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दुनिया के घटते जंगलों को बचाने के लिए यूरोपीय संघ दिसंबर 2025 से नया नियम लागू कर रहा है. अब यूरोप में वही कॉफी, लकड़ी, रबर या सोया बिकेगा, जिसका साफ़ सबूत हो कि उसके पीछे पेड़ नहीं कटे. भारत के लिए यह नियम चुनौती भी है और हरित व्यापार में अग्रणी बनने का सुनहरा मौका भी.
Image Source: Getty Images
दुनिया भर में तेज़ी से हो रही जंगलों की कटाई से निपटने के उद्देश्य से बनाया गया यूरोपीय संघ का नया नियम दिसंबर 2025 में लागू होने वाला है. यूरोपियन यूनियन डिफॉरेस्टेशन रेगुलेशन (ईयूडीआर) के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. कृषि, कपड़ा और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में व्यापार और मूल्य श्रृंखलाओं पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है, विशेष रूप से भारत जैसी निम्न और मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं पर. यूरोपीय संघ के इस नियम के तहत, मवेशी, कोको, कॉफी, ताड़ के तेल, रबर, सोया और लकड़ी के कारोबार पर इसका असर पड़ेगा. व्यापारियों को स्पष्ट रूप से साबित करना होगा कि ये सामान हाल ही में जंगलों की कटाई से नहीं मिले हैं या इनकी वजह से वन क्षरण की समस्या नहीं पैदा हुई है. ईयूडीआर का पालन ना करने पर सामान ज़ब्त किया जा सकता है, यूरोपीय संघ के बाज़ार में उत्पादों को रखने पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है. इसके अलावा, कुछ अन्य आर्थिक दंड भी लगाए जा सकते हैं. इस नियम का असर ना सिर्फ एशिया में बल्कि लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में भी महसूस किया जाएगा. साओ टोमे और प्रिंसिपे, ग्रेनाडा, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना, यूक्रेन और युगांडा जैसे देश इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे.
“निर्यातकों को साबित करना होगा कि माल वनों की कटाई से नहीं जुड़ा है.”
भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा. भारत के लिए, यूरोपीय संघ को उसके 1.3 अरब डॉलर मूल्य के कृषि निर्यात को भारी नुकसान पहुंचने का ख़तरा है. भारत से यूरोपीय यूनियन को 435.4 मिलियन डॉलर की कॉफ़ी, 174.5 मिलियन डॉलर की खली और 83.5 मिलियन डॉलर का चमड़ा निर्यात होता है. भारत को दूसरे देशों की तुलना में ज़्यादा बाज़ार जोखिम का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह ये है कि प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में भारत में वनों की कटाई की दर अधिक है. हाल के वर्षों में भारत में लगभग 668,400 हेक्टेयर वनों की कटाई हुई है. जंगलों की कटाई के मामले में ब्राज़ील के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर भारत ही है.
इसके अलावा, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में भारत के पास ट्रेसेबिलिटी और नियमों के अनुपालन के स्पष्ट मानक मौजूद नहीं हैं. आसान शब्दों में कहें तो ट्रेसेबिलिटी का अर्थ स्रोत का पता लगाने से है. इसे एक उदाहरण से समझिए. माना भारत की किसी कंपनी के पास रबर आया. अब उस कंपनी के पास इस बात का पता लगाने का कोई साधन नहीं होता कि इस रबर को कैसे बनाया गया? इसके लिए कब और कितने जंगल काटे गए? यूरोपियन यूनियन के नए नियम का पालन करने के लिए ये ज़रूरी है कि उसमें सामान को लेकर विस्तृत जानकारी, आपूर्तिकर्ताओं के नाम और उत्पादन करने वाली ज़मीन के पते भी शामिल हों. हालांकि, भारतीय निर्यातक इस बात की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वो उत्पादन की पूरी श्रृंखला के सबूत इकट्ठे करें, लेकिन छोटे किसानों के लिए ये प्रक्रिया बेहद बोझिल साबित होगी. उदाहरण के लिए, भारत का सोयाबीन व्यापार संघ, सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एसओपीए), दावा करता है कि देश की सोयाबीन उपज ज्यादातर छोटे किसानों द्वारा उगाई जाती है. सोयाबीन व्यापार संघ के मुताबिक उत्पाद का व्यापार कई बाज़ारों और प्रसंस्करण संयंत्रों में होता है. आपूर्ति श्रृंखलाओं के विखंडन के कारण उत्पाद के मूल स्रोत का पता लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है.
