Author : Ria Kasliwal

Published on Jun 10, 2021 Updated 0 Hours ago

देश की औपचारिक श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट आती जा रही है. 

भारत की औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं के लापता होने का मामला

विश्व आर्थिक मंच की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में भारत 28 पायदान फिसलकर 112वें से 140वें स्थान पर पहुंच गया. महामारी वाले साल में भारत के लैंगिक भेद अनुपात में 4.3 प्रतिशत अंक की बढ़ोतरी दर्ज की गई. लैंगिक भेद अनुपात में इस बढ़ोतरी का एक महत्वपूर्ण और स्थायी कारक महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों का अभाव रहा है. नतीजतन देश की औपचारिक श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट आती जा रही है. 

विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी दर (एफएलपीआर) 1990 में 30.27 फ़ीसदी से घटकर 2019 में 20.8 प्रतिशत रह गया. एफएलपीआर में आई इस गिरावट की शुरुआती दौर में व्याख्या ये की गई कि महिलाओं ने उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए औपचारिक कार्यबल से ख़ुद को अलग कर लिया. हालांकि कुछ हद तक ये बात सही भी है. उच्च शिक्षा से जुड़े अखिल भारतीय सर्वेक्षण में ये खुलासा हुआ है कि उच्च शिक्षा में महिलाओं का सकल नामांकन दर (एफजीईआर) 2011-12 में 44 प्रतिशत था जो 2018-19 में बढ़कर 49 प्रतिशत हो गया. बहरहाल, उच्च शिक्षा से जुड़े संस्थानों में महिलाओं के बढ़ते दाखिले के बावजूद ‘कार्यबल से लापता हुई महिलाओं’ से जुड़ी समस्या की पूरी तरह से व्याख्या नहीं हो पाती. ऐसे में सवाल ये खड़ा होता है कि महिलाएं अपने जीवन, अपने समय का क्या इस्तेमाल कर रही हैं?

उच्च शिक्षा से जुड़े संस्थानों में महिलाओं के बढ़ते दाखिले के बावजूद ‘कार्यबल से लापता हुई महिलाओं’ से जुड़ी समस्या की पूरी तरह से व्याख्या नहीं हो पाती. ऐसे में सवाल ये खड़ा होता है कि महिलाएं अपने जीवन, अपने समय का क्या इस्तेमाल कर रही हैं?

लोगों की दिनचर्या या समय के इस्तेमाल को लेकर भारत में पहली बार किए गए सर्वेक्षण में हुए खुलासों के मुताबिक, 15-59 साल के बीच की सिर्फ़ 20.6 प्रतिशत महिलाएं ही ऐसे कामों में संलग्न हैं जिनके बदले उन्हें किसी प्रकार के वेतन का भुगतान किया जाता है. सर्वेक्षण के अनुसार इसी आयु वर्ग के 70 प्रतिशत पुरुष वैतनिक कार्यों में संलग्न हैं. इस सर्वेक्षण में महिलाओं और पुरुषों के बीच का इतना बड़ा अंतर श्रमशक्ति भागीदारी दर (एलईपीआर) के आंकड़ों को ही परिलक्षित करता है. बहरहाल, अवैतनिक कार्यों के मामलों में इससे भी बड़ा अंतर देखने को मिलता है. बिना किसी भुगतान के एवज में किए जाने वाले कार्यों की बात करें तो हम पाते हैं कि 15-59 वर्ष की आयु वर्ग के 49 फ़ीसदी पुरुष ऐसे कार्यों में शामिल हैं जबकि महिलाओं में ये आंकड़ा 94 प्रतिशत है

अवैतनिक कार्यों में महिलाओं और पुरुषों के बीच का ये अंतर प्रतिशत के रूप में बहुत ज़्यादा है. ऐसे कार्यों के पीछे व्यतीत किए जाने वाले घंटों की बात करें तो महिलाओं और पुरुषों के बीच का ये अंतर और बढ़ जाता है. एक भारतीय महिला अपने समय का औसतन 21 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा अवैतनिक कार्यों में खपाती है. इनमें ख़ासतौर से परिवार के सदस्यों की देखभाल से जुडी गतिविधियां और घरेलू कामकाज जैसे साफ़-सफ़ाई, रसोई आदि शामिल हैं. इसके ठीक विपरीत भारतीय पुरुष इन कामों के पीछे औसतन अपना सिर्फ़ पांच प्रतिशत समय ही व्यतीत करते हैं. 

