Published on Apr 12, 2019 Updated 0 Hours ago

‘नए भारत’ की कोई भी बात महाभारत के गहन अध्ययन के बगैर पूरी नहीं हो सकती।

भारत की 21 वीं सदी की अभिव्यक्ति के लिए महाभारत का उद्धार

भारत 3 ट्रिलियन डॉलर से 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की यात्रा में आगे बढ़ रहा है। उसका राजनैतिक पेंडुलम मंजूरी और हकदारी से उठ कर विकास और संपन्नता की ओर बढ़ रहा है। इसकी रणनीति क्षमाशील-सुरक्षात्मक से आत्मविश्वास-ऐश्वर्यपूर्ण की और बढ़ रही है, और अपने सांस्कृतिक परिदृश्य को पुनर्भाषित करते हुए सहमेपन में जमे रहने से उठ कर अंतर्राष्ट्रीय रंगों की छाप की ओर जा रहा है। विश्व के लगातार बदल रहे लैंडस्केप के साथ तारतम्य बैठाने के लिए इसे न सिर्फ साझा करने के आधुनिक उपकरणों और तकनीक की जरूरत है बल्कि सभ्यता का एक मजबूत आधार भी चाहिए जिस पर यह ज्ञान, गत्यात्मकता, ताकत और स्थिरता से खड़ा हो सके। इसके लिए अपनी नयी छवि गढ़नी होगी और अपनी प्रकृति और अपने अनुभवों के साथ दुबारा तादात्म्य स्थापित करना होगा।

हजारों सालों में विकसित हुए इसके अनुभवों के केलाइडोस्कोप में सभ्यता के चार महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं, जिन्होंने भारत को पांच हज़ार सालों से थाम के रखा है — वेद, उपनिषद, पुराण और महाकाव्य (रामायण और महाभारत)। वेदों में ऋषियों के अंतर्ज्ञान को प्रस्तुत किया गया है। उसमें शब्दों, भाषा और ध्वनि के तीन नोट्स का संगम है जो हमारे भीतर के गहन भागों से आज भी प्रतिध्वनित होता है। हमारे होने का एक जीवंत अस्तित्व जिसे एक सार्वभौमिक यथार्थ के साथ शाश्वत रूप प्रदान कर दिया। उपनिषदों ने उनको आध्यत्मिक ज्ञान के बौद्धिक आलेख में घनीभूत कर दिया जिसका उपयोग करके कोई भी खोजी अपनी अंतर्दृष्टि को मन के तर्कों तक सीमित न रखते हुए अनुभव के साथ उसकी पुष्टि कर सकता है। पुराण वास्तव में वेद और उपनिषद पर टीका हैं जिसमें ज्ञान को कहानियों और रूपकों में बदल दिया गया है। महाकाव्यों ने इस पूरे ज्ञान को लोगों के सामने भारत के दो सबसे महान आख्यानों के रूप में पेश किया है, रामायण और महाभारत। यह निबंध महाभारत पर और उसे खो देने और अब पिछले पांच दशकों में आखिरकार विद्वतापूर्ण प्रयासों से दुबारा हासिल (उसके ज्ञान के लिए) कर लेने पर केन्द्रित है।

हर भारतीय जानता है कि महाभारत में सिर्फ वेदों और उपनिषदों का शास्त्रीय ज्ञान एक विस्तृत भारतीय ग्रन्थ में जमा नहीं किया गया, बल्कि यह सभी व्यावहारिक मामलों का एक विश्वकोष है; शासन की जटिलताओं से लेकर राज्य चलाने की गूढ़ताओं तक इसमें सब कुछ है। उदाहरण के लिए एक राज्य को चलाने के लिए नौकरशाही के निर्माण और उसके इस्तेमाल की जड़ें इसी मूल ग्रंथ में समायी हैं। यह दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इलियड और ओडिसी दोनों मिलाकर जितना होता है उसके दस गुने से भी ज्यादा है। महाभारत प्रभावी रूप से शासन, सैन्य और रणनीति के मॉडल को प्रस्तुत करता है। महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अवधारणा को अभिव्यक्त करता है। यह पांच हज़ार साल पहले राजाओं, राज्यों और प्रजा के लिए जितना प्रासंगिक था उतना ही आज भी व्यक्ति, परिवार, संगठन और कंपनी, समुदाय और राष्ट्र के लिए प्रासंगिक है।

