Author : Sushant Sareen

Published on May 16, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत – पाक संबंधों में ‘परमाणु’ फैक्टर!

यह लेख पोखरण के 25 साल: भारत की परमाणु यात्रा की समीक्षा श्रृंखला का हिस्सा है.


ऑपरेशन शक्ति से एक दशक पहले से भी अधिक समय से भारतीय उपमहाद्वीप में रणनीतिक परिदृश्य अपरिवर्तनीय तौर पर बदल चुका था, जब वर्ष 1987 में पाकिस्तान ने अनौपचारिक रूप से ऐलान किया था कि उसके पास एक उपयोग करने योग्य परमाणु हथियार है और अगर उसके अस्तित्व पर संकट आया तो, वह परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने में जरा भी संकोच नहीं करेगा. वर्ष 1998 में पोखरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद ही भारत और पाकिस्तान अपने परमाणु बमों को दुनिया के सामने लेकर आए और दोनों देशों ने खुद को परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र घोषित कर दिया. इस दौरान, इस पूरे घटनाक्रम ने दोनों देशों के बीच शक्ति के असंतुलन को बढ़ा दिया: क्योंकि भारत का पारंपरिक प्रभुत्व और रुतबा परमाणु फैक्टर की वजह से एक सीमा में बंध गया था, जबकि पाकिस्तान की पारंपरिक कमज़ोरी अब भारत के विरुद्ध ख़तरनाक और दुस्साहसिक क़दम उठाने के लिए कोई बड़ी अड़चन नहीं रह गई थी.

वर्ष 1987 के बाद भारत ने खुद को पाकिस्तान की परमाणु क्षमता से प्रभावित होने दिया और पाकिस्तान द्वारा थोपे गए छद्म युद्धों (पंजाब और कश्मीर) और सीमित युद्धों (कारगिल युद्ध) के बावज़ूद भारत ने ज़्यादा कुछ नहीं किया.

निसंदेह, यह कहा जा सकता है कि वर्ष 1987 से पहले भी, पाकिस्तान द्वारा खुले तौर पर खालिस्तानी अलगाववादियों का समर्थन करने के बावज़ूद, भारत अपनी झिझक की वजह से सैन्य ताक़त का इस्तेमाल नहीं कर पाया था. हालांकि, वर्ष 1987 के बाद भारत ने खुद को पाकिस्तान की परमाणु क्षमता से प्रभावित होने दिया और पाकिस्तान द्वारा थोपे गए छद्म युद्धों (पंजाब और कश्मीर) और सीमित युद्धों (कारगिल युद्ध) के बावज़ूद भारत ने ज़्यादा कुछ नहीं किया. यह परिस्थितियां उस समय बदलीं, जब वर्ष 2019 में भारत ने बालाकोट में हवाई हमले के साथ पाकिस्तान के झूठ और उसकी हरकतों का करारा जवाब दिया. लेकिन भारत की अनिच्छा और उदासीनता की वजह से यहां तक कि बालाकोट स्ट्राइक के बाद जो उसे बढ़त मिली थी, उसका लाभ उठाने में वह नाक़ाम रहा. इतना ही नहीं भारत के इस रवैये ने एक हद तक पाकिस्तान के उस विश्वास को फिर से मज़बूत कर दिया है कि वह भारत को अस्थिरता के खेल में मात दे सकता है.