जैसा कि चित्र 2 से स्पष्ट है, भारतीय महिलाएं किसी भी दिन अवैतनिक कार्यों में वैतनिक कार्यों के मुक़ाबले ज़्यादा समय व्यतीत करते हैं. इसके अलावा अगर हम कार्यों के इस वर्गीकरण (वैतनिक और अवैतनिक) को प्रतिदिन मिनट के हिसाब से जोड़ते हैं तो भी महिलाओं का योगदान पुरुषों से कहीं ज़्यादा पाते हैं. ऐसे में कई अनुमानों से हमें ये जानकारी मिलती है कि अगर महिलाओं के कामकाज की उचित रूप से पहचान की जाए तो उनका एफएलपीआर 81.6 प्रतिशत हो जाता है जबकि पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर (एमएलएफआर) 76.7 प्रतिशत है. 

बहरहाल , महिलाओं द्वारा अवैतनिक तौर पर पारिवारिक सदस्यों के देखभाल से जुड़ी सेवाओं की औपचारिक अर्थव्यवस्था में कोई मान्यता नहीं है. पितृसत्तामक समाज द्वारा लैंगिक आधार पर किए जाने वाले श्रम विभाजन से समाज में महिलाओं की भूमिका तय होती है. उन्हें इस विभाजन को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है. घरों में देखभाल और परवरिश से जुड़े कामों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी महिलाओं के ऊपर होती है. 

अगर महिलाओं के कामकाज की उचित रूप से पहचान की जाए तो उनका एफएलपीआर 81.6 प्रतिशत हो जाता है जबकि पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर (एमएलएफआर) 76.7 प्रतिशत है. 

हमारे देश में प्रचलित पारिवारिक ढांचों को देखभाल से जुड़े इन अवैतनिक कार्यों और आवश्यक गतिविधियों के लिए औपचारिक तौर पर किसी भी तरह का भुगतान न करने की छूट मिल जाती है. इस तरह देखभाल से जुड़े ये अवैतनिक कार्य कभी भी औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाते. किसी भी अर्थव्यवस्था का अस्तित्व टिकाए रखने  और फलने-फूलने के लिए ये कार्य बेहद अहम हैं. इसके बावजूद देखभाल से जुड़े इन अवैतनिक कामों को ‘कार्य’ की श्रेणी में नहीं रखा जाता.  इस प्रक्रिया को अक्सर महिलाओं के कार्यों के विलोपन की संज्ञा दी जाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि औपचारिक अर्थव्यवस्था के संचालन का भार महिलाओं पर होता है. हालांकि, इसके साथ-साथ देखभाल से जुड़े अवैतनिक कार्यों को निभाने का दायित्व महिलाओं पर होने से उनके सामने समयाभाव का संकट पैदा हो जाता है. 