“अनुपालन न होने पर माल ज़ब्त, बाजार निषेध और आर्थिक दंड हो सकते हैं.”
अब अगर यूरोपीय संघ के नियमन का पालन करना पड़ेगा तो इससे छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) पर भी बहुत ज़्यादा असर पड़ेगा. इन कंपनियों को बढ़ती अनुपालन लागत और अतिरिक्त वित्तीय दबाव का सामना करना पड़ेगा. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में, वन-संबंधी 80 से 90 प्रतिशत व्यवसाय छोटे और स्थानीय स्तर पर संचालित होते हैं. भारत में, कई व्यापार संघों ने भी ईयूडीआर के कड़े नियमों के कारण अपने लकड़ी के हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट) निर्यात पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को लेकर चिंता जताई है.
दक्षिण-पूर्व एशिया के देश पहले से ही यूरोपियन यूनियन के इस नए नियम के पालन की दिशा में काम कर रहे हैं. वियतनाम ने तकनीकी आदान-प्रदान, हितधारकों के साथ बैठक और कॉफ़ी क्षेत्रों में डेटा कलेक्शन के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है. वियतनाम इस बात की पूरी कोशिश कर रहा है कि ट्रेसेबिलिटी के मानकों में सुधार हो सके. मलेशियाई सरकार ईयूडीआर के लिए अपनी क्षमता निर्माण बढ़ाने की पहल पर काम कर रही है. इंडोनेशिया अपने 6.5 अरब डॉलर मूल्य के उत्पादों पर नज़र रखने के लिए एक डिजिटल डैशबोर्ड स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. ईयूडीआर के नए नियमों का पालन करने में इससे काफ़ी मदद मिलेगी. थाईलैंड ने प्राकृतिक रबर उत्पादन क्षेत्रों का मानचित्रण करने, छोटे किसानों का पंजीकरण करने, आपूर्ति श्रृंखलाओं का पता लगाने और इस क्षेत्र में क्षमता निर्माण के लिए पहल शुरू की है. इसी तरह, जापान ने स्थायी आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुनिश्चित करने के लिए जांच और डेटा कलेक्शन में मदद करने वाला 'स्वच्छ लकड़ी अधिनियम' (क्लीन वुड एक्ट) लागू किया है.
तालिका 1: किस देश की क्या पहल?
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देश |
पहल |
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वियतनाम |
डेटा कलेक्शन, तकनीकी आदान-प्रदान, हितधारकों की बैठकें |
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मलेशिया |
क्षमता निर्माण |
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इंडोनेशिया |
उत्पादों पर नज़र रखने के लिए डिजिटल डैशबोर्ड |
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थाईलैंड |
क्षेत्रों का मानचित्रण, छोटे किसानों का पंजीकरण, आपूर्ति श्रृंखलाओं का पता लगाना और क्षमता निर्माण |
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जापान |
क्लीन वुड एक्ट, डेटा कलेक्शन |
भारत अपनी तरफ से पूरी सतर्कता बरतने की कोशिश करता है. फिर भी, कम ज़ोखिम वाली श्रेणी में होने के बावजूद, भारत के लिए यूरोपीय संघ के वन कटाई को लेकर नए नियमों का पालन करना आसान नहीं होगा. भारत को अपनी खंडित आपूर्ति श्रृंखलाओं, डिजिटल ट्रेसेबिलिटी, जियोलोकेशन टूल्स, डेटा की उपलब्धता और क्षमता निर्माण तंत्रों की कमी के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.
“भारत के लिए, यूरोपीय संघ को उसके 1.3 अरब डॉलर मूल्य के कृषि निर्यात को भारी नुकसान पहुंचने का ख़तरा है.”
