यह लेख निबंध श्रृंखला “करगिल@25: विरासत और उससे आगे” का हिस्सा है.
1999 में करगिल युद्ध की शुरुआत पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा नियंत्रण रेखा (LoC) के इस पार भारत के इलाक़े में घुसपैठ करने और उस पर क़ब्ज़ा करने से हुई थी. इस संघर्ष ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा था. इसकी वजह सिर्फ़ पाकिस्तान और भारत के संबंधों में ऐतिहासिक तनाव भर नहीं थी. बल्कि, इसका एक कारण ये भी था कि ये दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच युद्ध था. करगिल का युद्ध एक सीमित संघर्ष था जिसका एक आयाम एटमी हथियारों के इस्तेमाल की आशंका और दक्षिणी एशिया की स्थिरता भी थी. पाकिस्तान के अधिकारी और विशेष रूप से उस वक़्त पाकिस्तान के विदेश सचिव रहे शमशाद अहमद ने दबे ढके शब्दों में भारत को एटमी धमकी देते हुए कहा था कि युद्ध के परमाणु संघर्ष में तब्दील होने का ख़तरा है. यहां ये बात याद रखना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की तरफ़ से एटमी जंग की धमकी उस वक़्त दी गई थी, जब भारत ने मई 1999 के आख़िरी दिनों में करगिल द्रास सेक्टर में अपनी सीमा में घुस आए पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने के लिए अपनी बड़ी बड़ी तोपें और पैदल सैनिकों की बटालियन युद्ध में झोंकने के साथ साथ हवाई हमले भी शुरु कर दिए थे. पाकिस्तान की धमकी के बावजूद भारत ने परमाणु हथियार पहले इस्तेमाल न करने की अपनी नीति (NFU) पर चलते हुए धैर्य से काम लिया था.
झीने पर्दे या फिर छोटी कड़ियां
पाकिस्तान की तरफ़ से परमाणु हमले की धमकी के बावजूद भारत ने अपनी सामरिक चतुराई का परिचय देते हुए सैन्य रणनीति और कूटनीतिक प्रयासों को बख़ूबी तालमेल और प्रभावी तरीक़े के साथ अंजाम दिया था. ऑपरेशन विजय के साथ भारत की जवाबी कार्रवाई के दौरान, सैन्य बलों के बीच ज़बरदस्त तालमेल के बीच दो लाख सैनिक मोर्चे पर तैनात किए गए थे. इनका मक़सद नियंत्रण रेखा (LoC) पार करके पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) में दाख़िल हुए बग़ैर घुसपैठियों को निकाल बाहर करना और इस तरह संघर्ष का दायरा और बढ़ने से बचना था. इसके अलावा भारत ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक माध्यमों और विशेष रूप से अमेरिका की मदद का बख़ूबी इस्तेमाल किया, ताकि पाकिस्तान पर अपने सैनिक वापस बुलाने का दबाव बना सके.
ये दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच युद्ध था. करगिल का युद्ध एक सीमित संघर्ष था जिसका एक आयाम एटमी हथियारों के इस्तेमाल की आशंका और दक्षिणी एशिया की स्थिरता भी थी.
टिमोथी होइट और एस पॉल कपूर जैसे कई जानकार ये मानते हैं कि करगिल में घुसपैठ के पाकिस्तान के फ़ैसले के पीछे, पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार होना था. ये विचार रखने वाले बिल्कुल मौलिक हैं. क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच करगिल में युद्ध पिछली जंग के 28 साल बाद हुआ था और इससे ठीक पहले दोनों देशों ने परमाणु हथियार हासिल कर लिए थे. हालांकि, इस नज़रिए में परमाणु हथियारों को पाकिस्तान द्वारा करगिल युद्ध शुरू करने के पीछे बेहद अहम और निर्णायक भूमिका निभाने के तौर पर देखा जाता है. पाकिस्तान और भारत के बीच दुश्मनी के लंबे इतिहास और आज़ादी के बाद से ही चले आ रहे इलाक़े के विवाद ने ही करगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ में अहम भूमिका निभाई थी. ये जंग दोनों देशों द्वारा परमाणु हथियार हासिल करने का सीधा नतीजा नहीं थी. इस संघर्ष ने ये भी दिखा दिया कि पारंपरिक सैन्य लक्ष्य हासिल करने में परमाणु हथियारों की भूमिका बहुत सीमित रहती है. इसके अलावा, परमाणु हथियार होने के बावजूद पाकिस्तान ने करगिल के बाद से ऐसा कोई दुस्साहस नहीं दिखाया था. वैसा जोख़िम लेने की आशंका पाकिस्तान की क्षमता से नहीं जुड़ी, न ही इसका कोई संबंध भारत की तैयारियों से है.
