Published on May 20, 2019 Updated 0 Hours ago

नई सरकार को राजकोषीय व मौद्रिक, दोनों मोर्चों पर ऐसा प्रोत्साहन देना होगा कि ठंडे पड़ गए निजी क्षेत्र के निवेश में उछाल आए.

केंद्र की नई सरकार को विरासत में मिलेगी कमज़ोर अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था के बारे में अधिक जानकारी के बाहर आने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि नई सरकार को विरासत में एक कमजोर अर्थव्यवस्था मिलेगी. यह साफ़ हो गया है कि एनडीए सरकार अपने पीछे एक ऐसी अर्थव्यवस्था छोड़ कर जा रही है, जिसमें कई समस्याएं हैं. औद्योगिक उत्पादन में 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई है और उत्पादन भी मार्च में 0.4% की नकारात्मक वृद्धि दर्ज करते हुए अब तक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है. लगभग सभी क्षेत्रों में उपभोक्ता मांग कम हो रही है.

चिंता की बात यह भी है कि मारूति और ह्यूंदई जैसी बड़ी कार कंपनियों ने पहले से ही जानकारी दे दी है कि कारों की बिक्री में ख़ासी गिरावट आई है. पिछले कुछ महीनों में मोटरसाइकिल और स्कूटर की बिक्री में भी कमी आई है. कारों की बिक्री में मंदी और उपभोक्ता वस्तुओं (एफएमसीजी) की ​खरीद में कमी चौतरफ़ा मंदी के संकेत दे रहे हैं. अब आधिकारिक तौर से भी माना जा रहा है कि हम मंदी की चपेट में हैं क्योंकि 2018-19 की चौथी तिमाही में वास्तविक और जीडीपी की वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रहने की संभावना है. गैर-खाद्य बैंक ऋण में भी चौथी तिमाही में धीमापन आ गया है. मार्च में पूंजीगत वस्तुओं यानि कैपिटल गुड्स के उत्पादन में 8.7 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया जो आर्थिक कमज़ोरी का प्रमुख स्रोत है.

जीएसटी से राजस्व उगाही उम्मीद से कम है और 2018-19 के संशोधित अनुमानों के अनुसार लक्ष्य की तुलना में राजस्व में लगभग 1.6 ख़रब रूपए की कमी आने की उम्मीद है. इसलिए, नई सरकार के पास ख़र्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होगा ख़ासकर ऐसे हालात में जबकि राजकोषीय घाटे में कमी की प्रबल संभावना है. केंद्र की राजस्व वृद्धि बजट में तय की गई 19.5 प्रतिशत की दर की तुलना में केवल 6.2 प्रतिशत है.

ऐसे में बुनियादी ढांचे जैसी आवश्यक मदों पर भी सरकारी खर्च में कटौती करनी पड़ सकती है जिससे अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में और ज्य़ादा समस्या होगी. भारत में बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की बहुत ज्य़ादा ज़रुरत है और इसके लिए सरकार को नई सड़कों, रेलवे, बंदरगाहों व हवाईअड्डों आदि पर पैसा खर्च करना होगा जिससे हम ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक हो सकें.

सरकार ने माना है कि निर्यात में वृद्धि अत्यंत धीमी है जिसके चलते अगली सरकार को 176 अरब डॉलर के विदेश व्यापार घाटे से निपटना होगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि हम श्रम केंद्रित निर्यात का बाजार बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों के हाथों खो रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में कपड़ा, वस्त्र और आभूषण जैसी श्रम केंद्रित वस्तुओं के निर्यात में भारत लाभ की स्थिति खोता जा रहा है क्योंकि श्रम उत्पादकता में तेजी से वृद्धि नहीं हो रही है. दूसरी ओर तकनीकी प्रगति ने नाटकीय रूप से पूंजी की उत्पादकता में सुधार किया है और स्वचालन (ऑटोमेशन) की सापेक्ष लागत को कम किया है. चीन जैसे देशों की तुलना में श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं, कौशल प्रशिक्षण और शिक्षा की कमी का मतलब है कि मेहनताने की तुलना में उनके काम की गुणवत्ता में तेज़ी से सुधार नहीं हो रहा है. अनुबंध श्रम के अत्यधिक उपयोग के कारण भी श्रम उत्पादकता नहीं बढ़ रही है. जब तक औद्योगिक क्षेत्र में वित्तीय और श्रम लागतों को कम नहीं किया जाता है, तब तक दक्षिण पूर्व एशिया में व अन्य स्थानों पर भी भारत अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हो पाएगा.

