Published on Sep 05, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत में सामाजिक क़ीमत एवं लाभ को निजी लाभ एवं क़ीमत से अलग करने वाली रेखा बेहद धुंधली है, जिसकी वजह से सरकार और लोगों, दोनों को ही उम्मीद के मुताबिक़ नतीज़े हासिल नहीं हो पाते हैं.

सामाजिक और व्यक्तिगत क़ीमत चुकाने एवं फायदा उठाने के बीच बेहद बारीक़ अंतर!

बायोमास यानी आपके बगीचे में पेड़ों से गिरे हुए पत्ते, आपके खेत में फसल के बाद बचे हुए अवशेष, जैविक कचरा और आपके घर से निकलने वाला कचरा. भारत में जितनी भी कुल प्राइमरी एनर्जी उपलब्ध है, उसका लगभग एक तिहाई हिस्सा इसी बायोमास से आता है. यह जो बायोमास है, वह अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में है, जहां पर कृषि अवशिष्ट अधिक मात्रा में पैदा होते हैं. इन कृषि अवशेषों के कुछ हिस्से को एकत्र करके रखा जाता है, ताकि बाद में इसका इस्तेमाल किया जा सके.

चूल्हे में बायोमास को जलाना, इसके इस्तेमाल का सबसे ख़राब और बदतर तरीक़ा है, ज़ाहिर है कि इससे जो भी आग या फिर गर्मी पैदा होती है, उसका 80 प्रतिशत हिस्सा यूं ही बर्बाद हो जाता है. इतना ही नहीं इससे अच्छा-खासा कार्बन उत्सर्जन भी होता है. यदि भारत में कृषि अवशेष से पैदा होने वाले कुल 270 मिलियन टन अतिरिक्त बायोमास (MNRE का अनुमान) को एकत्र किया जाता है और इसे संपीड़ित बायोगैस (compressed biogas) में परिवर्तित किया जाता है, तो इससे जो उपयोगी एनर्जी मिलेगी, उसकी मात्रा में 3 गुना बढ़ोतरी होगी. इसके साथ ही इस पूरी प्रक्रिया से कार्बन उत्सर्जन एवं वायु प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों में भी काफ़ी कमी आएगी, क्योंकि इसमें कम हाइड्रोकार्बन और कोयला का इस्तेमाल किया जाता है.

यदि भारत में कृषि अवशेष से पैदा होने वाले कुल 270 मिलियन टन अतिरिक्त बायोमास को एकत्र किया जाता है और इसे संपीड़ित बायोगैस में परिवर्तित किया जाता है, तो इससे जो उपयोगी एनर्जी मिलेगी, उसकी मात्रा में 3 गुना बढ़ोतरी होगी.

जलवायु परिवर्तन हमें “टिपिंग प्वाइंट” तक यानी चरम परिस्थितियों तक पहुंचने से रोकने के लिए ऐसे समाधानों की ज़रूरत की ओर ध्यान दिलाता है, जिनमें कम समय लगे. ज़ाहिर है कि चरम परिस्थितियों पर पहुंचने के बाद प्राकृतिक ताक़तों की जो एक के बाद एक प्रतिक्रिया होती है, वह जीवित रहने के लिए सीमित विकल्प ही छोड़ती है और फिर विपरीत एवं निराशाजनक हालातों में रहना ही एक मात्र रास्ता बचता है. हमारे पास टिपिंग प्वाइंट तक पहुंचने से पहले ही स्थितियों को संभालने के विकल्प मौज़ूद है, लेकिन, अफसोस की बात यह है कि इनका उपयोग बहुत कम किया जाता है.

एक अवसर को हाथ से जाने देना

बायोमास के इस्तेमाल की क्षमता बढ़ाने में हमारी असमर्थता की एक वजह यह है कि हम बायोमास को इसके निस्तारण में होने वाले ख़र्च के दृष्टिकोण से देखते हैं न कि लाभ के नज़रिए से. यदि ऐसी सेवाएं उपलब्ध होतीं, जिनमें कूड़ा-कचरा उठाने वाला शख़्स या कंपनी एक निजी बाग-बगीचों या फिर घरेलू कूड़े से पैदा हने वाले बायोमास को एकत्र करने के लिए भुगतान करता, तो लोग आगे बढ़कर ऐसी सेवाओं का उपयोग कर रहे होते.

