Published on Mar 07, 2018 Updated 0 Hours ago

भारतीय बैंकों को फंसे कर्जों से जुड़ी जिस गंभीर समस्‍या से जूझना पड़ रहा है उनमें से सभी मामलों का वास्‍ता घपलेबाजी से नहीं है।

पीएनबी घोटाले से बड़ी रकम जुटाने की सरकारी क्षमता प्रभावित!

हीरा कारोबारी नीरव मोदी और उसके सहयोगियों के नियंत्रण वाली कंपनियों को कथित तौर पर लाभ पहुंचाने की नीयत से पंजाब नेशनल बैंक की मुंबई स्थित एक शाखा में जितना बड़ा घोटाला हुआ है उसने सभी को सकते में डाल दिया है। जितनी आसानी से संबंधित बैंकिंग प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई और जितने लंबे समय तक यह गोरखधंधा चलता रहा उससे यह प्रतीत होता है कि इस तरह की अन्‍य घपलेबाजी भी संभवत: जारी रही है, लेकिन अभी तक इनका खुलासा नहीं हो पाया है। बेशक, भारतीय बैंकों को फंसे कर्जों से जुड़ी जिस गंभीर समस्‍या से जूझना पड़ रहा है उनमें से सभी मामलों का वास्‍ता घपलेबाजी से नहीं है। कुछ मामलों में कर्जों के पुनर्भुगतान से जुड़ी समस्याएं लंबे समय तक जारी सुस्‍ती के चलते गंभीर हुई हैं। हालांकि, इसके बावजूद यह स्‍पष्‍ट है कि भारतीय बैंकों, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जोखिम प्रबंधन की ढुलमुल व्‍यवस्‍था ने कर्ज देने की उनकी क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित किया है। ये बैंक स्थायित्‍व अथवा अपने सतत परिचालन के लिए सार्वजनिक या सरकारी धन पर ही निर्भर हैं।

हालांकि, सार्वजनिक धन या सरकारी खजाने की हालत स्‍वयं ही तंग है। ऐसे में सरकारी खर्चों पर अंकुश लगाने की नौबत आ गई है। कच्‍चे तेल की कीमतों में नरमी से लाभ उठाकर कुछ वर्षों तक सरकार का व्यय, विशेष कर पूंजीगत व्यय बढ़ाया जाता रहा, लेकिन सरकार के लिए स्थितियां अब इस मोर्चे पर कठिन हो गई हैं। ढेर सारी उम्मीदें वस्‍तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने से जुड़ी हुई थीं। यह आशा व्यक्त की गई थी कि इससे सरकार के राजस्व में क्रांति आ जाएगी। वैसे तो यह प्रतीत होता है कि कर प्राप्तियां या राजस्‍व वास्तव में बढ़ गया है, लेकिन दुर्भाग्‍यवश यह वृद्धि अब तक भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं रही है।

ये दो घटनाक्रम ऐसे समय में हुए हैं जब भारत को अत्यधिक पैसा खर्च करने की जरूरत है: पेरिस समझौते में अभिव्यक्त किए गए अपने जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कार्बन समतुल्‍यता और इसमें कमी करने पर; देश को अपनी विशाल युबा आबादी के रूप में मिली बढ़त से लाभ उठाने के लिए सामाजिक क्षेत्र, विशेष रूप से स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर; और विनिर्माण क्षेत्र से फायदे की गुंजाइश बनाए रखने के लिए ‘सुदृढ़’ बुनियादी ढांचे पर। वित्त मंत्री ने कुछ समय प‍हले कहा था कि अगले दशक में बुनियादी ढांचे पर भारत को 1.5 लाख करोड़ (ट्रिलियन) डॉलर खर्च करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर आने वाली लागत के साथ-साथ भारतीय आजीविकाओं को जलवायु की मार से बचाने पर आने वाली अतिरिक्‍त लागत और कार्बन उत्‍सर्जन में कमी करने की दिशा में अपनी ओर से किए जाने वाले प्रयासों पर आने वाली लागत को भी जोड़ने पर वास्तव में कुल व्‍यय का एक अत्‍यंत चुनौतीपूर्ण आंकड़ा उभर कर आपके सामने आएगा।

यह स्‍पष्‍ट है कि इतने ट्रिलियन डॉलर सरकार की ओर से नहीं आ सकते हैं क्योंकि इतने अधिक संसाधनों को इकट्ठा करने में सरकार असमर्थ है। यह असमर्थता महज कुछ हफ्ते पहले पेश किए केंद्रीय बजट में स्पष्ट रूप से नजर आ रही थी।

