Author : Saaransh Mishra

Published on Nov 12, 2021 Updated 0 Hours ago

रूस में हाल के चुनावों ने संकेत दिया है कि लोकप्रियता की रेटिंग में थोड़ी गिरावट के बावजूद यूनाइटेड पार्टी को अभी भी भारी समर्थन हासिल है.

रूस: 2024 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले सत्ता पर पुतिन की मज़बूत पकड़
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17-19 सितंबर के बीच हुए ताज़ा चुनावों में यूनाइटेड रशिया ने संसद के निचले सदन डूमा में बहुमत हासिल किया. पुतिन के समर्थन वाली पार्टी, जिसने अभी तक सभी राष्ट्रव्यापी चुनाव में जीत हासिल की है, को 49.82 प्रतिशत वोट मिले जो 126 सीटों के बराबर है. इसके अलावा पार्टी के 198 उम्मीदवारों ने इकलौते जनादेश वाले क्षेत्रों में जीत हासिल की. इस तरह कुल 450 सीटों में से पार्टी ने 324 सीटों पर जीत दर्ज कर संवैधानिक बहुमत हासिल किया.

डूमा में प्रतिनिधित्व हासिल करने वाले दूसरे दलों में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ रशियन फेडरेशन (केपीआरएफ), लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ रशिया (एलडीपीआर), अ जस्ट रशिया फॉर ट्रूथ और हाल ही में बनी पार्टी न्यू पीपुल शामिल हैं. लेकिन अ जस्ट रशिया और एलडीपीआर ने अक्सर सरकार के साथ तालमेल बनाकर काम किया है और केपीआरएफ ने भी कोई ख़ास ढंग से सरकार को चुनौती नहीं दी है. इसलिए कुछ जानकार मानते हैं कि मौजूदा नतीजे वास्तव में डूमा के भीतर सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष की कमज़ोर आवाज़ है.

ये अभी निश्चित नहीं है कि क्या 2024 का चुनाव पुतिन लड़ेंगे, अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करेंगे या एक अलग रणनीति अपनाएंगे. ऐसे में एक साथ देने वाली संसद अगले राष्ट्रपति- वो चाहे पुतिन हों या कोई और- को सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण में मदद कर सकती है.

ये नतीजे 2024 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले रूस की राजनीति के संदर्भ में और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन के अलग-अलग आरोपों के बीच पुतिन ने चुनावों को ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ बताते हुए इसकी तारीफ़ की और कहा कि ये चुनाव ‘क़ानून के मुताबिक़ सख़्ती’ से हुए. ये अभी निश्चित नहीं है कि क्या 2024 का चुनाव पुतिन लड़ेंगे, अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करेंगे या एक अलग रणनीति अपनाएंगे. ऐसे में एक साथ देने वाली संसद अगले राष्ट्रपति- वो चाहे पुतिन हों या कोई और- को सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण में मदद कर सकती है. संसद में यूनाइटेड रशिया के बहुमत ने विवादास्पद संवैधानिक बदलाव को लागू करने में मदद की थी जिसकी वजह से राष्ट्रपति के रूप में पुतिन के पिछले कार्यकालों को अमान्य घोषित कर दिया गया था. इससे उन्हें 2024 से 2036 तक दो और कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ने की स्वीकृति मिली.

पुतीन की लोकप्रियता गिरी

वैसे तो चुनाव से पहले यूनाइटेड रशिया की जीत को लेकर कोई शक नहीं था लेकिन देश की आर्थिक स्थिति, ख़राब जीवन स्तर और भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से पार्टी और राष्ट्रपति पुतिन की लोकप्रियता पर असर पड़ा था. इन कारणों की वजह से 300 सीटों से ज़्यादा जीतकर संवैधानिक बहुमत हासिल करने की योजना ख़तरे में पड़ सकती थी. वास्तव में पुतिन की लोकप्रियता की रेटिंग गिरकर दो दशकों में सबसे कम हो गई थी, अप्रैल 2020 में इसने 59 प्रतिशत को छू लिया था. इसके अलावा लेवादा सेंटर के फरवरी के सर्वे में दिखाया गया कि 18-24 उम्र के लोगों में सिर्फ़ 31 प्रतिशत चाहते हैं कि पुतिन एक और कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति बनें जबकि 57 प्रतिशत ने पुतिन के राष्ट्रपति बनने का विरोध किया. 25-39 के उम्र वर्ग में सिर्फ़ 39 प्रतिशत ने पुतिन के एक और कार्यकाल का समर्थन किया जबकि 51 प्रतिशत लोग एक और कार्यकाल के ख़िलाफ़ थे. हालांकि ये सभी आंकड़े अभी भी ऊंचे स्तर पर हैं लेकिन पुतिन को अपने पूरे कार्यकाल के दौरान आम तौर पर इससे काफ़ी ज़्यादा समर्थन मिला है.

