Author : Parjanya Bhatt

Published on Oct 22, 2018 Updated 0 Hours ago

डिजिटल मीडिया के प्लेटफार्म कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के नये उपकरण साबित हो रहे हैं। झूठ पर टिके मनोवैज्ञानिक युद्ध में सोशल मीडिया का जम कर का इस्तेमाल किया जा रहा है।

कश्मीर में प्रभावी आतंकविरोधी अवधारणा तैयार करें

थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने हाल ही में सूचना युद्ध महानिदेशालय (डीजीडब्लूआई) गठित करने का विचार रखा है। ये महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन ये ऐलान ऐसे मौके पर हुआ है जिसके कुछ दिन पहले ही पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) ने एक अखबार में विज्ञापन देकर युवाओं को कश्मीर में साइबर जेहाद छेड़ने का खुला आमंत्रण दिया है। ये वाकई में वक्त की मांग है कि आपके पास समर्पित विशेषज्ञों की टीम हो जो निर्धारित जनसमूह के साथ तेजी और स्पष्टता के साथ संवाद स्थापित करे लेकिन दिख ये रहा है कि जिस समय भारत आतंकवादियों द्वारा छेड़े गये सूचना युद्ध से मुकाबला करने पर चर्चा में व्यस्त है तब तक ये आतंकवादी देश के खिलाफ तत्काल युद्ध के अगले चरण में प्रवेश कर गये हैं।

सूचना युद्ध के महत्व को कम करके नही देखा जा सकता क्योंकि सूचना युग में सैन्य ऑपरेशन की सफलता को सिर्फ जमीनी कामयाबियों के आधार पर नहीं आंका जा सकता है।

कश्मीर के आबादी वाले इलाकों में जहां उग्रवाद विरोधी अभियान जारी है वहां सैन्य कार्रवाइयों की सफलता काफी हद तक जनमत पर निर्भर करती है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समूहों के साथ साथ उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के निवासियों को प्रभावित करने की क्षमता का हमेशा से ही महत्व रहा है लेकिन मीडिया के वैश्वीकरण ने जनमत तैयार करने और उसे बदलने के अनेकानेक और व्यक्तिपरक रास्ते खोले हैं। इस मामले में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन भारतीय एजेंसियों के मुकाबले में आगे नजर आ रहे हैं। भारत को इसमें विशेषज्ञता हासिल करने की जरूरत है।

कश्मीर में सूचना युद्ध 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध से ही चल रहा है जब भारत विरोधी ताकतें स्थानीय अखबारों, पर्चों और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों के जरिये कश्मीरी समाज से संवाद स्थापित किया करती थीं। उस दौरान की बात करें तो भारत समर्थक और उदारवादी आवाजों को कुचलने की कोशिशें होती थीं, नारेबाजी ना सिर्फ भारतविरोधी होती थीं बल्कि उनमें आपत्तिजनक धार्मिक असर दिखता था और सिनेमाघरों को इस्लाम विरोधी घोषित करते हुए बंद कर दिया गया था। ये सब कुछ आज भी जारी है लेकिन अब डिजिटल मीडिया के प्लेटफार्म कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के नये उपकरण साबित हो रहे हैं। झूठ पर टिके मनोवैज्ञानिक युद्ध में सोशल मीडिया का जम कर का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका प्रसार और प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि इसके प्रसार पर नियंत्रण करने या सूचना की सत्यता की जांच के लिए कोई भी भारतीय एजेंसी नहीं है। सोशल मीडिया पर भड़काऊ संदेशों के लगातार प्रसार की वजह से ऐसा माहौल बना है जिसका समाधान निश्चित अवधि में संभव नहीं दिख रहा। ये संदेश पूरी आबादी पर असर डालते हैं और युवाओं को भड़काते हैं और बाद में सरकार को इन सबकी जानकारी हो पाती है।

कश्मीर में सूचनाओं का बवंडर है जो हर घर में अनेकों सेटेलाइट टेलीविजन चैनलों और मोबाइन फोन के जरिये पहुंचता है।

