Author : Annapurna Mitra

Published on Apr 10, 2024 Updated 0 Hours ago

अब इस बात में कोई शक नहीं है कि कोई देश कम प्रदूषण के साथ तेज रफ्तार से आर्थिक तरक्की हासिल कर सकता है, लेकिन इस नए इकॉनमिक मॉडल के लिए पैसा और तकनीक दोनों की जरूरत पड़ेगी

नए दशक में क्लाइमेट पॉलिसीः अपनी ज़रूरत देखते हुए वैश्विक सहयोग

पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट एक ऐतिहासिक समझौता था, जिस पर 195 देशों ने दस्तखत किए थे, जो 2020 में लागू हुआ. इस समझौते में शामिल देशों ने वादा किया है कि वे वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को घटाकर 2 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे लाएंगे, जो पहली औद्योगिक क्रांति शुरू होने से पहले का लेवल था. यह वादा किस हद तक पूरा होगा, यह आने वाले दशकों में मिली सफलता से तय हो जाएगा.

अभी इस सिलसिले में जो बहस-मुबाहिसा चल रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि इस पर आने वाले कुछ साल तक दो बड़े ट्रेंड्स का असर दिख सकता है. इस मामले में खासतौर पर उन देशों से उम्मीद है, जिनके पास पैसों की कमी नहीं है. इसके साथ आज नीति-निर्माताओं को इस बात का भी अहसास हो चुका है कि ऐसी पर्यावरण नीति बनाई जा सकती है, जिससे आर्थिक ग्रोथ और विकास को बढ़ावा मिले.

इसलिए सरकारें, कंपनियां और निवेशक प्रदूषण कम करने को लेकर और भी महत्वाकांक्षी हो सकते हैं. लेकिन इसके साथ एक डर भी है. माना जा रहा है कि प्रदूषण घटाने की कोशिश सभी देश एक तरह से नहीं करेंगे. अगर ऐसा हुआ तो जलवायु परिवर्तन से हमारी लड़ाई बेअसर साबित हो सकती है. इसकी वजह यह है कि अमीर देशों का ध्यान अभी अपनी घरेलू चिंताओं पर है. वे एमिशन घटाने को लेकर कम आय वाले उन देशों की मदद करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे, जिनके पास जलवायु परिवर्तन से लड़ने के वित्तीय और तकनीकी साधन नहीं हैं.

नीति-निर्माताओं को आखिरकार यह बात समझ आ गई कि महामारी से जो झटका लगा है, उसका ग्रोथ पर कितना अधिक असर हो सकता है. लिहाजा, इकॉनमिक सिस्टम को ऐसे झटकों से बचाने की अहमियत भी उन्हें समझ में आई. 

पिछले साल की पहली छमाही में दुनिया कोविड-19 महामारी से जूझ रही थी. तब ज्यादातर देशों ने अपने यहां सख्त़ लॉकडाउन लगाया ताकि वायरस को फैलने से रोका जा सके. उस वक्त नीति-निर्माताओं के पास जो भी पैसा था, उसे उन्होंने लोगों का इलाज करने और अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने पर खर्च किया. यह उनकी मजबूरी थी. इस बीच, शुरुआती दौर में जी-20 देशों में राहत पैकेज का ऐलान हुआ तो उसमें से ग्रीन सेक्टर्स पर सिर्फ 0.2 फीसदी खर्च किया गया. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का प्रस्तावित सम्मेलन 2021 के लिए टाल दिया गया. क्लाइमेट चेंज को लेकर वैश्विक पहल में पिछले साल के मध्य से बदलाव शुरू हुआ, जब जाहिर हो गया कि महामारी का असर शुरुआती अनुमान से कहीं ज्यादा गंभीर होगा.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसी वजह से जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए राजनीतिक समर्थन बढ़ गया. नीति-निर्माताओं को आखिरकार यह बात समझ आ गई कि महामारी से जो झटका लगा है, उसका ग्रोथ पर कितना अधिक असर हो सकता है. लिहाजा, इकॉनमिक सिस्टम को ऐसे झटकों से बचाने की अहमियत भी उन्हें समझ में आई. कोविड-19 महमारी के बाद अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए सरकारों की तरफ से निवेश की जरूरत को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) ने ‘बिल्डिंग बैक बेटर’ यानी महामारी के बाद बेहतर दुनिया बनाने पर जोर देना शुरू कर दिया.

