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अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय के बावज़ूद कई लोगों का मानना है कि नस्ल और जातीयता पर आधारित एडमिशन की प्रक्रिया को पलटने से मौजूदा बहुरूपता की पहलों पर जो भी प्रभाव पड़ेगा, वो बेहद सीमित होगा.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 29 जून को दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में हार्वर्ड कॉलेज और नॉर्थ कैरोलिना यूनिवर्सिटी में नस्ल एवं जातीयता के आधार पर छात्रों को दाखिला दिए जाने को गैरक़ानूनी बताते हुए, इस प्रथा पर रोक लगा दी. इस फैसले को 6-3 के सर्वोच्च रूढ़िवादी बहुमत से पारित किया गया और यह प्रभावी रूप से अमेरिका में उच्च शिक्षा में विविधता लाने के दशकों पुराने प्रयासों को समाप्त करने वाला है. स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन (SFFA) नाम के एक सकारात्मक कार्रवाई विरोधी गठबंधन (anti-affirmative action coalition) द्वारा दायर याचिका में नस्ल-आधारित प्रवेश कार्यक्रम के विरोध में ज़ोरदार तरीक़े से अपने तर्कों को रखा गया, ज़ाहिर है कि इन कॉलेजों एवं यूनिवर्सिटियों में इस प्रकार की एडमिशन प्रक्रिया अमेरिकी संविधान के चौदहवें संशोधन के एक समान संरक्षण अनुच्छेद (Equal Protection Clause) के विपरीत थी. बहुमत से दिए गए इस निर्णय का नेतृत्व करते हुए, सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) के लंबे समय से आलोचक रहे और इस ऐतिहासिक फैसले के प्रमुख वास्तुकार, मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने कहा कि “कई विश्वविद्यालयों ने बहुत लंबे समय से गलत निष्कर्ष निकाला है कि किसी व्यक्ति की पहचान का पैमाना उसके द्वारा दी गई चुनौतियां, उसका कौशल या योग्यता या पूर्व में सीखे गए सबक नहीं हैं, बल्कि उसकी त्वचा का रंग है. इस राष्ट्र का संवैधानिक इतिहास इस तरह के विकल्प या सोच को तनिक भी बर्दाश्त नहीं करता है.”
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का ज़बरदस्त असर अमेरिका के उन सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर पड़ने की संभावना है, जिन्होंने छात्रों के प्रवेश के दौरान नस्ल और जातीयता को एक अहम मानदंड के तौर पर इस्तेमाल कर अपने स्टूडेंट पूल में विविधता लाने की कोशिशें की हैं.
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का ज़बरदस्त असर अमेरिका के उन सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर पड़ने की संभावना है, जिन्होंने छात्रों के प्रवेश के दौरान नस्ल और जातीयता को एक अहम मानदंड के तौर पर इस्तेमाल कर अपने स्टूडेंट पूल में विविधता लाने की कोशिशें की हैं. इस फैसले का तत्काल प्रभाव यह होगा कि अमेरिका के नस्लीय अल्पसंख्यकों ख़ास तौर पर अश्वेत अमेरिकियों, लैटिनोस, हिस्पैनिक्स और स्थानीय समूहों में से कॉलेजों में ग्रेजुएशन करने वाले युवाओं की संख्या में गिरावट आ सकती है. ज़ाहिर है कि यह आगे चल कर देश की प्रमुख कंपनियों के लिए योग्य स्नातकों और बिज़नेस लीडर्स की आपूर्ति को भी प्रभावित कर सकता है.
