यह लेख " जानकारी पाने की आज़ादी: सूचना तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस 2024" निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.
1992 में रियो घोषणापत्र को स्वीकार करने के बाद सूचना तक पहुंच को सतत विकास के लक्ष्यों (SDGs) के प्रमुख तत्व के रूप में मान्यता दी गई है. उसके बाद से ही ये लगातार केंद्र में बना हुआ है. एसडीजी 2030 एजेंडे में अंतर्राष्ट्रीय विकास की पहलों में इसे प्रमुखता से जगह दी जा रही है. 2015 में सभी सदस्य देशों ने ये माना था कि सूचना तक पहुंच एसडीजी 16.10 के तहत सहभागी शासन और मजबूत संस्थानों को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है. राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मानवाधिकार परिषद ने भी अपने 2020 के प्रस्ताव में सार्वजनिक संस्थानों के लिए ये अनिवार्य कर दिया था कि सूचना को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाए. हालांकि सूचना तक पहुंच पहले के विकास प्रयासों के केंद्र में भी रही है. इनका उद्देश्य वंचित समुदायों को सुविधाएं प्रदान करने के लिए रेडियो जैसी संचार प्रौद्योगिकियां का उपयोग करना था. इसका फायदा ये था कि इस समुदाय के लोगों को आर्थिक अवसरों, विकास परियोजनाओं और सर्वोत्तम प्रथाओं के बारे में प्रासंगिक जानकारी दी जाती थी. इसका मक़सद उनकी रहने की स्थिति में सुधार करना था.
एसडीजी 2030 एजेंडे में अंतर्राष्ट्रीय विकास की पहलों में इसे प्रमुखता से जगह दी जा रही है. 2015 में सभी सदस्य देशों ने ये माना था कि सूचना तक पहुंच एसडीजी 16.10 के तहत सहभागी शासन और मजबूत संस्थानों को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है.
हालांकि, अब सूचना तक पहुंच के आदर्शों को प्रौद्योगिकी ने घेर लिया है. जिन उद्देश्यों के लिए इसकी कल्पना की गई थी, वो पीछे छूट गए हैं. तकनीकी और सामाजिक विकास ने प्रगति और नवाचार की लागत को कम कर दिया है. अब ज़रूरत से ज़्यादा सूचनाएं मिल रही हैं और उसी अनुपात में इसमें हेरफेर की आशंका भी बढ़ गई है. लोगों तक सूचना की बाढ़ आ गई है, लेकिन इसके साथ ही उन्हें सिंथेटिक कंटेंट (ऐसी सूचना, जिसमें जोड़तोड़ या हेराफेरी की गई हो) का सामना करना पड़ रहा है. जनरेटिव AI या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने सोशल मीडिया की क्षमता को और ज़्यादा बढ़ा दिया है. सोशल मीडिया ने कई मौकों पर दुनिया कुछ हिस्सों में हिंसा भड़काने का काम किया. इसके ज़रिए फैलाई गई अफ़वाहों से दंगे-फ़साद के हालात उत्पन्न हुए हैं. बड़े पैमाने पर सूचना और मीडिया तैयार करने की जेनरेटिव AI की क्षमता और सोशल मीडिया द्वारा सूचनाओं के तेज़ी से प्रसारण की खासियत ने ट्रांसमिशन क्षमताओं ने ज्ञानात्मक और पू्र्वाग्रहों का एक नया राजदंड खड़ा कर दिया है. सूचनाओं की अधिकता से मानव मस्तिष्क कई तरीकों से निपटता है. इसका एक तरीका ये है कि ऐसी सूचनाओं को चुनिंदा रूप से चुनना, जो उनके विश्वास और पू्र्वाग्रहों की पुष्टि करते हों.
जिस तरह से AI सिस्टम में गुप्त तरीके से पक्षपात और पूर्वाग्रह वाले आंकड़े फीड हो जाते हैं, उसी तरह उनका आउटपुट भी लोगों में पूर्वाग्रह पैदा करता है. लोगों की फैसला लेने की आंतरिक शक्ति और सामाजिक बदलाव जिस तरह तेज़ी पकड़ रहे हैं, उससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है.
