कार्बन उत्सर्जन को लेकर हेलसिंकी यूनिवर्सिटी में कम्प्यूटेशनल स्पेस फिजिक्स की प्रोफेसर और बोर्ड ऑफ टेक्नोलॉजी अकादमी की अध्यक्ष मिन्ना पलमोर्थ ने फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख लिखा था. उनका तर्क है कि दुनिया को बेहतर तरीके से समझने के लिए जो भी शोध हो रहे हैं, उनसे होने वाले कार्बन उत्सर्जन का हमें विरोध नहीं करना चाहिए. उन्होंने ये लेख उन खबरों के बाद लिखा, जिसमें कहा गया था कि कुछ वैज्ञानिक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए शोध घटाना चाहते हैं. अपने तर्क को सही ठहराने के लिए मिन्ना पलमोर्थ ने उन इंजीनियरों का उदाहरण दिया, जिन्हें रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था और उन्होंने इस क्षेत्र की तकनीकी में सुधार किए. अगर उनकी दलील को स्वीकार कर इस तरह के शोध को प्राथमिकता दी जाती है तो फिर कार्बन उत्सर्जन के वर्गीकरण को लेकर हमें कुछ असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ सकता है.
ये लेख उन खबरों के बाद लिखा, जिसमें कहा गया था कि कुछ वैज्ञानिक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए शोध घटाना चाहते हैं.
अभी क्या स्थिति है?
जलवायु परिवर्तन को लेकर 1997 में जब क्योटो प्रोटोकॉल को स्वीकार किया गया था तब कार्बन उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाने की जिम्मेदारी ग्लोबल नॉर्थ (Annex I) के देशों पर डाली गई थी. नॉर्थ अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों की गिनती ग्लोबल नॉर्थ में होती है. इन देशों पर ये जिम्मेदारी इसलिए डाली गई थी क्योंकि जीवाश्म ईंधन का सबसे पहले इस्तेमाल करने वाले यही देश थे. दुनिया के बाकी देशों (Annex 2) पर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की कोई जिम्मेदारी नहीं डाली गई. उनसे ये ज़रूर कहा गया कि वो ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने की कोशिश करें. ये सारी बातें जलवायु परिवर्तन और ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने को लेकर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में तय किए गए सिद्धांतों (UNFCCC) के अनुरूप थी. इनका मकसद एक समान उद्देश्य के लिए अलग-अलग देशों को उनकी क्षमता के हिसाब से जिम्मेदारी का बंटवारा (CBDR-RC) करना था. लेकिन धीरे-धीरे ग्लोबल नॉर्थ के देशों ने जिम्मेदारियों के बंटवारे के सिद्धांत को कमज़ोर करना शुरू कर दिया. जलवायु परिवर्तन को लेकर बाद में जो सम्मेलन हुए उनमें ग्लोबल नॉर्थ के देशों ने कार्बन उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाने की जिम्मेदारी ग्लोबल साउथ के देशों पर भी डालनी शुरू कर दी. इस मुद्दे पर अपने तर्क को विश्वसनीय बनाने के लिए इन देशों ने ये तर्क दिया कि कार्बन उत्सर्जन और ग्रीनहाउस गैसों के लिए भले ही ऐतिहासिक रूप से ग्लोबल साउथ के देश जिम्मेदार नहीं है लेकिन वर्तमान और भविष्य में कार्बन उत्सर्जन और ग्रीनहाउस गैसों में जो बढ़ोतरी हो रही है उसके लिए ग्लोबल साउथ के देश, खासकर चीन और भारत, भी जिम्मेदार हैं. इसके जवाब में भारत समेत ग्लोबल साउथ के दूसरे देशों ने डरबन में 2011 में जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बैठक (COP17) से पहले 3 मुद्दों को इस एजेंडे में शामिल करने की मांग की. इसमें पहला मुद्दा सतत विकास के लिए संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारे का था. बाकी दो मुद्दे तकनीकी और व्यापार से जुड़े थे. इससे हुआ ये कि जिम्मेदारियों