Author : Renita D'souza

Published on Dec 06, 2021 Updated 0 Hours ago

सरकार को शिक्षा और रोज़गार जैसे उपायों में निवेश करने की ज़रूरत है, जिससे आबादी किसी संकट से निपटने के लिए बेहतर ढंग से तैयार हो सके.

Covid19 से उत्पन्न नए ग़रीब: लचीलापन लाने के लिए रणनीति

ये लेख हमारी कोलाबा एडिट 2021 सीरीज़ का हिस्सा है.


कोविड-19 (Covid19) की महामारी ने ग़रीबी को इतने अभूतपूर्व रूप से प्रभावित किया है कि इस समस्या से निपटने के लिए एक अलग ही नाम देना पड़ा है: नए ग़रीब. नए ग़रीबों में वो लोग शामिल हैं, जिनके बारे में महामारी की आमद से पहले ये उम्मीद की जा रही थी कि वो साल 2020 तक (और उसके बाद) ग़रीबी के दायरे से ऊपर उठ जाएंगे. लेकिन अब ये आशंका है कि ये तबक़ा ग़रीबी रेखा के नीचे ही रह जाएगा. भारत में अगर ग़रीबों को इस तरह परिभाषित किया जाए, जैसा कि सत्पती समिति ने किया था. यानी वो लोग जो राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी (NMW) की सीमा से नीचे बसर करते हैं. तो, भारत में इस महामारी ने जिन कामकाजी ग़रीबों को इस रेखा के नीचे खींच लिया है, उनकी तादाद 23 करोड़ के आस-पास होगी. इनमें वो लोग भी शामिल हैं, जिनकी नौकरी महामारी के दौरान चली गई. या फिर जो लोग कामकाजी ग़रीबों के आसरे थे और नए बेरोज़गारों को जोड़कर मई 2021 में भारत में ग़रीबों की तादाद 23 करोड़ से भी ज़्यादा थी. इन 23 करोड़ लोगों में वो पांच करोड़ कामगार शामिल हैं, जो राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी की सीमा से ऊपर उठ चुके होते. वहीं, बाक़ी के ग़रीबों में वो लोग हैं, जिनके बारे ये माना जाता था कि वो तो इस सीमा रेखा के ऊपर पहले ही उठ चुके होंगे.

भारत में अगर ग़रीबों को इस तरह परिभाषित किया जाए, जैसा कि सत्पती समिति ने किया था. यानी वो लोग जो राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी (NMW) की सीमा से नीचे बसर करते हैं. तो, भारत में इस महामारी ने जिन कामकाजी ग़रीबों को इस रेखा के नीचे खींच लिया है, उनकी तादाद 23 करोड़ के आस-पास होगी. 

वैसे तो भारत में नए ग़रीब हुए लोग काफ़ी हद तक दुनिया के अन्य देशों के ग़रीबों की ही तरह हैं. मगर, दोनों के बीच कुछ फ़र्क़ भी है. भारत के संदर्भ में ये अंतर, नए ग़रीबों के पैदा होने की वजह समझने में मददगार है. भारत हो या बाक़ी दुनिया, नए ग़रीबों के तबक़े में आने वाले लोग ज़्यादातर शहरी, महिलाएं, युवा (जो औसतन अपनी उम्र के तीसरे दशक में हैं), असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले हैं, जिनमें से एक बड़ा वर्ग निर्माण क्षेत्र में काम कर रहा था. भारतीय और विश्व के अन्य देशों के नए ग़रीबों के बीच अंतर ये है कि भारत में नए ग़रीब हुए लोग दुनिया के अन्य देशों के भयंकर ग़रीब वर्ग से अलग हैं.

नए ग़रीबों की बात

जहां तक बाक़ी दुनिया की बात है, तो भयंकर ग़रीब लोगों में से 32 प्रतिशत को बिजली की सुविधा हासिल है. 60 फ़ीसद ग़रीबों को बेहतर पानी की सुविधा मिली हुई है और 32 प्रतिशत ग़रीब तबक़े को साफ़-सफ़ाई की सुधरी हुई व्यवस्था प्राप्त है. वहीं, नए ग़रीबों की बात करें, तो ये सुविधाएं क्रमश: 51 प्रतिशत, 74 फ़ीसद और 45 फ़ीसद को प्राप्त हो चुकी है. भारत में, आमदनी का नुक़सान इतना ज़्यादा था कि भयंकर ग़रीब और नए ग़रीब वर्ग दोनों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए अपने खाने-पीने के ख़र्च में कटौती करनी पड़ी थी. सच तो ये है कि सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत परिवारों की तो अप्रैल से लेकर मई 2020 तक कोई आमदनी ही नहीं हुई थी. इन ग़रीबों को अपने खाने, सेहत और अन्य ज़रूरी ख़र्चे पूरे करने के लिए यहां-वहां से उधार लेकर काम चलाने को मजबूर होना पड़ा था. इस तरह से इस वर्ग के ऊपर तो बिजली, पानी और शौचालय की सुविधाएं तो एक तरह के ख़र्च का बोझ ही बन गई थीं.

