Author : Vinayak Dalmia

Published on Sep 26, 2017 Updated 0 Hours ago

पिछले सत्ता परिवर्तनों के दौरान, सेना द्वारा न्यायालय का इस्तेमाल अपने कार्यों को 'न्यायोचित' ठहराने के लिए, उस काम को अंजाम तक पहुंचाने के बाद किया जाता था। इस बार न्यायालय के इस्तेमाल के जरिए ही इस प्रक्रिया की शुरूआत की गई — यह पाकिस्तान में नए किस्म की कार्य प्रणाली साबित हो सकती है — जिसमें सेना को भी राजनीतिक उपलब्धियां हासिल करने के लिए न्यायालय पर मजबूती से निर्भर रहना पड़े। पूर्व प्रधानमंत्री शरीफ की बर्खास्तगी की पृष्ठभूमि में, ऐसा लगता है कि सत्ता में परिवर्तन लाने का मार्शल लॉ का तरीका पुराना साबित हो चुका है। यह लेख पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के इतिहास और इस बात की तह तक जाता है किस तरह जनरल हैडक्वार्टर — जीएचक्यू के इशारे पर — राजनीतिक उपलब्धियां हासिल करने के लिए न्यायालयों का इस्तेमाल किया जाता रहा है।

न्यायालय द्वारा तख्ता पलट: पाकिस्तान सेना की नई कार्य प्रणाली!

हाल के महीनों में पाकिस्तान में कानून के गलियारों में काफी हलचल रही । इस नाटक की प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पद से बेदखल किए जाने के साथ शुरूआत हुई। इसके बाद नेशनल अकाउंटबिलिटी ब्यूरो (एनएबी) ने पूर्व प्रधानमंत्री के परिवार की परिसम्पत्तियों को जब्त करने का आदेश दिया। कुछ दिन बाद एक अन्य अप्रत्याशित घटना में पाकिस्तान के एक न्यायालय ने पूर्व सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ को पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या के मुकदमे में “भगोड़ा” घोषित कर दिया। ये घटनाएं महज इत्तेफाक नहीं हैं। यह वहां उभर रही एक नई कार्यप्रणाली है, जिसमें न्याय चक्र को, रावलपिंडी की तरकश के नए तीर की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

अरबी शब्द सादिक और अमीन का अर्थ ईमानदार और नेक है। कहते हैं कि इन शब्दों में चट्टानों को सरकाने की ताकत है। लेकिन क्या कभी किसी ने इस बात की कल्पना तक की थी कि इन सीधे-सादे विशेषणों में किसी प्रधानमंत्री को सत्ता से बेदखल करने और किसी राजनीतिक तख्ता पलट की साजिश रचने की क्षमता मौजूद है। नवाज शरीफ को दो बार पहले ही बर्खास्त किया जा चुका है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है, जब यह कार्य न्यायालय के हाथों सम्पन्न किया गया।

शरीफ का परिवार लम्बे अर्से से पाकिस्तान में अपने कई तरह के कारोबारों के साम्राज्य और पंजाब पर राजनीतिक पकड़ के साथ सत्ता का महत्वपूर्ण गढ़ रहा है। नवाज शरीफ तीन बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हो चुके हैं, जबकि उनके भाई शहबाज का बतौर पंजाब के मुख्यमंत्री यह तीसरा कार्यकाल है। यह परिवार सेना की मौन स्वीकृति से पुरातन भुट्टो परिवार का विरोधी बनकर उभरा। लेकिन राजनीति में शायद ही कभी स्थायी गठबंधन या साथी रह पाते हैं।

पनामा पेपर्स में गैरकानूनी तौर पर जोड़े गये धन विशेषकर विदेशों में परिसम्पत्तियों का चिंताजनक विवरण था। सबसे ज्यादा हास्यास्पद बात यह है कि यह कड़ी सजा 1,75,000, आईएनआर की प्राप्त राशियों की वजह से हुई, जबकि न्यायालय के हस्तक्षेप का वास्तविक कारण बने पनामा लीक्स में कथित तौर पर शामिल लाखों को पूरी तरह भुला दिया गया। पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने इसे “न्यायिक तख्ता पलट” करार दिया है और कहा है कि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट “सरकार का हथियार बनकर काम करने का इच्छुक है” — जबकि विपक्षी दल इस जीत को “कानून का शासन” मानकर जश्न मना रहे हैं। यह देखना रोचक होगा कि आखिर कब तक वे — ‘बहुत ईमानदार’ और ‘नेक’ शब्दों के कोप का भाजन बनने से बचे रहते हैं।

2013 में निर्वाचन के बाद, नवाज शरीफ प्रधानमंत्री और संविधान की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अपनी विदेश नीति के एजेंडे के साथ विशेषकर भारत के दृष्टिकोण से, कोई भी मित्र नहीं बनाया। इसका पलटवार होने का अंदेशा तो था ही। महल की तरफ सैनिकों और मशीनों को कूच कराने की जगह को न्यायायल के फैसले तरजीह दी गई।

