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भारत में राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति (नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पॉलिसी या एनयूटीपी) के लागू होने के दो दशक बाद भी शहरों में निजी वाहनों की सुविधा को प्राथमिकता मिलती आ रही जिसका खामियाजा जनकेंद्रित और सतत परिवहन व्यवस्था को उठाना पड़ रहा है.
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ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारतीय महानगरों में शहरी परिवहन व्यवस्थाओं की रूपरेखा और क्रियान्वयन इस तरह से की गई है जिसमें लोगों की यात्रा ज़रूरतों के बजाय वाहनों की आसान आवाजाही को प्राथमिकता दी गई है. योजना के इस दृष्टिकोण की वजह से संसाधनों के आवंटन और नीति निर्माण की कोशिशें असंतुलित रही हैं. इस दृष्टिकोण के प्रयास निजी वाहनों की निर्बाध आवाजाही के हक़ में अधिक रहे हैं, जिसका विपरीत असर सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने वाले लोग, पैदल यात्रियों और साइकिल चालकों पर पड़ा है.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारतीय महानगरों में शहरी परिवहन व्यवस्थाओं की रूपरेखा और क्रियान्वयन इस तरह से की गई है जिसमें लोगों की यात्रा ज़रूरतों के बजाय वाहनों की आसान आवाजाही को प्राथमिकता दी गई है.
इस विषय पर पिछले दो दशकों में, अकादमिक विमर्श और नीतिगत दिशा में उल्लेखनीय विकास हुआ है, जिसमें टिकाऊ या सतत शहरी गतिशीलता (सस्टेनेबल अर्बन डेवेलपमेंट) के मॉडल पर खास ज़ोर दिया गया है. राष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए कदमों में एक है वर्ष 2006 में जारी किया गया राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति (नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पॉलिसी या एनयूटीपी). इस नीति के लक्ष्य कुछ इस तरह से हैं –
शहरी नियोजन में परिवहन को प्रमुखता से शामिल करना: अर्बन प्लानिंग या शहरी नियोजन में शहरी परिवहन को एक प्रमुख घटक बनाना, जिसमें यात्रा दूरी को कम करने और खास तौर पर वंचित समुदायों के लिए आवाजाही में सुधार करने के लिए भूमि उपयोग की एकीकृत योजना को बढ़ावा दिया जाए.
सतत और समावेशी गतिशीलता को बढ़ावा देना: सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था और गैर-मोटर चालित साधनों को प्राथमिकता देना. इसके लिए वित्तीय प्रोत्साहन देना, सड़कों का समानुपित आवंटन करना, कई तरह के परिवहन साधनों से युक्त विकल्पों पर आधारित बाधारहित और लोगों पर केंद्रित परिवहन प्रणालियों का विकास करना जैसे उपाय किये जा सकते हैं.
संस्थागत और नियामक ढांचे को मज़बूत करना: समन्वित संस्थागत तंत्र स्थापित करना, कारगर सुरक्षा के नियमों और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा को लागू करना, और सुरक्षा प्रबंधन के लिए इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम (ITS) का इस्तेमाल करना.
पर्यावरण और आर्थिक दक्षता को बढ़ावा देना: तकनीकी नवाचारों और सुधारों, व्यवहारिक बदलावों और स्वच्छ परिवहन समाधानों के ज़रिए परिवहन से संबंधित प्रदूषण को कम करना; साथ ही बाज़ार तक व्यवसायों की पहुंच में सुधार करना और संसाधनों का अनुकूल उपयोग तय करना.
क्षमता निर्माण करना और संसाधनों को जुटाना: संस्थागत क्षमता और मानव संसाधन क्षमता को बढ़ावा देना, हितधारकों के बीच ज्ञान साझा करना, निजी क्षेत्र की भागीदारी को लुभाना, और भूमि-आधारित संसाधनों का लाभ उठाते हुए वित्तीय रणनीतियों में नवाचार को बढ़ावा देना.
राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति (एनयूटीपी) की भावना के मुताबिक, 2015 स्मार्ट सिटीज़ मिशन और विभिन्न मेट्रो, रेल, और बस-रैपिड-ट्रांजिट (या बीआरटी) के पहलों को नई दिशा दी गई है जिसके तहत जन-परिवहन के बुनियादी ढांचे को मज़बूत किया गया और बिना मोटर से चलने वाले परिवहन को बढ़ावा दिया गया. ऐसी कोशिशें शहरी गतिशीलता में लगातार बढ़ती हुई भीड़भाड़ की समस्या, पर्यावरण में गिरावट, और सामाजिक-स्थानिक विषमताओं जैसी चुनौतियों का संबोधित करने की एक मंशा को दिखाता है.