बाक़ी दुनिया में अगर हम खेती बाड़ी करने वालों की बात करें, तो नए ग़रीबों की तादाद, भयंकर रूप से ग़रीबी के शिकार लोगों से कम है. हालांकि, भारत में कृषि क्षेत्र में काम-काज के अनियमित मौक़े भी इस मुश्किल वक़्त में बहुत काम आए और लोग इनके आसरे काम चला सके. देश में असंगठित क्षेत्र का दायरा काफ़ी बढ़ गया. जिन लोगों की रोज़ी-रोटी छिन गई थी, उन्होंने मुख्य तौर पर स्व-रोजगार का सहारा लिया. इसके अलावा ग़रीबों ने कभी-कभार मिल जाने वाले रोज़गार से काम चलाया. सबसे कम तरज़ीह असंगठित क्षेत्र में तनख़्वाह पर मिलने वाले काम को दी गई. इसके अलावा, वैसे तो ये उम्मीद की जा रही है कि बाक़ी दुनिया में नए ग़रीबों के बीच शिक्षा का स्तर, भयंकर ग़रीबी के शिकार लोगों से कहीं बेहतर है. लेकिन, भारत के बारे में ये बात सही होने की संभावना बहुत कम है. यहां पर नए ग़रीबों और भयंकर रूप से ग़रीब तबक़े के बीच शिक्षा के स्तर में कोई ख़ास अंतर होने की उम्मीद कम ही है.

संगठित रूप से वित्तीय मदद और बाज़ार तक पहुंच बन सके, सब्सिडी और प्रोत्साहन दिए जाने के साथ साथ नियमों के पालन के ऐसे प्रोटोकॉल बनाए जाएं, जिनके दायरे में रहकर निजी क्षेत्र काम कर सके. इस पुनर्गठन के लिए मौजूदा मध्यम, लघु और सूक्ष्म इकाइयों और अन्य कारोबार को औऱ व्यापक बनाने की ज़रूरत तो है ही. 

भारत में महामारी के बाद ग़रीबी का बढ़ना हैरान करने वाली बात नहीं है. महामारी के चलते पैदा हुई ग़ुरबत ने भारत में कमज़ोर वर्ग के लोगों को बहुत गहरी चोट दी है. जो लोग ग़रीबी रेखा से ऊपर उठ जाते हैं, ख़ास तौर से ताज़ा ताज़ा ग़ुरबत के दुष्चक्र से छुटकारा पाने लोगों के दोबारा इसमें फंस जाने का डर होता है. इस कमज़ोरी के कई रूप होते हैं. जैसे कि, निचले दर्ज़े का रोज़गार, संपत्ति का अभाव, सामाजिक सुरक्षा की ग़ैरमौजूदगी, रहने की अपर्याप्त जगह, हुनर की कमी और शिक्षा और ग़रीब तबक़े की अपनी कोई राजनीतिक आवाज़ का न होना. भारत में ग़रीबी उन्मूलन के आंकड़ों को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है कि कमज़ोर तबक़े के लोग नीतिगत क़दमों के दायरे में आ ही नहीं पाते हैं. ऐसे वर्ग से ताल्लुक़ रखने वाले जितने कमज़ोर होते हैं, उतना ही उनके बीमारियों के शिकार होने का डर होता है. उनके जीवन में उथल-पुथल मचने का भय होता है. इसके साथ साथ, इस वर्ग की कमज़ोर स्थिति, इन लोगों से ज़िंदगी की उठा-पटक झेल पाने की ताक़त भी छीन लेती है.

लचीलापन लाने का ज़रिया

ग़रीबी उन्मूलन में हासिल की गई उपलब्धियां तब तक क़ायम नहीं रखी जा सकती हैं, जब तक इसका फ़ायदा उठाने वालों को और सशक्त बनाकर दोबारा ग़रीबी के दुष्चक्र में फंसने से बचने से रोका नहीं जाए. ऐसे तबक़े के लोगों को मज़बूती देने के कुछ तरीक़े वित्तीय बचत, ज़मीन या मकान की शक्ल में संपत्ति, ऊंचे दर्ज़े की तालीम और हुनर, बीमा और डिजिटल दुनिया, ख़ास तौर से जनहित की डिजिटल सेवाओं से जुड़ सकने की क्षमता हो सकती है. ये महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि जब कोविड-19 महामारी ने झटका दिया, तो इन संसाधनों की मदद से ग़रीब तबक़ा इस चुनौती का सामना कर सकता था. लचीलेपन के साथ साथ उस क्षमता की भी ज़रूरत होती है, जिससे सामान्य हालात में तरक़्क़ी की जा सके, ताक़त हासिल की जा सके, ताकि मुश्किलों का सामना करना आसान हो जाए.

