Author : Nandini Sarma

Published on Dec 26, 2020 Updated 0 Hours ago

कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने के लक्ष्य को पाने को लेकर सवाल यह भी है कि आखिर ऐसी परिस्थिति में उन योजनागत निवेश का क्या होगा जो कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन में किए गए हैं और उनसे संबंधित संपत्ति जो इस योजना में इस्तेमाल किए जा रहे हैं

2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का स्तर – चीन के लिए इसका अर्थ

ग्रीनहाउस गैसों के दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषक देश चीन के नेता ने साल 2060 तक कार्बन न्यूट्रल बनाने का संकल्प लिया है. यह संकल्प चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने लिया है, जिनपिंग ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए ग्रीन रिवोल्युशन की अपील की और कहा है कि पेरिस में पर्यावरण समझौते के अनुसार देश में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाई जाएगी और देश को आगामी 40 वर्षों में कार्बन न्यूट्रल बना लिया जाएगा. उन्होंने दुनिया के 187 देशों से कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए संकल्प लेने की अपील की है और ऐलान किया कि चीन का लक्ष्य है कि इस दशक के खत्म     होने से पहले कार्बन उत्सर्जन कम करने वाले देशों में वह शीर्ष पर होगा और आगामी 40 वर्षों में कार्बन न्यूट्रिलिटी हासिल कर लेगा. यह पहला मौका है जब चीन ने ख़ुद के लिए ज़ीरो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने की ठोस योजना बनाई है. जाहिर है यह एक महत्वपूर्ण घोषणा है खास कर यह देखते हुए कि चीन कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है और कोयले के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है. साल 2021-25 के लिए 14वीं पंचवर्षीय योजना में चीन ने देश में टिकाऊ और स्वस्थ विकास की रूपरेखा को स्थान दिया है लेकिन सवाल उठता है कि आने वाली चुनौतियों और अवसरों के मुकाबले चीन की इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य का क्या मतलब हो सकता है?

यह पहला मौका है जब चीन ने ख़ुद के लिए ज़ीरो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने की ठोस योजना बनाई है. जाहिर है यह एक महत्वपूर्ण घोषणा है खास कर यह देखते हुए कि चीन कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है और कोयले के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है.

चुनौतियां काफी हैं क्योंकि साल 2060 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक पहुंचाने का मतलब है कि उद्योगों, यातायात और बिजली पैदा करने में फॉसिल फ़्यूल के इस्तेमाल में भारी कटौती करनी होगी. इसका सीधा अर्थ है कि साल 2060 तक कोयले के इस्तेमाल से चीन को ख़ुद को पीछा छुड़ाना होगा या फिर उन तरीकों को बहाल करना होगा जिसमें पेड़ पौधे लगाना और कार्बन स्टोरेज को बढ़ावा देना शामिल है. अब जरा सोचिए कि यह कितना कठिन है क्योंकि ऊर्जा उत्पादन के प्रमुख स्रोतों में से कोयला है. यही नहीं 60 फीसदी ऊर्जा उत्पादन कोयले की बदौलत है. नीचे दिए गए ग्राफ़ में यह साफ होता है कि दुनिया भर के देशों के मुकाबले चीन में कोयले की खपत कितनी है.

इसके साथ ही शुद्ध फ़्यूल पर आधारित ऊर्जा उत्पादन की ओर बढ़ने का मतलब है भारी निवेश. शिंघुआ यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड इकोनॉमी की एक स्टडी के मुताबिक आने वाले वर्षों में शुद्ध ऊर्जा की ओर अग्रसर होने में करीब 15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश आवश्यक होगा.[1] इसके अलावा कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने के लक्ष्य को पाने को लेकर सवाल यह भी है कि आखिर ऐसी परिस्थिति में उन योजनागत निवेश का क्या होगा जो कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन में किए गए हैं और उनसे संबंधित संपत्ति जो इस योजना में

इस्तेमाल किए जा रहे हैं? इसके अलावा कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में आई मंदी के आलोक में उत्पादकों द्वारा लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि कोयले के उत्पादन में निवेश बढ़ाया जाए . कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए योजनागत निवेश के मुकाबले फॉसिल फ़्यूल में निवेश तीन गुना हो रहा है.

