Published on Oct 13, 2025 Commentaries 0 Hours ago

नेपाल में सुशीला कार्की के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार और हालिया जन आंदोलनों ने देश की आंतरिक राजनीति और विदेश नीति, विशेष रूप से भारत और चीन के साथ संबंधों को नई दिशा की दहलीज़ पर ला खड़ा किया है. यह विश्लेषण इसी बदलते परिदृश्य की चुनौतियों और संभावनाओं पर आधारित है.

नेपाल की नई राह: पड़ोसी देशों की कूटनीति पर निगाह

‘सितंबर क्रांति’ और पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की के नेतृत्व में नेपाल में नई अंतरिम सरकार के गठन के बाद, आने वाले महीनों में नेपाल किस दिशा में आगे बढ़ेगा, उसको लेकर चिंताओं और आशंकाओं के बादल बन रहे हैं। ठीक इसी तरह के सवाल इस बात को लेकर भी उठ रहे हैं कि मार्च 2026 में सफलतापूर्वक चुनाव कराने में अंतरिम सरकार कितनी सक्षम है? हालांकि, ये सवाल देश स्तर पर अहम है लेकिन शासन-व्यवस्था में इस व्यापक बदलाव की पृष्ठभूमि में नेपाल की विदेश नीति क्या रुख़ लेगी, इसको लेकर भी ये सवाल महत्वपूर्ण हो गए हैं, विशेष तौर पर भारत और चीन जैसे नेपाल के दो सबसे प्रभावशाली पड़ोसियों के मामले में.

  • ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो नेपाल की भौगोलिक स्थिति ने उसके विदेशी संबंधों की दिशा और स्वरूप तय करने में केंद्रीय भूमिका निभाई है. भारत और चीन  दोनों ही देशों के लिए नेपाल न केवल एक पड़ोसी, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण साझेदार रहा है.
  • भारत और नेपाल के बीच ऐतिहासिक रूप से एक समृद्ध संबंध रहा है, जो अब ऐसे द्विपक्षीय रिश्ते में बदल गया है, जिसमें सामाजिक तालमेल और आपसी व्यापार व संपर्क बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है.

18 सितंबर को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल के अंतरिम प्रधानमंत्री से टेलीफ़ोन पर बात की. यह बातचीत 16 सितंबर को नेपाल में भारत के राजदूत और सुशीला कार्की की बैठक और 12 सितंबर को अंतरिम सरकार के गठन के बाद भारत द्वारा दिए गए समर्थन संबंधी बयान के बाद हुई थी. इस वार्ता के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने विरोध-प्रदर्शनों में मारे गए लोगों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की और शांति व स्थिरता बनाने में अंतरिम सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों को अपना समर्थन दिया. ठीक उसी दिन, नेपाल में चीन के राजदूत चेन सोंग ने भी नेपाल की अंतरिम प्रधानमंत्री से मुलाकात की. उन्होंने नेपाल के लोगों द्वारा चुने गए विकास व राजनीतिक मार्ग के प्रति अपना समर्थन दिया और द्विपक्षीय संबंधों को और मज़बूत बनाने की प्रतिबद्धता जताई. बीजिंग ने भी अंतरिम सरकार को अपना समर्थन दिया, हालांकि इसमें थोड़ी देरी हुई और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों के आधार पर नेपाल के साथ मिलकर काम करने की पेशकश की.

 

नेपाल की भौगोलिक स्थिति 

ऐतिहासिक रूप से देखें, तो नेपाल के अन्य देशों के साथ संबंधों पर उसकी भौगोलिक स्थिति का ख़ासा प्रभाव रहा है. भारत और चीन, दोनों के लिए इसी कारण नेपाल से नज़दीकी काफ़ी अहमियत रखती है. नेपाल के राजनीतिक दलों के लिए भी, अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लिहाज़ से भारत और चीन, दोनों के साथ परस्पर संबंध मायने रखता है. चीन सुरक्षा की दृष्टि से नेपाल को महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि यह देश तिब्बत की सीमा से लगा है और दक्षिण एशिया से जुड़ने के लिए चीन के प्रवेश द्वार के रूप में भी काम करता है. इसलिए, बीजिंग ने ऐतिहासिक रूप से नेपाल के साथ मज़बूत संबंध बनाने का प्रयास किया है. इसका एक उदाहरण 2017 में बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) फ्रेमवर्क समझौते पर 2017 में किया गया हस्ताक्षर है, जिसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच संपर्क को और बढ़ाना व नेपाल के बुनियादी ढांचे के विकास को तेज़ करना था. चीन ने नेपाल के कुलीन वर्ग, ख़ासतौर से कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के साथ अपने संबंध आगे बढ़ाने का भी प्रयास किया, क्योंकि दोनों के विचार एक जैसे हैं. उसने द्विपक्षीय सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए इन संबंधों पर भरोसा किया. नेपाल के साथ संबंधों और उसके आंतरिक मामलों में जितना कुछ उसका दांव पर लगा हुआ है, उसको देखते हुए ही उसने हालिया विरोध-प्रदर्शनों पर काफ़ी ‘सतर्क’ और ‘संयत’ प्रतिक्रिया दी. यहां तक कि विरोध-प्रदर्शनों के हिंसक होने के एक दिन बाद चीन के प्रवक्ता ने बयान जारी करके उम्मीद जताई कि सामाजिक व्यवस्था व स्थिरता जल्द ही बहाल हो जाएगी. उसकी इस प्रतिक्रिया को देखकर यही लगा कि वह ‘इंतजार करो और नज़र बनाए रखो’ की नीति अपना रहा है और इस बात पर ध्यान लगा रहा है कि आने वाले दिनों या हफ़्तों में हालात किधर का रुख़ लेते हैं.

