Published on Dec 22, 2022 Updated 0 Hours ago

तालिबान ने पश्चिम के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अन्य आतंकवादी संगठनों से महत्वपूर्ण भौतिक लाभ, वैचारिक सहानुभूति और सहयोग भी प्राप्त किया है. जाहिर है, टीटीपी ने हाल ही में तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा का संकल्प दोहराया है, जबकि अल-क़ायदा के साथ तालिबान के संबंध अटूट रहे हैं.

बीते वर्ष 2021 में तालिबान को लेकर गतिरोध: अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और आंतरिक सामंजस्य

साल 2021 ख़त्म हो गया है, अंतर्राष्ट्रीय समाज ने महसूस तो किया है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में नई यथास्थिति को मान्यता नहीं दी. अंतर्राष्ट्रीय समाज और तालिबान के बीच गतिरोध और अधिक स्पष्ट होने लगा क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान जहां अपने मूल्यों और हितों को सुरक्षित रखने के लिए उत्सुक है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय आंतरिक एकजुटता और एकता बनाए रखने की लगातार वकालत करता रहा है. हालांकि, साल 2022 में नई नीति विकल्पों के सामने आने की संभावना है, लेकिन यह भी तब है जबकि तालिबान ख़ुद में सुधार करे या दूसरे देशों की आशंकाओं का समाधान करने की उत्सुकता ज़ाहिर करे.

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया: जहां मूल्य और हित एक हो जाते हैं

दरअसल, तालिबान को मान्यता नहीं देने की बात अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और विदेश नीति के मानदंडों और मूल्यों से जुड़ी हुई है. अधिकांश मानवीय कार्यों को निर्देशित करने वाले यथार्थवादी पहलू के बावजूद, कुछ मूल्य ऐसे हैं जो आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय समाज के सहभागियों और इससे बाहर के समूहों का भविष्य निर्धारित करते हैं और यही वो बात है जो तालिबान के प्रति अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय समाज की प्रतिक्रिया को एक साथ जोड़ती है.

कुछ मूल्य ऐसे हैं जो आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय समाज के सहभागियों और इससे बाहर के समूहों का भविष्य निर्धारित करते हैं और यही वो बात है जो तालिबान के प्रति अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय समाज की प्रतिक्रिया को एक साथ जोड़ती है.

इसमें दो मत नहीं कि ज़्यादातर मुल्कों ने तालिबान सरकार को मान्यता देने के लिए इसी शर्त का उल्लेख किया है. इसमें तालिबान सरकार द्वारा महिलाओं और मानवाधिकार को मज़बूत करना, समानता को सुनिश्चित करने और सभी अफ़गान नागरिकों की सुरक्षा, एक समावेशी सरकार का गठन करना, अफ़गान सरकार के साथ काम करने वाले लोगों को माफ़ी देना और अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से किसी आतंकवादी समूह को बढ़ावा नहीं देना शामिल है. इन शर्तों को अफ़ग़ानिस्तान द्वारा पूरा नहीं किए बग़ैर उसे मान्यता देने से अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों को नज़रअंदाज़ करने और आतंकवादी समूहों को बढ़ावा मिलने का जोख़िम पैदा होता है. इतना ही नहीं इन दोनों का नतीजा यह होगा कि यह मौजूदा वैश्विक व्यवस्था और आधुनिक राज्य व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती होगी. इस तरह ये बातें इसे दर्शाती हैं कि क्यों वैश्विक समुदाय अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार को मान्यता देने में उदासीन है.

इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान की विविध आबादी, निवेश के साथ-साथ भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक स्थिति पर तालिबान के नियंत्रण का भी कई मुल्कों, ख़ास कर इसके पड़ोसियों के हितों पर असर पड़ता है. तालिबान इस तरह अफ़ग़ानिस्तान के आर्थिक निवेश और परियोजनाओं की रक्षा करने के साथ-साथ वहां की ताज़िक, उज़्बेक, शिया, सिख और हिंदुओं जैसे अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा के लिए भी ज़िम्मेदार है. 

