Author : Manoj Joshi

Published on Aug 12, 2021 Updated 0 Hours ago

यह ऐसा विवादित क्षेत्र है, जिसे लेकर कभी भी संघर्ष की नौबत आ सकती है

हिंद-प्रशांत रणनीति की धड़कन है दक्षिण चीन सागर

पिछले महीने एक आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) के फैसले के 5 साल पूरे हुए. यह फैसला 12 जुलाई 2016 को आया था, जिसमें दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे को निरस्त कर दिया गया था. संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि (UNCLOS) के तहत बनाए गए इस न्यायाधिकरण ने कहा कि इस द्वीपसमूह के सामुद्रिक गुण ऐसे नहीं हैं कि उन्हें ‘द्वीप’ माना जाए. वहां विशेष आर्थिक जोन (EEZ) या महाद्वीपीय शेल्व्स नहीं बनाए जा सकते. हद से हद वहां ऊंची लहरें आती हैं, जिनसे 12 नॉटिकल मील का तटीय समुद्र क्षेत्र बनता है. मालूम हो कि महाद्वीपीय शेल्फ धरती के उस सिरे को कहते हैं, जो समुद्र के पानी के भीतर रहता है.

इस फैसले में यह भी कहा गया कि चीन का इस क्षेत्र पर कोई दावा नहीं बनता. न्यायाधिकरण ने यह तो कहा कि यह फिलीपींस EEZ और महाद्वीपीय शेल्फ का हिस्सा है, लेकिन उसने दक्षिण चीन सागर पर दूसरे देशों के दावों पर कुछ नहीं कहा. इसके बावजूद न्यायाधिकरण का यह कहना कि दक्षिण चीन सागर पर चीन का हक़ नहीं बनता, बहुत महत्वपूर्ण है. चीन ने नाइन डैश लाइन (सीमारेखा) के आधार पर इस पर ऐतिहासिक हक़ होने की बात कही थी. 

चीन दक्षिण चीन सागर के ज्यादातर क्षेत्रों पर दावा करता है, जिसे पांच अन्य देश चुनौती दे चुके हैं. इन देशों में फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और इंडोनेशिया शामिल हैं. वे इस क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों पर अपना दावा जताते हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि दक्षिण चीन सागर से हर साल 5 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का सामान लिए पानी के जहाज गुजरते हैं. चीन इस क्षेत्र को लेकर विवाद खड़ा करता आया है. पिछले दस वर्षों में उसने कुछ नीची और ऊंची लहरों वाले क्षेत्रों में कृत्रिम द्वीप बनाकर वहां सैन्य ठिकाने तैयार कर लिए. यूं तो न्यायाधिकरण का फैसला बड़ा है, लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे चीन के समुद्री अधिकार पर कोई फर्क पड़े. इसलिए अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे को ‘फ्रीडम ऑफ नेविगेशन’ यानी नेविगेशन की आजादी का हवाला देकर चुनौती दी है. 

दक्षिण चीन सागर से हर साल 5 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का सामान लिए पानी के जहाज गुजरते हैं. चीन इस क्षेत्र को लेकर विवाद खड़ा करता आया है. पिछले दस वर्षों में उसने कुछ नीची और ऊंची लहरों वाले क्षेत्रों में कृत्रिम द्वीप बनाकर वहां सैन्य ठिकाने तैयार कर लिए. 

अमेरिका ने न्यायाधिकरण के फैसले की 5वीं वर्षगांठ का इस्तेमाल भी इस मामले में ट्रंप सरकार के एक फैसले को दोहराने के लिए किया.  अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने जुलाई 2020 में न्यायाधिकरण के इस फैसले पर अमल कराने की बात कही थी, जबकि इससे पहले दक्षिण चीन सागर पर चीन और दूसरे देशों के दावों के बीच अमेरिका की राय निरपेक्ष बनी हुई थी. इस बार एक बयान में अमेरिका के विदेश सचिव, एंटनी ब्लिंकेन ने भी जोर देकर कहा, ‘अगर फिलीपींस की सेना, सरकारी पोत या हवाई जहाज पर दक्षिण चीन सागर में हमला होता है तो वह फिलीपींस के साथ हुए करार के मुताबिक जवाबी कार्रवाई के लिए मजबूर हो जाएगा.’