अब राज्य और मीडिया घराने ही सिर्फ समाचार प्रसारणकर्ता नहीं हैं। समाचार और सूचना के निर्माता और इसके प्राप्तकर्ता का दायरा विभिन्न स्तरों पर कई गुना फैल चुका है। कश्मीर में माहौल तैयार करने के नये डिजिटल खेल में चार मुख्य खिलाड़ियों की प्रमुख भूमिका है। इनमें पीड़ित आबादी जो उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के लोग हैं, आतंकवादी संगठन जो बदलाव के एजेंट हैं, विरोधी राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय शामिल हैं। इनमें पहली दो श्रेणियां प्राथमिकता पर हैं जिनके साथ नये तरीकों से संवाद स्थापित करने और रणनीतिक तैयारी के साथ निपटने की जरूरत है। बाद की दो श्रेणियां विदेश नीति और कूटनीति के दायरे में आती हैं।

सिर्फ रणनीतिक संवाद के जरिये ही पीड़ित आबादी को बेहतर तरीके से प्रभाव में लिया जा सकता है और इसमें संवाद का तरीका काफी मायने रखता है। किसी भी संवाद रणनीति में किसी बात को कहने का अंदाज काफी महत्वपूर्ण होता है, जिसमें सच और झूठे प्रचार की असलियत का खुलासा करने क्षमता होती है। बुरहान वानी प्रकरण आतंकवादी संगठनों के प्रभावी संवाद रणनीति का एक सटीक उदाहरण है। एक तरफ आतंकवादी संगठनों ने युवाओं को आतंकवाद के प्रति लुभाने के लिए सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया जबकि भारतीय एजेंसियां झूठे संदेशों के प्रवाह से निबटने में नाकाम रहीं और इस वजह से मौका पड़ने पर ई-कर्फ्यू का सहारा लिया। मुठभेड़ में मारे जाने के पहले ही बुरहान वानी कश्मीर में आतंकवाद का पोस्टर ब्वॉय बन चुका था और इसका मुख्य कारण ये था कि वो सोशल मीडिया के जरिये अपने पक्ष की कहानी बेहतर तरीके से बताने में कामयाब रहा।

शक्तिशाली सैन्य अभियानों को भी युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ सकता है यदि राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व पीड़ित आबादी के साथ प्रभावी तरीके से संवाद स्थापित करने में विफल रहता है। भारत के खिलाफ छद्म युद्ध में तेजी आई है। भारत की सफलता और विफलता का फैसला कश्मीरी समाज को वैचारिक रूप से प्रभावित करने की उसकी क्षमता के आधार पर होगा। आतंकवाद और हिंसा संवाद के प्रभावी माध्यम रहे हैं और इनसे सैन्य तरीकों से ही निपटा जा सकता है लेकिन मित्रों, विरोधियों और आम आबादी के व्यवहार को प्रभावित करना भी काफी महत्पूर्ण है।

कश्मीर भारत की पकड़ से बाहर जा रहा है — इसे लेकर जारी बहस का केन्द्र इस पर भौतिक कब्जे की बजाय मनौवैज्ञानिक और वैचारिक नियंत्रण के आधार पर ज्यादा है। इसे कश्मीर में सक्रिय सभी ताकतों के साथ सिर्फ रणनीतिक संवाद के जरिये निपटा जा सकता है।

इस प्रक्रिया में सूचना की वैधता और उसकी विश्वसनीयता पीड़ित आबादी का भरोसा जीतने का प्रमुख कारक है। इस प्रक्रिया के साथ साथ आतंकवादी दुष्प्रचार की पोल खोलने और उसे अवैध साबित करने का प्रयास भी चलते रहना चाहिए। लड़ाकों और गैर लड़ाकों, प्रदर्शनकारियों और तमाशाइयों, विदेशी और स्थानीय आतंकवादी संगठनों के बीच का भेद धुंधला हो गया है और इसलिए समाज और आतंकवादी संगठनों को दी जाने वाली सूचनाएं परस्पर विरोधी नहीं होनी चाहिए। इसका उपाय कश्मीरियत पर आधारित एक सशक्त अवधारणा तैयार करने में है।

कश्मीरियत अपने आप में ही एक अनोखी कहानी है जो चरमपंथी हिंसा के प्रभाव में लुप्त हो गयी है। कश्मीरियत को डिजिटल प्लेटफार्मों के जरिये घाटी में लोगों को फिर से बताने और उससे परिचित कराने के साथ साथ मस्जिदों और मंदिरों वाले सामाजिक ढांचे को बनाये रखने की जरूरत है। हांलाकि कश्मीर के मूल बाशिंदों यानि हिंदू पंडितों को शामिल किये बगैर कहानी पूरी नहीं हो सकती। घाटी में उनका पुनर्वास और समावेशन रणनीतिक संवाद स्थापित करने की दिशा में एक अनिवार्य कदम है ताकि वहां नया माहौल बन सके।

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