Author : Pooja Tripathi

Published on Jun 16, 2020 Updated 0 Hours ago

जब तक हम ये पक्के तौर पर नहीं जान जाते कि बीसीजी या कोई और दवा अथवा टीका, कोविड-19 के ख़िलाफ़ कारगर साबित होगा, तब तक टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और सोशल डिस्टेंसिंग से ही हम इस महामारी का मुक़ाबला कर सकते हैं.

क्या बीसीजी टीका कोविड-19 के लिए ब्रह्मास्त्र साबित होगा?
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90 वर्ष पहले रॉबर्ट कोच द्वारा माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी के बैक्टीरिया की खोज के बाद, दुनिया भर के वैज्ञानिक इस बीमारी से निपटने के लिए इसके टीके की तलाश में जुट गए थे. 1908 में बैक्टीरिया विशेषज्ञ लियोन कालमेट और फ्रांस के पाश्चर इंस्टीट्यूट में काम करने वाली जानवरों की डॉक्टर कैमील गुरिएन ने एक प्रयोग शुरू किया. इन दोनों डॉक्टरों ने जानवरों में टीबी के लिए ज़िम्मेदार माइकोबैक्टीरियम बोविस बैक्टीरिया को कमज़ोर करना शुरू किया. उसे इतना कमज़ोर करने का प्रयास शुरू किया गया, जिससे उसकी बीमार करने की क्षमता ख़त्म हो जाए. 13 वर्ष और 230 ट्रायल के बाद एक नवजात शिशु को इस कमज़ोर ज़िंदा कीटाणु का टीका लगाया गया. इसे बैसील कालमेट-गुरिएन (BCG) के नाम से जाना गया. आज की तारीख़ में बीसीजी के टीके को दुनिया भर में फेफड़ों की टीबी के लिए सबसे कारगर और सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाली वैक्सीन के रूप में जाना जाता है.

अब जबकि दुनिया भर के वैज्ञानिक दिन रात इस कोशिश में जुटे हैं कि कैसे वो जल्द से जल्द नए कोरोना वायरस का इलाज कर सकने वाली दवा या वैक्सीन बना लें, तब एक सदी से भी अधिक पुरानी वैक्सीन में अनुसंधानकर्ता काफ़ी दिलचस्पी दिखा रहे हैं. बीसीजी का टीका कोविड-19 से लड़ सकता है या नहीं, ये पता लगाने के लिए दुनिया भर में क्लिनिकल ट्रायल हो रहे हैं.

बीसीजी के टीके की मदद से लोगों में ऐसी रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित की जा सकती है, जो अन्य बीमारियों का सामना करने में भी सहायक हो. जिससे ‘लक्ष्य से अलग’ बीमारियों का ख़ात्मा किया जा सकता है

टीबी और कोविड-19 बिल्कुल ही अलग अलग तरह की बीमारियां हैं. इनमें कितना फ़र्क़ है ये समझने के लिए पहले तो ये जान लेना चाहिए कि टीबी की बीमारी एक कीटाणु या बैक्टीरिया की वजह से होती है. जबकि कोविड-19 की बीमारी एक वायरस या विषाणु के कारण होती है. लेकिन, बीसीजी के टीके की मदद से लोगों में ऐसी रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित की जा सकती है, जो अन्य बीमारियों का सामना करने में भी सहायक हो. जिससे ‘लक्ष्य से अलग’ बीमारियों का ख़ात्मा किया जा सकता है. जैसे कि वायरस से होने वाले मर्ज़, सांस के संक्रमण या सेप्सिस. इस टीके की मदद से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है.

बीसीजी के टीके की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की ख़ूबी में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी 2011 में जगी थी. तब, पश्चिमी अफ्रीका में हुए एक अध्ययन में ये दावा किया गया था कि जन्म के समय जिन बच्चों का वज़न बहुत कम था, उन्हें बीसीजी का टीका लगाए जाने के बाद इन नवजात बच्चों की मृत्यु दर में 40 प्रतिशत की कमी देखी गई थी.

33 देशों के लगभग डेढ़ लाख बच्चों में बीमारियों को लेकर हुए इस बड़े अध्ययन में ये पाया गया था कि इन बच्चों को अगर बीसीजी का टीका लगा था, तो उनमें सांस की नली के भयंकर संक्रमण की आशंका 40 प्रतिशत तक कम हो गई थी.

क्या कोविड-19 का उत्तर बीसीजी का टीका ही है?

