Published on Nov 26, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत में कोयला आधारित विकास प्रणाली में परिवर्तन के लिए हरित क्षेत्रों में अतिरिक्त पूंजीगत प्रवाह की आवश्यकता है.

कोयले के इस्तेमाल का अनुकूल अंत और वित्तीय गणित: भारत में कार्बन रहित उर्जा क्षेत्र के लिये बाज़ार का लेखा-जोखा!

यह लेख हमारी निबंध श्रृंखलाशेपिंग आवर ग्रीन फ्यूचर: पाथवेज़ एंड पॉलिसीज़ फॉर नेट ज़ीरो ट्रांसफॉर्मेशन का हिस्सा है.


भूमिका

विकास, इसे जिस तरह से दुनिया ने परिभाषित किया और उसका ख़ाका तैयार किया है, उसके लिए भौतिक उत्पादन की ज़रूरत होती है, और भौतिक उत्पादन बिना ऊर्जा की ज़रूरत के संभव नहीं है. इसलिए, ऐतिहासिक रूप से, जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला (Coal) पूरी दुनिया में आर्थिक विकास के केंद्र में था. वर्तमान में, विकसित अर्थव्यवस्थाएं जीवाश्म ईंधनों और अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन आधारित उद्योगों पर खड़ी हैं, और उनकी जीवनपद्धति का परिणाम ये है कि आज पूरी दुनिया वैश्विक तापमान में वृद्धि (global warming) की समस्या से जूझ रही है. अब इस आर्थिक मॉडल पर सवाल उठ रहे हैं, और गरीब और विकासशील देशों से कहा जा रहा है कि वे अपने देशों में गरीबी को ख़त्म करने और अपने विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए नए और कम (या ज़ीरो) कार्बन उत्सर्जन (carbon emission) आधारित मॉडल को अपनाएं.

वैश्विक स्तर पर जिस तरह से जलवायु वित्त फंड की कमी से जूझ रहा है और उसकी जिस चतुराई से पुनर्कल्पना की जा रही है, भारत जैसे देशों में हरित निवेश की सख़्त ज़रूरत है

इसका परिणाम ये है कि भारत पर एक नेट ज़ीरो वर्ष घोषित करने का दबाव बढ़ता जा रहा है ताकि वह अपने बढ़ते कार्बन उत्सर्जन की क्षतिपूर्ति के लिए ग्रीन हाउस गैसों के अवशोषण और उनके हटाव की विभिन्न प्रक्रियाओं को अपनाए. भारत को मालूम है कि ऐसी मांगें अतार्किक हैं और बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबावों के बावजूद उसने 2015 में पेरिस जलवायु सम्मेलन में हुए समझौतों के इतर, ऐसे किसी लक्ष्य की घोषणा नहीं की है. वास्तव में, भारत की कोयले पर निर्भरता को देखते हुए “नेट ज़ीरो” कार्बन का लक्ष्य हासिल करना संभव ही नहीं है. इस ईंधन पर अपनी निर्भरता को कम करना इस बात पर निर्भर करेगा कि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों में अतिरिक्त धन और संसाधन का कितना निवेश किया जा रहा है. हालांकि, वैश्विक स्तर पर जिस तरह से जलवायु वित्त फंड की कमी से जूझ रहा है और उसकी जिस चतुराई से पुनर्कल्पना की जा रही है, भारत जैसे देशों में हरित निवेश की सख़्त ज़रूरत है.

अगस्त 2020 में, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटर्स ने भारत से आग्रह करते हुए कहा कि उसे तत्काल प्रभाव से कोयले का उपयोग पूरी तरह से छोड़ना होगा. उन्होंने भारत को 2020 के बाद किसी नए ताप विद्युत संयंत्र में निवेश से बचने की सलाह दी और साल की शुरुआत में 41 कोयला खदानों की नीलामी के फैसले की आलोचना की. इसी तरह, इस साल मार्च में, पॉवरिंग पास्ट कोल एलायंस समिट को संबोधित करते हुए उन्होंने दुनिया भर की सरकारों से अपने कोयला आधारित परियोजनाओं को रद्द करकेकोयले पर नशे की हद तक अपनी निर्भरता ख़त्म करने का आह्वान किया. महामारी से पहले, दुनिया में नई कोयला परियोजनाओं की दूसरी सबसे बड़ी पाइपलाइन भारत में थी. उन्होंने बिजली क्षेत्र से कोयले की चरणबद्ध समाप्ति को “पेरिस समझौते के अनुसार वैश्विक तापमान में 1.5-डिग्री वृद्धि के लक्ष्य के अनुरूप सबसे महत्वपूर्ण कदम” घोषित किया.

