Published on Feb 29, 2020 Updated 0 Hours ago

यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारी अर्थव्यवस्था में मांग की कमी है, जिसके सुधार की ज़रूरत है. लोग खर्च करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि उनके पास ऐसी स्थिति नहीं है.

बैंकों पर कम हो सरकारी दबाव

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने सही ही कहा है कि यह एक सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए कि जो बैंकों से कर्ज़ लेना चाहते हैं, उन्हें कर्ज़ मिले. यदि बैंक किन्हीं कारणों से कर्ज़ मुहैया नहीं करा पा रहे हैं, तो उन्हें ग्राहकों को इसकी वजह भी ठीक से बतानी चाहिए. इस ज़रूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बैंकों को ग्राहकों से अच्छा व्यवहार भी करना चाहिए, क्योंकि आखिरकार दोनों का संबंध भरोसे का होता है.

बैंकों में कर्ज़ के आवेदनों के निपटारे की प्रक्रिया में क्रेडिट एजेंसियों द्वारा बैंक को उपलब्ध कराये गये ग्राहक के वित्तीय व्यवहार और चुकाने से संबंधित जानकारियों की बड़ी भूमिका होती है. वित्तमंत्री का यह कहना भी ठीक है कि इन जानकारियों को आंख मूंदकर पालन करने का कोई निर्देश रिजर्व बैंक या इंडियन बैंक एसोसिएशन की ओर नहीं दिया गया है.

पर, हमें यह भी समझना होगा कि कुछ मामलों में कर्ज़ देने में बैंकों के रवैये में नकारात्मकता हो सकती है, पर कर्ज़ लेने और देने से जुड़ी सभी समस्याओं के लिए बैंकों को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना भी उचित नहीं है. इस संदर्भ में मौजूदा स्थिति पर एक नज़र डालना जरूरी है.

लोग कर्ज़ ले रहे हैं कि नहीं, ये सब कर्ज़ की मांग पर निर्भर करता है. यह बैंक पर निर्भर नहीं करता है, क्योंकि वह केवल कर्ज़ की आपूर्ति कर सकता है. अगर ऐसी समस्याएं नहीं हैं, तो सवाल यह है कि बड़े औद्योगिक घराने आखिर कर्ज़ क्यों नहीं ले रहे हैं.

यह आज की समस्या नहीं है, बल्कि बीते दो-तीन सालों से यह बनी हुई है. सरकार केवल सरकारी बैंकों पर दबाव बना रही है या बना सकती है. इन बैंकों पर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का पहले से ही बहुत बोझ है. आकलन के मुताबिक, मौजूदा एनपीए 9.5 लाख करोड़ के आसपास हो सकता है.

मार्च के बाद जब इसमें छोटे व मझोले कारोबार की ऐसी परिसंपत्तियों को इस राशि में जोड़ा जायेगा, तो यह समस्या और भी गंभीर हो जायेगी. एक समय में कहा जाता है कि प्राथमिक क्षेत्र की ज़िम्मेदारी सार्वजनिक बैंकों पर है. कृषि समेत अन्य छोटे-मोटे कर्ज़ का भार बैंकों पर डाला जाता रहा है.

लेकिन, चार-पांच साल में बहुत कुछ तब्दीली आयी है. अगर आंकड़ों को देखें, तो गैर-प्राथमिक क्षेत्र का एनपीए प्राथमिक क्षेत्र के मुकाबले बहुत अधिक है. गैर-प्राथमिक क्षेत्र में दबाव बहुत अधिक है. सरकार ऐसी स्थिति में निजी क्षेत्र के बैंकों पर अधिक दबाव नहीं डाल सकती है, पर सरकारी बैंकों पर दोहरा दबाव पड़ रहा है.

मुद्रा योजना के तहत दिये गये कर्जों के साथ ऊर्जा क्षेत्र के 80 तथा टेलीकॉम क्षेत्र के 92 हजार करोड़ के आसपास की राशि का दबाव भी मार्च के बाद आयेगा. अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए सरकार द्वारा घोषित आसान शर्तों पर सूक्ष्म, छोटे और मझोले कारोबारों के लिए कर्ज़ मुहैया करने का भार भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर है.

रिपोर्टों के मुताबिक, मुद्रा योजना में साढ़े चार साल में 17 हजार करोड़ रुपये का एनपीए है और इसके अलावा दो लाख करोड़ का राइट-ऑफ भी हुआ है. कृषि क्षेत्र में 2019 के मध्य तक सार्वजनिक बैंकों की एक लाख करोड़ से अधिक राशि फंसी हुई है. घंटे भर के भीतर कर्ज़ देने की योजना में क्या हुआ है, इसका आकलन होना बाकी है.