पाकिस्तानी अदालतों, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट — रावलपिंडी के साथ साँठ-गाँठ या उसकी इच्छा से अपने आप में राजनीतिक ताकत का गढ़ बन रहा है। जीएचक्यू को नया हथियार मिल गया है, जो क्रूर सैन्य तख्तापलट से ज्यादा वास्तविक है।

इस तरह के अनुमानों को साबित करना लगभग नामुमकिन है, लेकिन इतिहास, आसपास के हालात और प्रमुख लाभार्थियों का विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए। सादिक और अमीन के बावजूद, यदि जीएचक्यू को नवाज शरीफ फायदेमंद साथी लगते, तो क्या तब भी माननीय न्यायालय का उनके प्रति यही नजरिया होता? इतना ही नहीं, यदि सेना को लगता कि न्यायालय सहायता नहीं करेगा, तो क्या तब भी वह मूक दर्शक बनी रहती?

सादिक और अमीन के प्रावधानों में कई तरह की खामियां हैं। पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 की धाराओं के तहत जनरल जिया-उल-हक द्वारा शुरू किया गया यह अस्पष्ट और बेहद आत्मपरक या सब्जेक्टिव फ्रेमवर्क है। जनरल मुशर्रफ ने इसके साथ कई और भी धाराएं जोड़ते हुए इसे और भी अव्यवहारिक आत्मवाद की ओर धकेल दिया।

जिया द्वारा शुरू किए गए — ये अनेकार्थी प्रावधान केवल 2011 में ही प्रचलन में आए, जब पाकिस्तान के पूर्व प्रधान न्यायाधीश, इफ्तिाखार मुहम्मद चौधरी ने इनका इस्तेमाल करते हुए सांसदों को अयोग्य ठहराना शुरू किया। विडम्बना तो यह है कि पनामा मामले में गठित मौजूदा पीठ के सदस्य — न्यायमर्ति आसिफ सईद खोसा ने 1988 में एक पत्रिका में लिखते हुए अनुच्छेद 62(1) (एफ) को ‘कानूनी अस्पष्टताओं का उत्सव’ घोषित किया था। लेकिन उस समय उन्होंने ऐसा कहा था, जबकि वर्तमान में उन्होंने यह किया है।

कई मोर्चों पर न्यायालय की प्रक्रियाएं नदारद रही। सबसे पहले, न्यायालय ने कोई मुकदमा नहीं चलाया — इसकी बजाए उसने उस जांच समिति के निष्कर्षों को ही स्वीकार कर लिया — जिसके छह में से दो सदस्य सेना से थे। दूसरे, इस मामले में पहली सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में नहीं होनी चाहिए थी। तीसरे, समिति असली पनामा मामले पर नहीं, बल्कि अस्पष्ट तकनीकों के आधार पर अपने निष्कर्ष तक पहुंची है।

नई बोतल, पुरानी शराब

न्यायालय के राजनीति और सेना के साथ 1951 से जटिल संबंध है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या हुई थी। यह पहली राजनीतिक हत्या थी। इस हत्या की जांच के लिए जांच आयोग का गठन किया गया, लेकिन उससे वांछित परिणाम सामने नहीं आए। इसे रावलपिंडी साजिश के नाम से जाना जाता है।

1955 में गवर्नर जनरल के मामले में, संघीय अदालत ने ‘अनिवार्यता का सिद्धांत’ पर भरोसा किया, जिसने पाकिस्तान के गवर्नर जनरल को वैधानिक क्षमता में काम करने की इजाजत दी, जबकि उसे भारत सरकार अधिनियम, 1935 तथा भारतीय स्वाधीनता अधिनियम, 1947 के मुताबिक उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। न्यायमूर्ति कार्नेलियस का मानना था कि गवर्नर जनरल के कार्य उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर थे।

1956 में संक्षिप्त अवधि के लिए, पाकिस्तान के पास प्रजातांत्रिक संविधान था। लेकिन ऐसा ज्यादा अर्से तक नहीं रह सका। 1958 में, राष्ट्रपति ने जबरदस्त राजनीतिक उठा-पटक में सरकार को बर्खास्त कर दिया तथा संसद को भंग कर दिया और जनरल अयूब खान को चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त कर दिया। इसके फौरन बाद, पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने (सरकार बनाम दोसो मामले में)फैसला सुनाया कि 1956 का संविधान शासन का दस्तावेज नहीं रह गया है उसकी श्रेष्ठता के स्थान पर ‘राष्ट्रपति की इच्छा’ (मूलभूत नियम) की श्रेष्ठता साबित की गई। इसके परिणामस्वरूप, वे सभी वैयक्तिक अधिकार, जिन्हें 1956 के संविधान में मान्यता दी गई थी, उन्हें अवैध करार दे दिया गया। इसे अपरिपक्व और जल्दबाजी में लिया गया फैसला माना गया।