 सच तो ये है कि कोविड-19 के बाद भारत कोयले की कमी से जूझ रहा है, जिसमें महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में आए सुधार को पटरी से उतारने की क्षमता है, यही हालात चीन के भी हैं 

मानव इतिहास में बहुत लंबे समय तक प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) ही यांत्रिक ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत रहा है. भोजन और चारे को ऊर्जा की तरह उपयोग करते हुए मनुष्य और जानवर ने वैश्विक सभ्यता की नींव रखी. लकड़ी के दहन से प्राप्त ऊष्मीय ऊर्जा के मूल में भी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया थी. बाद में, जब कोयला लकड़ी की जगह ऊष्मा का मुख्य स्रोत बना, तब भी हम यहां सैकड़ों वर्षों में संग्रहीत प्रकाश संश्लेषण की किया को ही ऊर्जा के मूल स्रोत के रूप में देखते हैं. 17वीं शताब्दी में भाप इंजन के आविष्कार ने मनुष्यों को कोयले से मिलने वाली ऊष्मीय ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करने में मदद की.

इस विकास ने भौतिक उत्पादन के सभी प्रतिमानों को भी बदल कर रख दिया. हालिया एक अनुमान के अनुसार, 19वीं सदी के मध्य तक इंग्लैंड में कुल ऊर्जा खपत का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा कोयले का था, और इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण भाप इंजन का प्रयोग था. लंबे समय तक, शोधकर्ता इस सवाल को लेकर विभक्त रहे हैं कि क्या कोयला औद्योगिक क्रांति के लिए महत्वपूर्ण था. रिग्ली (2010) जैसे विद्वानों का मानना था कि कोयले का प्रयोग “औद्योगिक क्रांति के लिए आवश्यक था”, जबकि जोएल मोकिर (2009) जैसे अन्य विद्वानों का कहना था कि “औद्योगिक क्रांति को पूरी तरह से ‘भाप’ की ज़रूरत नहीं थी…न ही भाप की शक्ति पूरी तरह से कोयले पर निर्भर थी.”

फ़र्निहो और ओ’रूर्के द्वारा नवंबर 2020 में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार, 1300 से 1900 के बीच यूरोपीय शहरों के डेटाबेस के प्रयोग से उन्होंने पाया कि कोयला खदानों के पास मौजूद शहरों के विकसित होने की संभावना तुलनात्मक रूप से ज़्यादा थी. शोधकर्ताओं का कहना है, “निकटतम कोयला क्षेत्र से 49 किमी दूर स्थित शहरों में 1750 के बाद 85 किमी दूर स्थित शहरों की तुलना में 21.1 प्रतिशत तेजी से वृद्धि हुई.”

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस साल मार्च में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संस्थान (आईईए) के प्रमुख फेथ बिरोल ने कहना है कि भारत जैसे विकासशील देशों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिना कोई वित्तीय सहायता प्रदान किए उनसे कोयले का प्रयोग छोड़ने को कहना न्यायपूर्ण नहीं है. उन्होंने कहा, “कई तथाकथित उन्नत अर्थव्यवस्थाएं, बड़े स्तर पर कोयले के दोहन के ज़रिए ही इतनी औद्योगीकृत हो सकी हैं, जहां राष्ट्रीय आय का स्तर बहुत ऊंचा है.” और इसके उदाहरण में उन्होंने अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशों का नाम दोहराया.

ओईसीडी देशों में ऊर्जा खपत में कमी काफी हद तक ऊर्जा दक्षता में तकनीकी सुधार का परिणाम है. इसका मतलब यह है कि विकसित देशों में ऊर्जा के कम उपयोग का कारण उपभोक्ता व्यवहार में आया कोई ज़रूरी बदलाव नहीं है बल्कि “गतिविधि प्रभाव” यानी ऊर्जा के उपयोग में गिरावट रहा है 

यह लेख विकसित एवं विकासशील देशों में कोयले की खपत की पड़ताल करते हुए हरित परिवर्तन से जुड़ी ज़रूरी इकाईयों के विरुद्ध उसकी तुलना करता है. यह पाया गया है कि भारत जैसे देश, कोयले पर अपनी उच्च निर्भरता के साथ-साथ नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के तीव्र विकास के चलते,  जलवायु वित्त के लिहाज़ से सबसे प्रभावी स्थान हो सकते हैं. ऐसा मुमकिन है क्योंकि भारत में प्रति व्यक्ति कोयले की खपत विकसित देशों की तुलना में अभी भी काफ़ी कम है और आर्थिक परिवर्तन ‘हरित’ बदलाव के लिए न सिर्फ ज़रूरी हैं बल्कि अवश्यंभावी हैं.

सच तो ये है कि कोविड-19 के बाद भारत कोयले की कमी से जूझ रहा है, जिसमें महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में आए सुधार को पटरी से उतारने की क्षमता है, यही हालात चीन के भी हैं. इसका परिणाम ये है कि विकसित देशों की ये शंका बढ़ती जा रही है कि भारत और चीन भविष्य में आपूर्ति की चुनौतियों से निपटने के लिए कोयले की खपत को लगभग दूना करते हुए बड़ी तेजी से कोयले का उत्पादन बढ़ाएंगे. जबकि ऐसी चिंताएं उचित हैं, लेकिन विकासशील दुनिया के संदर्भ में नई नहीं हैं.