इसी तरह से चार सालों में 10 राज्यों में ढाई लाख करोड़ के आसपास खेती के कर्ज़ माफ किये गये हैं. संयुक्त राष्ट्र की रपट के मुताबिक कॉरपोरेट कर्ज़ भारत के सकल घरेलू उत्पादन के 40 फीसदी से अधिक हो चुका है. गैर बैंकिंग कर्जों की भी बड़ी राशि फंसी हुई है.

अब आप कहेंगे कि फलां आदमी को या फलां इंडस्ट्री को कर्ज़ दे दो.

दबाव बनाने की यह प्रक्रिया सरकारी बैंकों के लिए खतरनाक साबित हो रही है. मुद्रा लोन की वजह से भी कई तरह की समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं.

मुद्रा योजना में जितनी राशि बांटी गयी है, उससे एनपीए का बोझ कई बैंकों पर पड़ा है.

अगर यह बोझ पूरा का पूरा किसी एक सरकारी बैंक पर डाल दिया जाये, तो वह बैंक बैठ जायेगा. यह सब करने के बाद अगर बैंक की हालत ख़राब हो जाती है, तो तर्क गढ़ा जाता है कि अब बैंक का निजीकरण या विलय कर दिया जाना चाहिए, जिससे इस समस्या का समाधान हो जायेगा.

सरकारी बैंकों के लिए आगे और पीछे दोनों तरफ से मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं. यह समस्या इस सरकार में ही नहीं, बल्कि पूर्ववर्ती सरकारों में भी रही है. यूपीए सरकार के दौरान बांटे गये कर्ज़ से बैंकों पर एनपीए का बोझ बढ़ता गया. ज्यादातर एनपीए 2004-05 से लेकर 2008-09 के बीच का है.

उस समय अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चल रही थी, लिहाजा धड़ाधड़ कर्ज़ बांटे गये, बाद में उसका असर बैंकों पर पड़ा. खासकर इंफ्रास्ट्रक्चर और हाउसिंग आदि सेक्टर में बिना सोचे-समझे ख़ूब कर्ज़ बांटे गये. अब सारे सेक्टर की हालत ख़राब हो रही है. कई क्षेत्रों में आ रही मंदी की वजह से फंसे कर्ज़ का बोझ भी तेजी से बढ़ रहा है और बैंकों के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में कर्ज़ देने में बैंकों की हिचक या आज की हालत में बैंकों को दोष देना सही नहीं है.

अगर ये समस्याएं दूर भी हो जाती हैं, लेकिन आगे व्यवस्था सही नहीं होगी, तो नयी समस्याएं फिर से खड़ी हो जायेंगी. कर्ज़ लेने के लिए किसी को विवश नहीं किया जा सकता है. यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारी अर्थव्यवस्था में मांग की कमी है, जिसके सुधार की ज़रूरत है. लोग खर्च करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि उनके पास ऐसी स्थिति नहीं है.

बढ़ती बेरोज़गारी और घटती ख़रीदारी की क्षमता में लोग क्यों कर्ज़ लेकर खर्च करेंगे? अगर उपभोक्ता के नज़रिये से देखें या आपूर्तिकर्ता के नज़रिये से देखें, तो एक ही तर्क है.

अगर आपको आमदनी की उम्मीद नहीं है, तो आप क्यों खर्च करेंगे. मांग की कमी की वजह से उद्योग जगत भी निवेश करने का फैसला लेने से हिचक रहा है.

यह भी है कि जिसे ज़रूरत है, उसे कर्ज़ मिल रहा है. बैंकों द्वारा कर्ज़ देने की एक प्रक्रिया होती है. वे व्यक्तिगत कर्ज़ और औद्योगिक कर्ज़ की मांग का परीक्षण अनेक मानकों के मुताबिक करते हैं.

यह भी कहा जाना चाहिए कि सरकारी बैंकों में अपेक्षाकृत यह प्रक्रिया धीमी या नरम है. हां, यह ज़रुर होना चाहिए कि बैंकों को भी गुंजाईश पर ग्राहकों को तरजीह देने की कोशिश की जानी चाहिए. साथ ही, अर्थव्यवस्था में व्याप्त मांग की कमी दुरुस्त की जानी चाहिए, ताकि वृद्धि की रफ्तार बढ़े और बैंकों का कारोबार भी बेहतर हो.


यह लेख मूल रूप से प्रभात ख़बर में छप चुका है.

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