1969 में, अस्मा जिलानी मामले में न्यायालय ने जनरल याहिया खान द्वारा असंवैधानिक तौर पर सत्ता पर काबिज होने को “अंतर्निहित आदेश” के मत पर निर्भर करते हुए कानूनी आधार प्रदान किया। न्यायालय एक बार फिर शासन की सहायता करने का इच्छुक दिखाई दिया। यह कई मायनों में “वैधता नहीं क्षमा” पर फोकस करते हुए अनिवार्यता के सिद्धांत से अलग होकर नया रूप लेने जैसा था।

1977 में, जनरल जिया-उल-हक ने मार्शल लॉ लागू करने का आदेश दिया और जुल्फिकार अली भुट्टो सरकार पर नियंत्रण करने की सफल साजिश रची। श्रीमती भुट्टो ने 1973 के संविधान के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। भुट्टो बनाम सेना प्रमुख मुकदमे में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने जनरल जिया-उल-हक के कदम और शासन को वैध करार दिया।

न्यायालय किसी अन्य सिद्धांत के अंतर्गत इस कदम को फिट नहीं कर सका और इसलिए उसने इसे “अनिवार्यता के सिद्धांत” के तहत न्यायोचित ठहराया। अनिवार्यता के सिद्धांत के तहत यह आवश्यक है कि कोई बाहरी नहीं बल्कि सरकार कार्रवाई करे। इस मामले में, जनरल जिया पाकिस्तान के इस कानून और भुट्टो के नेतृत्व वाली असैन्य सरकार के आदेशों की गंभीर अवहेलना करते हुए मनमाना कदम उठाया। हालांकि न्यायालय ने यह दावा किया कि उस पर शासन का कोई दबाव नहीं है, इसके बावजूद इस वक्तव्य को वास्तविकता पर गौर किए बिना स्वीकार करना मुश्किल है। अनिवार्यता के सिद्धांत को गलत रूप से इस्तेमाल किया गया और इसे अतिशय रूप से लागू किया गया। न्यायालय ने तख्ता पलट वाली शाम को दिए गए जिया के भाषण का व्यापक रूप से हवाला देते हुए इस निष्कर्ष का समर्थन किया।

कानूनी के विद्वान मार्क एम.स्टावस्की के अनुसार, तख्ता पलट में “अनिवार्यता के सिद्धांत पर निर्भरता एक पाखंड है।” उन्होंने कहा: “फैसले के बाद पाकिस्तान में हुई घटनाएं दर्शाती हैं कि सैन्य तानाशाही कानूनी प्रक्रिया का उपयोग केवल उस हद तक करेगी, जहां तक वह शासन की ताकत को मजबूत बनाने में मदद कर सके।”

आखिरकार, न्यायालय ने भुट्टो को सजा-ए-मौत सुनाई। यह एक बंटा हुआ फैसला था। सात में तीन न्यायाधीश, बहुमत के दृष्टिकोण से असहमत थे। दरअसल, न्यायमूर्ति दोराब पटेल द्वारा स्वतंत्र रूप से फैसला सुनाया गया, जो बहुमत के दृष्टिकोण से असहमत थे।

जब 2007 में मुशर्रफ का मामला आया, न्यायालय द्वारा कई घुमाव सामने आए। शुरूआत में, उसे अनिवार्यता के सिद्धांत की परिपाटी को पलट दिया, लेकिन बाद में उसका संरक्षण किया। ऐसे आरोप भी लगे कि न्यायपालिका में किसी को सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा ब्लैकमेल किया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे 11 में से 3 न्यायाधीशों के पास आपत्तिजनक वीडियो भेजे गए। इस बात पर गौर करना दिलचस्प होग कि अब न्यायालय ने बेनजीर भुट्टो हत्याकांड में मुशर्रफ के कथित तौर पर शामिल होने पर प्रतिकूल रुख अपनाया है।

पिछले कुछ वर्षों में, पाकिस्तान की शीर्ष अदालतों ने — निरंतर बदलते कानूनी सिद्धांतों को आधार बनाकर असंवैधानिक शासनों को कानूनी जामा पहनाया है। कल की अनिवार्यता आज का अमीन बन चुकी है। अगर कुछ अचल रहा है, तो वह जीएचक्यू का हाथ।

शुरूआती दौर में न्यायालयों का इस्तेमाल सैन्य कार्रवाई को अंजाम देने के बाद उसे वैधानिकता का जामा पहनाने के लिए किया जाता था। शरीफ के लिए सुनाया गया फैसला एक ऐतिहासिक घटना है, जिसमें न्यायालय पहला पड़ाव साबित हुआ और सुप्रीम कोर्ट को सेना का साथी बहाल किया गया।

