आखिरकार, राहुल गांधी के अध्यक्ष पद को लेकर उहापोह खत्म हुई और भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी तय हो गई। पार्टी के उपाध्यक्ष और तीन बार सांसद रह चुके राहुल गांधी दिसंबर के पहले सप्ताह में कांग्रेस अध्यक्ष का पद भार ग्रहण कर लेंगे। अब जरा संजीदगी से गौर करें कि इस घटनाक्रम का राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
इसमें कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी ऐसे समय पदभार ग्रहण कर रहे हैं जब पार्टी की राजनीतिक किस्मत 28 दिसंबर, 1885 में इसकी स्थापना के बाद से सबसे निचले स्तर पर है। इसका राजनीतिक आधार बड़ी तेजी से सिकुड़ता जा रहा है।
राहुल का निर्वाचन एक निर्वाचक मंडल के जरिये होगा। अधिकांश राज्य और भारतीय युवा कांग्रेस जैसे पार्टी के संगठन पहले ही उन्हें 132 वर्षीय पार्टी का भार ग्रहण करने के लिए सर्वसहमति से प्रस्ताव पारित कर चुके हैं। हर लिहाज से यही लगता है कि उनका निर्वाचन निर्विरोध ही होगा।
नेहरू-गांधी परिवार के इस वंशज ने 2004 में राजनीति में प्रवेश किया था जब उन्हें पहली बार उत्तर प्रदेश के अमेठी, जिसका कई दशकों से गांधी वंश के लोगों या उनके विश्वासपात्रों को संसद भेजने का रिकॉर्ड रहा है, से संसद के लिए निर्वाचित किया गया था। तब से वह 13 वर्षों से भी अधिक समय से सांसद बने हुए हैं।
“रा गा” के नाम से विख्यात, राहुल गांधी ऐसे समय में पार्टी की कमान संभालने जा रहे हैं जब पार्टी कई मोर्चों पर विभिन्न चुनौतियों से जूझ रही है और उसकी राजनीतिक साख उसके राजनैतिक इतिहास के सबसे निचले स्तर पर है।
लोकसभा में 45 सांसदों की कांग्रेस की संख्या अब तक की उसकी निम्नतम संख्या है। वह केवल पांच राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सत्ता में है जबकि उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा की सरकारें 18 राज्यों में है।
मुख्य रूप से न केवल लोगों के साथ कांग्रेस के ताल्लुकात ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर हैं बल्कि उनका अपना राजनीतिक व्यक्तित्व भी लोगों के बीच अधिक उत्साह का संचार नहीं करता। मीडिया, खासकर, सोशल मीडिया ने उन्हें उपहास का पात्र बना रखा है। आरएसएस-भाजपा उन्हें ‘पप्पू’ यानी बेजुबान या मूर्ख की तरह पेश करने में कामयाब रही है जो कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए बिल्कुल ही उपयुक्त नहीं है।
मीडिया और उनकी अपनी पार्टी के भीतर तथा पार्टी के बाहर के प्रतिद्वंदी तीन वजहों से राहुल गांधी की खामियां निकालते हैं। पहला, वह एक अनमने या उदासीन राजनीतिज्ञ हैं जो पार्टी की जिम्मेदारियों को केवल एक काम भर समझते हैं, बिना छुट्टी लिए या विश्राम किए, सातों दिन, चौबीसों घंटे इसमें तल्लीन रहने वाला एक पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं मानते।
दूसरा, उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में मंत्री का कोई पद नहीं लिया। तीसरे, वह पार्टी प्रमुख केवल इसलिए बन रहे हैं क्योंकि वह नेहरू-गांधी परिवार से जुड़े हुए हैं, इसलिए वंश परंपरा की राजनीति की पुष्टि करते हैं।
जहां तक अनमने बने रहने के पहले आरोप का सवाल है तो, राहुल गांधी लगातार इस पर जोर देते रहे हैं कि उनकी पहली प्राथमिकता पार्टी है न कि सरकार। उनका मानना है कि अगर पार्टी राजनीतिक रूप से स्वस्थ बनी रहती है तभी वह लोगों का विश्वास जीत पाएगी। उन्होंने पार्टी के लिए समय दिया है और 2007 में पार्टी के महासचिव बन गए। उन्होंने पार्टी की युवा एवं छात्र शाखाओं की जिम्मेदारी ली और इस प्रक्रिया में अनुभव हासिल करने के लिए कुछ प्रयोग भी किए। इससे वह राजनीति में धनबल और बाहुबल की भूमिका जैसी जमीनी हकीकतों से भी रूबरू हुए।
यह सच है कि वह कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार में मंत्री नहीं बने। पर यह आरोप सत्ता की राजनीति की कसौटी पर खरा उतर भी सकता है और नहीं भी उतर सकता है। वास्तव में, अगर वह मंत्री बने होते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री और उनकी मां सोनिया गांधी के अतिरिक्त, सत्ता का एक और केंद्र वजूद में आ गया होता और सरकार चलाना और कठिन हो गया होता।
देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। युवाओं के बीच बेरोजगारी चरम पर है क्योंकि नए रोजगार सृजित नहीं हो रहे हैं और पुराने रोजगार खत्म होते जा रहे हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर काफी अधिक दबाव है जिसके कारण किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनांए बढ़ती जा रही हैं।
जब उन्होंने 2013 में डॉ. मनमोहन सिंह की यह कहते हुए अवहेलना की कि दोषी विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश ‘बकवास’ है और इसे फाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिए, मीडिया और उनके विरोधियों ने उनकी जमकर आलोचना की। उन्हें इस बात के लिए आलोचना की गई कि उन्होंने प्रधानमंत्री के आधिपत्य को चुनौती दी है और उनकी बेइज्जती की है। कल्पना कीजिए कि अगर वह मंत्री परिषद के सदस्य रहे होते और किसी नीति या किसी कदम के लिए सरकार के फैसले का विरोध किया होता तो क्या होता।
वंश परंपरागत राजनीति के मोर्चे पर उनकी खबर लेने वाली अधिकांश राजनीतिक पार्टियां आज खुद ही इस रोग से ग्रस्त हैं। मेरा सुविचारित मत यह है कि यह कांग्रेस पार्टी का निजी फैसला है और इस मसले को उसी पर छोड़ दिया जाना चाहिए। कांग्रेस में कई प्रतिभाशाली और संभावनाओं से लबरेज नेता हैं लेकिन उनमें से कोई भी पार्टी को व्यापक रूप से स्वीकार्य नहीं है। भले ही इस बात की सराहना की जाए या नहीं, आदर्शवादी नजरिये से यह सही बात हो या न हो, लेकिन सच्चाई यही है कि कांग्रेस को खुद को एकजुट बनाये रखने के लिए नेहरू-गांधी के नाम के गोंद की आवश्यकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि, 13 वर्ष गुजारने के बावजूद सक्रिय राजनीति में गांधी परिवार के इस 47 वर्षीय चिराग का प्रदर्शन अभी तक बहुत आशाजनक नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसके साथ यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि उन्हें काफी अड़चनों का भी सामना करना पड़ा है। राहुल गांधी के सामने यहीं पर चुनौती आ खड़ी होती है। क्या वह गांडीव उठाने और कांग्रेस पार्टी का सहर्ष नेतृत्व करने को तैयार हैं?
अध्यक्ष पद पर चुने जाने के लिए यह समय बिल्कुल सटीक प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक चमक कुंद पड़ रही है। मोदी की व्यक्तिगत साख भी कम होनी शुरु हो गई है क्योंकि अधिक से अधिक लोग उनके प्रदर्शन को लेकर सवाल कर रहे हैं और उनके वायदों पर संदेह कर रहे हैं।
देश की अर्थव्यवस्था के सामने समस्याएं आ रही हैं। युवाओं के बीच बेरोजगारी चरम पर है क्योंकि नए रोजगार सृजित नहीं हो रहे हैं और पुराने रोजगार खत्म होते जा रहे हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर काफी अधिक दबाव है जिसके कारण किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनांए बढ़ती जा रही हैं।
देश के इतिहास को फिर से लिखे जाने, ताजमहल को लेकर विवाद, लव जिहाद, गौ बध, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जैसे महत्वहीन मुद्वे मोदी की विकासात्मक राजनीति की जगह लेने लगे हैं। प्रधानमंत्री की बेहद नर्म और उज्जवल धवल साख में दरारें स्पष्ट दिखने लगी हैं।
सामाजिक संघर्ष, राजनीतिक प्रतिशोध लेने के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल, समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी विश्वास और भरोसे की कमी तथा अल्पसंख्यकों, खासकर, मुसलमानों के बीच खौफ बढ़ रहा है।
आम धारणा यह है कि केवल कांग्रेस ही भाजपा का मुकाबला कर सकती है। लोग कांग्रेस की ओर अपेक्षा से देख रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाएगी और लोगों का विश्वास जीतेगी।
राहल गांधी के लिए कार्य शीशे की तरह साफ है। उन्हें पुराने और युवा नेताआंे दोनों को साथ लेकर चलने के द्वारा खुद को साबित करने की आवश्यकता है।