फिलीपींस की क़ानूनी जीत

दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे को फिलीपींस ने ही समुद्री कानून संधि के तहत न्यायाधिकरण के समक्ष 2013 में रखा था क्योंकि उसके EEZ का चीन लगातार अतिक्रमण कर रहा था. न्यायाधिकरण ने अपने आदेश में साफ़-साफ़ कहा कि फिलीपींस के साथ स्कारबरो रीफ़ और विवादित द्वीपसमूह में चीन कानूनी तौर पर कोई दावा नहीं कर सकता क्योंकि ये क्षेत्र फिलीपींस के EEZ और महाद्वीपीय शेल्फ में हैं. इनके अलावा, चीन का मिशचीफ रीफ या सेकेंड टॉमस शोल पर भी कोई कानूनी दावा नहीं बनता क्योंकि ये दोनों ही फिलीपींस के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. 

न्यायाधिकरण में अपनी जीत का फिलीपींस ने पहले तो बहुत शोर नहीं मचाया और उसने इस सिलसिले में चीन से सीधी बातचीत करने की कोशिश की. हालांकि, सितंबर 2020 में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते ने कहा कि ‘न्यायाधिकरण का फैसला अब अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा है. इस मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता. कोई भी सरकार इसे कमज़ोर या ख़त्म नहीं कर सकती, ना ही इससे कन्नी काट सकती है.’ हालांकि, राष्ट्रपति ने मई 2021 में ऐसे बयान दिए, जिनसे लगा कि वह इस फैसले को बकवास मानते हों. 

वहीं, दक्षिण चीन सागर को लेकर जिन पांच देशों का चीन के साथ विवाद चल रहा है, उनमें से चार दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों 

के असोसिएशन यानी ASEAN के सदस्य हैं. इसके बावजूद इस ग्रुप ने लाओस और कंबोडिया जैसे देशों की वजह से इस मुद्दे पर कोई राय नहीं बनाई है क्योंकि ये देश चीन के करीबी माने जाते हैं. दूसरी तरफ, चीन ने इस मामले में किसी भी बाहरी मध्यस्थता से इनकार किया है. वह ज़ोर देता आता है कि इस बारे में वह ASEAN से बात नहीं करना चाहता, लेकिन जिन देशों के साथ विवाद है, वह उनसे द्विपक्षीय वार्ता करने के लिए तैयार है. 

ASEAN ने अभी तक एक संगठन के तौर पर इस मुद्दे को लेकर कोई राय नहीं बनाई है और ना ही उन सदस्य देशों ने, जिनका दक्षिण चीन सागर पर चीन के साथ विवाद है. वे इस बारे में चीन से बातचीत करने से भी कतरा रहे हैं. इसके बजाय वे इस मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र के डिप्लोमैटिक नोट्स का इस्तेमाल करते हैं, जो औपचारिक नहीं होता और जिस पर दस्तख़त भी नहीं किए जाते. इसमें संयुक्त राष्ट्र और न्यायाधिकरण के फैसले का स्पष्ट ज़िक्र है. 

न्यायाधिकरण में अपनी जीत का फिलीपींस ने पहले तो बहुत शोर नहीं मचाया और उसने इस सिलसिले में चीन से सीधी बातचीत करने की कोशिश की. हालांकि, सितंबर 2020 में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते ने कहा कि ‘न्यायाधिकरण का फैसला अब अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा है.

