Published on Dec 01, 2021 Updated 0 Hours ago

वैश्विक कार्बन तटस्थता हासिल करने के लिए विकसित देशों को घरेलू हरित समझौते से आगे देखने और विकासशील देशों को हरित होने के लिए पूंजी प्रदान करने की ज़रूरत है.

जलवायु परिवर्तन: एक नया हरित समझौता हर हाल में घरेलु नहीं बल्कि वैश्विक होना चाहिए

ये लेख निबंध श्रृंखला हमारे हरित भविष्य को आकार देना: नेटज़ीरो बदलाव के लिए रास्ते और नीतियां का हिस्सा है.


परिचय: ‘महत्वाकांक्षा’ बनाम वास्तविकता

 

हाल के वर्षों में दुनिया के कई हिस्सों में जलवायु महत्वाकांक्षा में बढ़ोतरी हुई है. कई उभरती और विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने दिसंबर 2015 के पेरिस समझौते के बाद तय राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की या तो औपचारिक या फिर अनौपचारिक तौर पर समीक्षा की है; 2020 के आख़िर तक समझौते में शामिल 75 देशों ने एक नये या ताज़ा एनडीसी को प्रकाशित किया है. इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुमान दिखाते हैं कि ये अभी भी अपर्याप्त हैं. फरवरी 2021 की एनडीसी संकलन रिपोर्ट कहती है: “प्रतिनिधित्व करने वाले ज़्यादातर देशों ने उत्सर्जन घटाने के लिए अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा बढ़ाई है, लेकिन उसका साझा असर उन्हें 2010 के स्तर के मुक़ाबले 2030 तक 1 प्रतिशत से कम गिरावट हासिल करने के रास्ते पर डालता है. इसके विपरीत जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल ने संकेत दिया है कि 1.5 डिग्री सेल्सियम तापमान के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उत्सर्जन में कमी की हद 45 प्रतिशत कम होनी चाहिए.” [1]

मानव जनित जलवायु परिवर्तन उत्सर्जन के ज़रिए काम करता है जो एक वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थापित करता है; तबाही लाने वाली किसी वैश्विक घटना, जो हर देश को निरंकुशता की तरफ़ ले जाती है, की अनुपस्थिति में जलवायु परिवर्तन को एक वैश्विक समाधान की ज़रूरत है.  

महत्वाकांक्षा में ये कमी पेरिस समझौते की बुनियादी संरचना का नतीजा है. एक बड़ा क़दम आगे बढ़ते हुए ये वैश्विक कोशिश के बदले राष्ट्रीय कोशिश के इर्द-गिर्द संरचित है. लेकिन जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है: मानव जनित जलवायु परिवर्तन उत्सर्जन के ज़रिए काम करता है जो एक वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थापित करता है; तबाही लाने वाली किसी वैश्विक घटना, जो हर देश को निरंकुशता की तरफ़ ले जाती है, की अनुपस्थिति में जलवायु परिवर्तन को एक वैश्विक समाधान की ज़रूरत है.

पेरिस समझौता एक वैश्विक समाधान नहीं है क्योंकि ये सबसे ज़्यादा असर वाले क्षेत्रों में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिश को सुनिश्चित करने के लिए बेहद कम प्रोत्साहन देता है. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान से कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की सामंजस्यपूर्ण वैश्विक कोशिश का निर्माण मुश्किल है; इस कोशिश ने जैविक रूप से एक प्रणाली को सहारा दिया है जहां जलवायु परिवर्तन की कोशिशों का समन्वय राष्ट्रीय सरकारों द्वारा होता है ताकि विशेष रूप से अपनी राष्ट्रीय सीमा के भीतर राहत और अनुकूलन के तौर-तरीक़ों पर ध्यान दिया जाए.