पाकिस्तान का परमाणु ट्रंप कार्ड

उपमहाद्वीप में परमाणु संपन्नता की वजह से जो भी परिस्थियां बनी हैं, उनमें देखा जाए तो पाकिस्तान ने भारत की तुलना में बहुत अधिक बढ़त और लाभ हासिल किया है. एक तरफ भारत है, जिसने एक अधिक संयमित, ज़िम्मेदार, और अत्यंत रूढ़िवादी यहां तक कि पारंपरिक परमाणु रुख अपनाया है, जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तान ने परमाणु ताक़त का इस्तेमाल बहुत ही कल्पनाशील ढंग से और नवीनता के साथ किया है, जैसे कि छद्म युद्ध और सीमित युद्ध छेड़ने के लिए, खुद को युद्धों से बचाने के लिए और ज़बरदस्ती आर्थिक सहायता हथियाने के लिए, क्योंकि कोई भी परमाणु हथियारों से लैस 200 मिलियन की आबादी वाले एक अत्यधिक कट्टरपंथी इस्लामिक राष्ट्र को झुकते हुए नहीं देखना चाहता था. कई मायनों में देखा जाए, तो पाकिस्तान के एक स्वयंभू परमाणु हथियार राष्ट्र बनने के बाद से एक चौथाई सदी में शक्ति संतुलन ने भारत की तुलना में पाकिस्तान के पक्ष में बेहतर तरीक़े से काम किया है, यानी कि कहा जा सकता है कि पाकिस्तान ने जिस प्रकार से अपने परमाणु ताक़त होने का बेजा इस्तेमाल किया, उसकी तुलना में भारत ने कुछ भी नहीं किया. 1980 के दशक के बाद से ही  पाकिस्तान ने जबावी कार्रवाई के किसी भी डर के बगैर भारत में आतंकवाद का निर्यात करने के लिए सफलता के साथ अपने परमाणु हथियार संपन्न स्टेटस की आड़ ली है. मई 1998 में खुद को परमाणु हथियार संपन्न देश घोषित करने के एक साल से भी कम समय के अंदर पाकिस्तान ने कारगिल में युद्ध छेड़ दिया था.

इस पूरी कार्रवाई के दौरान पाकिस्तान न केवल अपने परमाणु हथियारों की आड़ ली, बल्कि वो यह भी संकेत दे रहा था कि अगर भारत ने जवाबी कार्रवाई करने या पाकिस्तानी सीमाओं को पार करने की हिमाकत की और यहां तक कि पाकिस्तान को हराने के क़रीब भी पहुंचा, तो वो अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए पूरी तरह से तैयार है. हालांकि, भारत ने हमेशा किसी भी परमाणु गतिरोध से इनकार किया है, लेकिन अतीत में कम से कम दो मौक़े ऐसे आए हैं, जब पाकिस्तान ने अपने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दी. पहला मौक़ा वर्ष 1990 में कश्मीर संकट के दौरान आया था और दूसरा फिर 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान. हालांकि भारत ने इस बात से इनकार किया है कि ये दोनों संकट परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के लिहाज़ से ख़तरनाक बन गए थे. जिस समय कारगिल युद्ध शुरू हो गया था और पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में ज़बरदस्त जवाबी हमले का सामना करना पड़ रहा था, तब इस लेखक से प्रधानमंत्री वाजपेयी के बेहद नज़दीकी एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री ने संपर्क किया था और पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियारों के संभावित इस्तेमाल के बारे में पूछा था. स्पष्ट है कि सरकार के शीर्ष स्तर पर इस मुद्दे पर कुछ न कुछ बातचीत हो रही थी कि पाकिस्तान शर्मनाक हार को टालने के लिए परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है या नहीं.

पाकिस्तान द्वारा कारगिल युद्ध छेड़ने के बाद ही वो समय था, जिसके बाद भारत को लगा कि परमाणु हथियार संपन्नता का फायदा उठाकर सैन्य युद्धाभ्यासों को संचालित किया जा सकता था. ज़ाहिर है कि उससे पहले भारतीय रणनीतिकारों को इसका जरा सा भी अंदाज़ा नहीं था, या उन्होंने इसके बारे में तनिक भी विचार नहीं किया था और युद्ध चाहे सीमित हो या किसी दूसरे तरह का उन्हें ख़ारिज कर दिया गया था. कारगिल के बाद कई सालों तक भारत परमाणु सीमा से नीचे सैन्य अभियान की संभावना के बारे में बात करता रहा. बहुचर्चित कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत उन रणनीतियों में से एक था, जो भारतीय सैन्य रणनीतिकारों द्वारा सामने लाई गईं थीं. लेकिन फिर पाकिस्तानियों ने पूर्ण स्पेक्ट्रम प्रतिरोध के साथ सामने आया और किसी भी कोल्ड स्टार्ट रणनीति का सामना करने के लिए कम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलों के साथ सामरिक परमाणु हथियारों को शामिल किया, हो सकता है कि जिसे भारत शुरू करने की सोच रहा होगा.