इन सबके बीच जुलाई 2020 में यूरोपीय संघ ने इतिहास के सबसे बड़े ग्रीन स्टीमुलस (राहत पैकेज) का ऐलान किया . उसने पर्यावरण की रक्षा के लिए 600 अरब अमेरिकी डॉलर के पैकेज की घोषणा की. यूरोपीय संघ ने यह वादा भी किया कि 2050 तक यूरोप पहला क्लाइमेट-न्यूट्रल महादेश हो जाएगा. इसके बाद के कुछ महीनों में चीन, जापान और दक्षिण कोरिया ने भी इसी तरह की बात कही. इससे 2050 तक कार्बन-न्यूट्रल होने का वादा करने वाले देशों की संख्य़ा बढ़कर  110  पहुंच गई. अमेरिका में बाइडेन-हैरिस सरकार के शपथ लेने के बाद ऐसे देशों की संख्य़ा में और बढ़ोतरी होगी. यही नहीं, 2020 के खत्म होने से पहले 75 देशों के नेता साथ आए  और पेरिस समझौते की पांचवीं सालगिरह पर हुए वर्चुअल क्लाइमेट एंबिशन समिट (CAS) में प्रदूषण कम करने के लिए संशोधित लक्ष्य सामने रखा.

पर्यावरण संरक्षण और इकॉनमिक ग्रोथः एक दूसरे से बैर नहीं      

CAS में जो भाषण हुए, उससे यह संकेत मिला कि पर्यावरण को लेकर की जाने वाली पहल कैसी होगी. पेरिस में 2015 में जो विमर्श हुआ था, उसका निचोड़ यह था कि पर्यावरण की रक्षा के लिए आर्थिक विकास की कुछ कुर्बानी देनी होगी. लेकिन 2020 में विश्व के नेताओं ने कहा कि क्लाइमेट एक्शन यानी पर्यावरण की रक्षा के लिए उठाए गए कदमों से रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक तरक्की की रफ्तार भी तेज होगी. यह बड़ी उपलब्धि है और इस बात का सबूत भी कि सरकार, फाइनेंस और टेक्नोलॉजी के साथ आने से नीति, निवेश और इनोवेशन का एक पॉजिटिव साइकल शुरू होता है.

अभी पर्यावरण की रक्षा के लिए उठाए गए कदमों में ध्यान इस पर है कि हम 2 डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य से कितनी दूर हैं. इसके बजाय यह देखना चाहिए कि इस मामले में हम अब तक कितना फासला तय कर चुके हैं. नीचे जो आंकड़े दिए गए हैं, उनमें साल 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड के अनुमानित उत्सर्जन की जानकारी दी गई है. पांच बरस पहले तक दुनिया जिन नीतियों पर चल रही थी, उनसे इसमें अगले तीन दशकों तक लगातार बढ़ोतरी की आशंका थी. इसके बावजूद हम 21वीं सदी के मध्य तक एमिशन में लगातार गिरावट होने का अनुमान लगा रहे थे. हालांकि, अब जिस तरह से क्लाइमेट टारगेट को लेकर हमारी महत्वाकांक्षा बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि एमिशन और कम होकर 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य के करीब पहुंच सकता है.

आने वाले दशक में कम एमिशन की तरफ दुनिया का जाना तय लग रहा है. महामारी के कारण लोगों ने यात्राएं बंद कर दीं. अनुमान  भी इस तरह के संकेत दे रहे हैं कि कच्चे तेल की मांग के भी अब पहले वाले स्तर तक जाने की संभावना नहीं है. पहले इसकी मांग के जितने बरसों में शिखर पर पहुंचने की उम्मीद की जा रही थी, अब उससे काफी पहले ही कच्चा तेल उस स्तर तक पहुंच सकता है. उसकी वजह यह है कि ट्रांसपोर्टेशन की नई तकनीक तेजी से मेच्योर हो रही है. इसमें सिर्फ इलेक्ट्रिक गाड़ियां ही शामिल नहीं हैं, हाइड्रोजन से चलने वाले पानी के जहाज  और हवाई जहाज भी हैं, जो लंबी दूरी की यात्रा के लिए कम एमिशन वाले माध्यम बनेंगे.

कोयले से चलने वाले पावर प्लांट की तुलना में सोलर प्लांट लगाने की लागत काफी कम हो गई है. यहां तक कि भारत जैसे विकासशील देश में भी यह कमाल हो चुका है. भारत जैसे देश में जहां बिजली उत्पादन क्षमता में भारी बढ़ोतरी की जरूरत है, इसका जबरदस्त असर होगा.

