Published on Aug 08, 2024 Updated 5 Hours ago

करगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान पर भारत का कूटनीतिक दबाव कूटनीति एवं युद्ध के बीच आपसी संबंध को दिखाता है और बताता है कि कैसे सैन्य कार्रवाई पर कूटनीति असर डालती है और संघर्षों को सुलझाती है.

भारत की करगिल कूटनीति: युद्ध के दौरान कूटनीति की ताकत और सीमाएं!

यह लेख निबंध श्रृंखला “करगिल@25: विरासत और उससे आगे” का हिस्सा है.


ये एक गलत सोच है कि कूटनीति और युद्ध एक-दूसरे से अलग होते हैं. बल्कि ये कहना सही होगा कि दोनों एक-दूसरे से पूरी तरह से जुड़े हुए हैं या दोनों समानांतर काम करते हैं. सैन्य अभियानों के सामान्य रास्ते में कूटनीति अप्रासंगिक हो सकती है लेकिन दुश्मन की कार्रवाइयों को सीमित करने जैसे कि पकड़े गए युद्ध बंदियों (PoW) के उत्पीड़न और उनकी रिहाई सुनिश्चित करने में कूटनीति निर्णायक है. ये नियम पर चलाने का काम करती है. हालांकि संघर्ष के दौरान युद्ध को समाप्त करने के लिए लड़ाई में शामिल पक्षों के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ने की कोशिशों के बावजूद कूटनीति के बेअसर होने की संभावना है क्योंकि कूटनीतिक दृष्टिकोण से दोनों पक्षों के उद्देश्य मूल रूप से मेल नहीं खाते हैं. इसके बावजूद युद्ध में कूटनीति का एक दूसरा या दबाव वाला पहलू भी है जो आक्रमण करने वाले के ख़िलाफ़ तीसरे पक्ष के दबाव को सहन करने के लिए युद्ध तेज़ होने की धमकियों के ज़रिए जल्दी से सैन्य दुश्मनी ख़त्म करने में मदद कर सकती है. आगे का विश्लेषण कूटनीति के केवल इन दोनों पहलुओं से जुड़ा हुआ है यानी वास्तविक सैन्य अभियानों पर इसका सीमित असर और राजनयिक दबाव के माध्यम से भारत के पक्ष में करगिल युद्ध को ख़त्म करने में इसकी भूमिका. 

ये एक गलत सोच है कि कूटनीति और युद्ध एक-दूसरे से अलग होते हैं. बल्कि ये कहना सही होगा कि दोनों एक-दूसरे से पूरी तरह से जुड़े हुए हैं या दोनों समानांतर काम करते हैं.

मई 1999 में जब भारत आम चुनावों के नज़दीक था तो पाकिस्तान ने कश्मीर में नियंत्रण रेखा (LoC) पर द्रास-करगिल सेक्टर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पहाड़ की चोटियों पर कब्ज़ा करके अपने दुश्मन भारत को चौंका दिया. भारत का राजनीतिक और राजनयिक प्रतिष्ठान और भारतीय सेना (IA) पाकिस्तान के द्वारा इतने बड़े पैमाने पर हमला शुरू करने के फैसले के सरासर दुस्साहस से हैरान रह गए. ये इतिहास में केवल दूसरा अवसर था जब परमाणु शक्ति से संपन्न दोनों दुश्मनों ने एक पारंपरिक लड़ाई की. वाजपेयी की कार्यवाहक सरकार की राजनयिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया ने पाकिस्तान के इरादों को गलत भांपने की मूर्खता स्वीकार की जबकि उनकी ही सरकार ने ‘बस कूटनीति’ और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के साथ शिखर वार्ता के माध्यम से पाकिस्तान के साथ जुड़ने का प्रस्ताव दिया था. जैसा कि वाजपेयी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा: “जब मैं शांति पर चर्चा के लिए बस से लाहौर जा रहा था, उस समय घुसपैठ की तैयारी पहले से चल रही थी.” वैसे तो पिछले दो दशक से ज़्यादा समय से पाकिस्तान के द्वारा अर्ध-पारंपरिक आक्रमण के विपरीत युद्ध के मैदान में होने वाले नुकसान की दर्दनाक कीमत ने पाकिस्तान के लिए पारंपरिक सैन्य संयम उत्पन्न किया लेकिन करगिल युद्ध मील का पत्थर भी था क्योंकि इसने युद्ध में कूटनीति की भूमिका की तरफ ध्यान आकर्षित किया.