औपचारिक अर्थव्यवस्था में लापता स्त्रीशक्ति

साधारण अर्थों में समय की किल्लत का मतलब नितांत निजी ज़रूरतों जैसे मनोरंजन और सामाजिक गतिविधियों के लिए समय का अभाव होता है. ये अवैतनिक कार्य इतने विविध प्रकार के होते हैं कि महिलाओं के पास मौजूद समय और सामर्थ्य का अभाव होने लगता है. इनके बोझ तले दबी महिला की पसंद-नापसंद और रोज़गार के विकल्प चुनने की क्षमता कुंद पड़ जाती है. महिलाओं के सिर पर अवैतनिक कार्यों की ज़िम्मेदारियों का ये बोझ उन्हें उच्च शिक्षा हासिल करने, अपना कौशल स्तर ऊंचा करने, अपने स्वास्थ्य से जुड़ी ज़रूरतों पर ध्यान देने और ख़ासतौर से रोज़गार के औपचारिक अवसर तलाशने की उनकी क्षमताओं के रास्ते में बाधाएं खड़ी करते हैं. घरों में लैंगिक आधार पर थोपी गई अवैतनिक श्रम में योगदान करने की इन ज़िम्मेदारियों के नतीजतन उनके समक्ष समय के अभाव का संकट खड़ा हो जाता है. यह सवैतनिक कार्य कर पाने की महिलाओं की काबिलियत के रास्ते में सीधे तौर पर एक बड़ी बाधा साबित होती है.

अपेक्षाकृत निर्धन महिलाओं में समय की ये किल्लत और भी बड़ी रुकावट साबित होती है. समाज का अमीर तबका तो देखभाल से जुड़ी इन सेवाओं के बदले रकम चुकाकर इन्हें बाहरी स्रोतों से हासिल कर सकता है. बहरहाल, देखभाल से जुड़े सार्वजनिक ढांचे के अभाव के चलते ग़रीब महिलाओं के लिए ऐसा कर पाना असंभव है. ऐसे में इन निर्धन महिलाओं के लिए औपचारिक कार्यों के दरवाज़े बंद हो जाते हैं. किसी तरह का औपचारिक और वैतनिक काम न कर पाने के चलते ये महिलाएं आमदनी के स्रोत से वंचित रह जाती हैं. ऐसे में उनकी सामर्थ्य-शक्ति और क्षीण हो जाती है और हालत निशक्त या बेचारगी भरी हो जाती है.

अगर भारत अपनी अर्थव्यवस्था का एक समावेशी, तीव्र और चौतरफा विकास चाहता है तो महिलाओं के लिए सवैतनिक कार्यों हेतु समय की कमी से जुड़े मुद्दे, लैंगिक आधार पर वेतनमान में अंतर और तेज़ी से घटते एफएलपीआर की रोकथाम करने जैसे मुद्दे बेहद अहम हो जाते हैं.

कुछ महिलाएं इन बाधाओं के बावजूद किसी प्रकार सवैतनिक रोज़गार का दायित्व उठाने में कामयाबी होती हैं. हालांकि कई बार उनके लिए ये दोहरे बोझ- वैतनिक और अवैतनिक कार्य- का सबब बन जाते हैं. इस प्रक्रिया को अक्सर ‘डबल शिफ्ट’ कहकर पुकारा जाता है. ये महिलाओं के लिए समय की किल्लत की गंभीर समस्या खड़ी कर देते हैं. इतना ही नहीं हमारे यहां घरेलू कामकाज और देखभाल को अविवेकपूर्ण ढंग से महिलाओं का काम मान लिया गया है. इन अवैतनिक कार्यों के पुनर्वितरण यानी पुरुषों को इसकी कुछ ज़िम्मेदारी दिए जाने से जुड़ी विफलताओं के चलते औपचारिक कार्यस्थलों में लैंगिक भेदभाव से जुड़े बर्तावों को प्रश्रय मिलता है. हमारे देश में पारिश्रमिकों के मामलों में पुरुषों और स्त्रियों के बीच के बड़े अंतर से ये बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है. आज हालत ये है कि भारत में महिलाओं की अनुमानित कमाई पुरुषों की अनुमानित कमाई का पांचवा हिस्सा है. 