इस्लामिक आक्रमण के दौरान, इसका अधिकांश ज्ञान और मंदिरों में वास करने वाली संस्कृति को क्रमबद्ध तरीके से भारत के केंद्र से बाहर कर दिया गया। उसके बाद आने वाले शासक, ब्रिटिश द्वारा मूल शिक्षा प्रणाली का सोच-समझकर सफाया किया गया, जिससे यह बेहद कमजोर हो गया। लगता है उनके लिए भारतीय ज्ञान का भौतिक और आर्थिक रूप से दम घोंटना ही पर्याप्त नहीं था, और 19वीं सदी के यूरोपियन इंडोलॉजिस्ट ने एक ऐसा नैरेटिव गढ़ लिया जिसने महाभारत को हाईजैक कर लिया। उसे बौद्धिक रूप से औपनिवेशिक रूप दे दिया और उसकी सत्यता, उसकी उत्पत्ति, उसकी संस्कृति, उसके लेखन, उसके चरित्र, उसके भौतिक और पराभौतिक सत्यों पर शंका के सवाल खड़े कर दिए। इन सब हमलों के बावजूद महाभारत खत्म नहीं हुआ। एक सभ्यता का ज्ञान — इतिहास के सीमित स्थानों यानी उसके विद्वानों में नहीं — उसके लोगों की चेतना में वास करता है, और कहावत ‘कोई भारतीय कभी महाभारत पहली बार नहीं पढ़ता है’ की गवाही हर भारतीय अपने खुद के अनुभव से देता है।

स्वतंत्रता के बाद, भारत की आज़ादी ने महाभारत का उदय भी देखा। आज विद्वता का तिहरा स्वरूप स्थापित हुआ; महाभारत को सही स्थान मिलना, औपनिवेशिक प्रदूषण को साफ़ करना, भारत के निश्चित मूल ग्रंथो को भारत के लोगों को वापिस दिया जाना। भारत के लोगों के डीएनए में ये ग्रन्थ समाए हैं। उनके रक्त में दौड़ते हैं, उनकी अस्थियों में खिलते हैं। उनकी चेतना में ये सर्वव्यापी हैं, उनकी आत्मा में ये हमेशा मौजूद हैं, और हमेशा रहेंगे। सभी भेदभावों और उससे जुड़ी हुई राजनीति से दूर हो कर, ज्ञान की इस तिकड़ी को परिपक्व होने में 50 साल लगे और महाकाव्य का एक-एक श्लोक दुबारा सामने आया। और अब, इसने हमारे प्राचीन आधारों को देखने की एक नयी दिशा दी है।

सबसे पहले, प्रथम सामान्य सम्पादक वी.एस. सुकथंकर के शानदार प्रयासों से महाभारत के पहले क्रिटिकल एडिशन (विश्वसनीय संस्करण) की रचना हुई। इसे पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट ने प्रकाशित किया। साथी विद्वानों के सहयोग और प्रयासों से सुकथंकर का काम जारी रहा। उन्होंने गणितीय तरीकों का इस्तेमाल सटीक मूललेख तक पहुंचने में किया। एक-एक पर्व को बारीकी से देखा, हर एक श्लोक पर ध्यान दिया। विद्वानों ने पांच दशकों तक 1259 पांडूलिपियों को देखा जिससे सितम्बर 1966 में सम्पूर्ण क्रिटिकल एडिशन जारी कर सके। उससे पहले, मूल ग्रंथ के भारत में अनेक संस्करण थे जिसमें हरेक में अलग-अलग कथानक और वर्णन थे।

क्रिटिकल एडिशन के माध्यम से, सुकथंकर ने शुरुआती श्रोतों से कॉपी की गयी मौजूदा पांडुलिपियों, जिसे विद्वानों ने ‘आदिरूप’ का नाम दिया था, से ग्रहण करके सटीक मूल ग्रन्थ को प्रस्तुत किया।

