Author : Ira Mukhoty

Published on Mar 19, 2021 Updated 0 Hours ago

यह ज़रूरी है कि हम अपनी बेटियों को महिलाओं की असंख्य फौज के बारे में बताएं, जिन्होंने अपनी आवाज़ बुलंद की, जिन्होंने बग़ावत की, जो लड़ीं और उन्होंने जीत हासिल की.

भविष्य में समानता की लड़ाई में ऐतिहासिक स्त्री चरित्रों की केंद्रीयता अहम

अरस्तू दुनिया भर में एक प्रख्यात नाम हैं; एक ऐसी शख़्सियत जिन्हें प्राचीन यूनान में अपने दर्शन और बुद्धिमता के लिए जाना जाता है. लेकिन वह बात जिसकी जानकारी कम ही लोगों को है वह यह है कि अरस्तू ने स्त्रियों के शरीर की बनावट के बारे में काफी कुछ लिखा है. उन्होंने स्त्रियों के शरीर की व्याख्या ‘एक विकृत पुरुष शरीर’ (mutilated male body) के रूप में की है, जिसमें एक अस्थिर गर्भ होता है, जिसे केवल एक पुरुष ही वश में कर सकता है. बहुत मुमकिन है कि अरस्तू को महिलाओं के बारे में ऐसी बात करने के लिए क्षमा कर दिया जाए, और इसकी एक बड़ी वजह है कि वह लगभग 2,400 साल पहले हमारे बीच थे. हालांकि, उनके विचार पुनर्जागरण काल तक प्रचलित थे और उनके विचारों से तमाम डॉक्टर सहमत थे. अरस्तु ये मानते थे कि महिलाओं का शरीर केवल पुरुष शरीर का एक रूप भर है और पुरुषों के शरीर में अंदरुनी बदलावों के कारण महिला शरीर का विकास हुआ है. यही नहीं यदि टटोला जाए जो पुरुष अंडकोष कहीं न कहीं महिलाओं के शरीर में पाए जा सके हैं. हाल ही में आई कैरोलीन क्रिएडो पेरेज़ (Criado Perez) की क़िताब “इनविज़िबल वूमेन: एक्सपोज़िंग डेटा बायस इन ए वर्ल्ड डिज़ाइनड फॉर मेन” (Invisible Women: Exposing Data Bias in a World Designed for Men) में इन विचारों को प्रमुखता से दर्शाया गया है. कैरोलीन क्रिएडो ने अपनी पुस्तक में यह स्पष्ट रूप से दिखाया है कि तकनीक की दुनिया में लिंग को नजरअंदाज करने की सोच (Gender-Blindness) ने ‘पुरुष के अनुसार’ (one-sits-fits-men) वाला दृष्टिकोण पैदा किया है. इस कारण आज हमारे सामने वास्तव में केवल पुरुषों के लिए डिज़ाइन की गई यानी दुनिया मौजूद है, यानी जिसकी रूपरेखा पुरुषों के अनुरूप हो. कैरोलीन क्रिएडो की पुस्तक ऐसे साक्ष्यों के चलते आश्चर्यजनक और अद्भुत है, लेकिन जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की विरासत को भुला देने का एक लंबा और निकृष्ट इतिहास है. यह महिलाओं की उपलब्धियों को स्वीकार नहीं करने की पुरुष मानसिकता का परिणाम है.

अरस्तु ये मानते थे कि महिलाओं का शरीर केवल पुरुष शरीर का एक रूप भर है और पुरुषों के शरीर में अंदरुनी बदलावों के कारण महिला शरीर का विकास हुआ है. यही नहीं यदि टटोला जाए जो पुरुष अंडकोष कहीं न कहीं महिलाओं के शरीर में पाए जा सके हैं

अरस्तू से सैकड़ों साल पहले भारत में आम्रपाली नाम की एक महिला हुई. वह प्राचीन भारत के वैशाली गणराज्य की गणिका थी जो खूबसूरत, बुद्धिमान और बेहद अमीर थी. उसकी संपत्ति और बुद्धिमानी की वजह से उसे कई तरह की आज़ादी और सुविधाएं प्राप्त थीं. उसने शहर में सरोवरों का निर्माण करवाया. उसे क्षेत्र के सबसे ताकतवर पुरुष मगध के राजा बिंबसार का संरक्षण प्राप्त था. बाद में उसकी एक बौद्ध भिक्षु से मुलाकात हुई जिसके बाद उसके जीवन की दिशा और उसकी नियती बदल गई. आम्रपाली ने एक बौद्ध भिक्षुणी के तरह कठिन और सहचरी  जीवन जीने के लिए अपने गहने और रेशमी वस्त्र त्याग दिए. बौद्ध ग्रंथ थेरीगाथा में आम्रपाली की लिखी एक कविता के शब्द भी मौजूद हैं. यह कविता सौंदर्य और यौवन की क्षण-भंगुरता का एक असाधारण चित्रण है, जो दो सहस्राब्दी से अधिक समय से जीवंत है. इतना सब होने के बावजूद आम्रपाली के प्रेरक जीवन की खूबसूरत कहानी को पूरी तरह ख़त्म भले ही न किया गया हो, लेकिन बदल ज़रूर दिया गया है. सदियों से उसकी कहानी एक ऐसी पथभ्रष्ट महिला की रही है जिससे महिलाओं के लिए सचेत रहना आवश्यक है. औपनिवेशिक काल के बाद के उपन्यास वैशाली की नगरवधु ने अंग्रेज़ी नौतिकता (Victorian Moralising) को एक बार फिर अपनाते हुए आम्रपाली को एक तेज़-तर्रार लेकिन भुक्तभोगी महिला के रूप में दर्शाया गया, जिससे कि उसके व्यक्तित्व की जगमगाहट पूरी तरह से गायब हो जाए.