ओईसीडी देशों में कोयले की खपत में गिरावट ने कुल ऊर्जा खपत में गिरावट को पीछे छोड़ दिया है. उदाहरण के लिए, 2020 में, कोयले की खपत में लगभग 18 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि कुल ऊर्जा खपत में लगभग 8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई.

उहादरण के क्या, जर्मनी ने इस साल के पहले छह महीनों में अपने कोयला उत्पादन को तेजी से बढ़ाया है, जिसका देश में बिजली की खपत में 27 प्रतिशत का योगदान है. ऐसे तीन कारक रहे हैं, जो इस वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं: कोरोना महामारी की कई लहरों के बीच ऊर्जा की बढ़ती मांग, प्राकृतिक गैसों की कीमतों में हुई वृद्धि और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (ख़ासकर पवन ऊर्जा) से होने वाले बिजली उत्पादन में आई कमी. कोयला हमेशा से ऊर्जा उत्पादन का प्रमुख आधार रहा है, और इसका उपयोग जटिल बाजार प्रक्रियाओं से प्रभावित होता है, जिसे केवल मानक आधारों पर नहीं देखा और समझा जा सकता है.

ऊर्जा उपयोग और कोयला

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) से जुड़े देशों में बिजली खपत में ऊर्जा का उपयोग धीरे धीरे कम हो जा रहा है. सैद्धांतिक स्तर पर देखें तो इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं. पहला कारण है: ऊर्जा दक्षता में तकनीकी सुधार यानी समान कार्यों में अब कम ऊर्जा का उपयोग हो रहा है. दूसरा है: “गतिविधि प्रभाव”. जिसका अर्थ है कि आर्थिक गतिविधि में परिवर्तन के कारण ऊर्जा उपयोग में परिवर्तन होना. इसमें “संरचना प्रभाव” भी सम्मिलित है, जो क्षेत्र विशेष में हुए किसी विशिष्ट बदलाव के बाद मानवीय गतिविधियों में परिवर्तन को जन्म देती हैं. जैसे, परिवहन. और तीसरा और आखिरी कारण, ऊर्जा खपत के संबंध में मौसम से जुड़े बदलाव जिम्मेदार हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, मौसम के और अधिक शीतोष्ण होने के चलते हीटिंग या कूलिंग की आवश्यकता कम हो सकती है.

2005-2020 के बीच कोयले की खपत बढ़कर लगभग दोगुनी हो जाने के बावजूद, भारत की प्रति व्यक्ति खपत अभी भी वैश्विक औसत से कम है

आईईए ने इन प्रभावों की जांच की है, और उसने लगातार यही पाया है कि ओईसीडी देशों में ऊर्जा खपत में कमी काफी हद तक ऊर्जा दक्षता में तकनीकी सुधार का परिणाम है. इसका मतलब यह है कि विकसित देशों में ऊर्जा के कम उपयोग का कारण उपभोक्ता व्यवहार में आया कोई ज़रूरी बदलाव नहीं है बल्कि “गतिविधि प्रभाव” यानी ऊर्जा के उपयोग में गिरावट रहा है. जबकि ऊर्जा दक्षता में सुधार के कारण ऊर्जा खपत में कमी आई है, आईईए ने पाया है कि सुधार की वर्तमान दर वैश्विक जलवायु और स्थिरता लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है. नतीजतन, आईईए ने 2015 के बाद सुधार की धीमी दर को देखते हुए उसके मुकाबलेतत्काल कार्रवाईकी आवश्यकता  पर ज़ोर दिया है.

इसके विपरीत, विकासशील देशों ने गतिविधि प्रभाव के कारण ऊर्जा के उपयोग में तेजी से वृद्धि देखी है (तालिका एक देखें). विकासशील देशों में आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि का सीधा संबंध जीवन प्रत्याशा में हुई वृद्धि और सामाजिक-आर्थिक प्रगति से है. हालांकि 2005 के बाद भारत और चीन जैसे देशों में ऊर्जा की खपत लगभग दो गुनी हो गई है, लेकिन इन देशों में हुए तकनीकी सुधार के कारण ही वैश्विक स्तर पर ऊर्जा दक्षता बचत में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. हालांकि 2008-09 में वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए एक प्रोत्साहन पैकेज लागू किया जिसने “उसके विनिर्माण क्षेत्र को और अधिक ऊर्जा गहन क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया.” ठीक इसी तरह की प्रवृत्ति महामारी से उबरने के लिए चीन द्वारा अपनाई जा रही आर्थिक नीतियों में दिखाई पड़ सकती है, जो भविष्य में दक्षता लाभ को कम कर सकती है.

