22 नवंबर को शाम 7:30 बजे तेल अवीव से एक विमान उड़ा और लाल सागर के तट पर स्थित सऊदी अरब के अत्याधुनिक शहर नियोम के नज़दीक रडार की नज़रों से ग़ायब हो गया.
नियोम जिस उड़ती कार का वादा करता है, उसके पूरा होने में भले ही समय हो लेकिन लगता है कि उसी तरह की एक अकल्पनीय राजनीतिक घटना वहां हुई है.
इज़रायल के अख़बार हारेत्ज़ के मुताबिक़ उस ऐतिहासिक उड़ान में इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू सवार थे. वो मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) से मिलने के लिए गए थे. सलमान उस देश के युवराज हैं जहां इस्लाम के दो सबसे पवित्र स्थल हैं और जिसे दुनिया भर में सुन्नी मुसलमानों का रहनुमा समझा जाता है.
1948 में इज़रायल की स्थापना के समय से ही सऊदी अरब की अगुवाई में दुनिया भर के अरब देश इज़रायल को मान्यता देने से इनकार करते रहे हैं. 2002 में सऊदी अरब की अरब शांति पहल के मुताबिक़ इज़रायल के साथ राजनयिक संबंधों और सामान्य हालात बनाने को हमेशा फिलिस्तीन के लोगों के लिए अपने अलग देश के साथ जोड़ा जाता रहा है.
अब देर से ही सही लेकिन अमेरिका के प्रोत्साहन से इज़रायल और सऊदी अरब की अगुवाई वाले अरब देशों के बीच शांति की बयार बहने लगी है जिसका मक़सद साझा दुश्मन ईरान को काबू में रखना है.
इज़रायल के साथ संबंध स्थापित करने को सऊदी अरब गुप्त रखना चाहता था और इसलिए सऊदी अरब के विदेश मंत्री राजकुमार फ़ैसल बिन फ़रहान अल सऊद ने तुरंत ट्वीट करके नेतन्याहू के दौरे से इनकार कर दिया. 23 नवंबर को उन्होंने ट्वीट किया: “मैंने अमेरिकी विदेश मंत्री पॉम्पियो की हाल की यात्रा के दौरान युवराज और इज़रायल के अधिकारियों के बीच तथाकथित बैठक के बारे में मीडिया की रिपोर्ट देखी है. ऐसी कोई बैठक नहीं हुई है. उस दौरान सिर्फ़ अमेरिका और सऊदी अरब के अधिकारी मौजूद थे.”
एक धुरी का उदय
हालांकि इज़रायल के मीडिया और राजनीतिक गलियारे में दौरे की ख़बरें गूंज रही थी और किसी ने इसका खंडन करने की कोशिश नहीं की. इज़रायल के शिक्षा मंत्री योएव गैलेंट ने एक रेडियो स्टेशन पर इस दौरे के मतलब का विश्लेषण किया. उनके मुताबिक, “एक धुरी का उदय हो रहा है जिसमें इज़रायल, अमेरिका और कोई भी ऐसा देश शामिल है जो ईरान के चरमपंथ के ख़िलाफ़ है. बैठक- भले ही ये पूरी तरह औपचारिक नहीं हो- के बाद इसको सार्वजनिक करना अत्यंत महत्वपूर्ण है.”
1979 की इस्लामिक क्रांति के वक़्त से ही ईरान के धर्मगुरुओं ने इज़रायल को अपना घोर दुश्मन बना लिया है. इसका एक मक़सद ख़ुद को बेहतर मुसलमान साबित करना है ताकि वो सऊदी अरब के मुक़ाबले ख़ुद को इस्लामिक देशों का बेहतरीन रहनुमा बता सकें. ईरान ने समय-समय पर पवित्र मस्जिदों के संरक्षक के रूप में सऊदी अरब पर सवाल उठाए हैं. ये ऐसा ख़तरा है जो सीधे सऊदी अरब पर राज करने वाले परिवार को चुनौती देता है. इन नीतियों के साथ हाल में सीरिया और इराक़ के ज़रिए लेबनान तक ईरान के विस्तारवाद की वजह से उसने सऊदी अरब और इज़रायल- दोनों की दुश्मनी मोल ले ली है.