इस प्रकार घरेलू कोशिशों पर ज़ोर ने कई सरकारों के लिए विकृत प्रोत्साहन का निर्माण किया है. अगर जलवायु महत्वाकांक्षा वास्तव में काग़जों पर बढ़ी है तो आंशिक रूप से इसकी वजह ये है कि दुनिया भर में राजनीतिक वर्ग ने खोजा है कि कथित रूप से जलवायु परिवर्तन का समाधान करने वाले कार्यक्रम पर घरेलू खर्च में बढ़ोतरी “सह-लाभ” का भी निर्माण कर सकती है जो राजनीतिक तौर पर स्वीकार्य है और उनकी चुनावी लोकप्रियता में बढ़ोतरी कर सकती है. ऐसे “नये हरित समझौतों” के पीछे प्रेरित करने वाला राजनीतिक तर्क- जैसी घोषणा की गई है या कई भौगोलिक क्षेत्रों में अभियान चलाया जा रहा है- इस प्रकार पूरी तरह से या प्राथमिक तौर पर भी जलवायु परिवर्तन का समाधान नहीं करता है. इसके बदले बढ़े हुए खर्च का सह-लाभ है- चाहे वो पिछले जोशरहित स्तर से घरेलू अर्थव्यवस्था में निवेश को बढ़ाना हो या हरित नौकरियों के सृजन में हो या भविष्य के विकास क्षेत्रों में दबदबे के लिए कथित रणनीतिक ज़रूरत हो. ये सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि ज़्यादा जलवायु महत्वकांक्षा के इन दावों के बावजूद राष्ट्रीय कोशिशों से उत्सर्जन में कमी का वास्तविक असर पूरी तरह अपर्याप्त है.

जितना आवश्यक समर्थन चाहिए और जो मुहैया कराया गया है, उनके बीच के अंतर का स्तर हास्यास्पद है. अकेले भारत के लिए मौजूदा पेरिस समझौते की प्रतिबद्धता को हासिल करने में जलवायु वित्त में वर्ष 2030 तक 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत होगी

इस प्रकार नये घरेलू हरित समझौते जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ वैश्विक लड़ाई में ज़्यादा-से-ज़्यादा मामूली सहायता के हैं. ज़रूरत एक नये वैश्विक हरित समझौते की है.

सार्वजनिक हरित वित्त की नाकामी

 

बहुपक्षीय जलवायु कार्यवाही को लेकर संशय रखने वाले, चाहे जनवादी हों या जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले, एक तथ्य को लेकर सही हैं: सिर्फ़ ओईसीडी देशों के भीतर उत्सर्जन रोकने के लिए कार्रवाई पर्याप्त नहीं होगी. वास्तव में वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को नियंत्रण में रखने के लिए ओईसीडी देशों के भीतर उत्सर्जन में और ज़्यादा कमी ज़रूरी है लेकिन सिर्फ़ यही क़दम पर्याप्त नहीं होगा. अगर विकासशील देश- चाहे भारत, इंडोनेशिया या इस तरह के दूसरे देश हों- ज़्यादा कार्बन वाले विकास के रास्ते पर चलते हैं तो वो अमीर देशों के द्वारा जलवायु कार्रवाई को विवाद का विषय बना देंगे.

इसके बावजूद उस तर्क से परे तथ्य पर संशय करने वाले एक ग़लत निष्कर्ष निकालते हैं कि साझा वैश्विक कार्रवाई असंभव या अव्यावहारिक है. ये ग़लत निष्कर्ष लंबे समय से मज़बूत जलवायु कार्रवाई के इर्द-गिर्द एक वैश्विक सर्वसम्मति बनाने पर सबसे बड़ा ख़तरा है. फिर भी इस स्पष्ट ख़तरे के विरोध में ख़ुद को परिभाषित कर हरित बहुपक्षवाद के कथित समर्थकों ने ख़ुद ही एक समतुल्य ख़तरा बना लिया है. घरेलू महत्वाकांक्षा को उठाकर और घरेलू लक्ष्यों को तय कर जिनका संशय करने वाले विरोध करते हैं, जलवायु अनुकूल विकसित देश विकासशील देशों में कार्रवाई को तेज़ करने और समर्थन की ज़रूरत पर विचार करने में नाकाम रहे हैं.  जितना आवश्यक समर्थन चाहिए और जो मुहैया कराया गया है, उनके बीच के अंतर का स्तर हास्यास्पद है. अकेले भारत के लिए मौजूदा पेरिस समझौते की प्रतिबद्धता को हासिल करने में जलवायु वित्त में वर्ष 2030 तक 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत होगी; इसका अर्थ होगा निवेश प्रवाह में तीन गुना बढ़ोतरी.

 कार्बन कम करने के वक्र पर महत्वपूर्ण रिसर्च ने प्रत्येक कार्बन टन में कमी को लेकर डॉलर लागत के व्यापक भौगोलिक अंतर को दिखाया है. यहां तक कि अमेरिका के भीतर भी ये रूफटॉप सोलर के लिए न्यूजर्सी में 105 अमेरिकी डॉलर और टेक्सस में 31 अमेरिकी डॉलर के बीच हो सकता है. 

