भारतीयों द्वारा भारत की धरती पर 1940 के दशक के बाद से निर्मित किए गए सैकड़ों लड़ाकू विमानों की कहानी बेहद दिलचस्प है. भारतीय वायु सेना के कानपुर में स्थित एयरक्राफ्ट मैन्युफैक्चरिंग डिपो (AMD) ने वर्ष 1961 में Avro 748 turboprop का निर्माण शुरू किया था, यह विमान द्वितीय विश्व युद्ध के समय के Dakota विमान का नया संस्करण था. वर्ष 1964 में एयरोनॉटिक्स इंडिया एवं हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट के विलय से बनाए गए एक नए PSU हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) में AMD को स्थानांतरित कर दिया गया था. तब से HAL ने विमानों का उत्पादन जारी रखा है और यह अब तक भारतीय वायु सेना के साथ इंडियन एयरलाइंस के लिए लगभग 90 टाइप के विमानों का निर्माण कर रहा है.
भारत सरकार और वायु सेना, दोनों की इस साझा ज़रूरत के लिए Dornier 228 विमान का चयन किया गया. इसके साथ ही इस विमान के उपयोग को लेकर कोस्ट गार्ड एवं नौसेना ने भी दिलचस्पी दिखाई.
भारत सरकार 1980 के दशक तक रीजनल कनेक्टिविटी को सशक्त करने के लिए कम दूरी की यात्रा में सक्षम एक उपयुक्त विमान को ख़रीदने की कोशिश में जुटी हुई थी. इसी के साथ भारतीय वायुसेना अपने Devons एवं Otters विमानों को यात्री परिवहन या माल ढुलाई के कार्यों के लिए बदलना चाह रही थी. भारत सरकार और वायु सेना, दोनों की इस साझा ज़रूरत के लिए Dornier 228 विमान का चयन किया गया. इसके साथ ही इस विमान के उपयोग को लेकर कोस्ट गार्ड एवं नौसेना ने भी दिलचस्पी दिखाई. जर्मनी में निर्मित पहला Do 228 वर्ष 1984 में डिलीवर किया गया था. जबकि HAL द्वारा निर्मित पहला विमान वर्ष 1986 में सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी वायुदूत को सौंपा गया था. Avro के निमार्ण से संबंधित अनुबंध की तरह ही इस कॉन्ट्रैक्ट में यह सुनिश्चित किया गया था कि Dornier 228 लगभग पूरी तरह से एक स्वदेशी विमान होगा, अर्थात इसका निर्माण भारत में ही किया जाएगा. महत्वपूर्ण बात यह है कि Avro के समझौते के उलट, HAL के पास Do 228 की मार्केटिंग करने एवं इसे निर्यात करने से जुड़े लगभग सभी अधिकार थे. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकार के किसी भी विभाग या संस्थान ने कभी भी मार्केटिंग एवं निर्यात के इन अधिकारों का लाभ नहीं उठाया. ज़ाहिर है कि HAL द्वारा विभिन्न वैरिएंट्स में 150 से अधिक विमानों का उत्पादन किया गया, लेकिन इनमें से चुनिंदा विमान ही भारत के बाहर जा सके और ऑपरेट किए गए.
C295 कि भूमिका
आख़िरकार भारत सरकार ने सितंबर 2021 में 56 C295 MW (विंगलेट से लैस मिलिट्री ट्रांसपोर्ट वैरिएंट के लिए MW) ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट के लिए एयरबस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. यह समझौता तथाकथित ‘Avro रिप्लेसमेंट प्रोग्राम’ के अंतर्गत ही किया गया. इनमें से पहला C295 MW पिछले महीने 25 सितंबर को औपचारिक रूप से भारतीय वायुसेना में शामिल किया गया. एयरबस द्वारा आने वाले दिनों में 15 और C295 MW की स्पेन से डिलीवरी दी जाएगी और उसके पश्चात, गुजरात के वडोदरा में टाटा की साझेदारी में स्थापित फैक्ट्री में 40 अन्य C295 MW ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट का निर्माण किया जाएगा.