तालिका 1: कुल ऊर्जा खपत (एक्साजूल)

देश 2005 2009 2014 2020
अमेरिका 96.42 89.88 92.99 87.79
चीन 75.60 97.53 124.82 145.46
जर्मनी 14.17 13.15 13.16 12.11
जापान 22.40 19.81 19.22 17.03
भारत 16.50 21.45 27.79 31.98
विश्व 456.62 481.97 539.56 556.63
ओईसीडी 238.34 225.93 229.65 217.11
गैर-ओईसीडी 218.28 256.04 309.91 339.52
ईयू 67.37 62.70 59.59 55.74

स्रोत: बीपी द्वारा विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा, 2021

कोयला उपयोग में हिस्सेदारी

ऐसा प्रतीत होता है कि ओईसीडी देशों ने पिछले 15 वर्षों में कोयले पर अपनी निर्भरता को काफी तेजी से कम करने में कामयाबी हासिल की है. विशेष रूप से, यह अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के लिए सही है. जबकि, जापान इसके ठीक उलट ग्रिड पर न्यूनतम ऊर्जा की ज़रूरत की पूर्ति नाभिकीय ऊर्जा के बदले कोयला आधारित संयंत्रों द्वारा कर रहा है. 2005 और 2020 के बीच के अधिकांश वर्षों में, ओईसीडी देशों में कोयले की खपत में गिरावट ने कुल ऊर्जा खपत में गिरावट को पीछे छोड़ दिया है. उदाहरण के लिए, 2020 में, कोयले की खपत में लगभग 18 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि कुल ऊर्जा खपत में लगभग 8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई.

जबकि चीन ने कोयले पर अपनी निर्भरता को कम करना शुरू कर दिया है, फिर भी चीन में कोयले की खपत पूरे विश्व में सर्वाधिक है. दुनिया में आधे से अधिक थर्मल पॉवर प्लांट पाइपलाइन चीन में हैं, जिसमें से 163 गीगावाट क्षमता वाली पाइपलाइनें अभी निर्माण के शुरुआती चरण में हैं, और इसमें 484 गीगावाट क्षमता वाली उन पाइपलाइनों को शामिल नहीं किया गया है, जिसकी निर्माणयोजना 2015 में हुए पेरिस सम्मेलन के बाद रद्द कर दिया गया था. चीन सार्वजनिक वित्त पोषण के माध्यम से विदेशों में विद्युत संयंत्रों के निर्माण के साथ 40 गीगावाट से अधिक क्षमता वाली पाइपलाइन परियोजनाओं में निवेश कर रहा है, और चीन पूरी दुनिया में सबसे बड़े सार्वजनिक वित्त प्रदाताओं में से एक है.

साथ ही, गैर-ओईसीडी देशों में प्राथमिक ऊर्जा के स्रोत के रूप में कोयले की खपत स्थिर रहते हुए 40 फीसदी से कम है (देखें तालिका 2). इन देशों में, कोयले की खपत कुल ऊर्जा खपत को दर्शाती है. उदाहरण के लिए, 2018 और 2019 में, कुल ऊर्जा खपत में क्रमशः तीन और दो प्रतिशत की वृद्धि हुई. कोयले पर भारत की निर्भरता भी स्थिर रही है.

इन प्रवृत्तियों से पता चलता है कि भारत जैसे गैर-ओईसीडी देशों को कोयले की वैश्विक खपत में कमी लाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है और इसके लिए उसे नेट ज़ीरो ग्रीनहाउस उत्सर्जन की दिशा में बढ़ना होगा. हालांकि ओईसीडी देशों में कोयले की खपत में हुई कमी के और भी व्यापक कारण हैं.

 तालिका 2: प्राथमिक ऊर्जा खपत में कोयले की हिस्सेदारी (प्रतिशत में)

देश 2005 2009 2014 2020
अमेरिका 24 22 19 10
चीन 73 72 66 57
जर्मनी 24 23 25 15
जापान 21 22 26 27
भारत 54 55 58 55
विश्व 29 30 30 27
ओईसीडी 20 19 19 13
गैर-ओईसीडी 38 40 39 37
ईयू 17 16 17 11

स्रोत: बीपी द्वारा विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा, 2021 और लेखक की अपनी गणना

1992 में हुए अर्थ सम्मेलन के बाद से, भारत और अन्य विकासशील देशों ने घरेलू क्षमताओं और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की ऐतिहासिकता को देखते हुए उसके उत्सर्जन में कमी लाने के लिए एक समतावादी दृष्टिकोण अपनाने की वकालत की है. यह दृष्टिकोण अक्सर ओईसीडी देशों के विशेषज्ञों के बहस के केंद्र में रहा है. उदाहरण के लिए, यूनिवर्सल इकोलॉजिकल फंड की 2019 की रिपोर्ट में, व्हाइट हाउस के पूर्व सलाहकार और हार्वर्ड के प्रोफेसर सहित कई बड़े विशेषज्ञों ने पूर्ण उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों के आधार पर राष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं को सूचीबद्ध किया. इस रिपोर्ट में पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि को पूर्व-औद्योगीकरण के स्तर से 1.5 डिग्री नीचे रखने से जुड़ी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के पालन को जांचने के लिए विकसित और विकासशील देशों को एक साथ रखकर उनका आकलन किया गया.[1] इससे हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह पश्चिमी अकादमिक संस्कृति के अनुरूप है, जो समरूपता के सिद्धांत को कमज़ोर करना चाहती है.