ये ज़रूरतें किसी आधिकारिक वित्तीय प्रतिबद्धता को छोटा कर देती हैं जिनमें मौजूदा अमेरिकी प्रशासन की प्रतिबद्धता भी शामिल है. ये राष्ट्रपति जो बाइडेन के द्वारा हरित जलवायु फंड, सार्वजनिक पैसे से इस तरह के समर्थन के लिए आधिकारिक वाहक, को लेकर अमेरिकी समर्थन बहाल करने के दावे के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ है. ये अतिरिक्त वित्त व्यवस्था, अगर ये अमेरिकी संसद की मंज़ूरी हासिल कर भी ले, पूरे उभरते विश्व के लिए हर साल 11.4 अरब अमेरिकी डॉलर की रक़म होगी; अप्रैल 2021 में वास्तविक विनियोग में सिर्फ़ 1.2 अरब अमेरिकी डॉलर का योगदान शामिल था.

जब विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कुल बजट संबंधी मांग, जिनमें अमेरिका में इंफ्रास्ट्रक्चर बिल और यूरोपीय हरित समझौता शामिल हैं, के आकार के मुक़ाबले आधिकारिक जलवायु वित्त व्यवस्था रखी जाती है तो ये और भी कम असरदार है. अगर अमेरिका 3.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के अपने “बिल्ड बैक बेटर” के बजट प्रस्तावों का सिर्फ़ 0.3 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक समर्थन के लिए रखता है तो इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि वो जलवायु कार्रवाई पर नेतृत्व फिर से हासिल करने के लिए गंभीरता से प्रस्ताव नहीं रख रहा है.

नये हरित समझौतेऔर दूसरों को बाहर करना

घरेलू केंद्रित हरित समझौतों के साथ समस्या उनकी आधिकारिक जलवायु वित्त व्यवस्था में कमी से ज़्यादा गहरी है. अब ये अच्छी तरह समझा जा चुका है कि पश्चिमी सरकारों के ख़ज़ाने- या तो हरित जलवायु फंड या दूसरे साधनों के ज़रिए- से सीधे दिया जाने वाला इस तरह का आधिकारिक जलवायु वित्त ज़रूरी निवेश की बराबरी करने में नाकाम रहता है. 2018 में अर्थव्यवस्था और जलवायु पर वैश्विक आयोग की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंची कि 2030 तक पूरी दुनिया इंफ्रास्ट्रक्चर पर 90 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगी. इनमें से ज़्यादातर पूंजी आधिकारिक संसाधनों से नहीं बल्कि प्राइवेट सेक्टर से आएगी. अगर पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा करना है या उससे आगे बढ़ना है तो इंफ्रास्ट्रक्चर पर ये निवेश हर हाल में “हरित” होना चाहिए; इसके बावजूद विकासशील देश, जिन्हें अपने संसाधनों से इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश के लिए मजबूर होना पड़ता है और जिनके पास अच्छी क्वालिटी के वैश्विक वित्त की न्यूनतम पहुंच है, इन निवेशों का मूल्यांकन करते समय अनिवार्य रूप से जलवायु की कसौटी को कम तरजीह देंगे. दूसरे शब्दों में, वैश्विक पूंजी निश्चित रूप से उभरती दुनिया में इन निवेश के अवसरों की तरफ़ निर्देशित होनी चाहिए.

नये हरित समझौतों से ज़्यादा दुनिया को एक ग्रीन मार्शल प्लान की ज़रूरत है: जैसे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पैसे और प्रतिभा को संघर्ष में तबाह क्षेत्रों के फिर से निर्माण की तरफ़ लगाया गया, वैसे ही आज क़ीमती वित्तीय और प्रशासनिक क्षमता को उन भौगोलिक क्षेत्रों और परियोजनाओं की तरफ़ निर्देशित किया जाना चाहिए जो सबसे प्रभावशाली ढंग से वैश्विक हरित परिवर्तन की तरफ़ ले जाएंगे.

