Author : Aditi Ratho

Published on Jan 28, 2021 Updated 0 Hours ago

इस उथल-पुथल के लिए कई तरह के कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है जैसे राष्ट्र राज्यों में सामाजिक सुरक्षा की कमी, दूसरे देशों में फंसे हुए कामगारों का उन देशों और शहरों में न लौट पाना जहां उन के लिए रोज़गार के अवसर हैं.

रोज़गार सृजन और नौकरियों में सुरक्षा व समानता: कोविड-19 महामारी से मिले सबक

कोविड-19 की महामारी ने दुनिया भर में व्यापक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक उथल पुथल मचा दी है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अनुमान के मुताबिक इस के चलते, अनौपचारिक व असंगठित अर्थव्यवस्था क्षेत्र से जुड़े 1.6 बिलियन कामगार “बड़े पैमाने पर नुकसान झेल सकते हैं,” और अकेले एशिया प्रशांत क्षेत्र में अब तक 81 मिलियन से अधिक नौकरियां जा चुकी हैं. इस उथल-पुथल के लिए कई तरह के कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है जैसे राष्ट्र राज्यों में सामाजिक सुरक्षा की कमी, दूसरे देशों में फंसे हुए कामगारों का उन देशों और शहरों में न लौट पाना जहां उन के लिए रोज़गार के अवसर हैं. इस के अलावा महामारी के चलते डिजिटल क्षेत्र में पैदा हुए नए अवसरों को लेकर इन कामगारों में कौशल की कमी ने भी श्रम क्षेत्र में असमानताएं पैदा की हैं. भारत में स्थिति विशेष रूप से गंभीर है जो “इंडोनेशिया के बाद ऐसी दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जहां तेज़ी से डिजिटलीकरण हो रहा है.” विशुद्ध रूप से देखे तों डिजिटलीकरण व्यापक रूप से फैला है, और हर क्षेत्र में इस के ज़रिए बदलाव सामने आ रहे हैं, लेकिन सामाजिक स्तर पर इसने केवल एक तरह के उपयोगकर्ताओं यानी समाज की सतह को ही सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है. मौजूदा डिजिटल क्रांति के अंतर्गत, उपयोगकर्ताओं की संख्य़ा में बढ़ोत्तरी हो सकती है, लेकिन यह वृद्धि न्यायसंगत नहीं है. डिजिटल क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के साथ, शिक्षा में निवेश और कौशल व प्रशिक्षण के ज़रिए, अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के कामगारों को औपचारिक रूप से व एक निर्धारित लक्ष्य के तहत, नए अवसरों के लिए तैयार करना इस समय की ज़रूरत है. इस के ज़रिए ही समाज व आर्थिक क्षेत्र के एक बड़े तबक़े को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जा सकती है.

.कोविड-19 के संकट ने हमारे सामने एक ऐसा सामाजिक व्यवधान पैदा किया है, जो भले ही असहज है, लेकिन वह डिजिटल क्रांति के साथ हमारे भविष्य का सटीक पूर्वावलोकन करता है. यह हमें बताता है कि तकनीक हमारे भविष्य में किस तरह हस्तक्षेप करेगी और हमारे भविष्य को किस रूप में बदलेगी. 

कोविड-19 के संकट ने हमारे सामने एक ऐसा सामाजिक व्यवधान पैदा किया है, जो भले ही असहज है, लेकिन वह डिजिटल क्रांति के साथ हमारे भविष्य का सटीक पूर्वावलोकन करता है. यह हमें बताता है कि तकनीक हमारे भविष्य में किस तरह हस्तक्षेप करेगी और हमारे भविष्य को किस रूप में बदलेगी. इस परिप्रेक्ष्य में यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले आठ साल के सब से उच्च स्तर पर है. साल 2018 के श्रम बल सर्वेक्षण में शहरी पुरुषों के बीच बेरोज़गारी की दर को 7.1 प्रतिशत आंका गया और शहरी महिलाओं के लिए यह 10.8 प्रतिशत रही. इस तरह शहरी पुरुषों की श्रेणी में इसमें 3 प्रतिशत का उछाल देखा गया है और शहरी महिलाओं के बीच, 5.3 प्रतिशत का उछाल सामने आया है. इन आंकड़ों से पता चलता है कि वर्तमान में रोज़गार बढ़ाने के तंत्र और अवसर, बदलते हालात और नए तरह के रोज़गार बाज़ार के अनुरूप नहीं हैं. मौजूदा शैक्षणिक कोर्स व प्रशिक्षण मॉड्यूल में उन बदलावों पर ध्यान नहीं देते हैं जिनके माध्यम से ऐसे पाठ्यक्रम बनाए जा सकें जो लोगों को नए किस्म के बाज़ार व नई चुनौतियों के लिए तैयार करें. ऐसे में यह ज़रूरी है कि संसाधनों को ऐसी जगह न लगाया जाए, जहां से कोई नतीजा मिलना मुश्किल है. इसके बजाय, हमारा ध्यान और हमारे संसाधन, इस तरह के शैक्षणिक कोर्स व प्रशिक्षण मॉड्यूल तैयार करने की ओर होना चाहिए, जो लिंग-भेद पर आधारित न होकर श्रम बल का संतुलन पैदा करें, और सभी के लिए समान अवसर पैदा करें. जिनके ज़रिए हम कुशल पेशेवरों की एक ऐसी नई पीढ़ी तैयार कर सकें जो चौथी औद्योगिक क्रांति की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो. 