जिस तरह से AI सिस्टम में गुप्त तरीके से पक्षपात और पूर्वाग्रह वाले आंकड़े फीड हो जाते हैं, उसी तरह उनका आउटपुट भी लोगों में पूर्वाग्रह पैदा करता है. लोगों की फैसला लेने की आंतरिक शक्ति और सामाजिक बदलाव जिस तरह तेज़ी पकड़ रहे हैं, उससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है. इस पर अब चिंता जताई जा रही है. पहले ये उम्मीद जताई गई थी कि अगर सूचना के विभिन्न तरीकों तक लोगों को आसान पहुंच होगी तो उन्हें सार्वजनिक विमर्श और आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया जाएगा लेकिन अब देखा जा रहा है कि सूचना की अधिकता की वजह से अक्सर अवांछनीय और हिंसक परिस्थितियां पैदा हो रही हैं. इनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर जनमत को प्रभावित करने, चुनाव परिणाम, और डीपफेक के माध्यम से लोगों के झूठे और अपमानजनक संस्करण तैयार करने में किया जा रहा है. सिंथेटिक कंटेंट और सोशल मीडिया की दोधारी तलवार ने नए ख़तरे और व्यापक ज़ोखिम पैदा कर दिए हैं.
सूचना उत्पादन और प्रसारण की लागत
पहले के समय में, सूचना तक पहुंच प्रसारण के तरीके पर निर्भर करती थी. उदाहरण के लिए रेडियो और टेलीविजन जैसे प्रसारण के प्रारंभिक तरीकों को ऐसा उत्पाद माना गया, जिसने विकास परिणामों के लिए उत्प्रेरक का काम किया. लेकिन डिजिटल और इंटरनेट की पैठ बढ़ने और जेनेरिक AI प्लेटफ़ॉर्म्स तक आसान पहुंच की वजह से उत्पादन और सूचना के प्रसार की लागत कम हो गई है. इसके अलावा, जो डेटा अभी बनाया जा रहा है, उसमें समय के साथ बदलाव होने की उम्मीद है. ऐसा इसलिए है क्योंकि डेटा आपूर्ति के बुनियादी ढांचे में बड़े बदलावों हो रहे हैं. जो बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनिया डिजिटलीकरण के पहले दौर से इस पर काम कर रही हैं, उससे इसमें बदलाव की संभावना और बढ़ गई है. ऐसे डेटा का इस्तेमाल एल्गोरिदम द्वारा अपनी पूर्वानुमान क्षमता को लाइव जितना बढ़ाने के लिए किया जा रहा है. जेनरेटिव AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) मॉडल द्वारा भी यही डेटा ग्रहण किया जा रहा है. सामग्री के निर्माण की कम लागत और सोशल मीडिया द्वारा तेज़ी से प्रचार-प्रसार की ख़ासियत ने इसके ख़तरे को बढ़ा दिया है. यही वजह है कि आज की दुनिया में इसे दुर्भावनापूर्ण अभियानों के सबसे महत्वपूर्ण अल्पकालिक ज़ोखिम के रूप में पहचाना जा रहा है.
