Author : Satish Misra

Published on Jan 19, 2019 Updated 0 Hours ago

व्यापक रूप से लोगों को मोदी सरकार के इस कदम के पीछे उसकी मंशा के बारे में संदेह है।

क्या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10% आरक्षण देने से बीजेपी को कोई फायदा होगा?

संसद ने 9 जनवरी को सवर्ण/उच्च जातियों सहित आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने के लिए रिकार्ड समय में 124 वें संवैधानिक संशोधन बिल को मंजूरी दी।

अधिकांश राजनीतिक दलों ने सरकार के इस कदम को अपना समर्थन दिया है क्योंकि इसे लोकसभा द्वारा 323 मतों के बहुमत से पारित किया गया और इसके खिलाफ केवल तीन मत थे। इसी तरह राज्यसभा में भी 165-7 के वोटों की गिनती के साथ अधिकतर पार्टियों ने इस मुद्दे पर अपना समर्थन देने के बावजूद मोदी सरकार द्वारा इस विषय को उठाने के समय और इरादे पर ऊँगली उठाते हुए भी बहुमत से इसे पास कर दिया।

7 जनवरी को जब संसद के दोनों सदन इस विषय पर कार्यवाही के लिए साथ बैठे तब संसद के केंद्रीय हॉल में काफी गहमा गहमी थी। सोशल मीडिया में यह खबर बड़े जोर शोर से फैली थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार अगले ही दिन लोकसभा में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने वाला एक संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश करने जा रही है। दोपहर के समय केन्द्रीय हाल में उपस्थित लोगों में से अधिकांश की तत्काल प्रतिक्रिया यह थी और जिनमें सत्तादल पार्टी के सांसद भी शामिल थे कि यह कदम अच्छा था लेकिन इसके लिए गलत वक़्त चुना गया।

सोशल मीडिया में यह खबर बड़े जोर शोर से फैली थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार अगले ही दिन लोकसभा में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने वाला एक संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश करने जा रही है।

इस कदम को आगामी लोकसभा चुनावों में गैर दलित और गैर ओबीसी मतदाताओं को लुभाने वाले निराशा भरे एक दुस्साहसी कदम के रूप में देखा जा रहा है है। हाल में पांच राज्यों में संपन्न चुनावों में विशेषकर हिन्दीभाषी राज्यों जैसे छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और और राजस्थान में भाजपा की हार के बाद मोदी सरकार ने उन उच्च जातियों के लिए 10 प्रतिशत कोटे का एक लुभाने वाला ऑफर देने का निर्णय लिया, जिन्होंने चुनावों में भाजपा के खिलाफ वोट दिया था।

नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल के दौरान मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर राजनीतिक ढीलेपन को दुरुस्त करने के लिए गरीबों या सभी वर्गों में आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के प्रयास को 90 के दशक में उच्चतम न्यायलय द्वारा निरस्त कर दिया गया था।

विधेयक को एक संवैधानिक संशोधन होना चाहिए क्योंकि यह कोटा पर सुप्रीम कोर्ट की 50 प्रतिशत तक की सीमा का अतिक्रमण करता है और कुल आरक्षण को 60 प्रतिशत तक ले जाता है। उस सीमा के ऊपर कोई भी वृद्धि न्यायिक जांच का विषय होगी।

हालांकि केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद जैसे सत्ताधारी पार्टी के क़ानूनी विशेषज्ञ और क़ानूनी विद्वान आश्वस्त हैं कि 124 वां संविधान संशोधन विधेयक कानूनी परीक्षण पारित कर लेगा लेकिन अन्य गैर समर्थक विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि इस विधेयक को कई क़ानूनी रुकावटों का सामना करना पद सकता है और इसे शीर्ष अदालत की मंजूरी न मिले।

नौ जजों की पीठ ने इंद्रा साहनी मामले में फैसला सुनाया था कि आरक्षण ऐतिहासिक भेदभाव दूर करने का उपाय मात्र है और यह दुष्प्रभाव भी डालता है। अदालत ने यह भी माना था कि आरक्षण आर्थिक उठान या गरीबी उन्मूलन पर केन्द्रित नहीं है। और साथ ही यह यह भी संदेह से भरा है कि सरकार के पास इस तरह का कोई सत्यापित आंकङे है जो यह दिखा संके कि निम्न आय वर्ग के लोगों का नौकरियों में कम प्रतिनिधत्व है।

सुप्रीम कोर्ट के इस कदम ने देश भर में दलित समूहों के देशव्यापी विरोध को हवा दी जिसके उपरांत मोदी सरकार इस मुद्दे पर कानून लेकर आई और गत मानसून सत्र में संसद मे सुप्रीम कोर्ट के सुझाये सभी उपायों को रद्द कर दिया।

इस कदम को अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के दुरुपयोग की आशंकाओं के सर्वोच्च न्यायालय के प्रयासों के विरुद्ध मोदी सरकार के प्रयासों के प्रति उच्च जाति के प्रतिशोध की प्रष्टभूमि में देखना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के इस कदम ने देश भर में दलित समूहों के देशव्यापी विरोध को हवा दी जिसके उपरांत मोदी सरकार इस मुद्दे पर कानून लेकर आई और गत मानसून सत्र में संसद मे सुप्रीम कोर्ट के सुझाये सभी उपायों को रद्द कर दिया।

