-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
दुनिया की 50 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी शहरी इलाक़ों में रहती है. इनमें से लगभग आधी जनसंख्या महिलाओं की है. शहरों की प्रगति से जुड़ी विकास की मुख्य चिंताएं अक्सर शहरों को महिलाओं और दूसरे अल्पसंख्यक लैंगिक समुदायों की अनूठी चुनौतियों की अनदेखी करने को मजबूर कर देते हैं. इसके अलावा, शहरी बनावट की मुख्यधारा में महिलाओं को शामिल करने को लेकर विकसित देशों का नज़रिया विकासशील देशों की समस्याओं पर पर्याप्त रूप से ध्यान देने वाला नहीं है.
आधी आबादी (महिलाओं) की आवाजाही के तरीक़े, शहरी योजना निर्माण में आने वाली एक महत्वपूर्ण बाधा है. इसका fप्रगति, विकास और जन-कल्याण पर सामूहिक प्रभाव पड़ता है. मिसाल के तौर पर आंकड़े बताते हैं कि कैसे शहरों में सुरक्षित परिवहन व्यवस्था की कमी के कारण किस तरह लड़कियों को निचले दर्जे के कॉलेजों में पढ़ाई करने का विकल्प चुनने को मजबूर होना पड़ता है. इससे उन्हें हासिल होने वाली शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ता है.
आधी आबादी (महिलाओं) की आवाजाही के तरीक़े, शहरी योजना निर्माण में आने वाली एक महत्वपूर्ण बाधा है. इसका प्रगति, विकास और जन-कल्याण पर सामूहिक प्रभाव पड़ता है.
शहरी यातायात की रूप-रेखा में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने की राह में कौन सी चुनौतियां हैं? किस तरह अधिक भागीदारी वाला नज़रिया अपनाकर शहरी योजनाकार और नीति निर्माता, सभी तबक़ों के परिवहन की विशेष ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं? बहुलता वाली भागीदारी के कार्यकारी ढांचे किस तरह सभी को समान और आसानी से उपलब्ध शहरी परिवहन व्यवस्था उपलब्ध करा सकते हैं?
महिलाओं की आवाजाही के पैटर्न बिल्कुल अलग होते हैं. इनसे पता चलता है कि मर्दों की तुलना में महिलाओं को किन अलग तरह की ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाना पड़ता है. फ़ैसला लेने और सुरक्षा और वित्तीय स्थिरता से जुड़ी चिंताओं में महिलाओं के फ़ैसले लेने के सीमित अधिकार, इस फ़ासले को और भी बढ़ा देते हैं. यही नहीं, सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हुए महिलाएं यौन शोषण का शिकार हो सकती हैं, जिससे उनके यातायात के अनुभव में खलल पड़ता है. केरल के कोझीकोड में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि लगभग 71 प्रतिशत महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन की गाड़ी का इंतज़ार करते हुए उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था. वहीं, 69 फ़ीसद को परिवहन के दौरान ये उत्पीड़न झेलना पड़ा था. इसी तरह ट्रांसजेंडर लोगों ने अक्सर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के इस्तेमाल के दौरान उत्पीड़न की शिकायतें की हैं. परिवहन के क्षेत्र जैसे कि ड्राइवर या कंडक्टर के रूप में महिलाओं और दूसरे जेंडर के अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी न होना एक और कारण है, जिसकी वजह से उन्हें असुरक्षित आवाजाही के तजुर्बे से गुज़रना पड़ता है.
एक अध्ययन से पता चला था कि लगभग 71 प्रतिशत महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन की गाड़ी का इंतज़ार करते हुए उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था. वहीं, 69 फ़ीसद को परिवहन के दौरान ये उत्पीड़न झेलना पड़ा था.
महिलाओं और दूसरे जेंडर के लोगों के आवाजाही के पैटर्न की अनदेखी करना इस समस्या को और भी बढ़ा देता है. क्योंकि महिलाएं छोटी दूरी वाला सफर अक्सर करती हैं. महामारी के बाद तो ये चुनौतियां और भी बढ़ गई हैं. क्योंकि, महिलाओं और पुरुषों के बीच अंतर और भी ज़ाहिर होने लगा है. इसका एक उदाहरण, सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के कारण दिल्ली मेट्रो में महिलाओं के सफर करने की तादाद में 16 प्रतिशत की कमी के रूप में देखा गया है. बहुत सी महिलाओं ने इसके विकल्प के तौर पर निजी वाहनों का चुनाव किया, जिससे सड़क पर ट्रैफिक बढ़ा. इससे ज़ाहिर होता है कि सार्वजनिक परिवहन के पर्याप्त विकल्प उपलब्ध कराने की ज़रूरत है. इसके अतिरिक्त, सफर के दौरान महिलाओं को उनके कपड़ों के आधार पर आंकने की सामाजिक प्रवृत्ति भी उनके आवाजाही के फ़ैसलों पर असर डालती है. ऐसे कई उदाहरणों से ज़ाहिर हुआ है कि किस तरह शहरों की परिवहन व्यवस्था अक्सर महिलाओं की ज़रूरत के प्रति संवेदनहीनता दिखाते हुए तैयार की जाती है.