पिछले कुछ समय से राहुल गांधी ने कुछ उम्मीदें जगाई हैं और उन्हें लेकर खासकर, अमेरिका की उनकी पिछली यात्रा और बर्कले के साथ उनकी मुलाकात के बाद लोगों के नजरिये में बदलाव आने लगा है।
उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता दिखाना भी आरंभ कर दिया है। हिमाचल प्रदेश के सत्तसीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को हाल में हुए विधान सभा चुनावों में पार्टी के मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में घोषणा कर राहुल गांधी ने राजनीतिक समझदारी का परिचय दिया है। उन्होंने संकेत दिया है कि वह पुराने नेताओं के साथ काम करने और जमीनी स्तर की राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए भी तैयार हैं।
गुजरात में भी, जहां चुनावी प्रक्रिया जारी है, हाल की यात्राओं में उन्हें काफी लोकप्रियता मिलती प्रतीत हो रही है और बढि़या रिस्पांस मिल रहा है। इसकी वजह से भाजपा के राज्य एवं केंद्रीय नेतृत्व की पेशानी पर बल आते दिख रहे हैं। मोदी केवल अक्तूबर महीने में चार बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार ने चुनाव आयोग पर गुजरात में विधान सभा चुनाव की तारीखों की घोषणा करने में देरी करने के लिए दबाव डाला। इससे उनकी घबराहट प्रदर्शित होती है।
अगर कांग्रेस गुजरात में अपने चुनावी आंकड़ों में सुधार लाने में समर्थ हो जाती है और सत्ता के निकट आ जाती है तो कांग्रेस निश्चित रूप से 2019 के आम चुनावों और अगले वर्ष विधान सभाा की लड़ाई में मजबूती से आ खड़ी होगी। इस बदलाव का श्रेय निश्चित रूप से राहुल गांधी को जाएगा और उनके नेतृत्व को न केवल उनकी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता स्वीकार कर लेंगे बल्कि व्यापक रूप से देश के लोगों द्वारा भी स्वीकृत हो जाएगा।
हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभा चुनावों में अपेक्षाकृत सकारात्मक परिणाम राहुल गांधी के लिए अपनी धाक जमाने का आधार तैयार कर देंगे। लेकिन आगे का रास्ता काफी ज्यादा दुरूह और जटिल है। उन्हें धीरे धीरे और धैर्यपूर्वक पुराने और नए नेताओं को साथ में लेकर संगठन का निर्माण करना पड़ेगा।
कांग्रेस के इस भावी अध्यक्ष को यह धारणा दूर करने की आवश्यकता है कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की पहुंच से दूर हैं। इस संशय को बिल्कुल हटा दिया जाना चाहिए कि वह एक पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ नहीं हैं, खासकर तब, जब वह पार्टी प्रमुख बन जाते हैं।
उनके नेतृत्व के तहत पार्टी को भी लोगों को एक वैकल्पिक विजन प्रस्तुत किए जाने की जरुरत है कि वह भाजपा के नेताओं से अलग हैं। पार्टी के वैचारिक रवैये को भी कुछ नरम बनाये जाने की जरुरत है जिससे कि पार्टी जाति, वर्ग या धर्म से ऊपर उठकर सभी के लिए स्वीकार्य हो सके।
राहुल गांधी को यह धारणा दूर करने की आवश्यकता है कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की पहुंच से दूर हैं। इस संशय को बिल्कुल हटा दिया जाना चाहिए कि वह एक पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ नहीं हैं, खासकर तब, जब वह पार्टी प्रमुख बन जाते हैं। उनके नेतृत्व के तहत पार्टी को भी लोगों को एक वैकल्पिक विजन प्रस्तुत किए जाने की जरुरत है कि वह भाजपा के नेताओं से अलग हैं।
पार्टी की ताकतों एवं कमजोरियों का मूल्यांकन करते हुए, राहुल गांधी को अपनी नई भूमिका में पार्टी को गठबंधन राजनीति के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करने का प्रयास करना होगा। कांग्रेस के नए अध्यक्ष को लचीलापन और समझदारी प्रदर्शित करनी होगा कि वह समान विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों को साथ लेकर चलने और सत्ता को साझा करने के लिए तैयार हैं।
उनके समक्ष कार्य बहुत बड़ा तो है लेकिन नामुमकिन नहीं है।
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