पाकिस्तान की संभावित घुसपैठ रोकने के लिए प्रतिरोधी क्षमता
करगिल में घुसपैठ का भारत ने जिस तरह जवाब दिया, उसके केंद्र में अपनी पारंपरिक सैन्य क्षमता का इस्तेमाल करना ही था. परमाणु हथियारों की आड़ में पाकिस्तान द्वारा सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देने की रणनीति एक अहम चुनौती पेश करती है. भारत ने भी इसके जवाब में साहसिक क़दम उठाए हैं. जैसे कि 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में आतंकियों के शिविरों पर भारत के हवाई हमले. इन प्रयासों के बावजूद भारत की सैन्य प्रतिरोध क्षमता अपर्याप्त बनी हुई है. इसकी प्रमुख वजह दुश्मन के किसी क़दम का पहले पता लगा पाने में भारत की अक्षमता रही है. केवल सैन्य प्रयास करना अपर्याप्त रहेगा; अहम कूटनीतिक पहलों को उनके पूरक का काम करना ही होगा.
करगिल युद्ध ने पाकिस्तान को सिखाया कि ऐसे अभियानों की भारी राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ती है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचती है. हालांकि, पाकिस्तान ने अभी भी हिंसा के इस्तेमाल में अपने यक़ीन को पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया है. वो मुख्य रूप से उग्रवाद और आतंकवाद का इस्तेमाल करने भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है. इसके अतिरिक्त भारत ने अंतराष्ट्रीय कूटनीतिक को अपने हक़ में इस्तेमाल किया है. लेकिन, अभी भी ये चुनौती बनी हुई है. हालांकि, पाकिस्तान की तुलना में भारत के लिए एक बढ़त उसकी लगातार बढ़ती आर्थिक शक्ति है, जिसने ताक़त का पलड़ा भारत के पक्ष में झुका दिया है. चीन जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो पाकिस्तान के पारंपरिक साथी भी अब भारत को एक मूल्यवान साझीदार के तौर पर देखते हैं. इसके बावजूद, भारत कश्मीर और अन्य विवादों में इकतरफ़ा तरीक़े से अपनी शर्तें नहीं मनवा सकता है. संघर्ष के कारणों से निपटने और द्विपक्षिय संबंध सुधारने के लिए भारत को पाकिस्तान के राजनीतिक वर्ग और आम लोगों के साथ कूटनीतिक संपर्क बनाना ज़रूरी है. कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में तब्दीली और सख़्त रुख़ अपनाने के बावजूद पाकिस्तान की उथल-पुथल पैदा करने की क्षमता में कोई कमी नहीं आई है. ये बात सीमा पार से आतंकवाद के जारी रहने से स्पष्ट है.
पाकिस्तान और भारत के बीच दुश्मनी के लंबे इतिहास और आज़ादी के बाद से ही चले आ रहे इलाक़े के विवाद ने ही करगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ में अहम भूमिका निभाई थी. ये जंग दोनों देशों द्वारा परमाणु हथियार हासिल करने का सीधा नतीजा नहीं थी.
हालांकि, करगिल युद्ध का एक और महत्वपूर्ण नतीजा परमाणविक मसलों को लेकर भारत के नज़रिये का विकास भी रहा है. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा परमाणु सुरक्षा और परमाणु ऊर्जा, परमाणु हथियारों के अनधिकृत इस्तेमाल को रोकने और भारत एवं पाकिस्तान के बीच कश्मीर मसले को लेकर भरोसा क़ायम करने के नज़रिए के संदर्भ में करगिल युद्ध से पहले 1999 की लाहौर घोषणा एक अहम क़दम थी. हालांकि, करगिल युद्ध ने इस पहल को चोट पहुंचाई जिससे पाकिस्तान को लेकर भारत की आशंकाओं को और बल मिला. भारत ने इस द्विपक्षीय पहल की नाकामियों के बाद अपनी रणनीति में सुधार किया और इस तरह उसने कश्मीर के नरमपंथियों के साथ बातचीत शुरू की, उग्रवादियों को हाशिए पर धकेला और कश्मीर के भीतर राजनीतिक शक्तियों को अपने प्रयासों का हिस्सा बनाया.