वैश्विक रूप से लैंगिक अंतर से संबंधित रैंकिंग (global gender gap rankings) में भारत दक्षिण एशिया में चौथे स्थान पर है. यह रैंकिग यह दिखाती है कि किन देशों ने शिक्षा से लेकर महिलाओं के रोज़गार तक, कई स्तरों पर लिंगभेद और लिंग अंतराल को पाटने की दिशा में सफलता हासिल की है. 

श्रमिकों की एक नई पीढ़ी को तैयार करना हमेशा एक कठिन काम होता है. सेवाओं और आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) क्षेत्र में भारत की बढ़ती हिस्सेदारी को सही विकास मॉडल पर आधारित नहीं किए जाने और अपनी संपूर्ण जनसंख्य़ा को समग्र रूप से इसके लिए शिक्षित व कुशल बनाए बग़ैर इस मॉडल को अपनाए जाने का नतीज़ा यह रहा है कि भारत में आईटी क्रांति ने गहरी किस्म की आर्थिक असमानता पैदा की है. उदाहरण के लिए, जबकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में आईटी और सेवा क्षेत्र का योगदान 60 प्रतिशत से अधिक है, कार्यबल में इसकी हिस्सेदारी केवल 25 प्रतिशत है. यह अनुमान लगाया जाता है कि भारत में 2023 तक 800 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता होंगे. हालांकि, केवल 29 प्रतिशत महिलाओं के पास इंटरनेट तक पहुंच है. यह भी अनुमान है कि भारत में साल 2030  तक लगभग 12 मिलियन महिलाएं स्वचालन यानी ऑटोमेशन के चलते अपनी नौकरियां खो देंगी. ग्लोबल सिस्टम्स फॉर मोबाइल कम्यूनिकेशन एसोसिएशन (Global Systems for Mobile Communications Association) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 35 प्रतिशत महिलाओं और 26 प्रतिशत पुरुषों ने कहा कि उनके पास इंटरनेट से संबंधित ज्ञान और जानकारी की कमी है, और वह इसे एक बाधा के रूप में देखते हैं. डिजिटल क्षेत्र में बढ़ते अवसर व नौकरियां अर्थव्यवस्था की प्रकृति को बदलने, उसे समृद्ध बनाने और लाभांश बढ़ाने की क्षमता रखते हैं, लेकिन यह लाभ देश के सभी तबक़ों और प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए. इसलिए, समग्र विकास और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों को सीधे तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए. इसके बजाय, देशों को नीचे से उपर की ओर बढ़ने वाले विकास मॉडल और तौर तरीक़ों को अपनाना चाहिए और शिक्षा व कौशल क्षेत्र में प्रणालियों को इस तरह एकीकृत करना चाहिए कि वह समान अवसर पैदा करने और लोगों को नई नौकरियों की ओर क़दम बढ़ाने में मदद करें. यह वह रणनीति है जिस से महामारी जैसे आर्थिक संकट के दौरान होने वाली बेरोज़गारी से लोगों को बचाया जा सके.

समान अवसर व प्रतिनिधित्व से होगा आर्थिक सुधार

जिन देशों ने महामारी के शुरुआती दिनों में ही, बेरोज़गार लोगों और प्रवासी श्रमिकों की तात्कालिक चिंताओं को ध्यान में रखते हुए और आबादी के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े के लिए पुनर्वास व आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की, वह यह मानते थे कि आर्थिक स्थिति को बहाल करना और बेरोज़गार व आर्थिक रूप से असुरक्षित लोगों को सुरक्षा प्रदान करना उन की पहली प्राथमिकता है. यह ज़रूरी है कि इन प्रक्रियाओं के तहत, लिंगभेद को नकारने वाली और लिंग समानता के आधार पर निर्णय लेने वाली प्रक्रियाओं को शामिल किया जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह लाभ पुरुषों और महिलाओं तक समान रूप से पहुंचेंगे और इनके वितरण में लिंग समानता होगी. महामारी के चलते पैदा हुई नकारात्मक स्थितियों से निपटने के लिए बनाए गए टास्क फोर्स में पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी और उनका प्रतिनिधित्व, संतुलित होना चाहिए. इस आधार पर सभी संस्थानों में जिनमें सरकारी विभाग भी शामिल हों, जेंडर ऑडिट को एक नियम के रूप में लागू किया जाना चाहिए ताकि इस बात का आकलन किया जा सके कि काम करने की इन जगहों पर लिंग भेद और निर्णय लेने वालों के स्तर में क्या अंतर हैं. इसके ज़रिए यह बात भी सामने आएगी कि लिंग संतुलन, क्या नीतिगत फ़ैसलों व सेवाओं के वितरण में भी संतुलन पैदा कर सकता है.