अमेरिका में दशकों से चली आ रही सकारात्मक कार्रवाई (AA) का मुख्य मक़सद ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों या अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा एवं नौकरियों में समान अवसरों की गारंटी देना है. भारत में जो आरक्षण की प्रणाली है, वह वर्ष 1950 के देश के संविधान में अंतर्निहित थी, लेकिन अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई (AA) वहां कैनेडी प्रशासन की तरफ से जारी किए गए एक शासनादेश के बाद सामने आई थी, जिसमें सरकारी कॉन्ट्रैक्टर्स या कहा जाए कि नियोक्ताओं से यह अपेक्षा की गई थी कि वे “यह सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई करें कि आवेदकों को रोज़गार मिले और नौकरी के दौरान कर्मचारियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाए, वो भी उनकी जाति, पंथ, रंग या राष्ट्रीय मूल की परवाह किए बगैर.” ध्यान देने वाली बात यह है कि इस सकारात्मक कार्रवाई को 1950 के दशक में सिविल राइट्स मूवमेंट की पृष्ठभूमि में आगे बढ़ाया गया था, विशेष तौर पर उन अश्वेत अमेरिकियों के लिए अवसरों में बढ़ोतरी करने के लिए, जिन्हें सदियों से नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा था. इस शासनादेश को राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन के प्रशासन के दौरान और अधिक प्रोत्साहन मिला था. इस प्रकार, पहली आधिकारिक सकारात्मक कार्रवाई पॉलिसी (ऐतिहासिक सिविल राइट्स एक्ट, 1964 के आधार पर) वर्ष 1965 में एक शासनादेश के रूप में पेश की गई थी. वर्ष 1969 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के इस शासनादेश को समर्थन दिए जाने के साथ, सकारात्मक कार्रवाई (AA) नीतियों को दोनों दलों का समर्थन हासिल हुआ. इसके बाद समान अवसर अधिनियम (Equal Opportunity Act) पारित किया गया और नौकरियों, उच्च शिक्षा एवं कॉन्ट्रैक्ट लाइसेंसों में अल्पसंख्यकों को तरजीही लाभों को प्रदान करने के लिए कंपनियों एवं नियोक्ताओं को सरकार की और से कई प्रकार के प्रोत्साहन और लाभ दिए गए.
अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई यानी AA के बारे में एक विशिष्ट बात यह है कि प्राइवेट सेक्टर, ख़ास तौर पर निजी स्कूलों, कॉलेजों और हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों के बीच इसके माध्यम से अपने परिसरों में छात्रों की विविधता को लेकर गंभीरता से कार्य किया गया है. इतना ही नहीं इस पॉलिसी को अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत द्वारा सक्रिय रूप से अपनाया गया है. हज़ारों की संख्या में चोटी के निजी उद्यमों, विशेष रूप से फॉर्च्यून 500 कंपनियों ने अपने कार्यबल अर्थात कर्मचारियों में विविधता के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विविधता, समानता और समावेशन का रास्ता अपनाया है. शैक्षणिक संस्थानों और कंपनियों ने कक्षाओं से लेकर वर्कफोर्स में विविधता में सुधार के लिए जाति और नस्ल समेत कई ऐसे फैक्टर्स का उपयोग किया.
अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई यानी AA के बारे में एक विशिष्ट बात यह है कि प्राइवेट सेक्टर, ख़ास तौर पर निजी स्कूलों, कॉलेजों और हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों के बीच इसके माध्यम से अपने परिसरों में छात्रों की विविधता को लेकर गंभीरता से कार्य किया गया है.
नस्ल को ध्यान में रख कर चलाई जाने वाली विविधता पहलों को वर्ष 1978 में रीजेंट्स ऑफ दि यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बनाम बक्के (Bakke) मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के ज़रिए न्यायिक समर्थन हासिल हुआ. इसके बाद वर्ष 2003 में ग्रुटर बनाम बोलिंगर (Grutter vs. Bollinger ) जैसे फैसलों ने विश्वविद्यालयों में नस्ल को प्रमुखता देने वाली विविधता पहलों का समर्थन किया. इसके अतिरिक्त, सकारात्मक कार्रवाई विशेष रूप से विविधता से जुड़े तर्कों या चर्चा-परिचर्चाओं को नीति निर्माताओं, शिक्षकों और अमेरिका के उच्च शिक्षण से संबंधित विशिष्ट संस्थानों के लीडर्स के बीच व्यापक तौर पर समर्थन मिला. हार्वर्ड, येल और स्टैनफोर्ड जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने छात्रों के एडमिशन में विविधता के अपने विचारों को अमली जामा पहनाने का बीड़ा उठाया और उनकी इन पहलों का प्रभाव इसी तरह के दूसरे शिक्षण संस्थानों पर भी पड़ा.