मौजूदा समय में अमेरिका और चीन के बीच जिस तरीके से व्यापार को लेकर प्रतिदवन्दिता और खींचतान चल रही है उसके साथ ही पेरिस समझौते से अब जबकि अमेरिका ने ख़ुद को अलग कर लिया है – ऐसे में पर्यावरण मुद्दे को लेकर अंतर्राष्ट्रीय दबाव नाम की कोई चीज नहीं रह गई है.

एक अध्ययन के मुताबिक पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा करने के लिए चीन को साल 2030 तक थर्मल पावर कैपेसिटी को बढ़ाने के बजाए कम करने की ज़ररत है. इतना ही नहीं देश में भविष्य में बगैर कोई कोयले आधारित प्लांट को खड़े किए चीन के लिए 2060 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक लाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कई नीतिगत फैसले भी अमल में लाने होंगे. इसके लिए ज़ररी है कि चीन नई तकनीक के विस्तार के लिए सब्सिडी के प्रावधान को विस्तार दे, पावर ग्रिड बढ़ाने में निवेश करे, एनर्जी बैटरी के स्टोरेज और बाजार को रेग्यूलेट करे. इसके साथ ही चीन के लिए कोयले आधारित प्लांट की जगह न्यूक्लियर पॉवर प्लांट को अस्तित्व में लाने की आवश्यकता होगी लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए आम लोगों के सुरक्षा संबंधी मुद्दों को लेकर भरोसा जीतने की चुनौती होगी जिसके लिए अभूतपूर्व राजनीतिक इच्छा की ज़रूरत होती है. लेकिन मौजूदा समय में अमेरिका और चीन के बीच जिस तरीके से व्यापार को लेकर प्रतिदवन्दिता और खींचतान चल रही है उसके साथ ही पेरिस समझौते से अब जबकि अमेरिका ने ख़ुद को अलग कर लिया है – ऐसे में पर्यावरण मुद्दे को लेकर अंतर्राष्ट्रीय दबाव नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. यह बात इससे जाहिर होती है कि राजनीतिक रूप से सशक्त नेशनल डेवलपमेंट एंड रिफ़ॉर्म कमीशन के हाथ से पर्यावरण बदलाव संबंधी विभाग को हाल ही में बनाए गए इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट मंत्रालय को सौंप दिया गया. ऐसा नहीं है कि शुद्ध फ़्यूल को अपनाना चीन के लिए हितकर नहीं है, लेकिन चीन इसे लेकर दुनिया का नेतृत्व नहीं करना चाहता है इसलिए 14वीं पंचवर्षीय योजना में रेखांकित किए गए कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य से ही यह तय हो पाएगा कि आने वाले दिनों में इसे लेकर क्या रूपरेखा तय की जाती है.

 इसके अलावा कोयला उत्पादन में घरेलू निवेश की भारी भरकम मौजूदगी के साथ ही दुनिया भर में कोयले संबंधी प्रोजेक्ट्स में चीन सबसे बड़ा निवेश करने वाला देश है. कोयला आधारित प्लांट में चीन ने भारी भरकम निवेश कर रखा है तो कई योजनाएं अभी भविष्य में भी हैं खास कर चीन के बेल्ट एंड रोड पहल के तहत. पर्यावरण बदलाव के लिए गंदे फ़्यूल को विदेशी ज़मीन पर शिफ्ट करना दीर्घकालिक समाधान नहीं है. ऐसे में यह जानना ज़ररी होगा कि कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने के लक्ष्य को हासिल करने में चीन को अपने देश से बाहर कितना निवेश करने की ज़रूरत होगी?

पर्यावरण बदलाव के लिए गंदे फ़्यूल को विदेशी ज़मीन पर शिफ्ट करना दीर्घकालिक समाधान नहीं है. ऐसे में यह जानना ज़ररी होगा कि कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने के लक्ष्य को हासिल करने में चीन को अपने देश से बाहर कितना निवेश करने की ज़रूरत होगी?