हाल के महीनों में सर्वे ने ये भी संकेत दिया है कि जवाब देने वाले 30 प्रतिशत से कम लोग  यूनाइटेड रशिया को वोट देना चाहते हैं. ये 2016 में डूमा के आख़िरी चुनाव के दौरान इसी तरह के सर्वे के 45 प्रतिशत के आंकड़े से कम हैं. लेकिन जब नतीजे आए तो पार्टी को 50 प्रतिशत के क़रीब वोट मिले जिसकी वजह से चुनावी धांधली के व्यापक आरोप लगे. चुनाव के बाद वोट की निगरानी करने वाले स्वतंत्र समूह गोलोस ने बताया कि उसे वोटिंग में गड़बड़ी की क़रीब 5,000 घटनाओं की जानकारी मिली. इनमें देश भर के अलग-अलग मतदान केंद्रों से बड़ी संख्या में वीडियो दिखे जिनसे पता चलता है कि खुल्लम-खुल्ला बैलट बॉक्स में मतपत्र ठूंसा गया. साथ ही ‘धमकाने और दबाव बनाने’ के आरोप, ऑनलाइन वोटिंग में चालबाज़ी, इत्यादि घटनाएं हुई.

हाल के महीनों में सर्वे ने ये भी संकेत दिया है कि जवाब देने वाले 30 प्रतिशत से कम लोग  यूनाइटेड रशिया को वोट देना चाहते हैं. ये 2016 में डूमा के आख़िरी चुनाव के दौरान इसी तरह के सर्वे के 45 प्रतिशत के आंकड़े से कम हैं.

इसके अलावा चुनाव से कुछ महीने पहले विपक्ष के कई नेताओं ने या तो देश छोड़ दिया या उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया गया. पुतिन के सबसे बड़े आलोचक एलेक्सी नेवलनी, जिनका नर्व-एजेंट ज़हर के लिए जर्मनी में इलाज चल रहा है, को परोल की शर्तों के उल्लंघन के आरोप में जनवरी में जेल भेज दिया गया. नेवलनी को वित्तीय अपराध के एक मामले में सज़ा दी गई थी. नेवलनी के संगठन एंटी करप्शन फाउंडेशन (एफबीके) को रूस की एक अदालत के द्वारा ‘चरमपंथी’ संगठन भी बताया गया था और इसलिए उनके सहयोगी भी चुनाव नहीं लड़ सके. पुतिन के एक मुखर आलोचक और नेवलनी के क़रीबी सहयोगी इल्या याशिन ने कहा कि नेवलनी को समर्थन देने की वजह से उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है. ख़बरों के मुताबिक़ नेवलनी की प्रमुख सहयोगी ल्यूबोव सोबोल ने रूस छोड़ दिया. सोबोल ने इस सर्दी के मौसम में नेवलनी के समर्थन में रैलियों का आह्वान किया था जिसकी वजह से उन्हें कोरोना वायरस के नियमों के उल्लंघन के लिए भड़काने के मामले में दोषी ठहराते हुए 1.5 साल की ‘सीमित स्वतंत्रता’ की सज़ा सुनाई गई थी.

चुनाव अधिकारियों ने ये कहते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के पावेल को चुनाव लड़ने से रोक दिया कि उनकी संपत्तियां विदेशों में है. वहीं याबोलोको पार्टी के लेव श्लोसबर्ग को भी एंटी करप्शन फाउंडेशन के साथ उनके संबंधों की वजह से अयोग्य करार दिया गया. दूसरे नेताओं जैसे पूर्व सांसद दिमित्री गुडकोव, जो भागकर बुल्गारिया चले गए, और वायोलेट्टा ग्रुडिना, जो नेवलनी के संगठन की मरमंस्क शाखा चलाती थीं, ने भी सरकार पर धमकाने का आरोप लगाया जिसकी वजह से उन्हें चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं मिली.

स्वतंत्र मीडिया और सिविल सोसायटी पर हमले

सरकार ने पत्रकारों, स्वतंत्र मीडिया और सिविल सोसायटी पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए व्यापक क़दम उठाए हैं. इसके तहत कई पत्रकारों और सिविल सोसायटी से जुड़े लोगों को ‘विदेशी एजेंट’ घोषित कर दिया गया है. इसके कारण सत्ता के ख़िलाफ़ स्वतंत्र होकर लिखने की उनकी क्षमता बाधित हुई है. सरकारी आदेशों का पालन करने में नाकामी की स्थिति में न सिर्फ़ उन्हें विदेशी एजेंट घोषित किया जा सकता है बल्कि उन पर भारी जुर्माना भी लगाया जा सकता है और जेल भी भेजा जा सकता है जैसे कि रेडियो फ्री यूरोप/रेडियो लिबर्टी पर के द्वारा अपने कंटेंट पर लेबल नहीं लगाने पर 30 लाख अमेरिकी डॉलर का जुर्माना लगाया गया. इस सख़्ती की वजह से कई मीडिया संगठनों को मजबूर होकर अपना काम-काज बंद करना पड़ा जैसे कि स्वतंत्र कारोबारी समाचार वेबसाइट वीटाइम्स जो जून में बंद हो गया. काम बंद करते समय इस वेबसाइट ने कहा कि विदेशी एजेंट का लेबल लगने की वजह से उसका बिज़नेस मॉडल ठप हो गया.