इस मूल ग्रन्थ में न सिर्फ निर्णायक स्वरूप प्रस्तुत किया — उदाहरण के लिए, इसमें 1995 अद्ध्यायों में 73,569 श्लोक हैं, और साथ में 118 अद्ध्यायों में 6073 श्लोक हैं — बल्कि सभी क्षेत्रीय संस्करणों को भी विशाल वैविध्यपूर्ण आलेखों और अतिरिक्त भागों के विशाल उपकरण के रूप में सुरक्षित रखा।

तब तक अनेक पांडुलिपि खो चुकी थीं, इसलिए क्रिटिकल एडिशन अब महाभारत और उसके द्वारा भारत की बौद्धिक और भौतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। अब सभी उपलब्ध तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इसे हर रूप में सरंक्षित करना चाहिए।

दूसरा, इस मूललेख को संस्कृत से अंग्रेजी में करना था, ताकि इसकी पहुंच विस्तृत हो सके, इसकी आलोचनात्मक परीक्षा हो सके। अनुवाद करने का पहला प्रयास यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो में जे.ए.बी. वैन बुटेनेन ने किया, जिन्होंने 1973 से 1978 के बीच में विराट पर्व तक के पांच संस्करण प्रकाशित किए। और बचा हुआ काम उनके उत्तराधिकारी जेम्स एल. फिट्जगेराल्ड की देखरेख में जारी रहा।

अन्य प्रमुख अनुवाद क्ले संस्कृत लाइब्रेरी की तरफ से आए, जिन्होंने किंजावाडेकर संस्करण का अनुवाद 2006 में शुरू किया लेकिन तीन सालों बाद छोड़ दिया। यह सत्य है कि महाभारत के अनुवाद के सबसे शुरुआती प्रयास कलकत्ता संस्करण ही थे, पहले 1896 में किसारी मोहन गांगुली और उसके बाद 1905 में मन्मथ नाथ गुप्त।

अभी हाल में बिबेक देबरॉय ने सफलतापूर्वक क्रिटिकल एडिशन के सभी वॉल्यूम का अनुवाद किया और उसे आम पाठकों को उपलब्ध कराया। यह एक बहुत बड़ा प्रयास था जिसमें चार सालों का कठोर परिश्रम समाया था और 2014 में पूरा हुआ। और तीसरा, क्रिटिकल एडिशन को आधार मान कर और गहन विद्वता को औजार बना कर, कथानक को दुबारा फ्रेम किया और महाभारत को उस स्थान पर पहुंचाया जहां से वह जुड़ा हुआ है — कहानी का एक कालातीत-निर्बाध प्रवाह जो उसके दुनियावी, नैतिक और पराभौतिक धरातल पर होता है, जिसमें भारतीय अनुभव का हर आयाम समाया हुआ है। महाभारत की व्याख्या के युद्ध में, विश्वा अद्लुरी और जॉयदीप बागची ने गहन अध्ययन से मानव विज्ञान में वैज्ञानिक विधि (2014 में ने साइंस) और महाभारत की व्याख्या के उनके तरीकों और आलेखीय आलोचना (2018 फिलोलॉजी और क्रिटिसिज्म) का उपयोग करते हुए उनकी बौद्धिक स्पष्टता के रूप में मूल्यांकन की अवधारणा को खोज निकाला। इन दोनों पुस्तकों ने मिल कर पश्चिमी विद्वता के उस भेदभाव को उजागर कर दिया जो इसके चारों और प्रभुत्व जमाए हुए था। इसने हमें गहराई से समझने और आगे की खोजबीन के लिए प्रेरित किया।

सुकथंकर का मूललेख, देबरॉय का अनुवाद और अद्लुरी-बागची का उसे प्रतिस्थापित करना — इन उपकरणों ने महाभारत को वापिस स्थापित कर दिया। आधुनिक श्रेणीबद्ध महाभारत में, विचारों और दृष्टिकोणों का एक समर लड़ा जा रहा है, जिसमें एक तरफ प्रबल पश्चिमी और वामपंथी नजरिया है और दूसरी तरह भारतीय परम्परा। काफी जटिल होने के बाद भी सत्य आख़िरकार सामने आ ही जाता है। सुकथंकर मूललेख को समग्रता में सामने लाए, जिसमें बड़ी बारीकी से पांडूलिपि के वंशवृक्ष या मूललेख और उसके अनेक संस्करणों के बीच संबंध की प्रत्येक पंक्ति में तुलना की गयी और परिणामी आलेख को प्रस्तुत किया गया। देबरॉय ने इसे अंग्रेजी पाठकों के लिए उपलब्ध कराया, उसे एक अधिक समकालीन भाषा में पेश करने का कार्य किया। और अंत में, अद्लुरी-बागची ने अपने तर्कों से यह दर्शाया कि भारतीय बौद्धिक परम्परा में अपने ग्रंथों की अपने ढंग से व्याख्या करने के पर्याप्त साधन और ज्ञान है, यह आदि शंकराचार्य के दार्शनिक-तार्किक मार्ग से पूरी तरह साफ़ हो जाता है।