प्रति व्यक्ति कोयले की उच्च खपत और धीमी गति नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाने वाले देशों की तुलना में भारत में ऐसा वित्तीय प्रवाह उसे नेट ज़ीरो कार्बन की दिशा में तेजी आगे बढ़ने का अवसर प्रदान कर सकता है

विकसित और विकासशील देशों के बीच प्रति व्यक्ति जीवाश्म ईंधन की खपत के अंतराल को देखते हुए, इस सिद्धांत को अभी छोड़ा नहीं जाना चाहिए. 2005-2020 के बीच कोयले की खपत बढ़कर लगभग दोगुनी हो जाने के बावजूद, भारत की प्रति व्यक्ति खपत अभी भी वैश्विक औसत से कम है (देखें तालिका 3). वैश्विक औसत स्थिर रहा है क्योंकि इस बीच जहां एक ओर ओईसीडी देशों में प्रति व्यक्ति कोयले की खपत कम हुई है, वहीं गैर-ओईसीडी इसकी प्रति व्यक्ति खपत बढ़ गई है. हालांकि, ओईसीडी देशों में कोयले की प्रति व्यक्ति खपत अभी भी गैर-ओईसीडी देशों की तुलना में अधिक है, भले ही ये देश धनी हैं और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत (एवं ईंधन) आधारित परिवर्तन के लिए सक्षम हैं.

तालिका 3: कुल प्रति व्यक्ति कोयला खपत (किलोवाट)

देश 2005 2009 2014 2020
अमेरिका 22599.34 18812.92 15740.35 7756.85
चीन 10872.44 13601.42 16797.06 16300.13
जर्मनी 11578.83 10182.10 11423.13 6140.66
जापान 11041.71 9882.66 10891.46 10088.89
भारत 1868.88 2393.57 3480.00 3530.87
विश्व 5381.48 5621.29 6222.87 5425.69
ओईसीडी 11013.62 9509.45 9009.38 5564.68
गैर-ओईसीडी 4049.02 4722.97 5600.73 5395.83
ईयू 10960.70 9013.81 8207.71 4787.28

स्रोत: बीपी द्वारा विश्व ऊर्जा की सांख्यिकीय समीक्षा, 2021; विश्व बैंक और लेखक की अपनी गणना

वास्तव में, दरअसल, ओईसीडी देशों में प्रति व्यक्ति कोयले की खपत में कमी का एक बड़ा कारण प्राकृतिक गैस जैसे ईंधन का उपयोग है, जिससे अमेरिका जैसे देशों में बिजली पैदा की जा रही है. भारत में सात प्रतिशत (और चीन में भी लगभग इतना ही) खपत की तुलना में अमेरिका में प्राथमिक ऊर्जा खपत में इसका हिस्सा लगभग 34 प्रतिशत और यूरोपीय संघ में 25 प्रतिशत है. इसके विपरीत देखें, तो भारत में ऊर्जा खपत में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी दुनिया में सबसे कम है. भले ही प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी 2030 तक भारत की कुल ऊर्जा खपत में प्राकृतिक गैस के योगदान को लगभग दोगुना यानी 15 प्रतिशत करना चाहते हैं, लेकिन पेट्रोलियम सचिव का कहना है कि देश प्राकृतिक गैस पर निर्भर नहीं रह सकता है. इसके कई कारण हैं, जिसमें कोयले की तुलना में अधिक लागत, घरेलू मूल्य निर्धारण की जटिल प्रक्रिया, पाइपलाइन और एक स्थिर आयात/निर्यात तंत्र जैसे मूलभूत ढांचे का अभाव, और वित्तीय तनाव युक्त बिजली वितरण तंत्र कीटेक या पेजैसे अनुबंध कर सकने की अक्षमता शामिल हैं.

इसलिए भारत को विकसित देशों की तुलना में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों में कहीं अधिक और तेजी से निवेश की ज़रूरत है, जिनके पास प्राकृतिक गैस जैसे संसाधनों का तंत्र विकसित करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध था. प्रति व्यक्ति कोयले की उच्च खपत और धीमी गति नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाने वाले देशों की तुलना में भारत में ऐसा वित्तीय प्रवाह उसे नेट ज़ीरो कार्बन की दिशा में तेजी आगे बढ़ने का अवसर प्रदान कर सकता है.

भारत अभी तक महंगे बैंक ऋणों पर निर्भर है, जो ऋण-जोखिम की अपनी सीमा को पार कर चुकी है. जबकि ऊर्जा क्षेत्र में आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए दीर्घकालिक पूंजी की आवश्यकता होती है 

भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का लगभग 72 फीसदी हिस्सा ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ा हुआ है. ये स्पष्ट है कि अगर ओईसीडी देश वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना चाहते हैं तो उन्हें भारत में ऊर्जा तंत्र में परिवर्तन लाने के लिए उसकी वित्तीय मदद करनी होगी और बड़े पैमाने पर नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने में संसाधनों की कमी जैसे अवरोधों को दूर करना होगा. नवीकरणीय ऊर्जा-संग्रहण और ग्रिड अपग्रेड से जुड़ी उच्च लागत संसाधनों की कमी से जुड़ी हुई चुनौतियां हैं. चूंकि विकसित देश प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की समान दर के सिद्धांत से सहमत नहीं होंगे, इसलिए उन्हें भारत जैसे देशों के सामने खड़ी चुनौतियों को पार करने में उनकी मदद करनी होगी.

