश को रोहिंग्या लोगों का सबसे ज्यादा असर झेलना पड़ा है, क्योंकि म्यांमार से पलायन करने वाले लगभग पांच लाख रोहिंग्या लोगों ने बांग्लादेश में ही शरण ली है। बांग्लादेश सरकार को उनके राहत और पुनर्वास के काम पर रोजाना उन पर दस लाख डॉलर जितनी रकम खर्च करनी पड़ रही है। [7] इसलिए आवामी लीग सहित बांग्लादेश की विपक्षी पार्टियां सरकार की बेहद आलोचना कर रही हैं।

इस संकट से निपटने के लिए, बांग्लादेश ने प्रत्येक रोहिंग्या के लिए सरकार के पास अपना पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया है। अगर कोई रोहिंग्या ऐसा नहीं करेगा, तो वह सरकार की ओर से मिलने वाले किसी भी लाभ को पाने का हकदार नहीं होगा। साथ ही बांग्लादेशी नागरिकों से भी कहा गया है कि वे इन लोगों की गतिविधियों के बारे में कानून प्रवर्तन एजेंसियों को जानकारी देते रहें।


इस संकट से निपटने के लिए, बांग्लादेश ने प्रत्येक रोहिंग्या के लिए सरकार के पास अपना पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया है।


संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें अधिवेशन के दौरान अपने संबोधन में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इच्छा व्यक्त की कि संयुक्त राष्ट्र इस शरणार्थी समस्या से प्रभावी रूप से निपटने के लिए म्यांमार के भीतर ही अंतर्राष्ट्रीय निगरानी में रोहिंग्या लोगों के लिए ‘सुरक्षित क्षेत्र’ बनाए। उन्होंने यह भी इच्छा व्यक्त की कि बांग्लादेश में रह रहे रोहिंग्या लोग सुरक्षित परिस्थितियों में म्यांमार के रखाइन लौट जाएं।

बांग्लादेश के बाद, अगर कोई देश रोहिंग्या संकट से प्रभावित है, तो वह है भारत, जिसकी 1643 किलोमीटर लम्बी सीमा म्यांमार से सटी है। भारत में लगभग 40,000 रोहिंग्या लोगों के होने के अनुमान है। दोनों देशों के बीच आवाजाही की व्यवस्था के कारण, भारत—म्यांमार सीमा के दोनों ओर 16 किलोमीटर तक के दायरे में रहने वाले लोगों को एक—दूसरे के देश में 72 घंटे तक बिना वीजा के यात्रा करने की इजाजत है। [8] सरहद पर आने—जाने की ऐसी छूट होने के कारण बहुत से रोहिंग्या भारत में दाखिल हो चुके हैं। इसके अलावा, भारत—बांग्लादेश सीमा से सटे लगभग 140 असुरक्षित स्थान ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल रोहिंग्या लोग भारत में दाखिल होने के लिए करते हैं।

भारत, आतंकवाद से पीड़ित देशों में से है, इसलिए वह रोहिंग्या के प्रवेश के प्रति धीरे—धीरे संवेदनशील होता जा रहा है। ऐसा अंदेशा है कि उनमें से कुछ अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों से प्रभावित हो सकते हैं। यह भी एक कारण है, जिसकी वजह से उन्हें देश से निकालने की तैयारी की जा रही है। भारत के गृह मंत्री राजनाथ सिंह को उन्हें देश से बाहर नहीं निकाले जाने का कोई कारण दिखाई नहीं देता, क्योंकि वे लोग गैर कानूनी तौर पर ही भारत में रह रहे हैं। हाल ही में उन्होंने अपने बयान में कहा था, ”रोहिंग्या शरणार्थी नहीं हैं और न ही उन्होंने शरण ली है। वे लोग गैर कानूनी प्रवासी हैं।” भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि, 1951 पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए उस पर रोहिंग्या लोगों को वापस न भेजने जैसी कोई बाध्यता नहीं है। [9] नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ—साथ मानवाधिकारों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त जियाद  राद अल—हुसैन ऐसे किसी भी कदम की घोर आलोचना करते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन लोगों को वापस भेजना एक तरह मानवीय मामला है और सरकार ऐसा कुछ भी करने से पहले इस बारे में बहुत गंभीरता से​ विचार करना चाहिए।

वैसे उम्मीद की किरण यही है कि म्यांमार सरकार ने ऐसा संकेत दिया है कि उसे उन रोहिंग्या लोगों को अपने देश में वापस लेने में कोई समस्या नहीं है, जो उसके नागरिक हैं। म्यांमार की काउंसलर आंग सान सू की ने हाल ही में कहा था कि रोहिंग्या उचित सत्यापन प्रक्रिया के बाद म्यांमार लौट सकते हैं। भारत और बांग्लादेश, रोहिंग्या लोगों के आने से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, इसलिए उन्हें इस संकट का समाधान करने के लिए इस मामले में एक जैसा रुख अपनाना चाहिए। इस संदर्भ में, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का यह सुझाव काफी व्यावहारिक जान पड़ता है कि रोहिंग्या लोगों के लिए म्यांमार के भीतर ही संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में ‘सुरक्षित क्षेत्र’ बनाए जाएं। लेकिन यह कोई नहीं जानता कि रोहिंग्या लोगों को उनके देश में कैसे वापस भेजा जाए, जबकि वहां उनका सफाया हो जाने की आशंका है, इसलिए इस समस्या का मानवीय पहलु भी है। नेपाल, भारत और बांग्लादेश के लिए महत्वपूर्ण यही होगा कि वे अपनी सीमा पर सतर्कता बढ़ा दें, ताकि अवांछित लोग उनके देश में दाखिल न हो सके। लेकिन उससे कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि, वे अपने कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए म्यांमार सरकार पर रोहिंग्या लोगों को वापस बुलाने और उन लोगों को उनकी जगह पर दोबारा शांतिपूर्वक बसाने के लिए दबाव बनाएं। इसके लिए उनके जीवन की परिस्थितियों में सुधार लाना भी महत्वपूर्ण होगा।


संदर्भ

[1] PressTV, “Fleeing violence at home, Rohingya Muslims face difficulties in India, Nepal, Bangladesh,” September 17, 2017, in http://www.presstv.com/Detail/2017/09/17/535440/Rohingya-difficulties-India-Nepal-Bangladesh.

[1] Kelly, Liam, “Myanmar: Who are the Rohingya,” Newsweek, December 1, 2017.

[2] Al Jazeera Network, “Myanmar: Who are the Rohingya?”September 28, 2017.

[3]Ibid.

[4] Birsel, Robert and Aung, Thu Thu, “Myanmar army chief says Rohingya Muslims “not natives,” numbers fleeing exaggerated,” Reuters, in https://www.reuters.com/article/us-myanmar-rohingya/myanmar-army-chief-says-rohingya-muslims-not-natives-numbers-fleeing-exaggerated-idUSKBN1CH0I6

[5] Ibid.

[6][6] Ibid.

[7] Sen, Gautam, “Fallout of the Rohingya Issue on Bangladesh’s Domestic Politics,” IDSA, October 3, 2017.

[8] Chauhan, Neeraj, “Rohingya exodus from Myanmar: Centre reviews Free Movement Regime at Indo-Myanmar border,” The Times of India, September 25, 2017.

[9] Ibid.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.