अपनी ताकत के बावजूद सेना का देश और विदेश, दोनों स्थानों पर एक निश्चित दायरा है। वह बहुत ज्यादा दबाव नहीं बना सकती — इसलिए बूट्स और सितारों के बावजूद धारणा मायने रखती है। मिल-जुल कर काम करता शीर्ष न्यायालय महज ईमानदारी और वाजिब प्रक्रिया का आभास कराती है। मौजूदा दौर में इसका विशेष महत्व है। पहला, पाकिस्तान के साथ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का संयम कम होता जा रहा है —अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन के साथ रुख और संबंधों में महत्वपूर्ण बदलावों की अपेक्षा की जा सकती है। भावी घटनाओं का संकेत देते हुए न्यूयॉर्क स्टेट बैंकिंग रेगुलेटर ने “आतंकवाद को वित्तीय सहायता देने” के आरोप में पाकिस्तान के हबीब बैंक पर 225 मिलियन डॉलर का जुर्माना लगाया है और उसके अमेरिका से बाहर करने का आदेश दिया है। दूसरा, इस डिजिटल दौर में, सरकारों के लिए अपनी जनता के संयम को मैनेज करना बेहद मुश्किल हो गया है —पाकिस्तान एशिया के तेजी से बढ़ते इंटरनेट बाजारों में से एक है — जिसकी मौजूदा पैंठ 18 प्रतिशत है — इसमें हर महीने एक मिलियन यूजर और जुड़ते जा रहे हैं। केवल तब तक, जब तक इतने ज्यादा लोग इसको सामान्य प्रक्रिया के तौर पर स्वीकार नहीं कर लेते।

भारत के लिए कुछ ज्यादा नहीं बदला है — यह महज इस बात की ताकीद भर है कि वह सेना को नजरंदाज करने की कीमत पर पाकिस्तान के साथ संबंध नहीं बना सकता। इस तरह, भारत निकट भविष्य में इस राजनीतिक प्रेम त्रिकोण में उलझा रहेगा। इसने पाकिस्तान में कुछ हद तक बदलाव किया है — शरीफ का नया राजनीतिक उत्तराधिकारी —या तो शहबाज के आकार या फिर मरियम के मार्गदर्शन में तैयार होगा। हालांकि राजनीतिक मोर्चे पर स्थिति अब तक अस्पष्ट है। चक्कर के भीतर चक्कर है। पूर्व राजदूत हक्कानी के अनुसार: “जब उच्चतम न्यायालय सीधे पर प्रधानमंत्री को पद से हटाता है, तो मतदाताओं द्वारा उसे पसंद किए जाने की संभावना बहुत कम है। अब तक पंजाब के मतदाताओं द्वारा नवाज शरीफ को अकेला छोड़ देने या पीएमएलएन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने का कोई संकेत नहीं है।” पूर्व कांग्रेसी सांसद मणि शंकर अय्यर के अनुसार, नवाज और उनके भाई शहबाज के बीच “मतभेद” होने की “अफवाहें” हैं। उनका यह भी मानना है कि नवाज राजनीतिक तौर पर प्रासांगिक बने रहने में सफल रहे हैं और अगले साल चुनाव होने तक ये “ताकतें नाटक में बनी रहेंगी।” हालांकि राजनीतिक कार्रवाइयों ने पाकिस्तान के लिए कुछ वास्तविकताएं नहीं बदली हैं — सेना की हुकूमत अब तक कायम है, वह केवल तेजी से न्यायपालिका की प्रक्रियाओं का इस्तेमाल कर रही है।

पाकिस्तान पर प्रहार करना फैशन है, लेकिन उससे कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला। भूराजनीति के प्रवाह को समझने के लिए, लोगों का उनकी संस्थाओं से अलग करके देखना होगा।

पाकिस्तान के मामले में सेना महत्वपूर्ण हितधारक साबित हुई है। सेना के पास ‘माइनस-3 फॉर्मूला’ है — तीन महत्वपूर्ण नेताओं — अल्ताफ हुसैन, शरीफ और जरदारी — को पहले ही कोने में धकेला जा चुका है।

हैशटैग और फेसबुक लाइक्स के दौर में, सैन्य तख्तापलट पीआर के लिए अप्रिय और नुकसानदायक साबित हो सकता है, ऐसे में कानून बहाल करना और तकनीकी प्रक्रियाओं की दोषमुक्ति वास्तविक एजेंडे को ढकने का ज्यादा सौम्य तरीका साबित होती है। ‘तख्तापलट के बाद पाकिस्तान’ में अदालतों के सैन्य कार्रवाई का वास्तविक थिएटर बनने की अपेक्षा की जा सकती है।

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