ज़ाहिर है कि इस कूड़े-कचरे को कोई कॉन्ट्रैक्टर इकट्ठा करेगा, छांटेगा और पास में स्थित किसी प्रबंधित कम्पोस्ट संग्रह केंद्र या बायोगैस प्लांट में ले जाएगा, जहां इसे संसाधित किया जाएगा और फिर इससे उत्पन्न होने वाली बायोगैस को पैक करके या फिर पाइप के ज़रिए कॉमर्शियल वाहनों को बेचा जाएगा या फिर लोगों को ही वापस बेचा जाएगा. अगर ऐसा होता है, तब इसको लेकर किसी को कोई परेशानी नहीं होगी. ऐसा होने पर न केवल ऊर्जा का कम से कम नुक़सान सुनिश्चित होगा, कार्बन उत्सर्जन भी बहुत कम होगा, बल्कि सस्टेनेबल मैटेरियल सर्कुलेटरी ऊर्जा प्रवाह का एक बेहतर क्लोज्ड लूप भी प्राप्त होगा. ख़ास बात यह है कि कचरे को मूल्यवान बनाकर इससे कमाई भी जा सकती है और लोगों को होने वाली दिक़्क़त को भी कम किया जा सकता है, साथ ही जब इसे कंप्रेस्ड बायोगैस के रूप में पैक कर पब्लिक गुड्स की तरह बेचा जाता है, तो उपभोक्ताओं से ही इसमें होने वाले ख़र्च को वसूला जा सकता है.

इंदौर से सबक

इंदौर जैसे शहरों में इस तरह की प्रक्रिया को पहले से ही अमल में लाया जा रहा है. ज़ाहिर है कि इंदौर को भारत का सबसे स्वच्छ शहर माना जाता है. इंदौर में नगर निगम द्वारा बायोमास के संग्रह एवं उससे कंप्रेस्ड बायोगैस के उत्पादन और वितरण तक के संचालन का पूरा ख़र्च स्वयं वहन किया जाता है. सवाल यह है कि क्या यह उद्यम लाभदायक है? तो इसका जवाब है कि आर्थिक रूप से यह क़वायद लाभदायक नहीं है, क्योंकि इससे पैदा होने वाली बायोगैस को तुलनात्मक रूप से कार्बन-हेवी, लेकिन सब्सिडी वाले कुकिंग फ्यूल यानी एलपीजी व पीएनजी और कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (CNG) जैसे ट्रांसपोर्ट ईंधन के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है. कुकिंग गैस और ट्रांसपोर्ट गैस में जो कार्बन अंतर्निहित होता है, उसके चलते इनकी क़ीमत अधिक होती है, ऐसे में अगर इसमें इंपोर्ट प्रीमियम को भी जोड़ दिया जाए, तो बायोगैस आर्थिक लिहाज़ से बेहद किफ़ायती हो सकती है.

ग़रीबों को निर्भर बनाने के बजाए सशक्त करना

गऱीब यानी कम इनकम वाले लोग स्वच्छ रसोई गैस से वंचित नहीं रहें, इसके लिए प्री-पेड गैस मीटर स्थापित करके उन्हें आर्थिक मुआवजा प्रदान किया जाए, ताकि सब्सिडी की राशि सीधे उनके खातों में जमा की जा सके. ज़ाहिर है कि हम ऐसा करने के बजाए वर्गीकृत जनहित वाली वस्तुओं, जैसे कि रसोई गैस, बिजली, पानी और सार्वजनिक परिवहन की क़ीमत को कृत्रिम रूप से कम करते हैं और इस प्रकार से देखा जाए तो प्रतिस्पर्धी सार्वजनिक वस्तुओं के मार्केट को कहीं न कहीं बिगाड़ने का काम करते हैं. उल्लेखनीय है कि यह सब कुछ ऐसा है, जिसे एक “स्टार्ट-अप” देश को कतई नहीं करना चाहिए.

भारत में, सामाजिक लागत और फायदे को व्यक्तिगत लाभ एवं लागत से अलग करने वाली रेखा बेहद धुंधली है. अक्सर व्यक्तिगत स्तर पर चुकाई जाने वाली क़ीमत का समाजीकरण कर दिया जाता है.