असहमति के ख़िलाफ़ कठोर नीति के इर्द-गिर्द काम करते हुए विपक्ष की आवाज़ को संसद में भेजने के लिए सरकार के आलोचक एलेक्सी नेवलनी और उनके कुछ सहयोगियों ने एक ‘स्मार्ट वोटिंग’ की रणनीति विकसित की ताकि रूस के 225 में से हर ज़िले में विपक्षी विचारधारा का समर्थन करने वाले मतदाताओं को यूनाइटेड रशिया के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले एक ख़ास उम्मीदवार के पक्ष में एकजुट किया जा सके चाहे वो उम्मीदवार उदारवादी हो, राष्ट्रवादी या स्टालिन को मानने वाला. नेवलनी के सहयोगियों में से एक रुसलान शेवदिनोव ने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा कि ऐसा करके ज़्यादा-से-ज़्यादा सरकार से नामंज़ूर राजनेताओं, जिनमें क्षेत्रीय नेता भी शामिल हैं, को संसद भेजने का विचार था ताकि सरकारी सिस्टम में कुछ हलचल पैदा किया जा सके. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक ऐप भी विकसित किया गया लेकिन चुनाव से कुछ दिन पहले एप्पल और गूगल ने इसे हटा दिया क्योंकि रूस की सरकार ने दावा किया कि चुनाव की प्रक्रिया में ऐप का हस्तक्षेप इसे अवैध बनाता है और इसे आधार बनाकर एप्पल और गूगल के स्थानीय कर्मचारियों के ख़िलाफ़ कथित रूप से मुक़दमा चलाने की धमकी दी गई.

इस सख़्ती की वजह से कई मीडिया संगठनों को मजबूर होकर अपना काम-काज बंद करना पड़ा जैसे कि स्वतंत्र कारोबारी समाचार वेबसाइट वीटाइम्स जो जून में बंद हो गया. काम बंद करते समय इस वेबसाइट ने कहा कि विदेशी एजेंट का लेबल लगने की वजह से उसका बिज़नेस मॉडल ठप हो गया.

इन चुनावों में अनगिनत आरोप लगने के बावजूद रूस की सरकार के लिए बड़ी राहत की बात ये  रही कि 2011 के मुक़ाबले लोगों की प्रतिक्रिया में ज़मीन-आसमान का अंतर था. ख़बरों के मुताबिक़ तब हज़ारों लोगों ने संसदीय चुनाव में कथित धांधली के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया और फिर से चुनाव कराने की मांग की. लेकिन हाल के चुनावों के बाद उस समय के मुक़ाबले प्रदर्शन बेहद फीका रहा. इसकी कई वजहें हो सकती हैं. पहली वजह 17 साल में सबसे ज़्यादा राजनीतिक उदासीनता का होना है जैसा कि ताज़ा सर्वे से संकेत मिलता है. इसके अलावा सरकार के ख़िलाफ़ अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग विरोध की लहरों के दौरान हज़ारों प्रदर्शनकारियों को कथित रूप से हिरासत में लिया जाना भी है. सबसे ताज़ा मामला अप्रैल 2021 का है जब नेवलनी की जेल से रिहाई की मांग को लेकर प्रदर्शन हुए थे. कथित रूप से बेहद सुनसान सैन्य चौकियों में ले जाकर सेना में ज़बरन भर्ती की रणनीति का इस्तेमाल भी असहमति को शांत करने के लिए किया गया है.

व्यापक पैमाने पर देखें तो ये छोटी गिरावट है और इसकी वजह से बहुत ज़्यादा चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. ख़ास तौर पर संसदीय बहुमत को देखते हुए जो क़ानून को पारित करना आसान बनाता है.

ये ध्यान देने योग्य है कि 2016 के 54 प्रतिशत वोट और 343 सीट के मुक़ाबले 2021 में यूनाइटेड रशिया का वोट शेयर गिरकर क़रीब 50 प्रतिशत और सीटें 324 रह गईं. वहीं केपीआरएफ ने महत्वपूर्ण रूप से अपना वोट शेयर 13 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर लिया जबकि सीटें 35 से बढ़कर 48 हो गईं. लेकिन व्यापक पैमाने पर देखें तो ये छोटी गिरावट है और इसकी वजह से बहुत ज़्यादा चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. ख़ास तौर पर संसदीय बहुमत को देखते हुए जो क़ानून को पारित करना आसान बनाता है. इसके साथ राजनीतिक उदासीनता और डर को जोड़ दीजिए जिसकी वजह से सरकार को प्रदर्शनकारी आबादी से बहुत ज़्यादा दबाव का सामना नहीं करना पड़ता है. इस प्रकार नतीजे को सरकार के पक्ष में माना जा सकता है. फिलहाल जो चीज़ें दिख रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि यूनाइटेड रशिया और पुतिन अगले राष्ट्रपति चुनाव से पहले सत्ता पर मज़बूत पकड़ बनाने में कामयाब रहे हैं.

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