उधर, जून 2019 ASEAN ने भारत-प्रशांत क्षेत्र पर पहली बार अपना नजरिया स्पष्ट किया था, जिसमें उसने ‘सारे विवादों को आपसी सहयोग और शांतिपूर्ण तरीके से’ सुलझाने की अपील की थी. उसने यह भी कहा था कि ‘समुद्री सुरक्षा, नेविगेशन और समुद्री क्षेत्र के ऊपर से हवाई जहाजों को आने-जाने की आजादी’ को बढ़ावा मिलना चाहिए. दूसरी तरफ, चीन ने भरोसा बहाली के उपायों पर काम करने का ज़िक्र किया. उसने इस सिलसिले में ‘दक्षिण चीन सागर में संबंधित पक्षों का व्यवहार कैसा हो, इस पर एक घोषणा की बात कही.’ उसने कहा कि यह कानूनी तौर पर संबंधित पक्षों के लिए बाध्य नहीं होगा. चीन के मुताबिक, इस घोषणा के बाद वह एक आचारसंहिता पर काम करेगा, जो सभी पक्षों के लिए बाध्यकारी होगा. इस आचारसंहिता का मकसद विवादित क्षेत्र को लेकर संघर्ष की स्थिति से बचना होगा. दूसरी तरफ, वियतनाम की अध्यक्षता में हुए 36वें और 37वें ASEAN सम्मेलनों के बाद जो बयान जारी हुए, उनमें भी इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कानून को सर्वोपरि बनाए रखने की बात कही गई. इसमें कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि (UNCLOS) ही दक्षिण चीन सागर में संबंधित पक्षों के दावों का आधार होगी. 

ASEAN के जिन सदस्यों ने दक्षिण चीन सागर पर दावा किया है, उनकी मुश्किल यह है कि इस इलाके में यथास्थिति बने रहने से चीन की स्थिति मज़बूत हो रही है. यह बात सही है कि वियतनाम की अध्यक्षता में इस संगठन ने मौखिक रूप से संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि को लागू करवाने की बात स्पष्ट तौर पर कही है, लेकिन दिक्कत यह है कि इस साल ASEAN की अध्यक्षता ब्रुनेई के पास है. ब्रुनेई ने अभी तक शुतुरमुर्ग जैसा रवैया अपना रखा है, जबकि चीन के दक्षिण चीन सागर पर दावे से उसकी संप्रभुता का भी उल्लंघन होता है. ब्रुनेई के बाद अगले साल कंबोडिया के पास ASEAN की अध्यक्षता होगी, जो चीन का करीबी है. कंबोडिया ने चीन से रियाम में नौसेना क्षमता बढ़ाने को कहा है. इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है क्योंकि इससे चीन की नौसेना को कंबोडिया में एक ठिकाना मिल जाएगा. 

चीन की पुरानी चाल

चीन यह सब इसलिए कर रहा है ताकि उसे न्यायाधिकरण के फैसले को न मानना पड़े. उसने इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया है और वह उसकी वैधता को मानने से भी इनकार करता आया है. वह इस मामले में भी वही पुरानी चाल चल रहा है, जिसमें पहले तो वह विवादित क्षेत्र को अपने प्रशासनिक दायरे में ले आता है और उसके बाद वहां अपने घरेलू कानून लागू करता है, मसलन- जनवरी 2021 का तटरक्षक कानून और अप्रैल 2021 का संशोधित समुद्री यातायात सुरक्षा कानून.  2016 में जब न्यायाधिकरण ने दक्षिण चीन सागर को लेकर अपना फैसला सुनाया तो चीन ने उसे अमान्य बता डाला. उसने कहा कि इस फैसले का कोई मतलब नहीं बनता. चीन ने दावा किया कि दक्षिण चीन सागर के द्वीपों पर इतिहास, चीनी कानून और समुद्री कानून संधि के मुताबिक उसका हक बनता है. एक चीनी अधिकारी ने तो न्यायाधिकरण के जजों की निष्पक्षता तक पर सवाल उठाया, लेकिन फैसले के एक दिन बाद लाए गए श्वेतपत्र में इसे अस्वीकार करते हुए उसने आपसी बातचीत के ज़रिये विवाद को सुलझाने की बात कही. उसने वादा किया कि दक्षिण चीन सागर में यातायात को बाधित नहीं किया जाएगा. ना ही उस क्षेत्र से हवाई जहाजों के गुज़रने में कोई रुकावट डाली जाएगी. उसने कहा कि इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने की ज़िम्मेदारी चीन और ASEAN के सदस्य देशों की है. 