20वीं सदी ने देखा कि महाभारत का ज्ञान भारत से छीन कर पश्चिम को दे दिया गया, और अद्लुरी-बागची फिलोलॉजी और क्रिटिसिज्म में तर्क रखते हुए कहते हैं कि उसके बाद इसकी काट-छांट करके इसका तिरस्कार कर दिया। यहां से दूषित करने के सिद्धांतों, पुनर्निर्माण के विचार, एक विश्वसनीय पांडुलिपि के तर्क का जन्म हुआ।

इस वैचारिक पद्धति ने महाभारत को ब्राहमणवाद के विस्तार के स्तर पर ला दिया था, मूल कथा राज्य के लिए भाइयों के वध से ज्यादा कुछ नहीं रह गयी थी। ऐसा दर्शाया गया जैसे गोरी त्वचा वाले आक्रमणकारी उन काले, कमजोर, बदसूरत, जंगली लोगों के लिए संस्कृति ले कर आए जिन्हें सभ्य बनाने की जरूरत थी। यह स्पष्ट हुआ कि मूललेख कुछ नहीं बस अनेक हाथों की अभिव्यक्ति से कुछ ही ज्यादा है, जिन्होंने उसे तोड़ा-मरोड़ा और आक्रमणकारियों की कहानी का रूप दिया और उसे भारतीय बना दिया।

राजनैतिक रूप से इसने सत्ता और सत्ताशाली उपनिवेशवाद के लिए पूरक का काम किया। जब जाति और धर्म के स्तर पर आया तो यह एक शस्त्र बन गया।