 ऊर्जा संक्रमण प्रक्रिया के लिए वित्तपोषण

भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) की अधिकतम उत्पादन क्षमता के अनुसार, देश की स्थापित क्षमता 2029-30 तक (अतिरिक्त 27 गीगावाट बैटरी स्टोरेज क्षमता के साथ) बढ़कर 817 गीगावाट हो जाएगी (तालिका 4 देखें).

इसमें  से 395 गीगावाट पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों और 445 गीगावाट ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त होगी. इसके अलावा, जुलाई 2021 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक मौजूदा ताप विद्युत संसाधनों के कुशल उपयोग से वर्तमान की ऊर्जा ज़रूरतों को देखते हुए 50 गीगावाट अतिरिक्त कोयला क्षमता पैदा की जा सकती है. नाभिकीय और गैस संसाधनों से सीमित अपेक्षाओं के अतिरिक्त कोयला अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के चलते नवीकरणीय ऊर्जा संग्रहण उपायों में निवेश करना भारत की बेस लोड ऊर्जा ज़रूरतों (24 घंटे की अवधि में आवश्यक बिजली की मांग का न्यूनतम स्तर) के लिए आवश्यक है. इसके लिए ओईसीडी देशों की ओर से वित्तीय और तकनीकी निवेश के मार्ग को खोलना होगा, खासकर जब बैटरी स्टोरेज तकनीक की लागत से जुड़ी कई अनिश्चिताएं हैं. इनमें आपूर्ति श्रृंखला और विनिमय दरों से जुड़े जोखिम शामिल हैं.

तालिका 4: अधिकतम मिश्रित बिजली उत्पादन (2029-30)

ईंधन का प्रकार क्षमता (मेगावाट) %
हाइड्रो (विस्तृत और आयात) 60,977 7%
पीएसपी (पंप आधारित भंडारण) 10,151 1%
कम क्षमता हाइड्रो 5,000 1%
कोयला + लिगनाइट 2,66,911 33%
गैस 25,080 3%
परमाणु 18,980 2%
सोलर 2,80,155 34%
वायु 1,40,000 17%
बायोमास 10,000 1%
कुल 8,17,254
कुल गैर-जीवाश्म ईंधन 5,25,263 64%
कुल नवीकरणीय ऊर्जा (सोलर, वायु, बायोमास, स्मॉल हाइड्रो, पीएसपी) 4,45,3015 53%
बैटरी भंडारण 27000MW/1,08,0000 MWh

स्रोत: केंद्रीय बिजली प्राधिकरण; एक चार घंटे वाली बैटरी प्रणाली में बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणाली की लागत एक समान रूप से घटकर 2021-22 में 7 करोड़ से 2029-30 में 4.3 करोड़ (प्रति किलोवाट 75 अमेरिकी डॉलर की मूल लागत के साथ) होने का अनुमान लगाया गया है.

विशेषज्ञों का कहना है कि ग्रिड में जैसे-जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से ऊर्जा का आगमन होता है, तो उसके अनियमित होने जैसी अंतर्निहित समस्याओं के चलते उसका इस्तेमाल कठिन और महंगा हो जाता है. इसकी पूर्ति के लिए एक ऐसे ग्रिड में निवेश करना होगा, जो अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले बिजली के अनियमित प्रवाह को समायोजित कर सके. आईईए का अनुमान है कि एक ऐसे परिदृश्य में, जहां विकसित देश 2050 तक, चीन 2060 और अन्य उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं 2070 नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल कर लेती हैं, उस स्थिति में इलेक्ट्रिसिटी ग्रिडों में वार्षिक निवेश को 2030 तक बढ़ाकर दो गुना से भी ज़्यादा करने की आवश्यकता होगी. भारत को राज्य की वितरण कंपनियों की बड़े स्तर पर निजीकरण की संभावना की तलाश करनी होगी, जो अभी करीब 20 अरब अमेरिकी डॉलर के कर्ज़ से दबे हुए हैं.