चीन के मुताबिक, इस घोषणा के बाद वह एक आचारसंहिता पर काम करेगा, जो सभी पक्षों के लिए बाध्यकारी होगा. इस आचारसंहिता का मकसद विवादित क्षेत्र को लेकर संघर्ष की स्थिति से बचना होगा.

समुद्रतटीय और निकवर्ती जोनों पर चीन के 1992 के कानून में कहा गया है कि चारों शा- दोंगशा (प्राटाज), शीशा (पार्सेल), चोंगशा (मैक्लेसफील्ड बैंक और स्कारबरो शोअल) और नांगशा (स्पार्टली आइलैंड्स) चीनी क्षेत्र हैं. यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि न्यायाधिकरण के फैसले में बताया गया था कि स्पार्टली आइलैंड्स में द्वीप का कोई गुण नहीं है और दूसरे गुणों में हद से हद 12 नॉटिकल मील का तटीय क्षेत्र ही है. इस फैसले से नाइन-डैश लाइन का आधार खत्म हो गया तो चीन ने अपना रुख बदल दिया.  उसने कई कानूनी दलीलें देकर इस पर अपना दावा जताना शुरू कर दिया. एक तरफ़ तो उसने दावा किया कि चारों ‘शा’ ऐतिहासिक तौर पर उसकी समुद्री सीमा का हिस्सा रहे हैं, दूसरी ओर, उसने इन्हें चीन के 200 नॉटिकल मील के EEZ और महाद्वीपीय शेल्फ का हिस्सा बताया.

इस बीच, इस क्षेत्र को लेकर किसी भी वक्त़ संघर्ष शुरू होने से इनकार नहीं किया जा सकता. स्कारबरो शोल के पास फिलीपींस के मछुआरों के खिलाफ चीनियों की कार्रवाई के कारण हमेशा तनाव रहा है. अब नाटुना द्वीपों को लेकर चीन, वियतनाम और इंडोनेशिया के बीच तितरफा तनाव देखा जा रहा है. इस क्षेत्र पर तीनों ही देश अपना दावा कर रहे हैं. इंडोनेशिया जहां पहले ख़ुद को दक्षिण चीन सागर को लेकर मध्यस्थ के रूप में देखता था, अब वह भी इसमें एक पक्ष बन गया है. हाल ही में वह अमेरिका के नज़दीक आया है और उसके साथ मिलकर सिंगापुर के करीब नए समुद्री प्रशिक्षण केंद्र पर काम कर रहा है. पिछले साल अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के शक्ति प्रदर्शन के बीच चीन ने मलेशियाई तेल कंपनी पेट्रोनस के ड्रिलिंग ऑपरेशंस पर दबाव बनाने की कोशिश की थी. और पिछले महीने तो चीनी तटरक्षकों के पोतों ने कसावरी गैस क्षेत्र के पास मलेशियाई पोतों के लिए परेशानी खड़ी की. इससे भी नाटकीय घटना 30 मई को हुई, जब 16 चीनी लड़ाकू विमानों ने मलेशिया के साथ विवादित क्षेत्र के ऊपर से उड़ान भरी. तब मलेशिया आननफानन में अपने लड़ाकू विमानों को तैयार करता हुआ दिखा. 

इंडोनेशिया जहां पहले ख़ुद को दक्षिण चीन सागर को लेकर मध्यस्थ के रूप में देखता था, अब वह भी इसमें एक पक्ष बन गया है. हाल ही में वह अमेरिका के नज़दीक आया है और उसके साथ मिलकर सिंगापुर के करीब नए समुद्री प्रशिक्षण केंद्र पर काम कर रहा है. 

इन सबसे बीच अमेरिका ने फिलीपींस के साथ रक्षा समझौतों को लेकर जो प्रतिबद्धता जताई है, भविष्य के लिए उससे महत्वपूर्ण संकेत मिलते हैं. दक्षिण चीन सागर में जिस क्षेत्र को लेकर सबसे ज्य़ादा विवाद है, वह फिलीपींस और चीन की समुद्री सीमा में पड़ता है. इसका कारण यह है कि चीन अपने परमाणु मिसाइल ठिकाने की हर हाल में सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है, जो हैनान द्वीप के परमाणु पनडुब्बी बेस के नजदीक है

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