Published on Aug 08, 2024

भूमिका

भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ा गया करगिल का युद्ध न केवल इस उप-महाद्वीप के इतिहास का एक अहम अध्याय था, बल्कि इसका असर इस क्षेत्र के बाहर भी महसूस किया गया था. करगिल का युद्ध तो प्रमुख घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुआ था- 1998 में भारत और पाकिस्तान द्वारा एक के बाद एक किए गए परमाणु परीक्षण और उसके बाद फ़रवरी 1999 में लाहौर का शिखर सम्मेलन. करगिल युद्ध में पाकिस्तान हमलावर देश था और उसका मक़सद भौगोलिक संतुलन का पलड़ा अपने पक्ष में झुकाना और ग़लत तरीक़े से हासिल की गई इस सैन्य बढ़त को स्थायी बनाने के लिए मामले में तीसरे पक्ष के दख़ल को प्रेरित करना था. इतिहास में ये दूसरा मौक़ा था, जब परमाणु शक्ति से लैस दो ताक़तों ने बेहद दुर्गम क्षेत्र और ख़राब मौसम के बीच पारंपरिक युद्ध लड़ा था. इससे पहले पूर्व सोवियत संघ और चीन के बीच उस्सुरी नदी का सैन्य शंघर्ष हुआ था. भारत और पाकिस्तान के बीच करगिल युद्ध के दौरान इस बात की पूरी आशंका थी कि दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच छिड़े इस संघर्ष का दायरा बढ़ जाए. परमाणु शक्ति की धमकी के साथ साथ पारंपरिक सैन्य संघर्ष को बढ़ाया गया और दोनों ने ही पाकिस्तान के शुरुआती हमले और उसको भारत के पलटवार में अपनी भूमिका निभाई थी. इस संघर्ष की वजह से तीसरे दूसरे देशों ने भी भारत और पाकिस्तान के बीच ज़बरदस्त कूटनीतिक भूमिका अदा की थी.

इस सीरीज़ के लेख उस युद्ध की न सिर्फ़ यादगार हैं, बल्कि इस युद्ध के दौरान कूटनीति, सैन्य अभियानों, मीडिया, खुफिया एजेंसियों, परमाणु हथियारों के प्रभाव की भूमिका का मूल्यांकन करने की ईमानदार कोशिश हैं. इनमें हमने ये परखने की भी कोशिश की है कि अमेरिका और चीन जैसी बड़ी ताक़तों से इस युद्ध में क्या भूमिका अदा की थी, जिसकी शुरुआत पाकिस्तान द्वारा बदनीयती और ख़राब तैयारी के साथ हमला करने से हुई थी. ये लेख, करगिल युद्ध से सेना के लिए अब तक प्रासंगिक बने हुए जटिल सबक़ों, सामरिक मूल्यांकन, कूटनीति, खुफिया सुधार और जनसंपर्क के अलावा इस संघर्ष के पूरे उप-महाद्वीप और इसके बाहर पड़ने वाले असर की विरासत पर भी नज़र डालने वाले हैं.


संयोजन- कार्तिक बोम्माकांति

Publications