के सही बंटवारे पर एक बार फिर बातचीत शुरू हुई. लेकिन डरबन सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर नए नियम बनाने के लिए जो कार्यकारी समूह बनाया गया था उसने इस घोषणापत्र में ये बात डाल दी कि ये नियम सदस्य देशों पर कानूनन बाध्य होंगे. इस घोषणा पत्र ने क्योटो प्रोटोकॉल की जगह लेनी थी और इसे 2015 से लागू किया जाना था. इस घोषणा पत्र से ग्लोबल साउथ और यूरोपीयन यूनियन के बीच वो सीमा रेखा खिंच गई, जहां वो कार्बन उत्सर्जन और ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने की अपनी हिस्सेदारी या जिम्मेदारी का उल्लंघन नहीं कर सकते. जलवायु परिवर्तन पर हुए पेरिस समझौते ने अलग-अलग देशों को उनकी क्षमता के हिसाब से जिम्मेदारी के बंटवारे के सिद्धांत(CBDR-RC) को रद्द कर दिया. जलवायु परिवर्तन की समस्या का सामना करने के लिए ये एक नई अवधारणा लेकर आया. इसमें हर देश को नीचे से ऊपर की और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का निर्धारण करना था. लेकिन ग्लोबल नॉर्थ के देश इस नई अवधारणा को भी कमज़ोर करते गए. जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले ग्लोबल नॉर्थ देशों के कुछ संगठन भी इस काम में उनकी मदद कर रहे हैं. ये संगठन ग्लोबल साउथ के कई देशों का नाम लेकर उनके बारे में नकारात्मक रिपोर्ट छापते हैं और फिर उन पर ये दबाव बनाते हैं कि जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए उन्हें ज्यादा काम करना चाहिए. इस तरह की चालबाज़ियों से ये देश और संगठन सारी जिम्मेदारी ग्लोबल साउथ के देशों पर डालने की साज़िश कर रहे हैं.
विभिन्न देशों में विकास को लेकर पहले जो अंतर थे, अब वो कम हो रहे हैं. व्यक्तियों की पहचान एक उपभोक्ता के तौर पर बन रही है. इससे ये समस्या पैदा हुई कि कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की जिम्मेदारी उन देशों पर डाली जा रही है जो अपने नागरिकों का जीवनस्तर सुधार रहे हैं. इससे ये तथ्य छुप जा रहा है कि ग्लोबल नॉर्थ दुनिया का सबसे ‘घनी जनसंख्या’ वाला क्षेत्र है. जनसंख्या की इस तरह की बसावट ने जलवायु परिवर्तन के अपराध बोध का लोकतांत्रिकरण किया है. अब हर कोई ये महसूस करता है कि इस समस्या के लिए वो भी जिम्मेदार है. इसका नुकसान ये हुआ है कि ग्लोबल साउथ के देशों में रहने वाले वो लोग भी अब खुद को जलवायु परिवर्तन का दोषी समझने लगे हैं, जो सिर्फ खाना पकाने या खुद को ज़िंदा रखने के लिए छोटे स्तर पर ईंधन का इस्तेमाल करते हैं.
ये संगठन ग्लोबल साउथ के कई देशों का नाम लेकर उनके बारे में नकारात्मक रिपोर्ट छापते हैं और फिर उन पर ये दबाव बनाते हैं कि जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए उन्हें ज्यादा काम करना चाहिए.
कार्बन उत्सर्जन को लेकर जो शोध हो रहे हैं. बातचीत के लिए जो एजेंडा तय किया जा रहा है, उसमें ग्लोबल नॉर्थ के देश अगुवा बने हुए हैं. ग्लोबल नॉर्थ के देश सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की मदद से ये माहौल बनाने में भी कामयाब हो गए हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटना सभी देशों की सामूहिक जिम्मेदारी है. इसे लेकर ज्यादातर शोध भी ग्लोबल नॉर्थ के देशों में ही हो रहे हैं. हालांकि अब चीन भी इस दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रहा है. ऐसे में शोध से कार्बन उत्सर्जन के तर्क को सही ठहराने से ना सिर्फ ग्लोबल नॉर्थ की स्थिति मजबूत होगी बल्कि कार्बन उत्सर्जन की वर्गीकरण में ग्लोबल साउथ के देश और कमज़ोर होते जाएंगे.