GDP के बड़े हिस्से को शिक्षा पर ख़र्च करने के साथ-साथ सरकार को ऐसे ख़र्च का इस्तेमाल सार्वजनकि शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने, नतीजों पर आधारित पढ़ाई कराने और कौशल विकास की व्यवस्था विकसित करने पर करना चाहिए. इससे ग़रीब तबक़े के लोगों को रोज़गार हासिल करने और बदलने में मदद मिलेगी. उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी और वो ऐसे झटकों से उबरने के लिए बेहतर ढंग से तैयार होंगे.

सबको मेडिकल बीमा के दायरे में लाने से किसी भी तबाही लाने वाले संकट के समय ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ग़रीब तबक़े के लोग क़र्ज़ के बोझ तले न दब जाएं. फिर से ग़रीबी के दुष्चक्र में न फंस जाएं. सार्वजनिक स्वास्थ्य की सेवाओं को सस्ती दरों पर सबको उपलब्ध कराने के साथ साथ मेडिकल सिस्टम की कमियों को दूर किए जाने की ज़रूरत है, जिससे स्वास्थ्य पर ग़रीबों को अपनी जेब से बहुत पैसे न ख़र्च करने पड़ें.

आज ज़रूरत इस बात की है कि नीतियों को सिर्फ़ ग़रीबी हटाने के मक़सद तक सीमित रहने के बजाय कमज़ोर वर्ग के लोगों को मज़बूती देने के लिए काम करना चाहिए. जिससे वो भविष्य में आने वाली किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो सकें.

समाज को सशक्त बनाने के लिए रोज़गार एक बुनियादी औज़ार है. हाथ में अच्छा काम होने से पर्याप्त आमदनी होती है, कुछ न कुछ रोज़गार होता है और सामाजिक सुरक्षा भी होती है. संगठित क्षेत्र में रोज़गार सृजन की धीमी रफ़्तार को तेज़ करने की ज़रूरत है. इसके लिए सरकार को मौजूदा इकोसिस्टम को नए सिरे से ढालने की ज़रूरत है. जिसमें सरकार की तरफ़ से निवेश हो, प्रशासन बेहतर हो. संगठित रूप से वित्तीय मदद और बाज़ार तक पहुंच बन सके, सब्सिडी और प्रोत्साहन दिए जाने के साथ साथ नियमों के पालन के ऐसे प्रोटोकॉल बनाए जाएं, जिनके दायरे में रहकर निजी क्षेत्र काम कर सके. इस पुनर्गठन के लिए मौजूदा मध्यम, लघु और सूक्ष्म इकाइयों और अन्य कारोबार को औऱ व्यापक बनाने की ज़रूरत तो है ही. इसके साथ साथ भौगोलिक समानता और रोज़गार पैदा करना सुनिश्चित करते हुए नए कारोबार की शुरुआत को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

काम के ठीक-ठाक अवसर पैदा करने के साथ साथ बचत की आदत को भी बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है. रोज़गार पैदा करने में भौगोलिक समानता लाने के साथ साथ ये भी सुनिश्चित करना होगा की सबको बराबरी से रोज़गार के मौक़े मुहैया हो सकें. इसके अलावा, सबको कम से कम सस्ती दरों पर सरकार के मालिकाना हक़ वाले घर किराए पर उपलब्ध कराने चाहिए. भले ही रहने वालों को इन मकानों का मालिक न बनाया जाए. पर, उन्हें रहने की ज़रूरत के हिसाब से किराया देने की सुविधा दी जानी चाहिए.

महामारी का मुक़ाबला करने की क्षमता काफ़ी हद तक डिजिटल सुविधाओं को अपनाने पर निर्भर रही थी. आने वाले समय में डिजिटलीकरण को और अपनाने को बढ़ावा देना ज़रूरी होना चाहिए. क्योंकि, डिजिटल संसाधन हाथ में होने से मुश्किलों का सामना करने की क्षमता बढ़ जाती है.

कुल मिलाकर, आज ज़रूरत इस बात की है कि नीतियों को सिर्फ़ ग़रीबी हटाने के मक़सद तक सीमित रहने के बजाय कमज़ोर वर्ग के लोगों को मज़बूती देने के लिए काम करना चाहिए. जिससे वो भविष्य में आने वाली किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो सकें.

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