वित्त वर्ष 2009-10 में 77.5 प्रतिशत की तुलना में वित्त वर्ष 2020-21 में 53.37 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर (PLF) पर चलने वाले बिजली संयंत्रों के साथ, पिछले एक दशक में भारत के कोयला आधारित संयंत्रों की क्षमता के उपयोग में भी उल्लेखनीय गिरावट आई है. इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा का तेजी से बढ़ता उत्पादन भी एक कारक है. भारत में कोयला क्षेत्र अतिरिक्त चुनौतियों से घिरा हुआ है, जिसमें पुराने कोयला संयंत्रों को बंद करने की योजना है (2030 तक लगभग 54 गीगावाट की क्षमता वाले कोयला संयंत्र बंद कर दिए जाएंगे). अध्ययन से पता चलता है कि इन संयंत्रों को बंद करने की लागत प्रति मेगावाट 4.1-5.9 लाख अमेरिकी डॉलर हो सकती है, जबकि इसकी तुलना में पुराने ताप विद्युत संयंत्रों को बंद करने की लागत अपेक्षाकृत कम है. जिसके परिणामस्वरूप, भारत के कोयला बेड़े को बनाए रखने के लिए भी 10.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निवेश की ज़रूरत होगी, ताकि मौजूदा ताप विद्युत संयंत्रों को फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन इकाईयों (जीवाश्म ईंधन आधारित संयंत्रों और अपशिष्ट दहन से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड जैसी उत्सर्जन गैसों का शुद्धिकरण) साथ फिर से चालू किया जा सके. ऐसा करने की समय सीमा पिछले एक दशक में कई बार बढ़ाई जा चुकी है और आखिरकार घनी आबादी वाले क्षेत्रों में स्थित संयंत्रों के लिए समय सीमा का निर्धारण हुए इसे साल 2022 तक कर दिया गया है. कोयला संयंत्रों के कम उपयोग, उसके रखरखाव की बढ़ती लागत और नवीकरणीय ऊर्जा लागत में कमी जैसी स्थितियां एक साथ मिलकर भारत को एक ऐसा अवसर प्रदान करती हैं, जहां वह कम उत्सर्जन आधारित तंत्र के निर्माण के लिए निवेश आकर्षित कर सकता है.

ओईसीडी के सदस्य देशों को भारत में संस्थागत निवेश चाहिए. उदाहरण के लिए, उनके सॉवरेन फंड और पेंशन फंड का निवेश ऊर्जा भंडारण और वितरण पर आधारित नए व्यापारिक मॉडल में किया जाना चाहिए. इसके अलावा, नए वित्तीय साधनों के अलग-अलग मॉडलों को अपनाया जा सकता है

ऐसी प्रौद्योगिकियां व तकनीकें जो इस तरह के कम उत्सर्जन वाले तंत्र के निर्माण में सहयोगी सिद्ध होंगी, वे तेजी से विकसित हो रही हैं, जैसे नवीकरणीय ऊर्जा, बैटरी भंडारण और हरित हाइड्रोजन में महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की गई है. हालांकि, उनमें से प्रत्येक को बड़े स्तर पर वित्तीय निवेश की आवश्यकता है. इसके अलावा, भारत अभी तक महंगे बैंक ऋणों पर निर्भर है, जो ऋण-जोखिम की अपनी सीमा को पार कर चुकी है. जबकि ऊर्जा क्षेत्र में आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए दीर्घकालिक पूंजी की आवश्यकता होती है. अप्रैल 2020 तक, बैंक और गैर बैंक वित्तीय संस्थानों द्वारा भारत के ऊर्जा क्षेत्र को प्रदान किए ऋण की जोखिम सीमा पहले ही 160 अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर चुकी थी, जो मोटे तौर पर 2030 तक भारत के नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को वित्तपोषित करने के लिए आवश्यक ऋण था.

सितंबर 2021 में संयुक्त राष्ट्र को सौंपे गए भारत सरकार केएनर्जी कॉम्पैक्टदस्तावेज़ों (एनर्जी कॉम्पेक्ट्ससंयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों द्वारा स्वैच्छिक स्तर पर अपनाई गई ऐसी प्रतिबद्धताएं हैं, जो 2030 तक सभी के लिए स्वच्छ और पहुंच योग्य ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने और 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य के प्रति कार्ययोजना को प्रस्तावित करता है) के अनुसार, देश को संबंधित ट्रांसमिशन और स्टोरेज सिस्टम सहित 450 गीगावाट अक्षय उत्पादन क्षमता स्थापित करने के लिए कुल 221 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता है. हालांकि अन्य अध्ययनों के अनुसार, नवीकरणीय ऊर्जा तंत्रों के निर्माण, ट्रांसमिशन और वितरण प्रणाली को विकसित करने के लिए लगभग 661 अरब अमेरिकी डॉलर जितने बड़े निवेश की आवश्यकता होगी. आईईए का भी अनुमान है कि भारत को 2040 तक एक सतत विकास पथ विकसित करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों पर करीब 14 खरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना होगा. तुलनात्मक रूप से, विकसित देशों में कोयला आधारित ऊर्जा स्रोतों के विस्थापन की प्रक्रिया में बहुत लंबा समय लगा है और उसकी लागत भी विभिन्न देशों के लिए अलग-अलग रही है. एसडीजी 7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा) लक्ष्य के साथ साथ अन्य विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वैश्विक दक्षिण को स्वच्छ ऊर्जा के लिए उच्च निवेश की लगातार आवश्यकता होगी.