अवसर

इसमें दो राय नहीं है कि बहुत पहले ही दुनिया भर में क्लीन एनर्जी तकनीक के बाज़ार को चीन ने पहचान लिया था. इसका नतीजा यह हुआ कि इस क्षेत्र में लगातार निवेश करने के चलते चीन ने इससे जुड़े कई उपकरणों जैसे फोटोवोलटेयिक सेल्स, विंड टर्बाइन सिस्टम की कीमतों में गिरावट दर्ज़ की. मौजूदा समय में चीन दुनिया भर में सबसे ज्यादा इलेक्ट्रिक कार और बस का उत्पादन करता है. यही नहीं लिथियम आधारित बैटरी सप्लाई चेन और केमिकल रिफाइनिंग में भी चीन दुनिया के किसी भी देश से सबसे आगे है. नीचे दिए गए चार्ट से यह साफ होगा कि साल 2019 के मुकाबले ग्लोबल सप्लाई चेन में चीन की हिस्सेदारी कितनी है और जैसा कि नीचे के ग्राफ से साफ है कि रिफाइनिंग के ग्लोबल सप्लाई में चीन की हिस्सेदारी 80 फीसदी है जबकि लिथियम आयन बैटरी सेल्स की सप्लाई में 73 फीसदी चीन की हिस्सेदारी है. वीं पंचवर्षीय योजना की ब्लूप्रिंट इस बात पर जोर देती है कि चीन भविष्य में नई तकनीक के क्षेत्र में अभूतपूर्व विस्तार करने का मक़सद रखता है जिससे कि वह दुनिया का नेतृत्व कर सके. मौजूदा समय में नए क्लीन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में चीन का दबदबा इस बात का परिणाम है कि चीन ने इसे लेकर दीर्घकालिक नीतियां बना कर अहम सेक्टरों में भारी निवेश किया जिससे भविष्य में वह इन क्षेत्रों में अपना वर्चस्व कायम कर सके. यहां तक कि अमेरिका और यूरोप के भी कई देश चीन के ऐसे विस्तार को चुनौती देने के लिए अब अपने यहां कई उद्योग लगाने पर जोर दे रहे हैं.

भारत पर इसका असर

एक विकासशील देश होने के नाते चीन ने हमेशा से इस बात की वकालत की है कि कार्बन उत्सर्जन के स्तर का भार जितना विकासशील देश सहने पर मजबूर हैं उतना ही विकसित देश भी इसे वहन करें लेकिन पर्यावरण संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के पीछे चीन ने इसकी आर्थिक और राजनीतिक फ़ायदों का भी समय रहते आकलन कर लिया है और यही वजह है कि उसने इस क्षेत्र में महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए हैं. ऐसे में यह निश्चित है कि भारत को भी कार्बन उत्सर्जन के अपने लक्ष्य और मक़सद को लेकर फिर से विचार करना होगा. सवाल उठता है कि क्या दुनिया के मंच पर अपना वर्चस्व कायम करने और चीन जैसे लक्ष्य को हासिल करने में भारत पर्यावरण को शुद्ध करने संबंधी इस पूरे प्रकरण में ख़ुद को पीछे रखने का जोख़िम उठा सकता है?

एक विकासशील देश होने के नाते चीन ने हमेशा से इस बात की वकालत की है कि कार्बन उत्सर्जन के स्तर का भार जितना विकासशील देश सहने पर मजबूर हैं उतना ही विकसित देश भी इसे वहन करें लेकिन पर्यावरण संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के पीछे चीन ने इसकी आर्थिक और राजनीतिक फ़ायदों का भी समय रहते आकलन कर लिया है और यही वजह है कि उसने इस क्षेत्र में महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए हैं.

क्योंकि इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा समय में चीन ने अहम टेक्नोलॉजी सप्लाई चेन में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. यहां तक कि बैटरी सिस्टम, सोलर सेल्स और दूसरे प्रमुख तकनीक के आयात के लिए भारत पूरी तरह चीन पर आधारित है. ऐसे में चीन से आयात में कमी लाना आसान नहीं होगा और इसके लिए ज़रूरी होगा कि भारत सप्लाई चेन संबंधी प्रमुख सेक्टरों की पहले पहचान करे जहां भारत भारी भरकम निवेश कर सके और चीन से आयात की निर्भरता को कम कर सके. लिहाज़ा दूसरे देशों के साथ इस क्षेत्र में नए सहयोग को बढ़ाना भी भारत के लिए फ़ायदेमंद होगा. और तो और भारत के लिए यह भी आवश्यक होगा कि वह इस क्षेत्र में सावधानीपूर्वक नीतियों को बनाए और प्रधानमंत्री के “आत्मनिर्भर” बनने के लक्ष्य को आत्मसात कर सके.

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