लेकिन शहरी परिवहन की हालिया परियोजनाओं का एक मूल्यांकन यह ज़ाहिर करता है कि इन पर इंजीनियरिंग पर केंद्रित उद्देश्यों का लगातार प्रभाव बना हुआ है, जिसमें खास-तौर पर तकनीकी व्यवहारिकता, निर्माण की गति, और वित्तीय लागत के सही उपयोग पर ध्यान केंद्रित किया गया है.
वैसे तो ये कारण प्रासंगिक हैं, लेकिन ये कारक यात्रियों की ज़रूरतों के अधिक आवश्यक पहलूओं को अनदेखा कर देता है जिनमें यात्रा का समय कम करना, एक परिवहन साधन से दूसरे साधन में बदलने में लगने वाले वक्त को कम करना, कई प्रकार की परिवहन साधनों के बीच बाधारहित तालमेल तय करना, और उपयोगकर्ता के अनुभव को बेहतर बनाना जैसे पहलू शामिल हैं.
उदाहरण के तौर पर पैदल चलने वालों के लिए अपर्याप्त सुविधा, मंजिल तक पंहुचने के लिए लास्ट-मील कनेक्टिविटी की समस्या, और स्टेशनों तक पहुंचनें में दिक्कत जैसी समस्याओं के सामने अत्याधुनिक आवाजाही नेटवर्क की चमक भी फीकी पड़ सकती है.
इस तरह के कार्यप्रणाली में पूर्वाग्रह जन-परिवहन के हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता को खतरे में डालते है और इससे यात्रा करने वालों की वास्तविक स्थितियां और उनकी आवाजाही की आदतों की उपेक्षा की जाती है. उदाहरण के तौर पर पैदल चलने वालों के लिए अपर्याप्त सुविधा, मंजिल तक पंहुचने के लिए लास्ट-मील कनेक्टिविटी की समस्या, और स्टेशनों तक पहुंचनें में दिक्कत जैसी समस्याओं के सामने अत्याधुनिक आवाजाही नेटवर्क की चमक भी फीकी पड़ सकती है.
भारत के ज्य़ादातर शहरी परिवहन परियोजनाएं निर्बाध आवाजाही प्रदान करने में असफल रहते हैं. इसका एक उदाहरण मुंबई के 25.33 किलोमीटर लंबे वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे के रूप में देखने को मिलता है जो मुंबई के माहिम क्रीक को उत्तर पश्चिम सीमा पर दहिसर से जोड़ता है. हालांकि इसे मूल रूप से उत्तर और पश्चिम को जोड़ने वाली एक तेज़ गति के मार्ग के रूप में देखा गया लेकिन आज यहां लगातार ट्रैफिक जाम लगता है और वाहनों की औसत गति भी कम होती जा रही है. मुंबई ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक इस कॉरिडोर पर जहां एक दशक पहले 5 लाख से 10 लाख वाहन रोज़ाना गुज़रते थे, आज ये संख्या 22 से 30 लाख के बीच हो गई है. सड़क की अपनी क्षमता और वाहनों की संख्या में तेज़ी से बढ़त के बीच तालमेल न होने की वजह से इस मार्ग के कई हिस्सों पर बड़े बॉटलनेक (गंभीर प्रतिरोध) पैदा हो रहे हैं.
इन बाधाओं के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं - जिनमें गलत तरीके से डिज़ाइन किए गए ग्रेड सेपरेटर, एक ही समय पर और बिना तालमेल के चल रहे सड़कों और अनेक बुनियादी ढांचों के विकास का कार्य, सड़कों की खराब होती सतह, अपनी लेन पर चलने में अनुशासन की कमी और मंज़िल तक पंहुचने के अंतिम जुड़ाव या लास्ट-मील कनेक्टिविटी का अभाव मुख्य रूप से शामिल हैं. नतीजा ये निकला है कि यह ‘एक्सप्रेसवे’ एक उच्च-गति शहरी मार्ग के रूप में कम, और महानगरीय परिवहन नेटवर्क में दैनिक बाधा के रूप में अधिक कार्य कर रहा है.