कूटनीति किसी भी युद्ध में प्रासंगिक होती है. युद्ध और कूटनीति- दोनों ही एक अंत का माध्यम है. कूटनीति जहां हितों को मिलाने और संघर्ष को सुलझाने का एक कम लागत वाला ज़रिया है, वहीं युद्ध ये करने का एक महंगा ज़रिया है. कूटनीति युद्ध को समाप्त करने में मदद कर सकती है या इस प्रक्रिया को तेज़ कर सकती है और करगिल कोई अपवाद नहीं था. भारत के राजनयिक दृष्टिकोण के लिए अनूठा ये था कि उसने संघर्ष बढ़ने के साथ राजनयिक धैर्य को राजनयिक दृढ़ता या दबाव के साथ जोड़ा. इसे विस्तार से बताया जाएगा लेकिन ये कहना पर्याप्त होगा कि भारत की कूटनीतिक दृढ़ता को अमेरिका के रणनीतिकार अलेक्ज़ेंडर जॉर्ज के शब्दों में “दबाव वाली कूटनीति” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका वास्तव में अर्थ ये है कि अगर दुश्मन देश दबाव बनाने वाले देश की बात नहीं मानता है तो उसे सज़ा की अतिरिक्त धमकी दी जाएगी. करगिल के मामले में ये स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि ये सज़ा दूसरे स्तर के दबाव के ज़रिए काम कर रही थी जिसके तहत  पाकिस्तान पर भारत सीधे कूटनीतिक दबाव नहीं डाल रहा था बल्कि एक मध्यस्थ यानी अमेरिका के ज़रिए डाल रहा था.  

कूटनीति किसी भी युद्ध में प्रासंगिक होती है. युद्ध और कूटनीति- दोनों ही एक अंत का माध्यम है. कूटनीति जहां हितों को मिलाने और संघर्ष को सुलझाने का एक कम लागत वाला ज़रिया है, वहीं युद्ध ये करने का एक महंगा ज़रिया है.

संघर्ष का पहला चरण: अभियान की गति पर कूटनीति असर नहीं डालती

20 मई 1999 तक भारत को बड़ी संख्या में सैनिकों के साथ आगे बढ़ना पड़ा जब ये साफ हो गया कि पाकिस्तान ने भारत को कड़वी हकीकत से सामना कराने और अपनी घुसपैठ को अपने ही क्षेत्र में तैनाती के रूप में पेश करने की कोशिश की है. भारत के पक्ष में एक प्रमुख फैक्टर उसका सैन्य संयम था क्योंकि युद्ध पूरी तरह से भारतीय धरती पर लड़ा जा रहा था. इसकी वजह से भारत के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने में मदद मिली. पाकिस्तान के आक्रमण के जवाब में अतीत के सैन्य अभियानों के विपरीत भारत ने नियंत्रण रेखा (LoC) या अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार नहीं किया जैसा कि उसने 1965 के युद्ध में किया था. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी युद्ध में तेज़ी को लेकर चिंतित था लेकिन वो ये देख सकता था कि भारत ने युद्ध को LoC पर अपनी तरफ ही सीमित करके किस तरह धैर्य का परिचय दिया है. इसकी वजह से भारत के पक्ष में और अधिक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक समर्थन जुटाने में मदद मिली. मई 1999 के आखिर में भारतीय वायुसेना (IAF) ने मुंठो ढालो रेंज में पाकिस्तानी सैनिकों के ठिकानों पर हमला किया. इस दौरान पाकिस्तान के कब्ज़े वाले भारतीय क्षेत्र में इंजन फेल होने के बाद मिग-27 के पायलट को नीचे कूदना पड़ा और वो पाकिस्तानी सैनिकों की गिरफ्त में आ गया. भारत ने चेतावनी दी कि पायलट को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए. गिरफ्त में आने के एक हफ्ते के भीतर पायलट की रिहाई ने सैन्य अभियानों की गति पर कोई असर नहीं डाला. वास्तव में रिहाई के समय भारत के एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी ने कहा था: “हवाई हमले अब नियमित कवायद है और ये तब तक जारी रहेंगे जब तक कि कब्ज़े वाले इन क्षेत्रों में घुसपैठिए और उनके हथियारों को ख़त्म नहीं कर दिया जाता”. इस बीच पाकिस्तान ने युद्ध विराम की मांग की जबकि 12 जून को पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ की दिल्ली यात्रा के दौरान भारत ने बिना किसी शर्त के पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी की मांग की. हालांकि इसका कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि भारत और पाकिस्तान के रुख पूरी तरह से विपरीत थे. 