भारत से होने वाला प्रमुख निर्यात अब अपेक्षाकृत अधिक पूंजी केंद्रित है जैसे वाहनों के पुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक्स और दवाएं. संगठित क्षेत्र में श्रम की गहनता कम हो रही है, जो रोजगार सृजन के नजरिए से बुरी खबर है। जब तक उत्पादन में श्रम की गहनता बहुत ज्यादा नहीं बढ़ेगी, तब तक संगठित क्षेत्र एक साल में एक करोड़ रोजगार ढूंढने वालों को अपने यहां अवसर नहीं दे पाएगा.

सबसे अधिक महत्वपूर्ण है बैंकिग क्षेत्र का स्वास्थ्य. कर्ज लौटा न पाने वालों के कारण बैंकिग क्षेत्र में मध्यम व लघु स्तर की औद्योगिक इकाईयों के लिए कर्ज जुटाना काफी मुश्किल होता जा रहा है. कुल ऋण में ख़राब संपत्तियों व डूब चुके कर्ज के अनुपात को देखा जाए तो भारत सबसे खराब अनुपात वाले देशों में शामिल है. भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार सितंबर में यह दर 10.8 प्रतिशत थी जो अब कम होकर मार्च में 10.3 प्रतिशत तक आ गई है. डूब चुके कर्ज़ को देखा जाए तो 90 फीसदी एनपीए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के खातों में हैं.

पिछले दो साल में बैंकिग क्षेत्र में 28 अबर डॉलर का निवेश किया गया है पर इसका स्वास्थ्य सुधरता नहीं दिख रहा है.पिछले कुछ महीनों में बैंकों द्वारा ऋण देने की गति कुछ तेज़ी आई है पर कुल मिलाकर ऋण देने की समग्र दर अभी भी कमजोर है.

गैर बैंकिग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) अभी भी मुश्किल में हैं. आईएल एंड एफएस संकट के बाद उनके पास नकदी की कमी है. इससे लघु व मध्यम स्तर की इकाईयों को ऋण लेने में दिक्कत हो रही है. गैर-बैंकिग वित्तीय कंपनियां ख़ुदरा व्यापार के लिए भी कर्ज़ उपलब्ध करवाती हैं. लघु व मध्यम स्तर की इकाईयों को उचित दर पर लागत वाली पूंजी की ज़रुरत होती है. खुदरा बाज़ार को भी उपभोग की दर बरकरार रखने के लिए कर्ज की जरुरत होती है और कारों की बिक्री में गिरावट, समस्याओं में फंसी एनबीएफसी का नतीजा है. म्युचुअल फंड्स से कम समय के लिए कर्ज़ लेना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि इन फंड्स के निवेशक इस बात से चिंतित हैं कि गैर-बैंकिग वित्तीय कंपनियों को पहले से ही 46 अरब डॉलर कर्ज़ दिया जा चुका है. कई निवेशक इनसे बाहर निकल गए हैं. गैर-बैंकिग वित्तीय कंपनियां बाज़ार से पैसा उगाहने में भी मुश्किलों का सामना कर रहीं हैं, क्योंकि आईएल एंड एफएस में हुई गड़बड़ियों के चलते अब बाज़ार में एनबीएफसी बॉन्ड की मांग ज्यादा नहीं है.

इस प्रकार गैर बैंकिग वित्तीय कंपनियों के लिए थोक ऋण बाजार के दरवाजे लगभग बंद हो गए हैं और अब वे अन्य स्रोतों जैसे बाह्य वाणिज्यिक ऋण(एक्सटर्नल कमर्शियल बॉरोइंग्स यानी ‘ईसीबी’) जैसे विकल्प आज़माने का प्रयास कर रहे हैं या डूब चुकी परिसंपत्तियों को बेच रहे हैं. यहां तक कि ‘एएए’ रेटिंग वाली एनबीएफसी भी बाज़ार दर से 100 बेसिस प्वाइंट ज्यादा लागत पर ही पैसा जुटा पा रही हैं.

आरबीआई ने हाल ही में दो बार ब्याज़ दरों में कमी की है पर (मुद्रास्फीति को घटाने के बाद) ‘वास्तविक’ ब्याज़ दर अभी भी काफी अधिक है. ब्याज दरों में भारी कमी से एनबीएफसी व कॉरपोरेट जगत द्वारा लिया जा रहे ऋण की लागत में कमी आएगी. नई सरकार को राजकोषीय व मौद्रिक, दोनों मोर्चों पर ऐसा प्रोत्साहन देना होगा कि ठंडे पड़ गए निजी क्षेत्र के निवेश में उछाल आए. कृषि पर भी फौरन ध्यान देने की ज़रूरत है, हालांकि वह एक अलग ही कहानी है.


यह आलेख मूल रूप से द ट्रिब्यून में छपा था.

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