वैश्विक पूंजी को उभरती अर्थव्यवस्था में हरित निवेश की तरफ़ लगाना न सिर्फ़ तय जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज़रूरी है बल्कि ये जलवायु वित्त व्यवस्था का सबसे कुशल इस्तेमाल भी है. इसे सहज ज्ञान से समझना आसान है: एक सर्वशक्तिमान प्रमुख आयोजक थे जो दुनिया भर में जलवायु वित्त की एक सीमित राशि के वितरण पर विचार कर रहे थे, प्रति डॉलर ग्रीन हाउस गैस के टन को ज़्यादा करने के उद्देश्य के साथ, तब सबसे आर्थिक रूप से सक्षम नतीजा हर प्रोजेक्ट और क्षेत्र में प्रति डॉलर के हिसाब से उत्सर्जन पर मामूली असर की बराबरी करना होगा. ये कोई सैद्धांतिक समस्या नहीं है लेकिन कार्बन तटस्थता की ओर किस तरह प्रशंसनीय एवं कुशल रणनीति का निर्माण हो उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल है. कार्बन कम करने के वक्र पर महत्वपूर्ण रिसर्च ने प्रत्येक कार्बन टन में कमी को लेकर डॉलर लागत के व्यापक भौगोलिक अंतर को दिखाया है. यहां तक कि अमेरिका के भीतर भी ये रूफटॉप सोलर के लिए न्यूजर्सी में 105 अमेरिकी डॉलर और टेक्सस में 31 अमेरिकी डॉलर के बीच हो सकता है. अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं में कार्बन मूल्य निर्धारण प्रणाली इसी तरह की आर्थिक कुशलता की मांग करती है.

जैसा कि इस खंड में कई निबंध भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका समेत दुनिया के ज़्यादातर उभरते देशों के लिए स्पष्ट करते हैं, एक कम कार्बन वाला विकास पथ तभी संभव होगा जब वो अपनी ज़रूरत के मुताबिक संसाधन प्राप्त करेंगे. वैश्विक निजी पूंजी- अमीर देशों में नागरिकों की जमा बचत- इन संसाधनों का एकमात्र संभावित मूल है. अगर ओईसीडी देशों की सरकारें इनमें से कुछ बचत को सीधे इकट्ठा करने और उन्हें राष्ट्रीय सीमा पर भेजने में संघर्ष कर रही हैं तो जलवायु कार्रवाई को उनके स्थान पर ऐसा करने के लिए प्राइवेट सेक्टर की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय वित्त की. ये 2021 में प्राथमिक जलवायु अनिवार्यता है.

समस्या ये है कि घरेलू हरित समझौतों के समर्थक वास्तव में इस अनिवार्यता के ठीक विपरीत करना चाहते हैं. उन बचत को वैश्विक स्तर पर नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर काम पर जाने के लिए बड़े खर्च वाले कार्यक्रमों के तहत विनियोजित करने की ज़रूरत है. इससे जलवायु परिवर्तन की वैश्विक समस्या के सीधे समाधान के बदले घरेलू नौकरियों और इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण होगा. विकसित देशों की सरकारों के द्वारा बड़ी मात्रा में हरित बॉन्ड को जारी करने- जैसे यूरोपीय हरित बॉन्ड की तरफ़ से 290 अरब अमेरिकी डॉलर की योजना- से हरित परियोजनओं के लिए उपलब्ध पूंजी को साफ़ किया जाएगा, विकासशील देशों में इसी तरह की परियोजनाओं से दूसरों को बाहर किया जाएगा. इन कारणों ने विकासशील देशों को स्पष्ट धारणा दी है कि विकसित देशों में “नये हरित समझौतों” के निर्माता जलवायु संकट- जिसे सिर्फ़ घरेलू अर्थव्यवस्था को फिर से आकार देने के लिए उपयोगी बहाने के तौर पर देखा जाता है- का समाधान करने के बदले घरेलू राजनीतिक और नीतिगत मुद्दों में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं.

यहां तक कि कुछ विकसित देशों के जलवायु कार्यकर्ताओं ने भी नीतिगत उद्देश्यों में इस फिसलन पर ध्यान दिया है. 2019 में अमेरिकी कांग्रेस से बोलते हुए ग्रेटा थनबर्ग ने चेतावनी दी: “निस्संदेह एक टिकाऊ बदली हुई दुनिया में कई नये तरह के लाभ शामिल होंगे. लेकिन आपको समझना होगा. ये प्राथमिक तौर पर नई हरित नौकरियों, नये व्यवसायों या हरित आर्थिक विकास का अवसर नहीं है. ये सिर्फ़ एक आपातकाल नहीं है, सभी आपातकाल से ऊपर है. ये मानवता के द्वारा सामना किया गया सबसे बड़ा संकट है.” ओईसीडी की बचत और लाभ को विकासशील दुनिया के हरित विकास के लिए लगाने के बदले घर में ही बने रहने देने और घरेलू सरकारी खर्च के लिए मजबूर करना वैश्विक हरित परिवर्तन की सहायता नहीं करेगा और वास्तव में ये पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करना और मुश्किल बनाएगा.