इसके अतिरिक्त, लाहौर घोषणा के तुरंत बाद करगिल युद्ध होने के बावजूद भारत ने वार्ता के लिए एक सकारात्मक द्विपक्षीय माहौल बनाने की कोशिशें जारी रखीं, और सांस्कृतिक आदान प्रदान, व्यापार और भरोसा क़ायम करने के दूसरे उपायों के ज़रिए पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य बनाने के प्रयास भी जारी रखे. इस कदम के पीछे अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संबंधों को बनाए रखना था, जो व्यापक द्विपक्षीय संबंध में सुधार लाने के लिए कश्मीर मसले पर बातचीत जारी रखने को प्रोत्साहन देते हैं. हालांकि, अभी भी पाकिस्तान के साथ एक द्विपक्षीय समझौता दूर की कौड़ी बना हुआ है. भारत द्वारा बातचीत से मसले हल करने की कोशिश एक ग़लत दिशा में उठाया गया क़दम भी हो सकती है और इससे पाकिस्तान को दुस्साहसिक क़दम उठाने का हौसला भी मिल सता है. क्योंकि पाकिस्तान का पूरा बर्ताव लंबे समय से चली आ रही वैचारिक और भौगोलिक सोच का नतीजा है और वो बातचीत से उन मतभेदों को दूर करने का इच्छुक नज़र नहीं आता, जो दोनों देशों के बीच सुरक्षा को लेकर होड़ को बढ़ावा देते हैं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा परमाणु सुरक्षा और परमाणु ऊर्जा, परमाणु हथियारों के अनधिकृत इस्तेमाल को रोकने और भारत एवं पाकिस्तान के बीच कश्मीर मसले को लेकर भरोसा क़ायम करने के नज़रिए के संदर्भ में करगिल युद्ध से पहले 1999 की लाहौर घोषणा एक अहम क़दम थी.
करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने जिस तरह परमाणु हमले की धमकी दी, उससे भारत में इस मामले के भागीदारों को परमाणु हथियारों के मसले के तमाम आयामों को गंभीरता से देखने पर मजबूर किया. पाकिस्तान द्वारा सीमित युद्ध में मदद के लिए एटमी हथियारों के इस्तेमाल के लिए तैयार रहने और भारत को ज़बरदस्त पलटवार करने से रोकने की नीयत ने भारत को त्वरित प्रतिक्रिया देने की क्षमताएं विकसित करने की ज़रूरत को समझाया. भारत ने करगिल युद्ध के दौरान भी अपनी परमाणु हथियारों की क्षमता को सावधानी के तौर पर तैयार रखा था, ताकि किसी संकट की सूरत में अपनी हिफ़ाज़त कर सके. इससे भविष्य में ऐसी धमकियों से निपटने की तैयारी साफ़ दिखती है. भारत की नीतियों और व्यवहार को लेकर आशंकाओं और उसके परमाणु परीक्षणों को लेकर दुनिया भर में चिंताओं के बावजूद भारत ने ऐसी संस्थाएं और प्रक्रियाएं स्थापित की हैं, जो उच्च स्तरीय वैश्विक मानकों की बराबरी करने वाले हैं. इस तरह करगिल युद्ध ने पड़ोसियों के साथ ज़िम्मेदारी भरा बर्ताव करते हुए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने की अहमियत को भी रेखांकित किया है, जिससे दुनिया में भारत की छवि और बेहतर बनी है. इसके अलावा, करगिल के संकट ने सीमित संघर्षों में परमाणु हथियारों की भूमिका को लेकर भारत की सोच को भी बदला और शायद इसके बाद ही उसकी एटमी रणनीति में काफ़ी बदलाव आए हैं. युद्ध के दौरान भारत की जवाबी कार्रवाई का असर आज भी परमाणु सुरक्षा को लेकर उसके रुख़ पर दिखता है. इसमें न्यूनतम विश्वसनीय प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना और संभावित ख़तरों और उनके स्तरों का निर्धारण, परमाणु क्षमताओं के प्रबंधन के लिए संस्थागत ढांचों को बढ़ाना ताकि न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी (NCA) जैसी व्यवस्थाओं का प्रबंधन किया जा सके और संभावित परमाणु ख़तरों के लिए तैयारी की जा सके.