निजी लागतों के समाजीकरण और सामाजिक लागतों के निजीकरण को लेकर सीमा रेखा

यह हमारे सामने सोशल कॉस्ट्स के लिए बजट निर्धारित करने और व्यक्तिगत लाभों पर टैक्स लगाने जैसे मुश्किल एवं पेचीदा सवाल पर लेकर आता है. उत्तर भारत में किसानों द्वारा अगली फसल को ज़ल्दी से ज़ल्दी बोने के लिए धान की पराली को जला दिया जाता है. देखा जाए तो उनके इस कृत्य से व्यापक स्तर पर वायु प्रदूषण फैलता है, लेकिन ये किसान पूरे समाज को इससे होने वाले नुक़सान की क़ीमत को वहन नहीं करते हैं. इसके साथ ही ये किसान भूजल संसाधनों का इस हद तक दोहन करते हैं, जहां से पुरानी स्थिति पर लौटना असंभव होता है. किसान इसकी भी कोई क़ीमत नहीं चुकाते हैं. किसानों का कहना है कि उन्हें सिंचाई का पानी उपलब्ध कराना सरकार का कर्तव्य है, जो कि कभी भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाता है. साथ ही सरकार द्वारा कम सिंचाई शुल्क लेने का साफ मतलब यह है कि सरकारी सिंचाई योजनाएं एक लाभरहित क़वायद हैं. हालांकि, ध्यान देने वाली बात यह है कि इस सबके बावज़ूद किसान सरकार द्वारा दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के माध्यम से अपनी उपज के लिए “बाजिब” मूल्य की मांग करते हैं. MSP की इस मांग के पीछे किसानों द्वारा यह भी दावा किया जाता है कि उन्होंने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाकर देश सेवा का कार्य किया है. हालांकि, इसमें कोई शक नहीं है कि यह एक बडी उपलब्धि है, लेकिन यह पांच दशक पहले एक उपलब्धि थी, जब हम विदेशों से मिलने वाली खाद्यान्न मदद पर निर्भर थे.

कुल मिलाकर भारत में, सामाजिक लागत और फायदे को व्यक्तिगत लाभ एवं लागत से अलग करने वाली रेखा बेहद धुंधली है. अक्सर व्यक्तिगत स्तर पर चुकाई जाने वाली क़ीमत का समाजीकरण कर दिया जाता है. जैसे कि बिजली, रसोई गैस, पानी का उपयोग, परिवहन और यहां तक कि एक “किफ़ायती” घर का मालिक होना भी सामाजिक निजी क़ीमतों (socialised private costs) के प्रमुख उदाहरण हैं. इसी प्रकार से निजीकृत सोशल कॉस्ट्स के उदाहरण हैं व्यक्तिगत सुरक्षा (एक फलता-फूलता यद्यपि प्रभावहीन व्यवसाय), त्वरित न्याय प्रदान करना, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं (वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों के नतीज़े लोग व्यक्तिगत स्तर पर भुगतते हैं, जो कि एक सामाजिक क़ीमत है) और बुनियादी शिक्षा (ग़रीब लोग बेहतर प्राथमिक शिक्षा के अवसर से चूक जाते हैं), जो कि प्रतिभा को पनपने का मौक़ा नहीं देती और कम शिक्षा-कम वेतन के दुष्चक्र में धकेल देती है और कहीं न कहीं अर्थव्यवस्था पर असर डालती है.