महिलाओं के किरदार से छेड़छाड़

आम्रपाली की कहानी का रूपांतरण कोई अपवाद नहीं है. यह भारत में लगभग हर ऐतिहासिक और यहां तक कि पौराणिक महिला चरित्रों के साथ हुआ है. वास्तव में जो बात असामान्य है वह यह है कि आम्रपाली का जीवन व्यापक स्तर पर दर्ज किया गया. दरअसल, यह एक सौभाग्यशाली संयोग ही था कि उनका जीवनकाल पूरी तरह से भारतीय इतिहास के पहले व्यापक रूप से प्रलेखित व्यक्ति (documented man) गौतम बुद्ध के समकालीन था. आम्रपाली की कथा को लगातार कई बार दोहराया जा चुका है. इस एक महिला की कहानी को कुलीन पितृसत्ता ने बार-बार लिखा है. वही कुलीन पितृसत्ता जो महिलाओं की आवाज़, उनकी कामुकता और उनकी शक्ति को वश में करने के लिए स्वीकार्य स्त्री व्यवहार को अत्यंत संकीर्ण मानकों से बांधती है, और यही वजह है कि हमारे पास रानी लक्ष्मीबाई की कहानी है, जो अपनी मातृभूमि झांसी की रक्षा करने और उसकी आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ने वाली एक जीवंत, मुखर और जटिल महिला है. वह बाद के वर्णनों में एक आयामी ‘वीरांगना’ में बदल दी जाती है. एक महिला के रूप में रानी लक्ष्मी बाई को बड़े करीने से और सोची-समझी रणनीति के रूप में, पुरुष पराक्रम (male heroism) की मिसाल (जिसकी जंग के मैदान में मौत होती है) के रूप में वर्णित किया गया है. इस दौरान उनकी सभी कमज़ोरियों और उन के व्यक्तित्व को एक झटके में ख़त्म कर दिया गया. लेकिन उसी समयकाल की एक अन्य महिला हज़रत महल का भाग्य इस मामले में और भी ख़राब था. उन्होंने भी 1857 में अवध की आज़ादी के लिए उतने ही साहस और रौब के साथ लड़ाई लड़ी थी, लेकिन वह स्त्रीत्व के स्वीकार्य ढांचे में फिट नहीं बैठती थीं और इसलिए उनका ज़िक्र लगभग शून्य रहा है. वह एक तलाक़शुदा मुस्लिम महिला थीं, जिनका एक परित्यक्त बेटा था. वहीं रानी लक्ष्मीबाई एक अवगुणरहित ब्राह्मण विधवा थीं, और इसलिए हज़रत महल की विरासत न सिर्फ़ काफ़ी हद तक अनसुलझी रही है बल्कि उनके ज़िक्र से इतिहासकार बचते रहे हैं.

आम्रपाली के प्रेरक जीवन की खूबसूरत कहानी को पूरी तरह ख़त्म भले ही न किया गया हो, लेकिन बदल ज़रूर दिया गया है. सदियों से उसकी कहानी एक ऐसी पथभ्रष्ट महिला की रही है जिससे महिलाओं के लिए सचेत रहना आवश्यक है. 