संघर्ष का दूसरा चरण: दबाव की कूटनीति का पहलू

इसके बावजूद भारत के सैन्य संयम, जिसकी वजह से युद्ध LoC के उसके पक्ष तक सीमित था, का नुकसान होने लगा था और जून की शुरुआत में ये काफी हद तक साफ हो गया कि भारत का खदेड़ने वाला अभियान उम्मीद से ज़्यादा लंबा चलेगा. करगिल की चोटियों से बिना किसी शर्त वापसी को सुनिश्चित करने के लिए सरताज अज़ीज़ की नाकाम यात्रा ने भारत को रणनीति बदलने के लिए मजबूर कर दिया. भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ब्रजेश मिश्रा ने अमेरिका के NSA सैंडी बर्गर से मुलाकात की और उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक चिट्ठी सौंपी जिसमें लिखा था कि अगर पाकिस्तान करगिल से अपने सैनिकों को नहीं हटाता है तो भारत को हमला करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इसका अमेरिका पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा क्योंकि उसे भारत के द्वारा हमला करने की चिंता थी. इस चिंता का सबसे बड़ा कारण था परमाणु युद्ध की आशंका. इसे देखते हुए पाकिस्तान पर दबाव डालने की अपनी कोशिशों को अमेरिका ने तेज़ कर दिया. भारत की तरफ से दूसरे स्तर का दबाव अब रंग लाने लगा था. अमेरिका की तरफ से उठाया गया पहला स्पष्ट कदम था जून के अंत में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के द्वारा पाकिस्तान को कर्ज़ देने पर रोक का एलान करना. आखिर में 4 जुलाई 1999 को वॉशिंगटन में राष्ट्रपति क्लिंटन के साथ अपनी बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ बिना किसी शर्त के पाकिस्तानी सैनिकों को वापस बुलाने के लिए तैयार हो गए. 11 जुलाई को पाकिस्तान की अवाम को टीवी पर संबोधित करते हुए नवाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तानी सैनिकों से 26 जुलाई तक पीछे हटने को कहा. शरीफ़ की वापसी की अपील के बाद बचे हुए पाकिस्तानी ठिकानों पर या तो भारतीय सेना (IA) ने कब्ज़ा कर लिया या वो खाली रह गए. 

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ब्रजेश मिश्रा ने अमेरिका के NSA सैंडी बर्गर से मुलाकात की और उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक चिट्ठी सौंपी जिसमें लिखा था कि अगर पाकिस्तान करगिल से अपने सैनिकों को नहीं हटाता है तो भारत को हमला करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