एक ग्रीन मार्शल प्लान?

“एक वैश्विक नया हरित समझौता” कहावत को सबसे पहले 2009 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने इस्तेमाल किया था. ये वो वक़्त था जब वैश्विक वित्तीय संकट के मद्देनज़र तैयार किए गए 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा के प्रोत्साहन पैकेज को लेकर यूएनईपी ने जी20 सरकारों पर जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों जैसे टिकाऊ परिवहन और नवीकरणीय ऊर्जा पर खर्च करने का दबाव बनाया. इसके बावजूद आज के नये हरित समझौते इस मायने में काफ़ी अलग हैं कि वो “वैश्विक” नहीं हैं, जैसा कि यूएनईपी की इच्छा थी. ये समझौते मूल रूप से “नये समझौते” की अवधारणा से भी अलग हैं. 2008 के संकट के बाद, जैसे 1930 में फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट ने सबसे पहले “नये समझौते” के खर्च की शुरुआत की थी, अर्थव्यवस्था में बड़ी मात्रा में अतिरिक्त क्षमता थी. सरकारी निवेश उस क्षमता के इस्तेमाल के लिए परिस्थिति बना सकता था और 2009 में उम्मीद थी कि कम लागत पर वो क्षमता आर्थिक बहाली के दौरान हरित करने की तरफ़ निर्देशित होगी.

2021 में परिस्थिति बिल्कुल अलग है: पर्याप्त से अधिक क्षमता होने के बदले वैश्विक अर्थव्यवस्था सप्लाई चेन की रुकावटों और महंगाई के दबाव में है. लंबे वक़्त में हरित रास्ते से पैसे की बचत होगी और लोगों, क्षेत्रों एवं देशों की समृद्धि के लिए नई आजीविका का निर्माण होगा. हालांकि मौलिक “नये समझौते” से अलग एक वैश्विक हरित परिवर्तन का मतलब आसानी से बिना इस्तेमाल पूंजी को काम में डालना नहीं है: इसके लिए संसाधनों पर दावे और उसे दूसरे उद्देश्य में लगाने की ज़रूरत होगी जो कि पहले से ही अर्थव्यवस्था के ज़्यादा कार्बन इस्तेमाल वाले भाग में प्रभावशाली रूप से उपयोग में है.

 जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और उद्देश्य हर हाल में वैश्विक कार्बन तटस्थता होना चाहिए. घरेलू नये आर्थिक समझौते जो विकसित देशों में कार्बन में कमी की लागत का समाधान नहीं करते हैं या जो उन लागत को ज़्यादा बनाते हैं, उन्हें जलवायु परिवर्तन से लड़ाई के लिए प्रतिबद्धता के संकेत के तौर पर नहीं देखा जा सकता है. 

दूसरे शब्दों में कहें तो कम अवधि में इसमें पैसा खर्च होगा, ये कुछ नुक़सान वाले सेक्टर और भौगोलिक क्षेत्र बनाएगा जिसे मुआवज़े की ज़रूरत होगी और इन संसाधनों को राष्ट्रीय सीमा के पार ज़्यादा स्वतंत्र रूप से प्रवाह के लिए मंज़ूरी देने की ज़रूरत होगी. नये हरित समझौतों का घरेलू राजनीति में प्रचार आसान हो सकता है क्योंकि उन्हें आसान “जीत वाली स्थिति” के रूप में बनाया गया है. ये स्पष्ट रूप से भ्रामक है. अगर ये वास्तव में जलवायु परिवर्तन के लिए सरल, दुनिया भर में लाभदायक समाधान होता तो इसे पहले ही लागू कर दिया जाता.

नये हरित समझौतों से ज़्यादा दुनिया को एक ग्रीन मार्शल प्लान की ज़रूरत है: जैसे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पैसे और प्रतिभा को संघर्ष में तबाह क्षेत्रों के फिर से निर्माण की तरफ़ लगाया गया, वैसे ही आज क़ीमती वित्तीय और प्रशासनिक क्षमता को उन भौगोलिक क्षेत्रों और परियोजनाओं की तरफ़ निर्देशित किया जाना चाहिए जो सबसे प्रभावशाली ढंग से वैश्विक हरित परिवर्तन की तरफ़ ले जाएंगे. अच्छा समाचार ये है कि अगर थोड़ी कोशिश उपयुक्त वित्तीय नियमन और संरचना का प्रारूप बनाने और एक समान करने में लगाया जाता है तो इस कोशिश का लाभ अपने आप दिखेगा. इस खंड में कई निबंध इन नियमन और संरचना की रूप-रेखा और कैसे बहुपक्षीय कूटनीति उनके घटित होने में मदद कर सकती है, को लेकर हैं.