पाकिस्तान के बर्ताव के पीछे उसकी फ़ौज की अपने पास पड़ोस में ताक़तवर बने रहने की ख़्वाहिश है. परमाणु हथियार होने की वजह से पाकिस्तान की फ़ौज और खुफिया एजेंसी को ये आत्मविश्वास आ गया है कि वो भारत के ख़िलाफ़ आतंकी गतिविधियों को मदद दे सकते हैं. क्योंकि वो ये मानकर चलते हैं कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार होने की वजह से भारत उस पर कोई बड़ा पलटवार नहीं करेगा. पाकिस्तान का ये आक्रमक रवैया दोनों देशों के लिए ऐसा शांतिपूर्ण समाधान तलाशना बहुत मुश्किल बना देता है, जो दोनों के लिए संतोषजनक हो. इसके अतिरिक्त दोनों देशों के बीच बातचीत की अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांग ने भी पाकिस्तानी फ़ौज के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है. क्योंकि पाकिस्तानी फ़ौज ये मानती है कि परमाणु हमले का ख़तरा अन्य देशों को इस बात के लिए मजबूर करेगा कि वो भारत पर इस बात का दबाव बना सकेंगे कि वो अहम मसलों पर रियायतें दे. ऐसे में करगिल युद्ध के सबक़ भविष्य के किसी संघर्ष से निपटने और क्षेत्रीय स्थिरता को बनाए रखने के लिए सेना की तैयारी, परमाणु हमले से निपटने की क्षमता और कूटनीतिक संपर्क की अहमियत को रेखांकित करते हैं. भारत, कश्मीर मसले के अंदरूनी समाधान को प्राथमिकता देता है, जिसके पीछे मुख्य रूप से उसका राष्ट्रवादी नज़रिया और क़ानूनी रूप-रेखा है.
करगिल युद्ध ने भारत और पाकिस्तान दोनों की परमाणु रणनीतियों पर एक स्थायी असर डाला है. इस युद्ध ने संघर्ष के परमाणु युद्ध में तब्दील होने के जोख़िम से निपटने के लिए स्पष्ट परमाणु सिद्धांतों और कमान एवं कंट्रोल की मज़बूत व्यवस्था की ज़रूरतों को तो रेखांकित किया ही था.
निष्कर्ष
करगिल युद्ध ने भारत और पाकिस्तान दोनों की परमाणु रणनीतियों पर एक स्थायी असर डाला है. इस युद्ध ने संघर्ष के परमाणु युद्ध में तब्दील होने के जोख़िम से निपटने के लिए स्पष्ट परमाणु सिद्धांतों और कमान एवं कंट्रोल की मज़बूत व्यवस्था की ज़रूरतों को तो रेखांकित किया ही था. इसके साथ साथ परमाणु ख़तरे का तनाव कम करने में अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संपर्कों की अहम भूमिका को भी उजागर किया था. करगिल युद्ध से मिले सबक़ आज भी दोनों देशों की परमाणु नीतियों और सैन्य रवैये को परिभाषित करते हैं और दक्षिण एशिया में स्थिरता बनाए रखने के मौजूदा प्रयासों में योगदान देते हैं. अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को लेकर भारत द्वारा बनाया गया नाज़ुक संतुलन, उसे कारिगल जैसे युद्ध की पुनरावृत्ति से निपटने के लिए तैयार रहने की क़ीमत पर नहीं हो सकता. करगिल की समीक्षा समिति ने कई सुरक्षा संबंधी सुधारों की सिफ़ारिश की थी. हालांकि, पिछले 25 वर्षों के दौरान उन्हें थोड़ा थोड़ा और उम्मीद से बहुत कम ही लागू किया जा सका है. ये धीमी प्रगति चीन के साथ हमारे लगातार बढ़ते संघर्ष की वजह से और भी चिंताजनक है. चीन के साथ टकराव ने रक्षा क्षेत्र में ज़्यादा तेज़ और अधिक प्रभावी बदलावों की ज़रूरत को रेखांकित किया है. ये आकलन एक ऐसे व्यापक नज़रिए की ज़रूरत पर बल देते हैं, जिसमें रक्षा क्षेत्र में ठोस सुधार, प्रतिरोध की क्षमता में बढ़ोत्तरी और करगिल युद्ध की विरासत से जुड़े मसलों से निपटने और विश्व स्तर पर भारत की छवि बेहतर बनाने के लिए सक्रिय कूटनीति का इस्तेमाल करना शामिल होगा. इन व्यापक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करके भारत अपने कूटनीतिक संतुलन को बनाए रखने के साथ साथ अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को मज़बूत बना सकेगा.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.