एक नए वैज्ञानिक अध्ययन से ये बात सामने आई है कि जिन देशों में टीबी के लिए बीसीजी का टीका अनिवार्य है, वहां पर नए कोरोना वायरस के प्रकोप से इसका सीधा संबंध है.

ये रिसर्च करने वालों ने लिखा कि, ‘हमने पाया है कि जिन देशों में सभी बच्चों को बीसीजी का टीका लगाना अनिवार्य होने की नीति नहीं थी (जैसे कि इटली, नीदरलैंड और अमेरिका), वो देश नए कोरोना वायरस के प्रकोप से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. जबकि, जिन देशों में बीसीजी का टीका लगाना अनिवार्य है, वहां पर इस वायरस का प्रकोप कम देखा गया है.’

इस स्टडी की सबसे बड़ी कमी ये है कि इस अध्ययन में अलग-अलग देशों के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है. इन देशों में कोविड-19 के प्रसार का समय अलग अलग था. और इन सभी देशों में कोविड-19 के टेस्ट की क्षमताएं भी बिल्कुल अलग थीं

हम सभी इस सवाल का जवाब तलाशने में जुटे हैं कि इस महामारी से किस तरीक़े से निपटा जा सकता है. लेकिन, इस अध्ययन के नतीजों के आधार पर ये कह पाना जल्दबाज़ी होगी कि हमने कोविड-19 की बीमारी का इलाज खोज लिया है. इस स्टडी की सबसे बड़ी कमी ये है कि इस अध्ययन में अलग-अलग देशों के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है. इन देशों में कोविड-19 के प्रसार का समय अलग अलग था. और इन सभी देशों में कोविड-19 के टेस्ट की क्षमताएं भी बिल्कुल अलग थीं. जिन देशों को मानक के तौर पर माना गया है-यानी वो देश जैसे कि भारत, जहां राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के तहत बीसीजी का टीका लगाना अनिवार्य है- उन देशों में कोरोना वायरस के परीक्षण बेहद कम हो रहे हैं. इसका साफ़ मतलब ये निकलता है कि इन देशों में कोरोना वायरस के असल संक्रमण की संख्या को बेहद कम कर के बताया जा रहा है. क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण के लक्षण सांस की कई अन्य बीमारियों से भी मिलते हैं.

इस महामारी का आबादी के हिसाब से वितरण भी एक कारक हो सकता है. आबादी के सबसे हालिया आंकड़े के अनुसार, जहां तक अमेरिका, ब्रिटेन और इटली की बात है, तो वहां पर बुज़ुर्गों की आबादी अधिक है. और बुज़ुर्गों पर कोरोना वायरस का प्रकोप ज़्यादा तेज़ी से होता है. वहीं, भारत जैसे देश में युवाओं की आबादी अधिक है. बीसीजी से संबंधित स्टडी में इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया है.

नया कोरोना वायरस अपने आप में किसी की जान नहीं लेता. लोगों की जान लेने की बड़ी वजह ये होती है कि जब संक्रमण बहुत तेज़ हो जाता है, तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी शक्ति से उस पर पलटवार करती है. इससे हमारे शरीर में ‘साइटोकाइन स्टॉर्म’ आ जाता है. साइटोकाइन, असल में तमाम तरह की प्रोटीन, पेप्टाइड और ग्लाइसोप्रोटीन का एक समूह होता है, जो हमारे इम्यून सिस्टम की कुछ ख़ास कोशिकाओं से स्रावित होता है. एक ‘साइटोकाइन स्टॉर्म’ का अर्थ होता है कि हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता ने किसी संक्रमण के विरुद्ध आवश्यकता से अधिक तीखी प्रतिक्रिया दी है. कोविड-19 से संक्रमित किसी मरीज़ की तब मौत हो जाती है, जब उसके शरीर का इम्यून सिस्टम वायरस के ख़िलाफ़ कुछ अधिक ही ज़ोरदार हमला करता है. यानी शरीर का तापमान बहुत अधिक बढ़ जाता है. बीसीजी का टीका नवजात बच्चों को रोगों से लड़ने में जिस कारण से मदद करता है, उसी कारण से अगर ये टीका कोविड-19 के मरीज़ों के शरीर के इम्यून सिस्टम को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वो किसी ख़ास बीमारी के बजाय किसी भी संक्रमण के प्रति अतिरेक में प्रतिक्रिया दे. तो इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है और वो वायरस के संक्रमण से और अधिक बीमार हो सकते हैं. चीन से हाल में आई रिपोर्ट के मुताबिक़, जिन लोगों में कम स्तर के टीबी के संक्रमण पाए गए हैं, वो कोविड-19 से भी संक्रमित हुए हैं. ये बेहद चिंताजनक विषय है. क्योंकि बीसीजी वैक्सीन असल में ज़िंदा मगर कमज़ोर कीटाणु ही होता है, जिसका टीबी के बैक्टीरिया से बेहद नज़दीकी संबंध होता है. और इसके कारण कोविड-19 से संक्रमित लोगों में श्वास की समस्या और भयंकर हो सकती है.