‘औपचारिक अर्थव्यवस्था में लापता स्त्रीशक्ति’ के मामले पर अब तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है. महामारी ने महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक स्वास्थ्य को बेहद बुरे तरीके से प्रभावित किया है. लॉकडाउन में परिवारों के भीतर देखभाल से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराने वाला कोई वैकल्पिक साधन न होने के चलते महिलाओं को इनमें और शिद्दत से जुटना पड़ा है. अनुमानों के मुताबिक महामारी ने महिलाओं पर अवैतनिक कार्यों के बोझ को 30 फ़ीसदी तक बढ़ा दिया है. 

महामारी के चलते देश के कार्यबल में से महिलाओं की तादाद घटी है. एक अध्ययन के मुताबिक लॉकडाउन के पहले वैतनिक कार्यों में संलग्न रही हर 10 में से 4 महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान अपनी नौकरियां गंवा दी हैं. अगर भारत अपनी अर्थव्यवस्था का एक समावेशी, तीव्र और चौतरफा विकास चाहता है तो महिलाओं के लिए सवैतनिक कार्यों हेतु समय की कमी से जुड़े मुद्दे, लैंगिक आधार पर वेतनमान में अंतर और तेज़ी से घटते एफएलपीआर की रोकथाम करने जैसे मुद्दे बेहद अहम हो जाते हैं. आकलनों के मुताबिक महिलाओं द्वारा एक साल में किए जाने वाले तमाम अवैतनिक कार्यों की मौद्रिक क़ीमत भारत की जीडीपी के 3.1 प्रतिशत के बराबर है. लिहाजा ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे रेखांकित करने और जिसपर ध्यान देने की ज़रूरत है. 

किस तरह की रणनीति अपनानी होगी

महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण उनके लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाने मात्र से नहीं होगा. इसके लिए महिलाओं के सिर से परिवार और कार्यक्षेत्र दोनों जगह किए जाने वाले दोहरे कार्य का बोझ भी कम करना होगा. इसके लिए 3R या तिहरी रणनीति अपनानी होगी. नीति निर्माण से जुड़े हलकों में महिलाओं द्वारा किए जाने वाले देखभाल से जुड़े अवैतनिक कार्यों की पहचान करने, उनका बोझ घटाने और उन्हें पुनर्वितरित करने की रणनीति अपनानी होगी.

इन तीन सिद्धांतों पर अमल करने और महिला श्रम को ज़रूरी सहूलियतें मुहैया कराने का सबसे अच्छा उपाय है- देखभाल से जुड़े बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश. पारिवारिक देखभाल से जुड़ी सुविधाओं के सार्वजनिक क्षेत्र में अभाव और निजी क्षेत्र में इनसे जुड़े सस्ते विकल्पों की कमी के चलते घरेलू मोर्चे पर देखभाल से जुड़ी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के कंधों पर आ जाती हैं. इन ज़िम्मेदारियों के चलते वो औपचारिक और वैतनिक कार्यबल से बाहर हो जाती हैं. साफ़ है कि अगर शिशु देखभाल और घरेलू कामकाज की वैकल्पिक सुविधाएं मुहैया कराई जाएं तो महिलाओं को समय की कमी से जुड़ी समस्या से निजात पाने में मदद मिलेगी और वो आसानी से रोज़गार के औपचारिक अवसरों का लाभ उठा सकेंगी.  

ख़बरों के मुताबिक घरेलू और पारिवारिक देखरेख से जुड़ी अर्थव्यवस्था में अगर भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ़ दो प्रतिशत भी निवेश किया जाए तो बेरोज़गारी की गंभीर समस्या से जूझ रहे देश में 1 करोड़ 10 लाख नौकरियां पैदा की जा सकती हैं. इतना ही नहीं वैतनिक और औपचारिक रोज़गार में महिलाओं के प्रवेश से उनके आर्थिक और सामाजिक कल्याण में भी वृद्धि हो सकेगी. लिहाजा 3R के सिद्धांत के अनुपालन से भारत न सिर्फ़ घटते एफएलपीआर की जड़ तक पहुंच सकेगा बल्कि एक समतामूलक समाज के तौर पर तीव्र गति से आगे बढ़ सकेगा. 

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