पाकिस्तान द्वारा कारगिल युद्ध छेड़ने के बाद ही वो समय था, जिसके बाद भारत को लगा कि परमाणु हथियार संपन्नता का फायदा उठाकर सैन्य युद्धाभ्यासों को संचालित किया जा सकता था.

देखा जाए तो परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को लेकर भारत की प्रतिक्रिया पीछे हटने की ही रही है और भारत हमेशा यह दोहराता रहा है कि जब और कोई रास्ता नहीं बचेगा एवं कोई परमाणु हमला करेगा, तभी वह इनका इस्तेमाल करेगा, नहीं तो भारत के भीतर या भारतीय क्षेत्र के बाहर सामूहिक विनाश के हथियारों (WMDs) के किसी भी उपयोग के वह ख़िलाफ़ है. हालांकि, परमाणु हथियारों के उपयोग को लेकर भारत के इस सिद्धांत में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन भारत को अपने विरोधियों को अपने प्रतिरोध की विश्वसनीयता के बारे में समझाने में कुछ दिक़्क़तें हुई हैं. यद्यपि हाल के कुछ वर्षों में पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एस.एस. मेनन और स्ट्रैटेजिक फोर्स कमांड के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बी.एस. नागल जैसे कुछ भारतीय नीति-निर्माताओं के बयानों ने परमाणु हथियारों के उपयोग को लेकर भारत की नो-फर्स्ट-यूज पॉलिसी पर पुनर्विचार के संकेत दिए हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि अब तक ऐसा कुछ भी ठोस सामने नहीं आया है, जिससे यह प्रतीत हो सके कि भारत के परमाणु हथियारों के उपयोग के सिंद्धात में कोई बदलाव हुआ है.

परमाणु हथियारों की वजह से पाकिस्तान खुद को महफूज़ महसूस करता है, लेकिन यह कोई बड़ी बात नहीं है, ऐसा होना लाज़िमी है. परमाणु हथियारों ने न केवल पाकिस्तान की रक्षा की है, बल्कि इन परमाणु हथियारों को भी रक्षा की ज़रूरत है. पाकिस्तान के लिए परमाणु हथियार पावर की करेंसी है, यानी यह कुछ ऐसा है, जो पाकिस्तान को तब भी प्रासंगिक बनाए रखता है, जब वह अपने भू-रणनीतिक स्थान का फायदा नहीं उठा सकता है. इतना ही नहीं भू-अर्थशास्त्र के संदर्भ में देखा जाए तो यह एक ऐसी आभासी चीज़ है, जो न सिर्फ़ अस्तित्वहीन है, बल्कि इससे कोई विशेष लाभ नहीं है. यही वजह है कि पाकिस्तान के पास दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ता परमाणु हथियार कार्यक्रम है. पाकिस्तानी परमाणु हथियारों को खोने का डर पाकिस्तान को फायदा दिलाता है, साथ ही उसे खेल में बनाए रखता है, अर्थात उसके मकसद को पूरा करने में सहायक है. अपनी तरफ से पाकिस्तान पूरी शिद्दत के साथ यह जताता रहा है कि वो परमाणु हथियारों का उपयोग करने के लिए व्याकुल और अधीर है. पाकिस्तानी राजनेताओं और यहां तक कि उसके रिटायर्ड सैन्य जनरलों ने परमाणु हथियारों के उपयोग के संबंध में बेहद गैर-ज़िम्मेदाराना बयान दिए हैं. ऐसे बयान देने वालों में केवल शेख राशिद ही नहीं हैं, जो क्वार्टर-पाउंड परमाणु हथियारों की बात करते हैं, बल्कि पूर्व चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़ जैसे लोग भी हैं, जिन्होंने 20 सितंबर 2008 को द नेशन में एक लेख में "भारत के पार बंगाल की खाड़ी में एक चेतावनी के रूप में परमाणु हथियार दागने के बारे में लिखा था, जो यह दिखाए कि पाकिस्तान के पास सर्कुलर रेंज कैपेसिटी" है. साथ ही उन्होंने उस लेख में यह भी लिखा था कि “ऐसा करने पर यह स्पष्ट होगा की आप परमाणु ताक़त के साथ ना उलझें और उससे दूर रहें.” पाकिस्तान में इस तरह की बातों और बयानों को वास्तव में बहुत प्रोत्साहित किया जाता है, क्योंकि इससे 'परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए उसकी तर्कहीन और नासमझ' धारणा मज़बूत होती है. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान यही चाहता है कि पूरी दुनिया और ख़ासतौर पर भारत, न केवल इन बातों पर भरोसा करे, बल्कि इससे डर भी जाए.