वैश्विक रूप से लैंगिक अंतर से संबंधित रैंकिंग (global gender gap rankings) में भारत दक्षिण एशिया में चौथे स्थान पर है. यह रैंकिग यह दिखाती है कि किन देशों ने शिक्षा से लेकर महिलाओं के रोज़गार तक, कई स्तरों पर लिंगभेद और लिंग अंतराल को पाटने की दिशा में सफलता हासिल की है. 

वैश्विक रूप से लैंगिक अंतर से संबंधित रैंकिंग (global gender gap rankings) में भारत दक्षिण एशिया में चौथे स्थान पर है. यह रैंकिग यह दिखाती है कि किन देशों ने शिक्षा से लेकर महिलाओं के रोज़गार तक, कई स्तरों पर लिंगभेद और लिंग अंतराल को पाटने की दिशा में सफलता हासिल की है. इस मायने में भारत बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका के साथ-साथ 20 उप-सहारा देशों से भी पीछे है. ये रैंकिंग कोविड-19 से पहले की है और ऐसे में जहां सभी देशों की अर्थव्यवस्था को महामारी ने प्रभावित किया है, वहीं अलग-अलग देशों को अपने-अपने स्तर पर रोज़गार और लिंग समानता के क्षेत्र में चुनौतियों को संबोधित करना होगा और श्रम शक्ति को समन्वित करने की दिशा में ठोस क़दम उठाने होंगे.  

महामारी ने कुछ क्षेत्रों में संकट को और गहराया है

रियल एस्टेट सेक्टर, और इसके परिणामस्वरूप निर्माण कार्यों से जुड़ी नौकरियों पर महामारी से पहले भी संकट मंडरा रहा था. प्रॉपर्टी डेवलपर्स के पास ऋण का अंबार है और इसलिए उन्हें नई परियोजनाओं के लिए और धन व वित्तपोषण नहीं मिल पा रहा है. मुंबई जैसे शहरों में अधिकांश प्रवासी श्रमिक निर्माण क्षेत्र पर आधारित हैं, जिसका मतलब है कि न केवल इन लोगों ने लगातार अपनी नौकरियां खो दी हैं, बल्कि महामारी से पैदा हुए गहरे आर्थिक तनाव के बाद उन्हें नए क्षेत्रों में पुनर्वासित किए जाने की जल्द से जल्द ज़रूरत है. अगले कुछ सालों का एक बड़ा हिस्सा स्वदेश प्रत्यावर्तन में बीतने की संभावना की है. ऐसे में भविष्य में महामारी के प्रबंधन और कम कुशल श्रमिकों के लिए रोज़गार क्षेत्र में आने वाली मुश्किलों से निपटने के लिए एक अधिक लचीला दृष्टिकोण चाहिए. उथल-पुथल के इस दौर में कम कुशलता वाली नौकरियों की निश्चित संख्य़ा और उनके प्रकारों की पहचान करना ज़रूरी है, ताकि इस के आधार पर आकस्मिक योजनाएं बनाई जा सकें जो कम कुशल श्रमिकों को नई नौकरियों के लिए तैयार कर सकें और उन्हें उचित कौशल प्रदान कर सकें. मौजूदा केंद्रों का उपयोग ऐसे पाठ्यक्रमों के लिए किया जा सकता है, जो इस तरह के नए हुनर सिखाएं जो इन नई नौकरियों के लिए ज़रूरी हैं. आपात स्थितियों में इन पाठ्यक्रमों को त्वरित रूप से लागू किया जा सकता है.

डिजिटल अर्थव्यवस्था की क्षमताओं और संभावनाओं का लाभ उठाने और उस के ज़रिए पैदा होने वाले व्यापक व औपचारिक रोज़गार के अवसरों के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा से संबंधित नीतियों को बेहतर ढंग से संरचित किया जा सकता है. साथ ही इस बात को भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि औपचारिक रोज़गार के अवसरों को समान रूप से लोगों तक पहुंचाया जाए. हालांकि, भारत जैसे देशों के लिए यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है कि इस नए क्षेत्र में विकास के माध्यम से उन क्षेत्रों में बेरोज़गार हुए लोगों के लिए भी अवसर पैदा हों जिनमें महामारी के प्रभाव के चलते रोज़गार घटा है. अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो श्रमिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा महामारी से संबंधित बेरोज़गारी के आंकड़ों का हिस्सा बना रहेगा और इस वर्ग में असमानताएं और बढ़ेंगी.


 ये लेख — कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.

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