इंसानी इतिहास में सौर ऊर्जा आज तक की सबसे सस्ती बिजली बन गई है. कोयले से चलने वाले पावर प्लांट की तुलना में सोलर प्लांट लगाने की लागत काफी कम हो गई है. यहां तक कि भारत जैसे विकासशील देश में भी यह कमाल हो चुका है. भारत जैसे देश में जहां बिजली उत्पादन क्षमता में भारी बढ़ोतरी की जरूरत है, इसका जबरदस्त असर होगा. इस वजह से पहले के अनुमान की तुलना में भारत को 2040 तक 86 फीसदी कम कोयले की जरूरत पड़ेगी. भारत ही नहीं, एशिया के दूसरे विकासशील देशों में भी कोयले से बिजली उत्पादन के क्षेत्र में निवेश में तेजी से कटौती हो रही है.

अच्छी बात यह भी है कि नई तकनीक का इस्तेमाल बढ़ने से उसकी लागत भी तेजी से घटेगी. यह ट्रेंड अभी से दिखने लगा है. अमेरिकी इन्वेस्टमेंट फर्म गोल्डमैन सैक्स का अनुमान है कि 2019 में जो अनुमान लगाया गया था, उसकी तुलना में 2050 तक नेट-जीरो एमिशन की लागत सालाना एक लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर कम पड़ेगी. नेट जीरो एमिशन का मतलब है कि इंसानी गतिविधियों से पर्यावरण में जितना एमिशन होगा, उतना ही दूसरे उपायों से उसे घटाया जाएगा. यह मांग में बढ़ोतरी और उसी के मुताबिक प्रोडक्शन में इजाफे के साथ मुमकिन होगा, जिसे कार्बन एमिशन में कमी लाने की व्यवस्था से सपोर्ट मिलेगा.

इतना ही नहीं, इसके साथ सस्टेनेबल इन्वेस्टमेंट के लिए फंडिंग भी तेजी से बढ़ रही है. अप्रैल से जून 2020 के बीच दुनिया भर में एनवायरमेंटल, सोशल और गवर्नेंस (ESG) से जुड़े फंडों में 71.1 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश हुआ, यह इनमें पिछले पांच साल में हुए निवेश से भी अधिक था. यही नहीं, पिछले पांच साल में ग्रीन बॉन्ड्स (ग्रीन एनर्जी प्रॉजेक्ट्स की खातिर बॉन्ड बेचकर जुटाए जाने वाली रकम) में भी 300 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आज कई देश कोविड-19 महामारी के बाद हुई आर्थिक तबाही से उबरने के लिए ग्रीन बॉन्ड बेचने की तैयारी कर रहे हैं. इसलिए इस रास्ते से जुटाई जाने वाली रकम में और इजाफा होना तय है. जब निवेशक कार्बन फुटप्रिंट के आधार पर पैसा लगाएंगे तो कंपनियों को भी एमिशन में कमी लाने की पहल करनी होगी. इसका ट्रेंड दिखना शुरू हो गया है. इसीलिए 2019 के बाद से नेट-जीरो एमिशन वाली कंपनियों की संख्या में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई है. इस पहल में माइक्रोसॉफ्ट, यूनिलीवर और एमेजॉन जैसी दुनिया की कई दिग्गज कंपनियां भी शामिल हैं.

इनमें से कुछ तो क्लाइमेट इनोवेशन की खातिर फंड भी बना रही हैं. कॉरपोरेट वर्ल्ड के साथ सरकारें भी क्लीन एनर्जी और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ा रही हैं ताकि उनके यहां काम करने वाली कंपनियां नेट-जीरो टारगेट को ध्यान में रखते हुए काम करती रहें.  सबसे बड़ी बात यह है कि यह राजनेताओं को भी सूट करता है. ‘ग्रीन’ इकॉनमिक एक्टिविटी से उन्हें इस दिशा में और पहल करने की प्रेरणा मिलती है. इससे अच्छी नौकरियां पैदा होती हैं. इतना ही नहीं, अगर सरकारें क्लाइमेट फ्रेंडली नीतियां बनाती हैं तो वोटरों की नजर में भी उनकी छवि सुधरती है.