ये कुछ उदाहरण केवल इस तथ्य का निराशाजनक परिणाम हैं कि पिछले 5,000 वर्षों के इतिहास में विश्व स्तर पर 99 प्रतिशत मामलों में पुरुषों के जीवन को ऐतिहासिक रूप से दर्ज किया गया है. पांडुलिपियों, आत्मकथाओं, मूर्तियों, कला, वास्तुकला और लेखन का एक बड़ा हिस्सा पुरुषों के जीवन का जश्न मनाता है, जबकि महिलाओं के लिए बहुत छोटे और मामूली शब्द कहे जाते हैं. महिलाओं का उल्लेख इस तरह किया तरह किया गया है कि बहुत खोजने पर ही यह सामग्री मिले और इसे आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. अनंतकाल तक और जीवन की गाथाएं दर्ज होने की रवायतें शुरु होने के बाद से महिलाओं की कहानियों को या तो दर्ज नहीं किया गया, या उन्हें भुला दिया गया, या फिर उन्हें पूरी तरह से कुचल दिया गया है. जहां उनके बारे में उल्लेख मौजूद भी हैं- जैसे अकबर की चाची गुलबदन द्वारा लिखित हुमायूं की जीवनी जो मुग़ल हरम के भीतर से एक मुस्लिम महिला की आवाज़ का एक अनूठा रिकॉर्ड है, वहां ऐतिहासिक रिकॉर्ड रखने वाले पुरुषों ने उनकी पूरी तरह अनदेखी की है. इस तरह से महिलाओँ का इतिहास लगभग पूरी तरह से गायब हो गया है. यह तो महिला इतिहासकार रूबी लाल हैं, जिन्होंने 500 साल बाद इस असाधारण दस्तावेज़ पर ध्यान दिया और उन्होंने मुग़ल हरम के बारे में हमारी समझ को पूरी तरह से चुनौती दी. उस वक्त तक इन महिलाओं के बारे में ब्रिटिश उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने केवल नकारात्मक चीज़ें ही लिखी थीं, और उन्हें एक परिपाटी के भीतर ही दर्शाया था.

महिलाओं के लिए रोल-मॉडल्स की कमी

लगातार और सिलसिलेवार ढंग से महिलाओं के बारे में ऐतिहासिक रिकॉर्ड न रखने की रवायत ने, या फिर उन्हें उन्हें केवल एक सीमित व स्वीकार्य अवतार में प्रस्तुत करने की कोशिशों का परिणाम यह है कि महिलाओं के लिए अब रोल मॉडल यानी मार्ग दर्शकों की कमी हो गई. ऐसी महिलाएं जो ऐतिहासिक रूप से दूसरी महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकें और मान्यता प्राप्त कर सकें. और, इसलिए साल 2017 में बेंगलुरु में नए साल की पूर्व संध्या का जश्न मनाने वाली महिलाओं से साथ सामूहिक छेड़खानी के बाद उन्होंने विरोध दर्ज कराने और अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए, ‘मैं बाहर जाऊंगी’ का नारा दिया और इस बैनर तले कई मार्च निकाले. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने 16वीं सदी की भक्त कवि मीराबाई की तरह की महिलाओं को काफी हद तक भुला दिया है. मीरा बाई एक दिव्य प्रेम की खोज में धूल भरी सड़कों पर भटकती रहीं. उन्होंने बिना सामाजिक लोकलाज और अपराध की भावना के वही किया जो उन्हें ठीक लगा. लेकिन मीराबाई की इस क्रांतिकारी कहानी को इस हद तक बदला गया है कि गांधी ने उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें एक ‘आदर्श पत्नी’ के रूप में व्याख्यायित किया. लेकिन सच्चाई यह है कि मीराबाई अपने कुलीन वैवाहिक घर की घुटन भरी बाधाओं का विरोध कर रही थीं, और उन्होंने अपने घर की पवित्र सीमाओं के बाहर कदम रखने का फैसला किया. एक ऐसी विस्मृति जिसने मेनका गांधी को एक बार से महिलाओँ के लिए लक्ष्मण रेखा खींचने को बाध्य किया , पितृसत्तात्मक मूल्यों की कट्टर समर्थक के रूप में जब उन्होंने 21वीं सदी में कॉलेज की विमुक्त महिलाओं की आलोचना की और उनके लिए एक दायरा तय करने की बात कही.

अनंतकाल तक और जीवन की गाथाएं दर्ज होने की रवायतें शुरु होने के बाद से महिलाओं की कहानियों को या तो दर्ज नहीं किया गया, या उन्हें भुला दिया गया, या फिर उन्हें पूरी तरह से कुचल दिया गया है

यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारी बेटियां कल आसमान की ऊंचाइयों को छू सकें, यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उन्हें अनगिनत ऐसी महिलाओं के बारे में बताएं जिन्होंने अपनी आवाज़ उठाई, जिन्होंने बग़ावत की और अपने हक़ के लिए लड़ीं और अपना नाम इतिहास में दर्ज किया. जिन्होंने अपनी सल्तनत बनाई, उसपर राज किया और अपनी शर्तों पर उसे ध्वस्त भी किया. इसलिए ताकि ‘असंभव’ एक ऐसा शब्द न बने जो बालिकाओं और महिलाओं को सिखाया जाए और जो उनके सपनों और उनकी महत्वाकांक्षाओं को कभी भी परिभाषित करे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.