हालांकि, सरकार आर्थिक और सामाजिक आरक्षण के बीच भेद रखना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट की सीमा सामाजिक आरक्षण के लिए तय है। यह कानूनी रूप से जटिल हो सकता है लेकिन किसी प्रकार के आरक्षण से वंचित सामान्य वर्ग के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को संप्रेषित करने का यह एक प्रयास है।

व्यापक रूप से लोगों को मोदी सरकार के इस कदम के पीछे उसकी मंशा के बारे में संदेह है। प्रस्तावित आरक्षण के लिए योग्यता प्राप्त करने के लिए बिल में जो पात्रता मानदंड निर्धारित किये गए हैं वे वास्तविक रूप से आर्थिक कमजोर वर्ग के लिए नहीं है। निर्धारित मानदंडों से स्पष्ट है कि आठ लाख से कम की वार्षिक आय धारक अथवा 5 एकड़ से कम की कृषि भूमि के मालिक हों अथवा 1,000 वर्गफीट से छोटा घर अथवा किसी म्युनिसिपेलिटी में 100 गज से छोटा आवासीय भूखंड या गैर अधिसूचित म्युनिसिपेलिटी में 200 गज के आवासीय भूखंड के मालिक आरक्षण के पात्र है किन्तु ये सभी लोग न तो निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं और न ही मध्य- माध्यम वर्ग से सम्बंधित हैं। अधिकांश नौकरियां इसी वर्ग के पास चली जाएँगी क्योंकि इस वर्ग के पास निश्चित तौर पर अनुकूल परिस्थितियाँ है क्योंकि इन्हें बेहतर स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्राप्त हुए हैं।

निर्धारित मानदंडों से स्पष्ट है कि आठ लाख से कम की वार्षिक आय धारक अथवा 5 एकड़ से कम की कृषि भूमि के मालिक हों अथवा 1,000 वर्गफीट से छोटा घर अथवा किसी म्युनिसिपेलिटी में 100 गज से छोटा आवासीय भूखंड या गैर अधिसूचित म्युनिसिपेलिटी में 200 गज के आवासीय भूखंड के मालिक आरक्षण के पात्र है किन्तु ये सभी लोग न तो निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं और न ही मध्य- माध्यम वर्ग से सम्बंधित हैं।

यह वर्ग इनकम टैक्स देता है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में वे आते हैं जो हैं जो इनकम टैक्स का भुगतान नहीं करते हैं या जिनकी दो लाख या इसके आसपास की भी आय नहीं है। वास्तव में, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गके लिए पात्रता के मानदंड इस तरह से तैयार किए गए हैं कि इसमें आर्थिक रूप से अति सम्पन्न 3 प्रतिशत वर्ग को छोड़कर लगभग सभी भारतीयों को शामिल किया जा सकें।

“यह प्रधान मंत्री मोदी का भूतपूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह वाला मंडल कदम है” जिसके बाद राजा मांडा की सर्कार के उलटी गिनती शुरू हो गयी थी, यह उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के भा ज पा के सबसे अनुभवी नेता का कहना है जो पार्टी और सरकार दोनों में ही बड़े पद पर आसीन रहे हैं। उनके कहने का आशय यह था कि इसके परिणाम के तौर पर प्रधानमंत्री को अपना पद गंवाना पड़ सकता है। ऐसा पहले पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ हो चुका है जिन्होंने 1991 में मंडल कमीशन की उन सिफारिशों को स्वीकार किया जिसमें अन्य पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने क बात थी। यह टिप्पणी कठोर लग सकती है लेकिन इसमें सत्य निहित है।

हाल ही में भाजपा छोड़ कर जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने इस कदम को “जुमला” बताया और ट्वीट किया: “… यह प्रस्ताव कानूनी जटिलताओं से भरा हुआ है और इसे संसद के दोनों सदनों से पारित करवाने का अब समय नहीं है। सरकार का पूरी तरह से पर्दाफ़ाश हो चुका है।”

चुनावों से ठीक पहले सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण देने का निर्णय एक ढकोसला है क्योंकि यहाँ तो नौकरियां ही नहीं हैं। मुंबई स्थित एक थिंक टैंक-सीएमआईई द्वारा जारी किए गए नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि दिसंबर में बेरोजगारी दो साल के उच्च स्तर 7.4 प्रतिशत पर पहुंच गयी और ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले एक साल में नब्बे प्रतिशत तक लगभग 1करोड़ 10 लाख लोगों ने रोजगार खो दिया है और शहरी क्षेत्रों में यह आंकडा लगभग 10 प्रतिशत तक पहुँच गया है।

भाजपा को अब इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है। वे अगड़ी जातियाँ, जिनका वोट पाने के लिए यह बिल लाया गया है, वे भी इन कोरे वादों से खुश नहीं हैं, वहीँ दलित और ओबीसी भी सरकार के इस कदम को अपने खिलाफ देख रहे हैं।सरकार ऐसा मान रही है कि गैर-उच्च जाति वर्ग उसके खिलाफ काम कर रहे हैं। भाजपा को न तो सवर्णों के वोट मिलने वाले हैं और न ही दलितों और ओबीसी के।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह कदम सरकार की न ही कोई सार्थक नीति है और न ही इसे एक चतुराई भरा राजनीतिक कदम माना जा सकता है।

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