शहरी आवाजाही की अनूठी चुनौतियों को देखते हुए इस बात की ज़रूरत है कि इनके भागीदारी वाले, समावेशी और नए समाधान तलाशने होंगे, जो शहरों को सबके लिए सुविधाजनक बना सकें. इसीलिए, शहरी योजनाएं और नीतियां बनाने में लैंगिक भागीदारी बढ़ाने के बारे में नए सिरे से विचार करना होगा. मिसाल के तौर पर वियना शहर ने अपनी शहरी यातायात व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाकर महिलाओं की यातायात संबंधी चितांओं को सफलतापूर्वक कम किया है. इस नज़रिए में चौड़े फुटपाथ बनाना, रौशनी की बेहतर व्यवस्था करना, साइकिल के लिए रैम्प बनाना और नीची इमारतों का निर्माण करना शामिल है. सूरत में पिंक ऑटो जैसी नई परियोजनाओं में महिलाएं ऑटो रिक्शा चलाती हैं, जिससे अधिक समावेशी और सुरक्षित आवाजाही का माहौल बनता है और इससे और अधिक महिलाओं के इन कार्यक्रमों में शामिल होने को प्रोत्साहन मिलता है.
शहरी परिवहन व्यवस्था बनाते समय महिलाओं के चुनाव को प्राथमिकता देने से महिलाओं की भागीदारी बढ़ाकर उनकी ज़रूरतें पूरी करने वाली परिवहन व्यवस्था बनाई जा सकती है. इन ज़रूरतों का ख़याल नहीं रखने का उल्टा असर हो सकता है. इसका एक उदाहरण स्वीडन में देखने को मिला था जहां पर साइकिलों के लिए रास्ते बनाने की जगह प्रमुख सड़कों को साफ़ करने पर ज़ोर दिया गया था. इससे ये संकेत मिला था कि महिलाओं की आवाजाही के पसंदीदा विकल्पों की अनदेखी कर दी गई. वहीं दूसरी तरफ़ मेक्सिको में FemiBici जैसी पहल जो महिलाओं की ज़रूरत के प्रति संवेदनशील थी, उसके तहत महिला साइकिल चालकों को उनकी आवाजाही को ख़ास तौर से रात में सुगम बनाने के लिए ट्रेनिंग दी गई. इसी तरह भारत के स्मार्ट सिटी मिशन के तहत ‘Cycles4Change’ चैलेंज का मक़सद कोविड-19 के दौरान साइकिल के लिए मूलभूत ढांचे को सुधारना था. इसके केंद्र में 52 शहरों के वर्किंग ग्रुप में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना था. इससे भी एक क़दम आगे बढ़ते हुए, वडोदरा ने महिला साइकिल चालकों की संभावित समस्याओं से निपटने के लिए एक समावेशी प्रबंधन की नियुक्ति की गई है.
लैंगिक संतुलन वाला नज़रिया, यातायात व्यवस्था को आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद बनाए रखने के साथ साथ, रोज़गार के बेहतर अवसर मुहैया कराने में भी अहम भूमिका निभा सकता है. मिसाल के तौर पर ओडिशा की राजधानी भुबनेश्वर में ई-रिक्शा चलाने के लिए महिलाओं और ट्रांसजेंडर को नौकरी पर रखा गया है. आवाजाही के लिए ई-रिक्शा तुलनात्मक रूप से सस्ता विकल्प है. इस पहल से लोगों के घर से आवाजाही के मुख्य साधन तक पहुंचने में भी मदद मिली है, जिससे सार्वजनिक परिवहन में क्रांतिकारी बदलाव लाने की संभावना है.
लैंगिक संतुलन वाला नज़रिया, यातायात व्यवस्था को आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद बनाए रखने के साथ साथ, रोज़गार के बेहतर अवसर मुहैया कराने में भी अहम भूमिका निभा सकता है.
विकास का भागीदारी वाला मॉडल जिसमें वैश्विक सहयोग के साथ तमाम साझीदारों को शामिल किया जाए तो इससे शहरी यातायात व्यवस्थाओं को सबके लिए आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं ने शहर के प्रशासन के स्तर पर शहरी यातायात में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए कुछ प्राथमिकता वाले उपायों की पहचान की है.
समावेशी, सोचा समझा और सामूहिक नज़रिया अपनाकर सबके लिए सस्ती, सुलभ और टिकाऊ शहरी परिवहन व्यवस्था विकसित की जा सकती है. इससे भी बड़ी बात ये कि स्थानीय विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए 2030 के कार्रवाई वाले दशक में एक लैंगिक रूप से संवेदनशील व्यवस्था, शहरी ढांचागत व्यवस्था की धुरी है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Anusha is Senior Fellow at ORF’s Centre for Economy and Growth. Her research interests span areas of Urban Transformation, Spaces and Habitats. Her work is centred ...
Read More +