ऐसी ही तस्वीर बेंगलुरु में भी उभर रही है जहां राज्य सरकार ने जेपी नगर और हेब्बल को जोड़ने वाली एक एलिवेडेट मार्ग को बनाने की मंज़ूरी दे दी है. 37 किलोमीटर लंबे इस एलिवेटेड सड़क की अनुमानित लागत 9800 करोड़ रूपये हैं. कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी. के. शिवकुमार ने इस परियोजना को "भविष्यवादी और बड़ा परिवर्तन लाने वाला" बताया है.
लेकिन शहरी गतिशीलता के जानकार और परिवहन योजनाकारों ने इस खर्चीली परियोजना की दीर्घकालिक प्रभावशीलता पर गहरी आशंकाएं ज़ाहिर की हैं जो निजी वाहन-केन्द्रित विकास पर टिका है. आलोचकों का मानना है कि ये परियोजना ना सिर्फ़ शहरी परिवहन समस्याओं को हल करने में नाकामयाब रहेगा, बल्कि ये निजी वाहनों की मांग को और अधिक बढ़ावा देगा जिससे सार्वजनिक परिवहन उपयोग, गैर-मोटर चालित परिवहन और पर्यावरण संबंधी कोशिशें कमजोर पड़ सकती हैं. इस प्रवृत्ति को कई बार 'खास तौर पर प्रेरित यातायात की मांग' कहा जाता है - जहां शुरु में कुछ समय के लिए ट्रैफिक जाम कम हो जाता है, लेकिन जल्दी ही वाहनों कीं संख्या में बढ़ोतरी के कारण ये राहत भी खत्म हो जाती है.
इस तरह के परियोजनाएं से परे ये भी देखा गया है कि कई महानगरों में बस-रैपिड-ट्रांजिट-सिस्टम (बीआरटीएस) को भी खत्म कर दिया गया है. इसका एक अहम उदाहरण इंदौर का है, जहां राज्य सरकार ने दिसंबर 2024 में शहर की 11.5 किलोमीटर लंबे बीआरटीएस कॉरिडोर को समाप्त करने की घोषणा की. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा कि इसका कारण यातायात में बढ़ता जाम है और ये परियोजना प्रभावी साबित नहीं हो रही है. उनका मानना है कि इसे हटाने के बाद वाहनों की आवाजाही बेहतर होगी और शहरी गतिशीलता में सुधार आएगा.
इसी तरह साल 2023 में भोपाल ने भी बीआरटीएस सिस्टम को समाप्त कर दिया औऱ कहा कि इससे यातातात में बाधा पैदा हो रही थी और ये प्रणाली उम्मीद से कम कारगर सिद्ध हो रही थी. पुणे शहर ने भी ऐसी राह चुनी है. अक्टूबर 2024 में पुणे नगर निगम ने नागर रोड पर स्थित 300 मीटर लंबे बीआरटीएस के कॉरिडोर को हटा दिया. इस फैसले के पीछे जो कारण थे उनमें यात्रियों की कम संख्या, बार-बार होने वाली सड़क दुर्घटनाएं और इसके संचालन में दिक्कतें जो इस कॉरिडोर को अपनी क्षमता पर चलने में नाकाम बना रही थी.
अक्टूबर 2024 में पुणे नगर निगम ने नागर रोड पर स्थित 300 मीटर लंबे बीआरटीएस के कॉरिडोर को हटा दिया. इस फैसले के पीछे जो कारण थे उनमें यात्रियों की कम संख्या, बार-बार होने वाली सड़क दुर्घटनाएं और इसके संचालन में दिक्कतें जो इस कॉरिडोर को अपनी क्षमता पर चलने में नाकाम बना रही थी.
बीआरटीएस प्रणाली को खत्म करने की ऐसी प्रवृत्ति दूसरे भारतीय महानगरों में भी देखी गई है. भारत में बीआरटी की शुरुआत करने वाली दिल्ली ने भी इसे 2015 में ही बंद कर दिया था. सड़क में लेन को अलग रखने और नियमों को लागू करने जुड़ी समस्याओं की वजह से लोगों में बड़े तौर पर असंतोष देखा गया था. इसी तरह जोधपुर ने भी 2016 में शुरु किए गए बीआरटी प्रोजेक्ट के सिर्फ़ पांच साल बाद जनवरी 2021 में इसे निलंबित कर दिया.