ग्रीन इकॉनमी पर जोर किस कदर बढ़ रहा है, इसका अंदाजा रूढ़िवादी माने जाने वाले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की गतिविधियों से भी लगाया जा सकता है. आज दुनिया में कई देशों पर कर्ज बहुत बढ़ा हुआ है, इसके बावजूद IMF ग्रीन इन्वेस्टमेंट के लिए जोर लगा रहा है. उसका कहना है कि इससे रोजगार के मौके बढ़ेंगे, ग्राहकों की तरफ से मांग बढ़ेगी, लिहाजा आर्थिक रिकवरी की रफ्तार तेज होगी.

पर्यावरण पर वैश्विक संस्थाओं की भूल

इस बात में अब कोई शक नहीं रह गया है कि कम प्रदूषण वाले जरियों को अपनाकर देश तेज आर्थिक तरक्की हासिल कर सकते हैं. ऐसे में दुनिया अब एक नए इकॉनमिक मॉडल की तरफ जा रही है, जिसके लिए आर्थिक संसाधनों के साथ तकनीक की भी जरूरत पड़ेगी. अधिक और मध्यम आय वाले देशों को इसमें कोई मुश्किल नहीं आएगी, लेकिन अफसोस कि कम आय वर्ग वाले देशों के लिए ऐसे संसाधन जुटाना आसान नहीं होगा. इसलिए उनकी तरफ से इसमें बहुत दिलचस्पी नहीं दिख रही है.

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विकसित देश इस संकट को लेकर अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं. उन्होंने विकासशील देशों के लिए संसाधन जुटाने के सवाल को पीछे धकेल दिया गया है, जबकि अपने यहां वे राहत पैकेज का ऐलान करते जा रहे हैं. 

2015 में जिन 175 देशों ने पेरिस एग्रीमेंट पर दस्तखत किए थे, उनमें से 2020 के सम्मेलन में 75 देशों के प्रतिनिधि ही आए . उसकी वजह यह थी कि सम्मेलन की मेजबानी करने वालों ने सिर्फ उन्हीं देशों के नेताओं को बोलने का मौका दिया, जो प्रदूषण कम करने के लिए नया और अधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्य पेश करने को तैयार हों. महामारी के बाद के दौर में गरीब मुल्कों का ध्यान घरेलू प्रतिबद्धताओं पर रह सकता है, इसलिए उनके लिए पर्यावरण के हित में नीतियां बनाना मुश्किल होगा.

कोविड-19 संकट की मार के कारण कम आय वाले देश क्लाइमेट पैकेज नहीं दे सकते. IMF ने यह तो कहा है कि वैश्विक स्तर पर ग्रीन स्टीमुलस का पॉजिटिव असर होगा, लेकिन वह इस बात को भूल गया है कि अप्रैल 2020 के बाद से जिन 80 देशों ने उससे वित्तीय मदद ली है, उनमें से 72 को 2021 की शुरुआत से खर्च में कटौती करनी होगी. अगर इन देशों से कार्बन एमिशन कम करने के लिए नया वादा लेना है तो अमीर देशों को उस पर अमल के लिए उन्हें अधिक संसाधन देने पड़ेंगे. अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विकसित देश इस संकट को लेकर अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं. उन्होंने विकासशील देशों के लिए संसाधन जुटाने के सवाल को पीछे धकेल दिया गया है, जबकि अपने यहां वे राहत पैकेज का ऐलान करते जा रहे हैं.

हमें यह भी याद रखना होगा कि दुनिया में सबसे अमीर एक फीसदी लोग जितना कार्बन एमिशन करते हैं, उतना 50 फीसदी सबसे गरीब आबादी मिलकर नहीं कर पाती. इसलिए, हम सभी देशों से कार्बन एमिशन में एक जैसी कटौती की उम्मीद नहीं कर सकते. इस मामले में अमीर और गरीब देशों के बीच एक संतुलन कायम करना होगा, तभी इंसाफ हो पाएगा. अभी ऐसा होता नहीं दिख रहा है. फिलहाल तो उन देशों को बाहर करने पर जोर है, जो एमिशन कम करने पर अमल करने की हालत में नहीं हैं.

इसे ब्राजील के उदाहरण से समझा जा सकता है. जून 2020 में वहां एमेजॉन के जंगलों में आग लगी थी, तब निवेशकों के एक समूह ने चेतावनी दी कि अगर जंगलों को संरक्षित रखने के उपाय नहीं किए गए तो वे अपना निवेश निकाल लेंगे. क्लाइमेट एक्शन सम्मेलन से पहले ब्राजील की सरकार ने रेन फॉरेस्ट (वर्षा-वन) को संरक्षित रखने का वादा किया और एमिशन में और कटौती की प्रतिबद्धता जताई, बशर्ते वैश्विक समुदाय सालाना 10 अरब अमेरिकी डॉलर का सहयोग करे. ब्राजील के इस बयान को वैश्विक समुदाय को ब्लैकमेल  करने की कोशिश माना गया और आखिरकार उसे सम्मेलन से बाहर कर दिया गया.