देखा जाए तो अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई (AA) के चलते वहां ऐतिहासिक रूप से वंचित अश्वेत अमेरिकियों एवं दूसरे वंचित अल्पसंख्यक समूहों के लिहाज़ से विभिन्न प्रकार के पॉजिटिव नतीज़े सामने हैं. अमेरिका में ऐसे तमाम प्रयोगसिद्ध अध्ययन हुए हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि AA के तमाम सकारात्मक प्रभाव पड़े हैं, विशेषकर उच्च शिक्षा में विविधता से जुड़ी पहलों का बेहद सकारात्मक असर हुआ है. शिक्षा के क्षेत्र में AA का सबसे व्यापक और अभूतपूर्व मूल्यांकन विलियम जी. बोवेन (प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के अध्यक्ष) और डेरेक बोक (हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष) द्वारा किया गया था. वर्ष 1998 में “शेप ऑफ द रिवर” के नाम से प्रकाशित की गई कई विशेषज्ञों की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक़ अमेरिका में अश्वेत स्टूडेंट्स की संख्या में वर्ष दर वर्ष बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1951 में केवल 0.8 प्रतिशत अश्वेत छात्र-छात्राओं का स्कूल-कॉलेजों में दाखिला होता था, जबकि यह संख्या वर्ष 1989 में बढ़कर 6.7 प्रतिशत हो गई थी. इन विशेषज्ञों ने छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी के लिए नस्ल और जातीयता के भेदभाव से जूझ रहे अश्वेतों को ध्यान में रखकर बनाई गई नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया. इन अध्ययनों में इस सवाल का जवाब भी तलाशा गया, जिसमें कहा जाता था कि अश्वेतों को शिक्षा के जो अवसर मिलते हैं, वे अक्सर उन्हें गंवा देते हैं. इस अध्ययन ने स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि अश्वेत छात्रों द्वारा स्कूल छोड़ने की दर अमेरिका के राष्ट्रीय औसत से कम है, विशेषकर चुनिंदा स्कूलों में. इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में इस बात की भी पुष्टि की गई कि ज़्यादातर अश्वेत अमेरिकी स्टूडेंट्स, जिन्हें AA पहल के अंतर्गत इन शिक्षण संस्थानों में दाखिल किया गया था, उन्होंने न केवल अच्छी शिक्षा ग्रहण की और अपने कॉलेज में सफल हुए, बल्कि अपने करियर में भी बेहद सफल रहे और आगे चलकर उन्होंने अपने समुदायों में प्रमुख नेतृत्वकारी भूमिकाएं भी निभाईं. बाद में किए गए तमाम अध्ययनों से यह भी पता चला है कि अमेरिका में जहां कहीं भी AA कार्यक्रमों पर पाबंदी लगाई गई, वहां अश्वेत छात्रों की स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश दर में उल्लेखनीय रूप से कमी दर्ज़ की गई है. उदाहरण के तौर पर मिशिगन विश्वविद्यालय, जिसने नस्ल के आधार पर छात्रों के प्रवेश को अवैध घोषित कर दिया था, वहां वर्ष 2021 में अश्वेत छात्र-छात्राओं के नामांकन में 4 प्रतिशत की गिरावट देखी गई (वर्ष 2006 में 7 प्रतिशत के मुक़ाबले). वर्ष 2016 और 2017 के दौरान कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में भी इसी तरह के रुझान देखने को मिले थे, दरअसल वहां विश्वविद्यालय प्रबंधन ने छात्र-छात्राओं के प्रवेश में नस्ल और जातीयता को प्रमुखता नहीं देने का निर्णय लिया था.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा में हाल ही में दिया गया निर्णय अमेरिका में AA नीतियों को किस प्रकार से प्रभावित करेगा? क्या इस फैसले से अमेरिका में विविधता और समावेशन को प्रोत्साहन देने वाली दशकों पुरानी नीतियों का अंत हो जाएगा? कई विश्लेषकों का मानना है कि इस फैसले के बाद आलोचक विश्वविद्यालयों एवं अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत द्वारा लंबे समय से चलाए जा रहे विविधता, समानता और समावेशन से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों को निशाना बनाने के लिए भड़क सकते हैं. इसके अतिरिक्त, ऐसी तमाम कंपनियां और कार्यस्थल, जहां पर अश्वेत अमेरिकियों एवं महिलाओं की मदद के लिए अपनी भर्ती और पदोन्नति में विविधता के तर्क को अपनाया गया है, उन्हें नए सिरे से जांच-पड़ताल का सामना करना पड़ेगा. हालांकि, जो लोग लंबे वक़्त से सकारात्मक कार्रवाई से संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों पर अपनी नज़र बनाए हुए हैं, उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस ताज़ा फैसले का विविधता से जुड़ी मौज़ूदा पहलों पर बहुत ही सीमित असर पड़ेगा. ऐसे लोगों के मुताबिक़ इस फैसले में विविधता के लिए पर्याप्त जगह छोड़ी गई है. उदाहरण के तौर पर मुख्य न्यायाधीश रॉबर्ट ने टप्पणी की है कि, “किसी भी तरीक़े से विश्वविद्यालयों को आवेदकों के इस तर्क पर विचार करने से नहीं रोकना चाहिए कि नस्ल ने उनके जीवन को किस प्रकार से प्रभावित किया, फिर चाहे ये प्रभाव भेदभाव या किसी दूसरी वजह से क्यों न हो”.