सामग्री के निर्माण के अलावा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में सोशल मीडिया बॉट जैसी क्षमताएं भी हैं. ये इस तरह के कंटेंट को सोशल मीडिया के प्रसारण के ज़रिए और भी ज़्यादा वायरल कर सकता है. इसने जटिलताओं को और बढ़ा दिया है क्योंकि AI के वर्तमान मॉडल वेबसाइट्स द्वारा प्राप्त की गई सामग्री पर बनाए गए थे लेकिन भविष्य में AI मॉडल्स का विकास AI से पैदा किए गए सिंथेटिक कंटेंट से किया जा सकता है. उनके प्रशिक्षण में इस तरह के आंकड़ों का उपयोग किया जा सकता है. ज़ाहिर है सिंथेटिक कंटेंट से प्रशिक्षित सामग्री सूचना और सत्य की नींव और उनकी क्षमता को अस्थिर कर देती है. इससे सार्वजनिक बहस में अपुष्ट आंकड़े जाएंगे. इन आंकड़ों के इस्तेमाल से पूर्वाग्रह फैलने की संभावना बढ़ सकती है. AI मॉडल की गलतियों में वृद्धि हो सकती है. चूंकि डिजिटल सेक्टर में इस तरह के आंकड़ों का जीवन अनंतकाल तक है. इससे ये नुकसान होगा कि अलग-अलग संदर्भों में कई बार अलग-अलग और अनिश्चित तरीकों से इन अपुष्ट और गलत आंकड़ों का उपयोग होता रहेगा. ये जनता के लिए सूचना तक पहुंच के एसडीजी लक्ष्यों के बीच विरोधाभास को उजागर करता है. सूचनाओं की बाढ़ की वजह से नागरिक भागीदारी और सामाजिक-आर्थिक विकास में इसके नुकसान दिखने लगे हैं. जेनरेटिव AI और सोशल मीडिया के संयुक्त प्रभाव से विभिन्न समुदायों के सामाजिक ताने-बाने के अस्थिर होने का ख़तरा पैदा होता है.
भारत और यूरोपीय संघ जैसे न्यायक्षेत्रों में ये नियम बनाए गए हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से सृजित सामग्री को लेबल किया जाए, यानी उसके बारे में जानकारी दी जाए, जिससे लोग इस हकीकत को जानकार उसी हिसाब से फैसले ले सकें.
अब आगे क्या?
सूचनाओं में गड़बड़ी, हेरफेर, प्रसार और प्रवर्धन प्रभावशाली व्यक्ति (इंफ्लुएंसर्स), एल्गोरिदम और भीड़ के संयोजन से होता है. एल्गोरिदम की वजह से रिकमेंडेड इंजन इस तरह के कंटेंट की विज़िबिलिटी बढ़ता है. इसलिए, इंफ्लुएंसर कंटेंट को क्यूरेट करता है. फिर ऐसी सामग्री अपने दर्शकों तक पहुंचने के लिए विशेष एल्गोरिदम क्षमताओं का लाभ उठाती है. कंटेंट प्रावनंस और ऑथेंटिसिटी के लिए गठबंधन (C2PA) एक संयुक्त विकास परियोजना है. एडोब, आर्म, इंटेल, माइक्रोसॉफ्ट और ट्रूपिक जैसी कंपनियां इस पर मिलकर काम कर रही हैं. इसका लक्ष्य ऐसे तकनीकी स्तर का विकास करना है, जो मीडिया सामग्री के स्रोतों, इतिहास और उत्पत्ति को प्रमाणित कर सके. इसके अलावा, भारत और यूरोपीय संघ जैसे न्यायक्षेत्रों में ये नियम बनाए गए हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से सृजित सामग्री को लेबल किया जाए, यानी उसके बारे में जानकारी दी जाए, जिससे लोग इस हकीकत को जानकार उसी हिसाब से फैसले ले सकें. ये महत्वपूर्ण घटनाक्रम ज़ोखिमों के प्रबंधन और उसे कम करने की कोशिश करते हैं, जबकि ऐसा करने की जिम्मेदारी इन प्रौद्योगिकियों का विकास करने वाले डेवलपर्स और उन्हें तैनात करने वालों की है. इसके बावजूद दुर्भावनापूर्ण गलत सूचना जिस तेज़ी से फैलती है, वो दिखाती है कि इसे लेकर एल्गोरिदम में पूर्वाग्रह होता है. हालांकि, बहुपक्षीय संगठनों ने मीडिया और सूचना साक्षरता की पहल को विकास की महत्वपूर्ण रणनीति के रूप में आगे बढ़ाने का फैसला किया है लेकिन उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रौद्योगिकियों) का लगातार विकास हो रहा है और इसके साथ ही इसके माध्यम से बड़े पैमाने पर गलत सूचना देने की उनकी क्षमता भी बढ़ रही है. इस ख़तरे से निपटने के तरीकों पर भी सोचने की ज़रूरत है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.