यह भी स्पष्ट है कि बैंकिंग क्षेत्र इतने बड़े पैमाने पर धन जुटाने के मामले में एक सक्षम पाइपलाइन के रूप में काम नहीं कर रहा है। पीएनबी घोटाले जैसे लीकेज को इस संबंध में जटिल विफलताओं के एक हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए जिसका मतलब यही है कि भारतीय बैंक जोखिम का समुचित आकलन एवं भुगतान के रूप में आवश्यक राशि तय करने और उचित ढंग से धनराशि को आवंटित करने में असमर्थ हैं।

इसका मतलब यही है कि यदि इस धनराशि के वैकल्पिक स्रोत नहीं मिल पाए तो अंतत: भारत को इतने ट्रिलियन डॉलर के बिना ही अपना काम चलाना होगा। सौभाग्वश, पूंजी के ऐसे पूल या स्रोत वास्तव में मौजूद हैं। पश्चिमी देशों और जापान के उम्रदराज लोगों के पास विशाल बचत राशि है जिस पर वे पर्याप्‍त रिटर्न अर्जित नहीं कर पा रहे हैं। परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में कम ब्याज दरों और विकास संभावनाओं का यही मतलब है कि दीर्घकालिक पूंजी के ये पूल अथवा स्रोत मुख्‍यत: अनुत्पादक साबित हो रहे हैं। ये ऐसी जरूरतें हैं जो एक-दूसरे को प्रतिबिंबित करती हैं: दरअसल, इन देशों एवं समाजों को अपनी बचत पर बेहतर रिटर्न की आवश्यकता है, भारत जैसे विकासशील देशों को अपने भावी विकास में निवेश करने के लिए दीर्घकालिक पूंजी जुटाने की जरूरत है।

जब मांग और आपूर्ति में इस हद तक तालमेल है, तो बाजार को अवश्‍य ही तर्कसंगत ढंग से विकसित किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, हम पूंजी के वैश्विक स्रोतों से भारत के सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे में वर्तमान राशि के मुकाबले कहीं अधिक धन प्रवाह की उम्‍मीद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सरकार के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक लाभकारी नवीकरणीय ऊर्जा बुनियादी ढांचा बनाने के अहम कार्य में हम वर्तमान राशि के मुकाबले कहीं अधिक धन प्रवाह की आशा कर सकते हैं। वैसे तो पूंजी के इस तरह के पूल या स्रोतों की ओर से परिवहन संबंधी बुनियादी ढांचे में कुछ अस्‍थायी रुचि देखी गई है, उदाहरण के लिए पेंशन फंडों ने सड़कों में निवेश किया है, लेकिन विशेष रूप से बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में अपेक्षा से कम हो रहे वित्त पोषण की तुलना में यह धनराशि मामूली है। इसका कारण यह है कि भारतीय निजी क्षेत्र वर्तमान में खर्च करने में असमर्थ है।

आपूर्ति दरअसल मांग से जुड़ जाती है और ऐसे में जो जुड़ाव होता है उसकी बदौलत धन का प्रवाह सुनिश्चित होता है। इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक धन नहीं आ रहा है। इसके बजाय शेयर बाजारों और स्टार्ट-अप, इत्‍यादि में नकदी का अल्पकालिक प्रवाह होता है। अत: यह एक संकेत है कि बाजारों के सामान्य कामकाज में कहीं न कहीं कोई बाधा है।

दूसरे शब्दों में, सरकार की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि पूंजी के इन पूलों या स्रोतों को जुटाया जाए और विशेषकर जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील माने जाने वाले बुनियादी ढांचे, परिवहन प्रणालियों और नवीकरणीय ऊर्जा के दीर्घकालिक विकास में पूंजी के प्रवाह को बाधित करने वाले अवरोधों की पहचान की जाए। इस राह में ऐसी कई बाधाएं मौजूद हैं: नीतिगत माहौल के प्रति विश्वास का अभाव; प्रासंगिक सरकारी विभागों के बीच कार्यक्षेत्र या प्रक्षेत्र (डोमेन) संबंधी निराशाजनक ज्ञान; राज्यों एवं केंद्र की नीतियों के बीच भ्रम; प्रतिबंधात्मक भूमि एवं श्रम नीतियां और सरकार प्रेरित पूंजीगत नुकसान को लेकर आशंकाएं। राष्ट्रीयकृत बैंकों के परिचालन में सुधार के लिए व्यर्थ कोशिश करने, जो उनके स्वामित्व की वजह से है और जिसमें सुधार होने की गुंजाइश नहीं है, अथवा भारतीय करदाता को और ज्‍यादा निचोड़ने की कोशिश करने के बजाय सरकार को उन क्षेत्रों (सेक्‍टर) में निवेश करने और सुरक्षित रिटर्न अर्जित करने को आसान बनाना चाहिए, जहां सर्वाधिक वित्‍त पोषण की कमी देखी जा रही है।

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