पहली नजर में 10 अरब डॉलर की रकम बहुत बड़ी लगती है, लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि अगर इतनी रकम बिना इस्तेमाल के पड़ी रहती है तो उससे कुछ भी हासिल नहीं होगा. मूल पेरिस समझौते में इन बातों का ख्याल रखा गया था. तब 136 देशों ने सशर्त NDCs  (नेशनली डिटर्माइंड कंट्रीब्यूशंस यानी कोई देश कार्बन एमिशन में कितनी कटौती करेगा, उसकी शर्त) सौंपे थे. उन्होंने कहा था कि एमिशन में कटौती की यह पहल तभी होगी, जब उन्हें इसके लिए वित्तीय संसाधन, तकनीक और उसकी क्षमता तैयार करने में सहयोग मिलेगा. यानी जिन देशों को क्लाइमेट के लिए 2.5 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की वित्तीय मदद मिलेगी, उन्हें 2030 तक पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने होंगे. अभी के जो ट्रेंड हैं, उसे देखते हुए वित्त मंत्रालय ने 2030 तक 1140.66 अरब अमेरिकी डॉलर की सालाना कमी का अनुमान लगाया है.

अगर हमें एमिशन के वैश्विक लक्ष्य हासिल करने हैं तो उच्च आय वाले देशों को अपने यहां प्रदूषण घटाने के साथ दूसरे मुल्कों को लेकर भी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी. उन्हें यह भी देखना होगा कि विकासशील देशों ने इसे लेकर जो महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें इसे लागू करने में मदद मिले. 

टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और क्षमता तैयार करने के आंकड़े जुटाना मुश्किल है, लेकिन क्लाइमेट फाइनेंस के आंकड़े बताते हैं कि पेरिस समझौते में जिस 100 अरब अमेरिकी डॉलर सालाना का वादा किया गया था, उससे अभी हम काफी दूर हैं. अगर पूरी रकम जुटा भी ली जाए तो इससे सिर्फ 23 फीसदी NDCs को लागू करना संभव हो पाएगा. इसमें से भी कम आय वाले देशों तक सिर्फ 8 फीसदी रकम पहुंचेगी. विकासशील देशों को पर्यावरण की रक्षा के लिए पहले जिस वित्तीय मदद का वादा किया गया था, आज उस पर सवालिया निशान लग गया है. इसकी वजह यह है कि दुनिया के अमीर देश राहत कार्यों के बजट में कटौती कर रहे हैं.

अगर हमें एमिशन के वैश्विक लक्ष्य हासिल करने हैं तो उच्च आय वाले देशों को अपने यहां प्रदूषण घटाने के साथ दूसरे मुल्कों को लेकर भी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी. उन्हें यह भी देखना होगा कि विकासशील देशों ने इसे लेकर जो महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें इसे लागू करने में मदद मिले. कोविड-19 महामारी ने पहले ही दो गति वाली दुनिया का खतरा हमारे सामने पैदा कर दिया है. गरीब देशों पर इसकी सबसे ज्यादा चोट पड़ी है. यह चोट आर्थिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर देखी जा रही है. उन्हें इससे उबरने में अधिक वक्त लगेगा.

जो देश कार्बन एमिशन घटाने के लिए पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं, उनमें और इसमें सक्षम देशों के बीच फासला और बढ़ेगा. लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इस वजह से हम क्लाइमेट एक्शन के अपने लक्ष्य से चूक जाएंगे. अगर दुनिया के आधे देश अपना वादा पूरा नहीं कर पाए तो बाकी बचे आधे देशों के इसे पूरा करने के बावजूद बहुत कुछ हाथ नहीं लगेगा. क्लाइमेट चेंज वैश्विक समस्या है, इसलिए 2021 में संयुक्त राष्ट्र के इस पर होने वाले सम्मेलन की कामयाबी इस लिहाज से देखनी चाहिए कि एमिशन घटाने में विकासशील देशों की चिंताएं किस हद तक दूर हो पाती हैं. इसे छोड़कर अगर अमीर देश अपना-अपना लक्ष्य हासिल करने में लगे रहे तो यह मुहिम नाकाम हो जाएगी.

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