नेपाल के साथ संबंधों और उसके आंतरिक मामलों में जितना कुछ उसका दांव पर लगा हुआ है, उसको देखते हुए ही उसने हालिया विरोध-प्रदर्शनों पर काफ़ी ‘सतर्क’ और ‘संयत’ प्रतिक्रिया दी. 

दूसरी ओर, भारत और नेपाल के बीच ऐतिहासिक रूप से एक समृद्ध संबंध रहा है, जो अब ऐसे द्विपक्षीय रिश्ते में बदल गया है, जिसमें सामाजिक तालमेल और आपसी व्यापार व संपर्क बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है. हालांकि, काठमांडू और नई दिल्ली ने सहयोग के क्षेत्रों पर अधिक से अधिक ध्यान देने की कोशिश की है, लेकिन सीमा विवाद और नेपाल के घरेलू मामलों में भारत के ‘दख़ल’ से जुड़ी पुरानी शिकायतें बार-बार उभरती रही हैं, और आपसी संबंधों को झकझोरती रही है. इन शिकायतों का फ़ायदा उठाकर कई राजनीतिक गुट नेपाल पर अपना नियंत्रण मज़बूत भी बनाते रहे हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के सितंबर में भारत आने की उम्मीद थी, जो उनके हालिया कार्यकाल में उनकी पहली भारत यात्रा होती. हालांकि, पिछले वर्ष दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां दौरे करके नियमित रूप से संपर्क बनाए रखा, लेकिन इसमें CPN (UML) नेता को औपचारिक न्योता नहीं भेजा गया. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल में BIMSTEC शिखर सम्मेलन के दौरान अलग से ओली से मुलाकात की, तब दोनों देशों के बीच संबंध ठंडे पड़े थे. दरअसल, सत्ता संभालने के बाद से ही, CPN-UML और नेपाली कांग्रेस गठबंधन का चीन की ओर झुकाव रहा है. सरकार बनाने के एक साल बाद तक ओली द्वारा भारत का दौरा नहीं करने से यह संदेह और बढ़ गया. पिछले साल दिसंबर में, उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में चीन का दौरा किया और BRI पर एक और सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किया, ताकि इसका जल्द क्रियान्वयन हो सके. विरोध-प्रदर्शन शुरू होने से एक दिन पहले, दोनों देशों ने ‘सागरमाथा मैत्री 2025’ नामक एक संयुक्त सैन्य अभ्यास भी शुरू किया था. इस तरह, ओली के नेतृत्व वाली पिछली सरकार बीजिंग के हितों के अनुकूल थी. 

नेपाल भारत संबंध 

जहां तक भारत की बात थी, तो ओली के नेतृत्व वाली इस सरकार और पुरानी सरकारों ने भी सीमा संबंधी मुद्दों और आपसी विवाद के अन्य मसलों पर भारत-विरोधी भावना भड़काकर जनता का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया. हालांकि, हालिया विरोध-प्रदर्शन और उसके बाद के हिंसक हालात ने नई दिल्ली के सामने भी सुरक्षा संबंधी चिंताएं पैदा की, लेकिन दोनों देशों के शासनाध्यक्षों का फोन पर आपस में बातचीत करना और नेपाली प्रधानमंत्री का भारत के प्रधानमंत्री के प्रति सकारात्मक रुख़ अपनाना बता रहा है कि दोनों देश संपर्क स्थापित करने में कोई समय बर्बाद नहीं करना चाहते.

हालिया विरोध-प्रदर्शन और उसके बाद के हिंसक हालात ने नई दिल्ली के सामने भी सुरक्षा संबंधी चिंताएं पैदा की, लेकिन दोनों देशों के शासनाध्यक्षों का फोन पर आपस में बातचीत करना और नेपाली प्रधानमंत्री का भारत के प्रधानमंत्री के प्रति सकारात्मक रुख़ अपनाना बता रहा है कि दोनों देश संपर्क स्थापित करने में कोई समय बर्बाद नहीं करना चाहते.