विकसित देशों के लिए ये स्वीकार करना लाभदायक होगा कि भारत को कोयला आधारित ऊर्जा तंत्र से नवीकरणीय स्रोतों पर आधारित तंत्र में तेजी से संक्रमण के लिए दीर्घकालिक संस्थागत पूंजी की तत्काल आवश्यकता है. शाब्दिक खानापूर्तियों से बढ़कर देश को व्यवहार में सहायता की ज़रूरत है, जिसे ग्लासगो में हुए कोप 26 (जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) में हुई वार्ता के माध्यम से संभव बनाया जा सकता है. कुल मिलाकर, अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त के मुख्यधारा के स्रोत जैसे हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) और वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ: ग्लोबल एनवायरनमेंट फैसिलिटी) ने देश की राष्ट्रीय परियोजनाओं में केवल एक अरब डॉलर का निवेश किया है. जहां हरित बांड के ज़रिए धन उगाही को लेकर उत्साह बना हुआ है, वहीं अक्षय ऊर्जा जैसे प्रासंगिक क्षेत्रों के लिए निर्गम-मूल्य अभी भी अपेक्षाकृत कम है, जो 2014 के बाद से लगभग 11.2 अरब अमेरिकी डॉलर टिका हुआ है. संदर्भानुसार कहें तो, अकेले 2020 में वैश्विक स्तर पर, विशेष रूप से जलवायु और सतत विकास परियोजनाओं से संबंधित क्षेत्रों के लिए, हरित बांड के ज़रिए कुल 305 अरब अमेरिकी डॉलर की उगाही की गई.

पूंजी लागत के प्रति उच्च संवेदनशीलता का अर्थ है कि संस्थागत पूजी के अन्य स्रोतों को इस जगह को भरना होगा, भले ही भारतीय निजी क्षेत्र हरित बांड जारी करने की कोशिश करे और संबंधित पक्षों के साथ मिलकर ग्रीन टैक्सोनॉमी यानी हरित वर्गीकरण (पूरी तरह से हरित गतिविधियां या फिर ऐसी गतिविधियां जो पर्यावरण में अपना सकारात्मक योगदान देती हैं और वर्गीकरण में शामिल लक्ष्यों को बिना शर्त पूरा करती हैं) का विकास करे. विकासशील देशों में ज़्यादातर ओईसीडी देशों ने ऋण माध्यमों के ज़रिए अक्षय ऊर्जा में निवेश किया है. अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (आईआरईए) के अनुसार, ओईसीडी देशों ने अन्य देशों में नवीकरणीय ऊर्जा के विकास में 2009-2019 के बीच करीब 253 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया, जिसमें से लगभग 228 बिलियन अमेरिकी डॉलर ऋण के रूप में दिया गया. भारत ने केवल 11 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि का योगदान दिया, जो ओईसीडी देशों द्वारा प्रदान की गई कुल ऋण सहायता के पांच प्रतिशत से भी कम है.

तालिका: नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में ओईसीडी द्वारा किया कुल निवेश (2009-19, प्रतिशत में)

कर्ज़ 90
सहायता रेशि 5
कलैक्टिव के अंतर्गत इक्विटी व शेयर 4
गारंटी और अतिरिक्त 1

स्रोत: अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी

ओईसीडी के सदस्य देशों को भारत में संस्थागत निवेश चाहिए. उदाहरण के लिए, उनके सॉवरेन फंड और पेंशन फंड का निवेश ऊर्जा भंडारण और वितरण पर आधारित नए व्यापारिक मॉडल में किया जाना चाहिए. इसके अलावा, नए वित्तीय साधनों के अलग-अलग मॉडलों को अपनाया जा सकता है. इनके ज़रिए विकासशील देशों की मौजूदा एवं संभावित क्षमताओं की शुरुआत में ही पहचान की जा सकती है. उदाहरण के लिए, ऋणों पर छूट प्रदान करने के लिए विभिन्न अनुदानों और ऋण निधियों को एक साथ जोड़ा सकता है. इन अनुदानों को प्रासंगिक सामाजिक, पर्यावरणीय और प्रशासनिक कारकों के अनुरूप तय किया जा सकता है और इसके ज़रिए कम कार्बन उत्सर्जन वाली विकास नीतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा सकता है. इसी तरह, ऐसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के लिए निवेश प्रबंधन और रेटिंग प्रदान करने के नए तौर तरीकों को अपनाया जा सकता है, जहां पर्यावरणीय जोखिम को कम करने संबंधी आवश्यकता सबसे ज़्यादा है. वैश्विक स्तर पर नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य की पूर्ति केवल तभी संभव है जब भारत के लिए दीर्घकालीन वित्त की सुविधा उपलब्ध कराई जाए. भारत को, अपने स्तर पर, वितरण क्षमता में सुधार करने और वित्तीय एवं तकनीकी प्रवाहों को आकर्षित करने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सुधार नीतियों को लागू करना होगा.

निष्कर्ष

वर्तमान में भारत की प्रति व्यक्ति कोयले की खपत की दर आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) औसत का 60 प्रतिशत (3/5 वां भाग) और चीन की तुलना में 20 प्रतिशत (1/5 वां भाग) है. एक कोयला-समृद्ध देश में प्रति व्यक्ति कोयले की कम खपत आगे चलकर भारत के विकास की प्रमुख विशेषता बनी रह सकती है और बनी रहनी चाहिए. यह लेख दर्शाता है कि भारत में कोयले की खपत को रोकने के लिए बेहतर और अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता है.

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