1950 के दशक में निर्मित किए गए इस C295 विमान के डिज़ाइन को बदलने में 60 साल से अधिक का समय लग गया है. हालांकि, अब इस एयरक्राफ्ट में आज की ज़रूरतों के मुताबिक़ पूरी तरह से बदलाव किया जा चुका है और अब इसमें आगे और कोई सुधार या विकास किए जाने की संभावना नहीं है. जिस प्रकार से C295 परिवहन विमान की ख़रीदारी की गई है, उससे यह स्पष्ट है कि Avro एवं Dornier प्रोग्राम्स से और भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
जिस प्रकार से C295 परिवहन विमान की ख़रीदारी की गई है, उससे यह स्पष्ट है कि Avro एवं Dornier प्रोग्राम्स से और भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
सबसे पहले, Dornier प्रोग्राम ने Avro समझौते की एक बड़ी कमी को दूर किया है. ज़ाहिर है कि इसको C295 के साथ दोहराया जाना चाहिए, साथ ही इसे दूसरी भूमिकाओं में भी उपयोग किया जाना चाहिए. उल्लेखनीय है कि Avro विमान बुनियादी तौर पर एक मालवाहक एयरक्राफ्ट था. इसे सैन्य परिवहन की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने के लिए कुछ बदलाव किए गए थे. इन बदलावों में, इसमें एक बड़ा दरवाजा लगाया गया था, ताकि सैन्य वाहनों के साथ-साथ पैरा-ड्रॉपिंग सैनिकों और सामग्री समेत कार्गो की लोडिंग में सहूलियत हो. हालांकि, इस विमान का डिज़ाइन बुनियादी तौर पर इस तरह के कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं था, इसलिए आज तक इस Avro विमान का उपयोग यात्री परिवहन या फिर हल्के कार्गो के ट्रांसपोर्ट हेतु किया जाता है. एयरबोर्न रडार डेवलपमेंट के लिए एक सिंगल एयरक्राफ्ट को परिवर्तित किया गया था, लेकिन वर्ष 1999 में एक भयानक एक्सीडेंट की वजह से इस प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया. दूसरी ओर, Dornier का निर्माण ही एक नागरिक एयरक्राफ्ट के तौर पर हुआ था और इसका उसे फायदा भी मिला. Dornier एयरक्राफ्ट को हमेशा से ही सैन्य उपयोग के लिए संशोधित किए जाने के बारे में सोचा जाता था. Dornier के मैरीटाइम वेरिएंट यानी कि समुद्री ज़रूरतों के लिहाज़ से उन्नत संस्करण को अपनाने में भारत की ओर से ज़बरदस्त उत्साह दिखाया गया था. Dornier के इस वैरिएंट में भारतीय नौसेना और कोस्ट गार्ड की आवश्यकताओं के मुताबिक़ काफ़ी बदलाव किए गए थे.
C295 एयरक्राफ्ट भी अधिक वजन, रेंज और मज़बूती के साथ सेल्फ के लचीलापन जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराता है. हालांकि, यह माना जाता है कि पुराने Do 228 विमान की तुलना में C295 एयरक्राफ्ट में यह सुविधाएं प्रीमियम पर अर्थात अधिक पैसा ख़र्च करने पर मिलती हैं. हालांकि, देश में C295 विमान की असेंबली लाइन के साथ इसके निर्माण की योजना बनाई गई है. ज़ाहिर है कि देश में मौज़ूद इस क्षमता का फायदा उठाना उपयुक्त होगा, साथ ही जहां तक संभव हो इस प्लेटफॉर्म का अधिक से अधिक भूमिकाओं के लिए उपयोग करना भी समझदारी भरा फैसला होगा. इसके लिए नौसेना और तटरक्षक बल में शामिल Dornier एयरक्राफ्ट बेड़े के कुछ विमानों को बदलना शुरुआती क़दम हो सकता है. लेकिन इसके साथ ही इनका (C295) भरपूर इस्तेमाल करने के लिए यह भी ज़रूरी है कि इन विमानों के विशेष उपकरणओं का उपयोग करने पर भी विचार करना चाहिए. ज़ाहिर है कि फिलहाल इन विमानों के विशेष उपकरणों का उपयोग कम किया गया है, या फिर दूसरे विमानों पर भरोसा जताया गया है. समुद्री क्षेत्र, जहां पर C295 विमान के इन उपकरणों का उपयोग बेहद आसान होता है, ऐसे में इनका ओवरलैंड सर्विलांस (संचार और इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस), डेडिकेटेड सर्च एवं रेस्क्यू और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर में भी उपयोग करना चाहिए.
उल्लेखनीय है कि C295 एयरक्राफ्ट में किए गए कुछ सुधारों और बदलावों को (मुख्य रूप से मैरीटाइम, लेकिन सर्विलांस व जैमिंग पर भी लागू) पहले ही OEM यानी ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर की ओर से प्रमाणित किया जा चुका है. ऐसे में अब पूरा ध्यान C295 के सभी वेरिएंटस की बेतहाशा क़ीमत को कम करने पर होना चाहिए, इसके लिए इसके कॉमर्शियल ग्रेड ऑफ-दि-सेल्फ या मिलिट्री ग्रेड ऑफ-दि-सेल्फ (COTS/MOTS) मिशन हार्डवेयर को प्राथमिकता दी जा सकती है. ऐसा करने से सैन्य बलों या इन्हें इस्तेमाल करने वाली एजेंसियों के लिए अपने आधुनिकीकरण के छोटे से फंड को ख़र्च कर C295 एयरक्राफ्ट के इन वैरिएंट्स को ख़रीदना आसान हो जाएगा. अगर ज़रूरत हो तो, आयातित मिशन उपकरणों का चरणबद्ध तरीक़े अपने देश में निर्माण भी किया जा सकता है, ऐसा करने से न केवल क़ीमत पर नियंत्रण होगा, बल्कि कहीं न कहीं निर्यात की क्षमता भी हासिल हो जाएगी. ज़ाहिर है कि अगर इस तरह की गतिविधियां, एकीकरण, टेस्टिंग और उत्पादन का पूरा काम भारत में ही भारतीयों द्वारा किया जाता है तो, निसंदेह तौर पर इससे प्राइवेट सेक्टर में भी समानांतर क्षमताएं विकसित हो जाएंगी. ज़ाहिर है कि यह सब गतिविधियां अभी तक केवल पब्लिक सेक्टर तक ही सीमित हैं. भारत में C295 एयरक्राफ्ट के निर्माण की व्यवस्थाओं का विस्तार होने से, अब PSUs के एक व्यवहारिक विकल्प के रूप में निजी सेक्टर की क्षमताओं (कम से कम टाटा की) का भी आकलन हो जाएगा.