के. पी. शर्मा ओली के नेतृत्व वाली पिछली गठबंधन सरकार को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किए जाने से कुछ हफ़्ते पहले, ओली शंघाई सहयोग संगठन के 25वें शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए तियानजिन गए थे. इस संगठन का नेपाल भी एक वार्ता साझेदार है. अपनी यात्रा के दौरान ओली ने शी जिनपिंग के साथ बैठक की और दूसरे विश्व युद्ध के 80 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चीन द्वारा आयोजित विक्ट्री डे परेड में भी भाग लिया. उनकी इस यात्रा की तीन वज़हों से आलोचना की गई- पहली, विक्ट्री डे परेड में शामिल होने और परोक्ष रूप से जापान-विरोधी रुख़ अपनाने के लिए, दूसरी- लिपुलेख दर्रे को खोलने को लेकर नेपाल की चिंताओं का समाधान न कर पाने के लिए, और तीसरी- वैश्विक सुरक्षा पहल (GSI) व वैश्विक सभ्यता पहल (GCI) में नेपाल को गलत तरीके से शामिल करने के लिए बीजिंग की आलोचना न करने को लेकर, क्योंकि नेपाल ने इन दोनों में शामिल होने से इनकार कर दिया था. दोनों विरोधी पार्टियों के साथ-साथ गठबंधन के नेताओं ने भी बीजिंग की सनक व मनमर्जी के आगे झुकने के लिए ओली की आलोचना की. यहां तक कि सरकार ने इस दावे पर कोई विरोध तक दर्ज नहीं कराया, जबकि वह इस बात को लेकर सहमत थी कि बैठक में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई थी.

 

आगे की राह 

अब जबकि नेपाल में जेन जी आबादी ने देश के जमे-जमाए कुलीन वर्ग के ख़िलाफ़ खुलकर अपनी नाराज़गी जाहिर कर दी है और उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया है, यह देखना अब बाकी है कि बीजिंग और नई दिल्ली नेपाल के साथ अपने-अपने संबंधों को किस तरह आगे बढ़ाते हैं? इस क्षेत्र के तीन देशों- श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल में बड़े पैमाने पर जन-विद्रोह के माध्यम से सरकारों का बदलना चिंतनीय और अनिश्चितता पैदा करने वाली घटनाएं हैं. नेपाल में इस बात को लेकर अब भी संदेह बना हुआ है कि युवा पीढ़ी चीन के बुनियादी ढांचे के निवेश को किस तरह देखती है, जिनमें से कई पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं. देश के आंतरिक मामलों में दख़ल के ही उदाहरण हैं- GSI और GCI, और इन पर बीजिंग की मांगों को स्वीकार करने का नेपाल पर बनाया जा रहा दबाव कुछ ऐसा है, जिनसे चीन स्थापित मानदंडों के कारण अपनी ज़िम्मेदारियों से बच सकता है. इन सभी को अब जांचा-परखा जा सकता है.

नेपाल के साथ बीजिंग के संबंध एक हद तक सत्ता में कुलीन वर्ग की मौजूदगी पर आधारित थे, जिनकी गैर-मौजूदगी में वह नए सत्तानायकों के साथ कैसे संवाद करेगा, यह देखने के लिए अभी हमें इंतजार करना होगा.

नेपाल के साथ बीजिंग के संबंध एक हद तक सत्ता में कुलीन वर्ग की मौजूदगी पर आधारित थे, जिनकी गैर-मौजूदगी में वह नए सत्तानायकों के साथ कैसे संवाद करेगा, यह देखने के लिए अभी हमें इंतजार करना होगा. नई दिल्ली के लिए भी, अपने पड़ोस में हो रहे इन विरोध-प्रदर्शनों पर आत्ममंथन करने और स्थिति की पड़ताल करने की तुरंत आवश्यकता है. उसे ऐसी नीति बनानी होगी, जिसमें सभी साझेदार जुड़े हों, जैसा कि अन्य देशों के साथ उसके अनुभवों का सबक है. सरकार बदलते ही भारत ने जितनी तेज़ी से पहल की है, उससे यही संकेत मिलता है कि नई दिल्ली विश्वास व आपसी सम्मान पर आधारित बहुआयामी संबंध बनाना चाहती है, साथ ही वह यह समझने का भी प्रयास कर रही है कि युवा नेताओं की उभरती पीढ़ी दोनों देशों के बीच संबंधों को कैसे आगे बढ़ाना चाहती है?


(यह लेख मूल रूप से OPEN में प्रकाशित हुआ है)

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Harsh V. Pant

Harsh V. Pant

Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...

Read More +
Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat is a Junior Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses primarily on India’s neighbourhood- particularly tracking the security, political and economic ...

Read More +