अभी भी तालिबान सरकार पश्तून और पुरुष-प्रधान बनी हुई है जबकि महिलाओं पर प्रतिबंध हर दिन बढ़ते जा रहे हैं. चुनाव आयोग के भंग होने के साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी और जन-समर्थित सरकार की संभावनाएं भी ख़त्म हो गई हैं. 

इसी तरह, तालिबान के ऊपर अफ़ग़ानिस्तान से उत्पन्न होने वाले सामाजिक, सुरक्षा और आर्थिक ख़तरों को कम करने की भी ज़िम्मेदारी है. तालिबान ने अन्य आतंकी संगठनों, तस्करों, और अपराधियों के साथ संबंध बनाकर बड़े पैमाने पर अपने शासन और उग्रवाद को अब तक कायम रखा है. इन संबंधों के कई अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ हैं, जैसा कि उइगर आतंकवादियों, तहरीक़-ए-तालिबान (टीटीपी), इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान, अल-क़ायदा और अन्य शिया-विरोधी और भारत विरोधी आतंकवादियों के साथ पहले देखा गया है. लिहाज़ा कई देशों ने नए शासन की मान्यता को तब तक रोक दिया है जब तक कि तालिबान इन आशंकाओं और चिंताओं को कम करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति और क्षमता का प्रदर्शन नहीं करता है.

तालिबान की दुविधा

तालिबान भी इनमें से किसी भी मांग को मानने से हिचकिचा रहा है. कुछ आधी-अधूरी कोशिशों के बावजूद, वो ज़्यादातर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के प्रति वफादार रहे हैं. अभी भी तालिबान सरकार पश्तून और पुरुष-प्रधान बनी हुई है जबकि महिलाओं पर प्रतिबंध हर दिन बढ़ते जा रहे हैं. चुनाव आयोग के भंग होने के साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी और जन-समर्थित सरकार की संभावनाएं भी ख़त्म हो गई हैं. इसी तरह, तालिबान ने अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ बातचीत करना जारी रखा हुआ है, जबकि इसके कैडर क्रूरता और बर्बरता के साथ अभी भी मुल्क में लोगों की चुनिंदा और गैर न्यायिक हत्याएं कर रहे हैं.

तालिबान ने पश्चिम के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अन्य आतंकवादी संगठनों से महत्वपूर्ण भौतिक लाभ, वैचारिक सहानुभूति और सहयोग भी प्राप्त किया है. जाहिर है, टीटीपी ने हाल ही में तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा का संकल्प दोहराया है, जबकि अल-क़ायदा के साथ तालिबान के संबंध अटूट रहे हैं.

आंतरिक एकता और ताक़त बनाए रखने के मक़सद की वजह से तालिबान सुधार के लिए तैयार नहीं है. दरअसल, तालिबान विभिन्न गुटों, समूहों और उप-समूहों का एक संगठन है, जिसमें अलग-अलग तरह की वफ़ादारी, व्याख्याएं और प्रभाव शामिल हैं, जो एक इस्लामी अमीरात की स्थापना के लिए एकजुट दिखते हैं. इसका नतीजा यह है कि तालिबान ने लंबे समय तक किसी भी चर्चा से ख़ुद को अलग किया हुआ है जो उनके सामंजस्य को नुकसान पहुंचा सकता है और इस तरह यह उनके राज-काज के तौर तरीक़ों को भी नुक़सान पहुंचा सकता है. यही वजह है कि तालिबान महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार, मानवाधिकारों, अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों को लेकर किसी भी तरह का बाध्यकारी निर्णय लेने में झिझकता रहा है. यहां तक ​​कि लोकतंत्र, समावेशी सरकार और समान अनुपात में लोगों के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देना भी तालिबान के लिए मुश्किल रहा है, ख़ासकर यह देखते हुए कि इन विषयों को गैर-इस्लामिक, भ्रष्ट और काफ़िरों की रवायत मानी गई है. तालिबान अपने कार्यकर्ताओं और कट्टरपंथी लड़ाकों को हत्या और जबरन अपहरण करने से भी रोकने में असमर्थ रहा है, क्योंकि तालिबान के लिए न्याय के शासन में हिस्सेदारी से ज़्यादा आसान हिंसा और क्रूरतापूर्वक दमन में शामिल होना लगता रहा है. 