चूंकि किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटे किसान का हैं, जो अपनी उपज कई हितधारकों और बाज़ारों के माध्यम से बेचते हैं. ऐसे में उनका पता लगाना और उत्पाद के बारे में जांच-पड़ताल करना मुश्किल हो जाता है. छोटे किसानों और लघु एवं मध्यम उद्यमों को अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता मानकों के तहत उच्च अनुपालन लागत का ज़ोखिम उठाना पड़ता है. अलग-अलग राज्य और वन नीतियां छोटे उत्पादकों के लिए नियमों का पालन करने की प्रक्रिया को और ज़्यादा जटिल बना देती हैं. इसके अलावा, डिजिटल दस्तावेज़ के क्षेत्र में तरक्की के बावजूद, भारत में अभी भी भू-स्थानिक मानचित्रण, डिजिटल लॉग्स, डेटा कलेक्शन और प्रमाणन को लेकर बहुत काम होना बाकी है. इसके लिए पर्याप्त उपकरणों का अभाव बना हुआ है. ज़्यादातर हितधारक स्थायी प्रथाओं और स्रोत की जानकारी को लेकर जागरूक नहीं है, और उनमें साक्षरता की कमी है.
अगर भारत को आगे बढना है, तो इसके लिए सरकार को दखल देना होगा और ऐसे कदम उठाने होंगे, जिन्हें निजी क्षेत्र का समर्थन हासिल हो. भौगोलिक स्थान, डिजिटल लॉग और ट्रेसेबिलिटी प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से कृषि मूल्य श्रृंखलाओं के डिजिटलीकरण की दिशा में तेज़ी से काम करने की ज़रूरत है. उभरती हुई तकनीक में एक एकीकृत डिजिटल नेटवर्क का प्रावधान शामिल है, जो सहकारी समितियों, किसानों और निर्यातकों को एक ही मंच पर जोड़ता है. इस डिजिटल नेटवर्क में खेत से निर्यात तक की हर जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए. कुछ ऐसे मोबाइल एप्लिकेशन हैं, जो शिपमेंट के लिए ऑटोमेशन से उत्पन्न ईयूडीआर-अनुपालन वाले प्रमाणपत्र देते हैं. इससे डेटा की सटीकता सुनिश्चित होती है और अनुपालन समयसीमा में कमी आती है. छोटे किसानों को डिजिटल रूप से इससे जोड़ा जा सकता है, जिससे उनके खेतों की जीपीए-मैपिंग की जा सके. इसका फायदा ये होहा कि भूमि-उपयोग के दस्तावेज़ों के साथ-साथ स्थिरता प्रमाणपत्रों तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जा सकेगी. किसान-उत्पादक संगठनों, स्वयं सहायता समूहों और एसएमई समूहों को भी इससे जोड़ना चाहिए. इससे लघु एवं मध्यम उद्योग से जुड़े लोगों और किसानों को ज़रूरी जानकारी और तकनीक से लैस किया जा सकता है. इसके अलावा, राज्य द्वारा संचालित सब्सिडी, टैक्स प्रोत्साहन और रियायती वित्त जैसे उपाय अपनाने चाहिए. इससे एसएमई और किसानों को डिजिटलीकरण में निवेश करने और प्रमाणन लागतों को पूरा करने में मदद मिलेगी. जागरूकता अभियानों और प्रशिक्षण पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. इसके ज़रिए क्षमता निर्माण, उत्पादकों और एसएमई को हरित आपूर्ति श्रृंखलाओं के निर्माण से जुड़े अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम बनाया जा सकता है.
“भारत को प्रगति के लिए सरकारी दखल और निजी-जन सहयोग की ज़रूरत है.”
इसके अलावा, निजी क्षेत्र ब्लॉकचेन तकनीक, जियोटैगिंग ऐप्स और डिजिटल डैशबोर्ड के ज़रिए आपूर्ति श्रृंखलाओं के डिजिटलीकरण में हितधारकों का सहयोग कर सकते हैं. स्थायी स्रोतों से हासिल उत्पादों के लिए स्थिरता-संबंधी ऋण दे सकते हैं.
कुल मिलाकर, ये कहा जा सकता है कि भारत अभी कम ज़ोखिम वाली स्थिति में है. ऐसे में, अगर वो विश्वसनीय हरित आपूर्ति श्रृंखलाएं बनाने में कामयाब हो जाता है, तो यूरोपीय संघ के नए नियमों को लेकर भारत अपने प्रतिस्पर्धियों पर बढ़त ले सकता है. इस मौके का इस्तेमाल उच्च वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं और विशिष्ट बाज़ारों तक पहुंचने के नए रास्ते तैयार करने के लिए किया जा सकता है.
श्रुति जैन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ में एसोसिएट फेलो हैं.
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Shruti is an Associate Fellow at the Centre for Development Studies, Observer Research Foundation (ORF), where her research examines the intersections between policy, economic diplomacy ...
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