सभ्यताओं के युद्ध में, इस शस्त्र ने उपनिवेश की अपनी प्रतिष्ठा को क्षत-विक्षत करने की कोशिश की और अनेक कल्पनाओं को बंधक बनाने को बढ़ावा दिया। अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया की जीत में यदि बंदूकें और तोपें भौतिक नियंत्रण के औजार थे तो, धर्म से लैस ज्ञान मनोवैज्ञानिक आधिपत्य और सांस्कृतिक इस्तेमाल का माध्यम था। समाज विज्ञान के क्षेत्र में, ज्ञान खास उद्देश्य के लिए नैरेटिव गढ़ने के स्तर पर गिर गया। विद्वान नियंत्रण करने वाले भाड़े के टट्टू बन गए, इसाईयत का प्रचार करने वाले मिशनरीज़ बन गए। इस नैरेटिव से महाभारत को बाहर निकाल कर लाना संभव नहीं होता यदि विद्वता के तीन स्तम्भ नहीं होते — मूललेख, अनुवाद और विश्लेषण — यही अब क्रिटिकल एडिशन के रूप को स्थिरता, अनुवाद को वैश्विक पहुंच और उसके विश्लेषण को भारतीय बौद्धिक संदर्भ दे रहे हैं। उन्होंने हमारे सीखने, अनुभव और इतिहास को उन लोगों के हाथ से वापिस लेने का मौका दिया जिनका ज्ञान प्रश्नों के घेरे में था। उदाहरण के लिए, वेंडी डोनिगेर ने क्रिटिकल एडिशन को “फ्रेंकेंस्टीन का दानव” बताया “जिसे अनेक शरीरों के अवशेषों से जोड़ कर बना दिया गया है” और उसके सम्पादकों को “फ्रेंकेंस्टीन” की संज्ञा दी। दूसरे की वास्तविकता की इस अवमानना में वह अकेली नहीं हैं, बल्कि दूसरे विद्वानों के लिए भी इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विनम्रता का अभाव है। वास्तव में क्रिटिकल एडिशन पूरी तरह से वैज्ञानिक और तार्किक मूललेख है — वह अनेक मूललेखों का मिश्रण नहीं है। यह लेखकीय सटीकता पर पहुंचने के लिए किया गया गणितीय संश्लेषण है। इसने कालातीत अभिव्यक्ति के लिए धार्मिक संदर्भ की रचना की है। इसने यह दर्शाया कि किस तरह महाभारत वास्तव में पांचवा वेद है जिसमें आध्यात्मिकता पृष्ठों में संघनित रूप से समायी है, और इसकी बनावट का एक प्रमुख भाग पहुंच की समानता है। इसने हमें एक ऐसी हैंडबुक दी जिसमें व्यक्ति से राज्य तक, विदेश नीति से रणनीति तक, कर्मकांड से धर्म तक, लोगों के हित से लेकर उन पर कर लगाने तक भारतीय विचार के बारीक भेद को पेश किया गया है। इसने एक दार्शनिक आलेख प्रस्तुत किया जिसमें भारतीय सभ्यता के मूल को कहानी कहने के तरीके से समाहित किया गया है। इस सबसे ऊपर, इसने हमें साहित्यिक ढांचा प्रदान किया जिसके ऊपर चल कर हम खोज-बीन कर सकते हैं और नयी जानकारी उत्पन्न कर सकते हैं। यह अब भारत में महाभारत को संरक्षित करते हुए कथाओं को दुबारा कहते हुए, नॉन-फिक्शन किताबों और पत्र द्वारा, थिएटर, सिनेमा, मास मीडिया द्वारा भारतीय ज्ञान की अदमनीय प्यास को बुझाते हुए आगे बढ़ा जा रहा है। नयी पुनर्घोषणा नए तथ्यों, नए संदर्भों का काम है- भारतीय बौद्धिक परम्परा का शाश्वत सत्य है। हमें परिश्रम की प्रशंसा, मूललेख और राजनीति दोनों को समझने, और अज्ञात का पता लगाने के लिए एक बौद्धिक साहसिक यात्रा पर जाने की जरूरत है। ज्ञान के कुरुक्षेत्र में, भारत ने महाभारत को जीत लिया है, और अपनी सभ्यता पर दुबारा दावा कर लिया है।

आगे की राह इस निश्चय में समायी है कि महाभारत को भारत की मुख्य धारा में लाया जाए — निश्चित रूप से साहित्य में, लेकिन उतना ही राज्यकौशल, विदेश नीति, सैन्य अध्ययन, दर्शन, आर्थिक प्रबंधन, प्रशासन और न्याय में भी। उदाहरण के लिए, रणनीतिक अध्ययन में, हमारे नीति निर्माताओं को राजधर्म पर्व (12वें अध्याय शांति पर्व के भाग) के 4,512 श्लोकों को पढ़ना चाहिए। सैन्य अध्ययन और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के क्षेत्र में पॉलिसी प्रोफेशनल के लिए ये श्लोक जरूरी अध्ययन होना चाहिए। नीति वार्ताओं में, उनको वेद व्यास की महाभारत या चाणक्य की अर्थशास्त्र का उपयोग करने और उद्धरण देने के योग्य होना चाहिए, कम से कम सुन त्सू की आर्ट ऑफ़ वॉर या मैकियावेली की प्रिंस को जितना करते हैं उसका आधा।

नैरेटिव को समुदाय की जरूरत होती है। और समुदाय लोगों से बनते हैं, जो बढ़ते हैं और विकसित होते हैं। भारत की नयी और युवा जनसांख्यिकी को महाभारत से सीखने और भूराजनैतिक रणनीतियों से चतुर्थ औद्योगिक क्रांति में काम के भविष्य तक के आज के सवालों पर लागू करने की जरूरत है। इन सबके महाभारत में गहरे, स्थायी और सशक्त उत्तर हैं। ‘नए भारत’ की कोई भी बात महाभारत के गहन अध्ययन के बगैर पूरी नहीं हो सकती। यह एक ऐसा शाश्वत ग्रन्थ है जो देश की पूर्वनिश्चित 21वीं सदी की अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा है।

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