मुद्दा क्या है?
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पृथ्वी पर मौजूद चीजों को समझने के लिए जिन प्रयोगशालाओं, वैज्ञानिक उपकरण, रॉकेट, सैटेलाइट, आंकड़ों और जानकारियों का इस्तेमाल होता है, उसमें ऊर्जा का उपभोग होता है. अन्तर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक डेटा सेंटर और डेटा ट्रांसमिशन नेटवर्क में दुनिया की कुल ऊर्जा का एक से डेढ़ प्रतिशत खर्च हो जाता है. ये 2022 में फ्रांस या मैक्सिको की कुल ऊर्जा मांग से ज्यादा है. इतना ही नहीं दुनिया में जितना कार्बन उत्सर्जन होता है उसके करीब एक फीसदी में इसकी भागीदारी है. ये 2022 में ऑस्ट्रेलिया से हुए कार्बन उत्सर्जन के बराबर है. अगर हम ऊर्जा का सबसे ज्यादा उपभोग और कार्बन उत्सर्जन करने वाले सौ देशों की सूची बनाएं तो सिर्फ बारह देश ऐसे हैं, जो डेटा सेंटर्स से ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करते हैं. सिर्फ सोलह देश ऐसे हैं जो डेटा सेंटर्स से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते हैं. यूरोपीयन यूनियन और अफ्रीकी महाद्वीप के ज्यादातर देशों का ऊर्जा उपभोग और कार्बन उत्सर्जन इन डेटा सेंटर्स से कम है. अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बारे में कहा जा रहा है कि ये डेटा सेंटर्स से भी ज्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे. पार्टिकल एक्सीलेटर, रॉकेट और सैटेलाइट के क्षेत्र में शोध के बारे में भी माना जाता है कि यहां ऊर्जा का उपभोग और कार्बन का उत्सर्जन ज्यादा होता है.
फिलहाल पेटेंट, ट्रेडमार्क, औद्योगिक डिजाइन और जैव विविधता के मामलों में चीन सबसे आगे है. 2022 में बौद्धिक सम्पदा के लिए हुए कुल पंजीकरण में चीन की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत थी. अमेरिका, जापान और यूरोपीयन यूनियन के देश ज्यादातर श्रेणियों में दूसरे और तीसरे नंबर पर थे. ये स्पष्ट नहीं है कि जितने भी वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं, वो लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए हो रहे हैं या फिर इंसानी जीवन खत्म करने को लेकर हो रहे सैन्य तकनीकी में शोध हो रहा है. हो सकता है कुछ शोध मनोरंजन के क्षेत्र या प्रोपगैंडा के क्षेत्र में भी हो रहे हों. ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या इन शोधों से हो रहे कार्बन उत्सर्जन को उचित ठहराया जा सकता है.
जो लोग इस तरह के वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं, उन्हें ये जानकार बुरा लग सकता है उनका काम इस योग्य नहीं है जिसके लिए इससे हो रहे कार्बन उत्सर्जन को सही ठहराया जाए. ऐसे में उन क्षेत्रों की पहचान करना ज़रूरी है, जहां हो रहे शोध से कार्बन उत्सर्जन तो हो रहा हो लेकिन इससे दुनिया का विकास होगा. उदाहरण के लिए ग्लोबल साउथ के देशों को ये मानने का हक है कि विकास परियोजनाओं से अगर थोड़ा बहुत कार्बन उत्सर्जन हो भी जाता है तो उसे लेकर बहुत चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. वहीं दूसरी तरफ अगर जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन, पेट्रोकेमिकल और खाद उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए शोध होते हैं तो इससे होने कार्बन उत्सर्जन को उचित नहीं माना जा सकता.
Source: World Intellectual Property Organisation
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