ऐसे उदाहरण गंभीर व्यवस्थागत खामियों को दिखाते हैं जैसे कि अपर्याप्त रणनीतिक योजना, विभिन्न प्रकार के मौजूदा परिवहन नेटवर्कों के बीच आपसी तालमेल और उनके एकीकरण में कमी, लापरवाह प्रवर्तन और निजी वाहनों के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचे के विकास पर ज़ोर देना.
बीआरटीएस को एक खास प्रकार के शहरी ताने-बाने में जोड़ना और यात्रा के प्रचलित तौर-तरीकों से जोड़ने में विफलता हासिल हुई है. इसके साथ ही यातायात से जुड़ी कई संस्थाओं के बीच आपसी तालमेल की कमी, शहरों में बस पर आधारित यात्रा समाधानों की दीर्घकालिक टिकाऊ क्षमता को कमज़ोर बनाती है. ऐसे में ज़रूरी है की जन-परिवहन के ढाँचों पर नए सिरे से चिंतन किया जाए जिसमें सिर्फ़ बुनियादी संरंचना के निर्माण के अलावा यात्रियों पर केंद्रित डिज़ाइन, लचीलापन और सतत गतिशीलता की ज़रूरतों के साथ तालमेल को अहमियत दी जाए.
भारत में राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति के लागू होने के लगभग बीस साल बाद भी परिवहन की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और ज्य़ादातर शहर अभी भी निजी वाहनों की सुविधा को अहमियत दे रहे हैं. ऐसे में यह ज़रूरी हो गया है कि देश की शहरी परिवहन योजना में एक नया दृष्टिकोण लाया जाए जो एकीकृत और मानव-केंद्रित हो. ऐसी दृष्टिकोण में यात्री की सुविधा, सभी को शामिल रखना और और सभी को सुलभ व्यवस्था देना अहम पहलू होंगे. ये उदाहरण शहरी गतिशीलता योजना के दृष्टिकोण में एक अहम दिशा-परिवर्तन की ज़रूरत को सामने रखते हैं — एक ऐसा दिशा-परिवर्तन जो निजी वाहनों को सुविधा देने वाले बुनियादी ढांचे के बदले उच्च क्षमता वाली सार्वजनिक यातायात प्रणालियों, यात्रा करने के कई विकल्पों और समन्वित भूमि-उपयोग योजना को अहमियत दे.
इसी तरह मेट्रो प्रणालियों का डिज़ाइन ऐसा होना चाहिए कि जिसमें शुरूआती और अंतिम गंतव्य तक जुड़ाव (फर्स्ट-एंड-लास्ट-माइल कनेक्टिविटी) एक अहम हिस्सा हो. इसके अलावा शहरों में पैदल यात्रियों के लिए सुलभ और बाधा रहित फुटपाथों का निर्माण किया जाना चाहिए. भविष्य के निवेश केवल वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या को समाधान देने के बजाए राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय पर पर्यावरणीय के लक्ष्यों, समानता संबंधी विचारों और मानव-केंद्रित शहरी व्यवस्था बनाने के विचार के अनुरूप होने चाहिए.
इसी तरह मेट्रो प्रणालियों का डिज़ाइन ऐसा होना चाहिए कि जिसमें शुरूआती और अंतिम गंतव्य तक जुड़ाव एक अहम हिस्सा हो. इसके अलावा शहरों में पैदल यात्रियों के लिए सुलभ और बाधा रहित फुटपाथों का निर्माण किया जाना चाहिए.
एनयूटीपी ने अनेकों योजनाओं और मिशनों को प्रोत्साहित किया है जैसे राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (एनयूआरएम), सतत शहरी परिवहन परियोजना (एसयूटीपी) शहरी परिवर्तन और कायाकल्प से जुड़ा अटल मिशन (अमृत), स्मार्ट सिटी मिशन (एससीएम) और हरित शहरी गतिशीलता योजना (जीयूएमएस). फिर भी ये नीतियां शहरी गतिशीलता की योजना में कोई अहम बदलाव लाने में असफल रही हैं और आज भी निजी वाहनों पर ज़ोर कायम है. आगे का रास्ता यही होना चाहिए कि समयबद्ध और सही परिणाम के प्रति उन्मुख नीति सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्य-स्तर पर खास कानून बनाए जाएं.
नंदन एच. दावड़ा अर्बन स्टडीज कार्यक्रम, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं.
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Dr Nandan H Dawda is a Fellow with the Urban Studies programme at the Observer Research Foundation. He has a bachelor's degree in Civil Engineering and ...
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