करगिल और उससे आगे

करगिल में पाकिस्तान के दुस्साहस की वजह से पाकिस्तान की हुकूमत और सेना के अलग-थलग होने का सबसे बड़ा कारण था भारतीय कूटनीति का कौशल और इसने मूल रूप से नियंत्रण रेखा (LoC) को वास्तविक सीमा के रूप में पुख्ता किया और भारत और पाकिस्तान के बीच इसे वैध बनाया. आज के समय में अंतरराष्ट्रीय समुदाय परमाणु शक्ति से संपन्न विरोधियों के द्वारा किसी इलाके पर कब्ज़े को शायद ही बर्दाश्त करेगा, भले ही वो विवादित ही क्यों न हो. निश्चित रूप से इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि पाकिस्तान 25 साल पहले की तरह करगिल जैसे हमले की कोशिश या शुरुआत नहीं करेगा. लगभग आठ दशकों से एक जानी दुश्मन होने के कारण थोड़ा सा भी मौका मिलने पर पाकिस्तान की सेना के लिए करगिल जैसे आक्रमण को अंजाम देने के प्रलोभन का विरोध करना मुश्किल होगा. फिर भी करगिल युद्ध के ढाई दशकों के बाद पाकिस्तान ने इसे दोहराया नहीं है और काफी हद तक इसकी वजह भारतीय सेना (IA) और भारतीय वायुसेना (IAF), जिन्होंने चुनौतीपूर्ण युद्ध के मैदान की स्थिति में पाकिस्तान से लड़ाई की, के द्वारा युद्ध के मैदान में प्रदर्शन के साथ-साथ भारत की प्रभावी और कुशल कूटनीति है. जैसा कि अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री मैडलीन अलब्राइट ने भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह को कहा था: “जसवंत, करगिल संकट से बहुत अच्छी तरह से निपटा गया. आपने कोई भी गलत कदम नहीं उठाया.” ये भारत की कुशल कुटनीति को एक सम्मान था. 

इसके बावजूद भविष्य में पाकिस्तान के आक्रामक होने पर करगिल जैसा युद्ध हो सकता है और तीसरे पक्ष, विशेष रूप से अमेरिका और चीन जैसी महाशक्तियां, का बर्ताव नतीजों के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा. चीन ने करगिल युद्ध में भले ही अप्रासंगिक भूमिका नहीं निभाई लेकिन उसकी भूमिका सीमित थी मगर भारत के साथ उसकी दुश्मनी और उसकी ताकत को देखते हुए करगिल की तरह के भविष्य के युद्ध में उसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती है. भारत को भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ तीसरे पक्षों विशेष रूप से अमेरिका जैसी महाशक्ति से कूटनीतिक दबाव के रूप में बहुत अधिक बाहरी सहायता के बिना खड़ा होना पड़ा सकता है और अकेले युद्ध लड़ना पड़ सकता है. विशुद्ध रूप से सैन्य मामलों में कहें तो अगर तीसरे पक्ष पूरी तरह से तटस्थ बने रहते हैं तो एक और करगिल जैसा युद्ध भारत के लिए महंगा साबित होगा. 

अधिक व्यापक रूप से कहें तो भले ही युद्ध कितना भी ख़ौफ़नाक क्यों न हो, कूटनीति सैन्य अभियानों को अंजाम देने के साथ-साथ चलती है. वास्तव में सबसे विनाशकारी युद्ध में भी जब बात तीसरे पक्षों के असर, युद्ध बंदियों (PoW) के इलाज एवं उनकी वापसी, शरणार्थियों की स्थिति एवं उनकी सुरक्षा और बंधकों की अदला-बदली की आती है तो किसी-न-किसी रूप में कूटनीति शामिल होती है. मौजूदा इज़रायल-हमास और रूस-यूक्रेन युद्ध में भी युद्ध बंदियों की अदला-बदली हुई. दोनों पक्षों की तरफ से सैन्य अभियानों के जारी रहने के बावजूद इज़रायल की जेलों में बंद फिलिस्तीनी कैदियों की अदला-बदली हमास के द्वारा बंदी बनाए गए बंधकों से की गई. इज़रायल-हमास युद्ध में दोनों पक्षों के द्वारा बातचीत के साथ-साथ तीसरे पक्षों की भागीदारी के माध्यम से भी कूटनीति ने अपनी भूमिका निभाई है. हालांकि, जैसा कि इस विश्लेषण से पता चलता है और जो हम गज़ा और यूक्रेन के युद्धों में देखते हैं, ये घटनाक्रम अनिवार्य रूप से या हमेशा युद्ध की रफ्त़ार या अभियान की गति को निर्धारित नहीं करते हैं और लड़ाई की तीव्रता को कम नहीं करते हैं.

कार्तिक बोम्माकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं.

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