पब्लिक गुड्स की आपूर्ति के लिए समाधान निकालने हेतु स्थानीय निकायों का प्रोत्साहन

ऐसे में जिन लोगों की वजह से परेशानी पैदा होती है, उस परेशानी से निजात पाने में होने वाले ख़र्च को उन्हीं लोगों के बीच बांटना (प्रदूषक भुगतान सिद्धांत) एक विकल्प है. उदाहरण के लिए, इस प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है कि खेती-बाड़ी के कार्यों में उपलब्ध भूजल का 80 प्रतिशत उपयोग होता है, ऐसे में खेत मालिकों यानी किसानों को उन शहरवासियों को भुगतान करना चाहिए, जहां पानी की हमेशा किल्लत रहती है और जिनके हिस्से के भूजल का खेत मालिकों द्वारा दोहन कर लिया जाता है, या फिर इसके बदले में शहर के लोगों को अपने हिस्से से अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने का विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए. बदले में, शहरों की ओर से किसानों को खेतों से पराली एकत्र करने के लिए और उसे गैस में परिवर्तित करने के लिए भुगतान करना चाहिए, ज़ाहिर है कि इस गैस की शहरों समेत 25 किलोमीटर के दायरे में आपूर्ति की जाएगी. कॉस्ट्स एवं बेनिफिट्स के आवंटन को अनुकूलित करने वाली ऐसे स्थानीय समझौते वास्तव में हक़ीक़त बन सकते हैं, अगर भारत के ग्रामीण जिलों एवं शहरी निकायों को पूरी तरह से विकेन्द्रीकृत किया जाए और उन्हें सशक्त किया जाए.

विकास की दिशा में अग्रसर सरकारों को पब्लिक गुड्स की आपूर्ति की क़ीमत तय करने की ज़रूरत है और वे ऐसा करने में नक़ाम रहती हैं, तो नागरिकों को इसके एवज में मुआवजा देने की आवश्यकता है.

वर्तमान स्थितियों पर नज़र डालें, तो न तो देश के वो 700 से ज़्यादा ग्रामीण ज़िले जहां पर ज़्यादातर खेत-खलिहान मौज़ूद हैं और न ही 5,000 से अधिक वो शहर, जहां अधिसंख्य आबादी निवास करती है और जहां रोजी-रोटी की तलाश में आए प्रवासी ग्रामीणों की जनसंख्या भरी पड़ी है, में से कोई भी आर्थिक दृष्टि से या फिर प्रबंधकीय नज़रिए से एक राजनीतिक इकाई के तौर पर इतने समर्थ व सशक्त नहीं हैं, जो कि इस समस्या का समाधान तलाशने की अगुवाई कर सकें. ये ग्रामीण ज़िले और शहरी क्षेत्र सिर्फ़ संबंधित राज्य सरकार के विकेंद्रीकृत मातहत के रूप में मौज़ूद हैं और जो एक ऐसे रक्षात्मक दायरे के अंतर्गत कार्य करते हैं, जिसका उपयोग केंद्रीकृत प्रशासन अपनी कमज़ोरियों व नाक़ामियों को छुपाने के लिए करता है.

ज़ाहिर है कि शहरी निकायों के अफ़सरों और ग्रामीण किसानों को अगर किसी मुद्दे पर एक-दूसरे से समझौता करना है, तो वे सीधे नहीं कर सकते हैं, बल्कि इसके लिए राज्य की राजधानी के रास्ते आगे बढ़ना पड़ता है. यह प्रक्रिया कहीं न कहीं उस ब्रिटिश काल की याद दिलाती है, जब बॉम्बे से ठाणे तक रेलवे टिकट की क़ीमत लंदन में बैठे शासकों द्वारा निर्धारित की जाती थी. उल्लेखनीय है कि किसी भी प्रशासनिक फैसले के लिए जितना लंबा रास्ता अमल में लाया जाता है, परिवर्तन और सुधार के लिए स्थानीय स्तर पर लोगों का जोश उतना ही अधिक ठंडा हो जाता है.

विकास की दिशा में अग्रसर सरकारों को पब्लिक गुड्स की आपूर्ति की क़ीमत तय करने की ज़रूरत है और वे ऐसा करने में नक़ाम रहती हैं, तो नागरिकों को इसके एवज में मुआवजा देने की आवश्यकता है. अगर सरकारों द्वारा ऐसा किया जाता है, तो हर तरह के वेलफेयर एवं विकास ख़र्चों के लिए बजट का आवंटन तर्कसंगत हो जाता है. जैसे कि पब्लिक गुड्स की आपूर्ति को संरक्षित एवं संवर्धित करने के लिए एक निगेटिव टैक्स या फिर प्रोत्साहन और सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति कम करने के लिए एक पॉजिटिव टैक्स.

इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण हाल-फिलहाल में किया गया कार्बन उत्सर्जन का मूल्य निर्धारण है. कार्बन उत्सर्जन सभी के अस्तित्व के लिए ही गंभीर ख़तरा पैदा करने वाला है. कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने की चुनौती वैश्विक है और अगर इसमें क़ामयाबी मिलती है, तो फायदा भी वैश्विक स्तर पर सभी को मिलेगा. फिर भी समझदारी के साथ प्रत्येक देश प्रशासनिक कार्रवाइयों, टैक्सों और प्रोत्साहनों का अपना विशेष प्रकार का संयोजन ढूंढ रहा है, जो स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को कम से कम नुक़सान पहुंचाने वाला हो और वैश्विक स्तर पर अधिक से अधिक लाभ प्रदान करने वाला हो.

केंद्र सरकार के पंचामृत फ्रेमवर्क के अंतर्गत डी-कार्बोनाइजेशन से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय योजना की छोटी-छोटी बातों को सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है.

सार्वजनिक गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं के मूल्य निर्धारण व आपूर्ति निर्णय का विकेंद्रीकरण

कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई की जानी चाहिए और इसका असर गर्भ में पलने वाले बच्चों से लेकर धरती पर मौज़ूद हर व्यक्ति द्वारा सही मायने में महसूस किया जाना चाहिए. यही कारण है कि सहमत वैश्विक कार्बन न्यूनीकरण शासन व्यवस्था परिवर्तन के लिए सार्वजनिक लेकिन अलग-अलग लक्ष्यों और विकेंद्रीकृत रोड मैप्स को प्रोत्साहित करती है. यहां विभिन्न देशों की सरकारों के लिए एक सबक भी है. जलवायु स्थिरता के लिए अपने स्वयं के रास्ते तैयार करने की उनके द्वारा चुनी गई आज़ादी सिर्फ़ राष्ट्रीय संप्रभुता के विचार से उत्पन्न नहीं हुई है. यह एक स्वीकार्यता है कि जिस मुद्दे का हल निकाला जाना है, उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वैश्विक रूप से निर्धारित की गई इनपुट सूची को ही लागू किया जाए, क्योंकि यह अनिवार्य नहीं है कि इससे जो भी नतीज़े मिलेंगे वो हर जगह के मुताबिक़ सही होंगे.

व्यवहार के तौर-तरीक़ों को बदलने के लिए सबसे प्रभावशाली समाधानों और समाजों को बदलते संदर्भ के अनुकूल नए मापदंडों की ओर अग्रसर करने के लिए स्थानीय स्तर पर विचारों में परिवर्तन लाकर कोशिश करनी होगी. यानी कि स्थानीय समुदाओं और लोगों को ग़लत फैसलों का ख़ामियाजा भुगतना चाहिए और बेहतरीन निर्णयों का उन्हें फायदा मिलना चाहिए. इतना ही नहीं संस्थानों के बड़े होने से पहले, सब कुछ हाथों में परोसना या बगैर प्रयास के उपलब्ध कराना भी बंद करना होगा.

निसंदेह रूप से भारत में सरकार के अधीन नीचे के स्तर पर काम करने वाली गवर्नेंस संस्थाओं में अधिकार संपन्न प्रमुख नियुक्त करने के अच्छे नतीज़े हासिल हो सकते हैं. केंद्र सरकार के पंचामृत फ्रेमवर्क के अंतर्गत डी-कार्बोनाइजेशन से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय योजना की छोटी-छोटी बातों को सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है. ऐसा करने के लिए आर्टेशियन कुओं के विज्ञान, यानी भूजल की सतह पर खोदे जाने वाले कुएं का विज्ञान, जिनमें प्राकृतिक जल का दबाव पानी को बाहर धकेलता है, से सबक लेते हुए एक नई शासन परंपरा स्थापित करने का उदाहरण पेश किया जा सकता है. कहने का तात्पर्य यह है कि गवर्नेंस के ऐसे तरीक़े की स्थापना की जा सकती है, जिसमें निर्णय ऊपर से नहीं थोपे जाएं, बल्कि निचले स्तर पर फैसले लिए जाएं, जिन्हें ऊपर बैठे लोग अपनी स्वीकृति प्रदान करें.

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