भारत में आरक्षण नीति को सरकार द्वारा कार्यान्वित किया जाता है, जबकि दूसरी तरफ अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई (AA) काफ़ी हद तक स्वैच्छिक है, यानी स्वयं के विवेक पर निर्भर है और इससे जुड़े ज़्यादातर मानदंडों को विश्वविद्यालयों एवं कंपनियों के ऊपर छोड़ दिया गया है, अर्थात वे जैसे चाहे अपनी मर्ज़ी से इन्हें लागू कर सकते हैं.
कुल मिलाकर जो बात सबसे महत्त्वपूर्ण है, वह यह है कि फॉर्च्यून 500 कंपनियां और शीर्ष व्यावसायिक समूह पहले से चले आ रहे विविधता एवं समावेशन से जुड़े कार्यक्रमों का मज़बूती के साथ समर्थन कर रहे हैं. इसके साथ ही अमेरिका की कई जानी-मानी सरकारी और निजी यूनिवर्सिटियों ने भी छात्रों के दाखिले में मौज़ूदा विविधिता के ट्रेंड को बरक़रार रखने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई है. हालांकि, यह ज़रूर है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला वहां के कुछ संस्थानों और कारोबारों को अपने विविधता से संबंधित कार्यक्रमों में एक घटक के रूप में नस्ल एवं जातीयता को छोड़ने के लिए विवश करेगा, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह निर्णय कई लोगों को नस्लीय अल्पसंख्यकों एवं देश की दूसरी वंचित आबादी के ज़्यादा से ज़्यादा अभ्यर्थियों को समायोजित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने हेतु प्रेरित भी कर सकता है. भारत में आरक्षण नीति को सरकार द्वारा कार्यान्वित किया जाता है, जबकि दूसरी तरफ अमेरिका में सकारात्मक कार्रवाई (AA) काफ़ी हद तक स्वैच्छिक है, यानी स्वयं के विवेक पर निर्भर है और इससे जुड़े ज़्यादातर मानदंडों को विश्वविद्यालयों एवं कंपनियों के ऊपर छोड़ दिया गया है, अर्थात वे जैसे चाहे अपनी मर्ज़ी से इन्हें लागू कर सकते हैं. इसके अलावा, AA को तमाम तरह के विवादों और ध्रुवीकरण प्रभावों के बावज़ूद अमेरिकी समाज में व्यापक रूप से दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के तत्काल बाद किए गए कई जनमत सर्वेक्षणों में अमेरिका के अधिकतर लोगों ने नस्ल-जागरूकता से संबंधित विविधता कार्यक्रमों का समर्थन किया है.
इस प्रकार से देखा जाए तो अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में रूढ़िवादियों के ज़बरदस्त दबदबे के मद्देनज़र लंबे समय तक सकारात्मक कार्रवाई के विरोध वाले इस फैसले को पलटना मुश्किल होगा. लेकिन इसका विरोध कई तरीक़ों से जारी रहेगा, इतना ही नहीं इस फैसले के समर्थकों के बीच इसे और अधिक महत्व भी मिल सकता है. आख़िर में, सकारात्मक कार्रवाई विरोधी इस निर्णय का फिलहाल एक पॉजिटिव परिणाम यह हो सकता है कि हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को छात्रों का चयन करने के अपने मौज़ूदा तौर-तरीक़ों पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य किया जाएगा, ( जिसमें एथलेटिक्स, विरासत, डीन की सूची और फैकल्टी एवं कर्मचारियों के बच्चों जैसे मानकों का इस्तेमाल किया जाता है), जिसकी अमेरिकी समाज के हिस्सों में ज़बरदस्त आलोचना हुई है.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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