अपनी ताक़त खो रहा है पाकिस्तान

लेकिन हकीकत यह है कि पाकिस्तान ने 25 साल से जो खेल खेला है, वह अतीत की भांति अब आगे चलता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत ने बालाकोट में पाकिस्तान को चकमा दिया है और संतुलन को लेकर अनिश्चितता पैदा कर दी है. इस घटना के बाद पाकिस्तान को यह साफ लगने लगा है कि अगर भारत में कोई बड़ा आतंकी हमला होता है, तो उसको लेकर भारत की किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी, इसके बारे में निश्चित तौर अब पर कुछ नहीं कहा जा सकता है. यहां तक कि पश्चिमी देश भी ऐसे नाज़ुक वक़्त में पाकिस्तान के बचाव में सामने नहीं आ रहे हैं, जब पाकिस्तान कमज़ोर हो रहा है और अपना अस्तित्व खोता जा रहा है. डिफॉल्ट से बचने के लिए पाकिस्तान को आर्थिक मदद की ज़रूरत है, लेकिन बेलआउट पैकेज के मसले पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा जो सख़्ती दिखाई जा रही है, वो पाकिस्तान के प्रति पश्चिमी रवैये के लिए बेहद असामान्य सी बात है. इस बीच, चीन और सऊदी अरब जैसे पाकिस्तान के दोस्त उसे संकट से उबारने के लिए ब्लैंक चेक लेकर यानी हर प्रकार की मदद करने के वादे के साथ उसके बचाव में सामने आ रहे हैं. पाकिस्तान की बढ़ती कमज़ोरी पूर्व आर्मी चीफ क़मर बाजवा के खुलासों में भी स्पष्ट होती है, जिन्होंने पत्रकारों से कहा था कि भारत के साथ आमने-सामने की लड़ाई में पाकिस्तान ज़्यादा देर तक सामना नहीं कर सकता है. कुछ हद तक देखा जाए तो बालाकोट स्ट्राइक के बाद भी पाकिस्तान को इस बात की पूरी उम्मीद थी कि कुछ ऐसा ही बड़ा होगा, पर भारत की तरफ से ऐसा कोई और क़दम नहीं उठाया गया है.

अब मौज़ूदा हालातों में पाकिस्तान में एक वास्तविक डर यह है कि आर्थिक मंदी को थामने के बदले में उसे अपने परमाणु हथियारों का व्यापार करने के लिए यानी बेचने के लिए कहा जा सकता है. निसंदेह, पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम पर उठने वाले किसी भी सवाल का प्रतिरोध करेगा. संभावना यह भी है कि पाकिस्तान पश्चिमी दबाव को दूर करने के लिए अपने परमाणु हथियारों के व्यापार यानी उसके बदले किसी अन्य चीज़ के विनिमय करने की धमकी भी दे सकता है. अगर पाकिस्तान इस तरह का कोई क़दम उठाता है, तो यह दुनिया की नज़रों में उसकी अविश्वसनीयता को और बढ़ा सकता है, साथ ही महाशक्तियों को इसके लिए सहमत कर सकता है कि वे पाकिस्तान को परमाणु हथियारों से विहीन करें. हालांकि, यह सब अभी दूर की कौड़ी है यानी इसकी संभावना अभी दूर-दूर तक नहीं है, लेकिन फर्ज़ कीजिए कि अगर ऐसा कुछ होता है, तो उपमहाद्वीप में रणनीतिक संतुलन एक बार फिर से भारत के पक्ष में आ जाएगा. ज़ाहिर है कि तब तक तनावपूर्ण गतिरोध, यहां तक की एक ठहराव की स्थिति, जो भारत को मज़बूर करती है, वो ऐसे ही बनी रहेगी.


सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

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