देखें और इंतज़ार करें

बीसीजी का टीका कोविड-19 से लड़ने में भी असरदार है, इसके लिए और बेतरतीब ट्रायल करने की ज़रूरत है. बीसीजी का टीका, कोविड-19 से लड़ने में सक्षम है, इस बात को लेकर मचा शोर ठीक उसी तरह का लगता है जैसे कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन दवा को लेकर हो हल्ला हुआ था. हम ये उम्मीद करते हैं कि ये दोनों ही दवाएं आवश्यक परीक्षण पास कर लेंगी. लेकिन, तब तक टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और सोशल डिस्टेंसिंग से ही हम इस महामारी का मुक़ाबला कर सकते हैं. हमें चाहिए कि हम कोविड-19 का टीका विकसित करने से जुड़े ‘रोज़ के समाचार और अपडेट’ से दूरी बना लें. आगे चल कर कोविड-19 से लड़ने के लिए बीसीजी का टीका दिया जा सकता है, अगर ये बात अधिक फैली, तो इस टीके की जमाखोरी भी हो सकती है, जो उचित नहीं होगा. इससे पहले हम हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन दवा को लेकर ऐसी जमाखोरी होते देख चुके हैं. चूंकि बीजीसी की आपूर्ति श्रृंखला बेहद कमज़ोर है और बच्चों को बचपन में टीबी से संक्रमित होने से बचाना ज़रूरी है. ऐसे में अगर इस टीके की जमाखोरी होती है, तो विकासशील देशों के लिए इससे जुड़े जोखिम बहुत भयानक हैं.

चीन से हाल में आई रिपोर्ट के मुताबिक़, जिन लोगों में कम स्तर के टीबी के संक्रमण पाए गए हैं, वो कोविड-19 से भी संक्रमित हुए हैं. ये बेहद चिंताजनक विषय है. क्योंकि बीसीजी वैक्सीन असल में ज़िंदा मगर कमज़ोर कीटाणु ही होता है, जिसका टीबी के बैक्टीरिया से बेहद नज़दीकी संबंध होता है

12 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 के टीके से जुड़े क्लिनिकल ट्रायल के बारे में अपने वैज्ञानिक ब्रीफ़ में ये कहते हुए बताया था: ‘इन ट्रायल की समीक्षा से तीन प्रमुख बातें सामने आई हैं. एक तो ये कि जिन देशों में बीसीजी के टीके लगे हैं, वहां पर कोविड-19 के प्रकोप की क्या स्थिति है. इन देशों की तुलना उन देशों के हालात से की गई है, जहां पर लोगों को बीसीजी के टीके नियमित रूप से नहीं लगाए जाते हैं. और वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जिन देशों में बीसीजी का टीका नियमित रूप से लगाया जाता है, वहां पर कोविड-19 के संक्रमण के मामले काफ़ी कम पाए गए हैं. ऐसे अध्ययन अक्सर कई सह संस्थापकों की दृष्टि से पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं. इसकी वजह ये है कि जिन देशों के बीच तुलना की गई है, उनकी आबादी, बीमारियों के प्रसार और कोविड-19 के संक्रमण परीक्षण की दर में काफ़ी अंतर देखा गया है. हर देश में ये महामारी भी अलग अलग स्तर पर है.

कोविड-19 से बचाव के लिए सौ साल पुराने बीसीजी के टीके को लगाना ख़ुद ज़िंदगी से बहुत मेल खाता है. जैसा कि उन्नीसवीं सदी के डेनमार्क के दार्शनिक सोरेन किएर्केगार्ड ने बख़ूबी कहा था, ‘ज़िंदगी को हम पीछे देख कर समझ सकते हैं. मगर ज़िंदगी को आगे की ओर बढ़ कर ही जिया जा सकता है.’

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