ऐसे कई रास्ते हैं जिनके ज़रिए विकसित और विकासशील देश ये सुनिश्चित करने के लिए साथ काम कर सकते हैं कि वैश्विक हरित इंफ्रास्ट्रक्चर में पूंजी प्रवाह की संरचना कार्बन घटाने के दृष्टिकोण से ज़्यादा कुशल ढंग से हो. इसके साथ-साथ पूंजी के मालिकों को पर्याप्त लाभ भी मिले. ऐसी एक संभावना हरित परियोजना की पाइपलाइन का निर्माण है: उभरती अर्थव्यवस्था में पहले से मंज़ूर परियोजनाएं जिनमें भौगोलिक जोखिम सार्वजनिक पैसे या पूंजी के अनुदान से सुरक्षित की गई है. अफ्रीका के देशों में सिर्फ़ सौर ऊर्जा की परियोजनाओं के लिए पूंजी की लागत को कम करने का असर महत्वपूर्ण होगा. वर्तमान में पूंजी की लागत का अर्थ है कि अफ्रीका में हरित ऊर्जा का उत्पादन मानक मॉडल से 35 प्रतिशत कम है; इस जोखिम का प्रबंधन अफ्रीका महादेश को नेट ज़ीरो के लक्ष्य तक पहुंचने में 10 साल आगे करेगा. बहुपक्षीय जलवायु कूटनीति का ध्यान निश्चित रूप से विकासशील और संस्थागत तौर-तरीक़ों पर होना चाहिए जो पूंजी की कमी से जूझ रहे दुनिया के क्षेत्रों तक निजी पूंजी के ज़रिए हरित परिवर्तन को मंज़ूरी देंगे.

निष्कर्ष

इस निबंध का उद्देश्य विकसित देशों में और ज़्यादा कार्बन में कटौती की कोशिशों को हतोत्साहित करना नहीं है. वास्तव में इस तरह की कोशिशों को क़ानूनी आदेश के लक्ष्य के साथ और ज़्यादा मज़बूत करने की ज़रूरत है जो उन क्षेत्रों में नेट ज़ीरो के रास्ते को और आसान बनाएंगी जो इसके लिए समर्थ हैं. दलील ये है कि अगर पूरी दुनिया को नेट ज़ीरो की तरफ़ ले जाने की कोशिश को ईमानदार समझना है तो विकसित और ज़्यादा उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था में कोशिशों को बाक़ी दुनिया की पूंजी की ज़रूरतों का ध्यान रखना चाहिए. जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और उद्देश्य हर हाल में वैश्विक कार्बन तटस्थता होना चाहिए. घरेलू नये आर्थिक समझौते जो विकसित देशों में कार्बन में कमी की लागत का समाधान नहीं करते हैं या जो उन लागत को ज़्यादा बनाते हैं, उन्हें जलवायु परिवर्तन से लड़ाई के लिए प्रतिबद्धता के संकेत के तौर पर नहीं देखा जा सकता है. वो घरेलू राजनीतिक सौदेबाज़ी से कुछ ही बढ़कर हैं जिनका बड़ी लड़ाई पर थोड़ा असर है.

जैसा कि प्रतीत होता है, पेरिस समझौता काम नहीं कर रहा है और आगे भी काम नहीं करेगा. इसकी वजह पेरिस समझौते का घरेलू राजनेताओं के लिए विकृत प्रोत्साहन का निर्माण है. उसका संरचनात्मक ध्यान अनुपयुक्त है: राष्ट्रीय लक्ष्य और राष्ट्रीय कोशिशों में राष्ट्रीय सीमा के पार पूंजी के प्रवाह को सुनिश्चित करके मदद और वो अर्थव्यवस्था जो कार्बन कम करने की कोशिश के लिए तैयार नहीं हैं और जहां ज़्यादा कार्बन वाला विकास का रास्ता सबसे आकर्षक लगता है, उनके लिए कार्बन कम करने की कोशिश में समर्थन. सिर्फ़ एक नया हरित समझौता हो सकता है और उसे वैश्विक होना होगा.

रिपोर्ट की पीडीएफ यहां डाउनलोड कीजिए.

[1] United Nations Climate Change, United Nations Framework Convention on Climate Change.

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