अगर ज़रूरत हो तो, आयातित मिशन उपकरणों का चरणबद्ध तरीक़े अपने देश में निर्माण भी किया जा सकता है, ऐसा करने से न केवल क़ीमत पर नियंत्रण होगा, बल्कि कहीं न कहीं निर्यात की क्षमता भी हासिल हो जाएगी.
यह सब आख़िरकार हमें उस स्थिति में ला देगा, जहां हमारी योजना और हमारी कोशिशें ज़मीन पर साकार होती हुई दिखाई देंगी. भारत के एयरोस्पेस सेक्टर की पिछले 70 वर्षों में सबसे बड़ी कमी यह रही हैं, वो अपने कैप्टिव कस्टमर, अर्थात प्रोडक्ट या वेंडर को विभिन्न कारणों से बदल पाने में असमर्थ रहा है. जैसे कि भारत में डिफेंस सेक्टर के जितने भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम हैं, वो ख़ास तौर पर केवल रक्षा मंत्रालय के लिए ही उत्पादन करते हैं. ये सारे PSUs रक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करते हैं. इसे किसी भी लिहाज़ से उचित नहीं ठहराया जा सकता है. देखा जाए तो यह सिर्फ़ खुद को खुश करने की ग़लतफहमी है. एक हिसाब से ये सारे उद्यम असफल ही हैं. ये PSUs पूरी तरह से रक्षा बजट के लिए आवंटित की गई राशि पर निर्भर होते हैं, जो कि पहले से ही अत्यधिक ख़र्चों के बोझ तले दबा हुआ है. हाल के वर्षों में डिफेंस एक्सपोर्ट में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है, लेकिन यह अभी भी सरकार द्वारा तय किए गए लक्ष्यों की तुलना में काफ़ी कम है. Dornier एयरक्राफ्ट का मामला सीख देने वाला है, क्योंकि इसके विमानों को पूरी दुनिया में हज़ारों में नहीं भी, तो सैकड़ों की तादात में तो बेचा ही गया है. जबकि HAL द्वारा निर्मित Do 228s एयरक्राफ्ट को दूसरे देशों में ख़रीदार ढूंढ़ने से भी नहीं मिल रहा है. हालांकि गिने-चुने विमानों को आस-पास के देशों की कुछ क्षेत्रीय सेनाओं को ज़रूर निर्यात किया गया है.
आगे कि राह
हालांकि, C295 एयरक्राफ्ट पहले से ही दुनिया के तमाम देशों की पसंद बना हुआ है, साथ ही इसके साथ वैश्विक एयरोस्पेस OEM, यानी एयरबस की विश्वसनीयता भी जुड़ी हुई है. भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा इसका उपयोग करने के बाद इस विमान के विभिन्न वैरिएंट्स की विश्वसनीयता में और इज़ाफ़ा होगा. जिस प्रकार से देश के भीतर C295 एयरक्राफ्ट को स्वीकृति मिली है, उससे कहीं न कहीं इसके निर्यात की संभावनाओं को भी बल मिलेगा. लेकिन इस विमान के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए इतना ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि विदेश मंत्रालय और पूरी दुनिया में फैले इसके विभिन्न मिशनों को इसकी मार्केटिंग और प्रचार की गतिविधियों में पहले की तुलना में ज़बरदस्त तेज़ी लाने की ज़रूरत होगी. यह प्रोग्राम मल्टीनेशनल है, यानी कि इसमें भारत को कई भू-राजनीतिक भागीदारों के साथ काम करना होगा. साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि भारत की असेंबली लाइन्स, अर्थात उत्पादन की पूरी प्रक्रिया बहुत सशक्त हो एवं दशकों तक अपनी पूरी क्षमता के साथ निर्बाध रूप से काम करती रहे. यदि C295 एयरक्राफ्ट को क़ामयाब बनाना है, तो इसके OEM के लिए, भारत में इसके उत्पादन भागीदार के लिए और भारत की एयरोस्पेस महत्वाकांक्षाओं के लिए, भारत सरकार को देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में इसकी मार्केटिंग, ब्रांडिंग एवं प्रचार पर बहुत अधिक ध्यान देना होगा.
अंगद सिंह एक स्वतंत्र डिफेंस एनालिस्ट हैं, इनके पास राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय पर लिखने का एक दशक से अधिक का अनुभव है
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