आख़िर में, तालिबान ने पश्चिम के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अन्य आतंकवादी संगठनों से महत्वपूर्ण भौतिक लाभ, वैचारिक सहानुभूति और सहयोग भी प्राप्त किया है. जाहिर है, टीटीपी ने हाल ही में तालिबान के प्रति अपनी निष्ठा का संकल्प दोहराया है, जबकि अल-क़ायदा के साथ तालिबान के संबंध अटूट रहे हैं. यहां तक कि तालिबान के लिए भारत-विरोधी और शिया-विरोधी संगठनों के साथ ख़ुद को अलग करना भी मुश्किल साबित हुआ है जैसे हक्क़ानी – जो पाक ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का पिट्ठू और आतंकी समूह है उसका ताबिलान सरकार में अभी भी काफ़ी असर है. इससे भी ज़्यादा, आतंकवादी संगठनों के साथ तालिबान की दूरी इसकी ताक़त और समर्थन को कम कर सकता है, यही वजह है कि तालिबान और आईएस-के की नज़दीकियां भी बढ़ती जा रही हैं. हालांकि यह तालिबान के लिए घातक भी साबित हो सकता है ख़ासकर ऐसे समय में जब आईएस-के तालिबान को एक समझौतावादी और ग़ैर-इस्लामी संगठन के रूप में प्रचारित करने की कोशिशों में जुटा हुआ है. यही वजह है कि तालिबान इनमें से किसी भी मांग को मानने से हिचकिचा रहा है. इसके साथ ही तालिबान देश में आने वाले मानवीय संकट का फायदा उठाकर विश्व समुदाय से उसे मान्यता देने और मानवीय सहायता देने की मांग भी कर रहा है.

आगे बढ़ते हुए : क्या हैं वैकल्पिक नीति विकल्प?

जैसे ही 2021 में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और तालिबान के बीच गतिरोध ख़त्म हुआ, वर्ष 2022 में संभवतः नई नीति विकल्पों की शुरुआत होगी, जो तालिबान की इच्छाशक्ति और दूसरों की आशंकाओं को कम करने की क्षमता पर निर्भर करता है. फिर भी, अगर किसी को तालिबान को मान्यता देनी है, तो पहले इस संगठन को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मूल्यों का पालन करना होगा लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक महत्व को देखते हुए, कई मुल्क तालिबान सरकार को मान्यता दिए बग़ैर भी उसे अपने तौर तरीकों में बदलाव लाने के लिए लुभाने की कोशिश करेंगे और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का यह रुख़ साल 2021 में ही आकार लेना शुरू कर चुकी थी.

चीन को केवल तालिबान से सुरक्षा गारंटी की आवश्यकता है और अगर तालिबान इसे देने में सफल होता है तो तालिबान आर्थिक निवेश और द्विपक्षीय सहयोग के ज़रिए चीन का समर्थन हासिल कर सकता है.

लेकिन तालिबान को लुभाने की गति काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि तालिबान कैसे कुछ मुल्कों की उसे लेकर आशंकाओं को कम करता है. उदाहरण के लिएचीन को केवल तालिबान से सुरक्षा गारंटी की आवश्यकता है और अगर तालिबान इसे देने में सफल होता है तो तालिबान आर्थिक निवेश और द्विपक्षीय सहयोग के ज़रिए चीन का समर्थन हासिल कर सकता है. इससे दुनिया की अन्य प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्रीय और ताक़तवर शक्तियों से तालिबान को राजनयिक सहयोग और सहायता मिलने की उम्मीद बढ़ सकती है. हालांकि, ये नीति विकल्प काफ़ी हद तक इस बात पर निर्भर करते हैं  कि आने वाले दिनों में तालिबान का रुख़ क्या होता है.

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