एक धुरी का उदय हो रहा है जिसमें इज़रायल, अमेरिका और कोई भी ऐसा देश शामिल है जो ईरान के चरमपंथ के ख़िलाफ़ है. बैठक- भले ही ये पूरी तरह औपचारिक नहीं हो- के बाद इसको सार्वजनिक करना अत्यंत महत्वपूर्ण है.
ईरान से सीधे निपटने के बदले नौजवान और बेचैन युवराज ने फ़ैसला लिया कि वो इस ख़तरे का मुक़ाबला करने के लिए दो तरफ़ा रणनीति अपनाएंगे.
पहली रणनीति के तहत धीरे-धीरे और गुप्त रूप से इज़रायल के साथ समझौता और ईरान के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय और वैश्विक गठबंधन का निर्माण है. पिछले कुछ महीनों के दौरान एमबीएस ने गुपचुप ढंग से इज़रायल और तीन अरब देशों- संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और सूडान- के बीच शांति समझौते का समर्थन किया.
दूसरी रणनीति के तहत दुनिया में अपने छवि बदलने के लिए एमबीएस ने इस्लाम के उदार रूप को बढ़ावा दिया. लंबे वक़्त से सऊदी अरब को वहाबी विचारधारा का समर्थक माना जाता रहा है. कई आतंकी हमलों के लिए ज़िम्मेदार आतंकी संगठन भी वहाबी विचारधारा को मानते हैं. हालांकि सऊदी अरब की सरकार सीधे तौर पर इन आतंकी हमलों से जुड़ी नहीं रही है लेकिन परोक्ष रूप से सऊदी अरब इन चरमपंथी संगठनों की फंडिंग करता रहा है. द गार्जियन के साथ एक इंटरव्यू में एमबीएस ने सऊदी अरब के द्वारा कट्टर सुन्नी वहाबी विचारधारा अपनाने के लिए ईरान को ज़िम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि सऊदी राजघराना को “ये नहीं मालूम था कि” पूरे इलाक़े में इस्लाम के आदर्श के तौर पर ईरान के उभरने से कैसे निपटें.
नेतन्याहू के दौरे का मक़सद
नेतन्याहू के हाल के दौरे का मक़सद अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन से निपटने की रणनीति बनाना भी था जो सऊदी अरब के आलोचक और फिलिस्तीनी आकांक्षाओं को लेकर ज़्यादा विचारशील रहे हैं. एमबीएस और नेतन्याहू को चिंता है कि बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को बाइडेन फिर से ज़िंदा कर सकते हैं. इस समझौते को ट्रंप ने रद्द कर दिया था. नये समझौते का मतलब ये होगा कि ईरान अपना तेल बेचकर फिर से पैसा कमा सकता है और अगर वो चाहे तो इस पैसे को इलाक़े में अपने समर्थकों के बीच बांट सकता है. इस तरह वो अपना विस्तार करेगा और इज़रायल और सऊदी अरब के लिए ख़तरा बना रहेगा.
पलड़ा किसी का भी भारी हो लेकिन भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हर किसी के साथ उसके दोस्ताना संबंध हैं: चाहे वो सऊदी अरब हो या ईरान, इज़रायल हो या फिलिस्तीन.
पलड़ा किसी का भी भारी हो लेकिन भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हर किसी के साथ उसके दोस्ताना संबंध हैं: चाहे वो सऊदी अरब हो या ईरान, इज़रायल हो या फिलिस्तीन. हालांकि भारत का दृष्टिकोण थोड़ा बदल गया है. भारत ज़्यादातर मौक़ों पर इज़रायल-सऊदी अरब-अमेरिका के साथ नज़र आया है. ये फ़ैसला अभी तक फ़ायदेमंद रहा है.
अगस्त 2019 में जब भारत ने कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने का फ़ैसला लिया था, उस वक़्त सऊदी अरब और उसके समर्थक देशों ने इसकी आलोचना नहीं की थी.
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