2020 से बदलते क्षेत्रीय शक्ति के समीकरण ने आर्मीनिया, जो कि अपनी कमज़ोरी को दूर करने की कोशिश कर रहा है, के सुरक्षा विकल्पों पर असर डाला है. स्वतंत्रता के समय से घरेलू राजनीति, अनसुलझे संघर्षों और सुरक्षा में कमी के लिए रूस के ‘एकाधिकार’ ने आर्मीनिया के गठबंधन की राह को बहुपक्षीय साझेदारी और ‘प्रतिरक्षा’ वाले गठबंधन की ओर मोड़ा है. सामरिक विश्लेषण के इस संदर्भ में ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया कॉरिडोर भारत, रूस, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन (EU) और चीन के लिए एक महत्वपूर्ण भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक धुरी है. यहां भारत-आर्मीनिया की रणनीतिक साझेदारी हिंद महासागर को काला सागर (ब्लैक सी) यानी भारत को यूरोप के साथ जोड़ने में एक भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक रास्ता तैयार कर सकती है.
भारतीय उपमहाद्वीप और आर्मीनियाई पहाड़ों (हाईलैंड) के बीच संपर्क 4,000 साल पुराना इतिहास है जो भाषा, संस्कृति, विरासत और आर्थिक व्यापार के आकर्षण के ज़रिए बना हुआ है.
इस संदर्भ में भौगोलिक क्षेत्र पर राजनीतिक नियंत्रण के अलावा 21वीं सदी की भू-राजनीति वैश्विक आर्थिक परस्पर निर्भरता, डिजिटल संचार और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से प्रभावित होती है जिन्होंने पारंपरिक भू-राजनीति के भौगोलिक और भूभौतिकीय (जियोफिज़िकल) सीमाओं को चुनौती दी है और पारंपरिक सीमाओं के आगे शक्ति प्रक्षेपण (पावर प्रोजेक्शन) की संभावनाओं का विस्तार किया है. इसलिए यूरेशियाई भू-राजनीति की लंबे समय से प्रशंसित मैकिंडर (ब्रिटिश विद्वान और राजनेता) की धारणा यानी भू-राजनीतिक वास्तविकताओं पर असर के मुख्य आधार के रूप में “हार्टलैंड” का महत्व AI तकनीकों की वजह से बदल रहा है. ये यूरोप एवं चीन, यूरोप एवं भारत और रूस एवं भारत के बीच रणनीतिक पुल के रूप में दक्षिण कॉकेशस के वर्तमान उदय के साथ जुड़ा हुआ है. इस संबंध में सबसे व्यावहारिक राष्ट्र वो होंगे जिनकी महत्वपूर्ण पहुंच बड़े सागरों और ज़मीनी व्यापार के रास्तों के साथ-साथ साइबर स्पेस तक होगी. इस तरह 21वीं सदी की भू-राजनीति की संभावित धारणा समुद्री शक्ति, ज़मीनी शक्ति, AI शक्ति और आर्थिक संपर्क की संकल्पनाओं को जोड़ती है. इस महत्वपूर्ण मोड़ पर अलग-अलग देश स्थानीय साझेदारियों की तुलना में वैश्विक और अंतर-क्षेत्रीय साझेदारी के आधार पर सीमा पार के दृष्टिकोणों के साथ जुड़ते हैं.
साझा इतिहास
भारतीय उपमहाद्वीप और आर्मीनियाई पहाड़ों (हाईलैंड) के बीच संपर्क 4,000 साल पुराना इतिहास है जो भाषा, संस्कृति, विरासत और आर्थिक व्यापार के आकर्षण के ज़रिए बना हुआ है. ऐतिहासिक रूप से दक्षिण कॉकेशस पश्चिम एवं पूर्व और उत्तर एवं दक्षिण के चौराहे पर है जो कि अलग-अलग सभ्यताओं के लिए संघर्ष का क्षेत्र और विभिन्न महाशक्तियों के मिलने की जगह है. उभरते विश्व के सभ्यतागत उदाहरण का प्रमाण भारत, खाड़ी के अरबी देशों और ईरान से मिलता है जो पश्चिमी देशों की तरह बने बिना आधुनिक समाज बन गए हैं. इसका प्रमाण अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर असर डालने के लिए भारत के साथ गठजोड़ की ईरान की अपील से मिलता है. क्षेत्रीय सुरक्षा परिसर (कॉम्प्लेक्स) के सिद्धांत के अनुसार सुरक्षा क्षेत्रों के बीच की सीमाएं कमज़ोर बातचीत के क्षेत्र हैं और ये सामान्य तौर पर भूगोल से निर्धारित होती हैं. वहीं सुरक्षा क्षेत्र में उप-प्रणालियां शामिल होती हैं जिनमें अधिकतर सुरक्षा बातचीत आंतरिक होती है. इस तरह देश अपने पड़ोसियों से डरते हैं और दूसरे क्षेत्रीय किरदारों के साथ गठजोड़ करते हैं.
चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के परिणाम स्वरूप उभरते जटिल एकीकरण और सहयोग के मामलों में अपना दावा पेश करने के लिए भारत नई सीमाएं तय कर रहा है, विशेष रूप से चीन के जवाब के रूप में. तेल एवं गैस में अमेरिका की बढ़ती स्वतंत्रता को देखते हुए यूरोप को तेल एवं गैस प्रदान करने में रूस की मुख्य भूमिका को चुनौती मिल रही है. इसकी वजह से रूस चीन के करीब जा रहा है और इसलिए वो चीन की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का समर्थन कर रहा है. इस क्षेत्र से बेहद ज़रूरी संसाधनों को सुरक्षित करने में चीन के भू-राजनीतिक लाभों के उलट ईरान और खाड़ी के देशों से समुद्री रूट पर निर्भरता के कारण भारत कमज़ोर बना हुआ है. पेट्रोलियम के स्रोतों को बनाए रखने की भारत की आवश्यकता, जिस पर उसके विकास से जुड़े लक्ष्य टिके हुए हैं, का नतीजा गतिशील जवाबी संतुलन की उसकी कोशिशों के रूप में निकला है जो उसकी ‘लिंक वेस्ट’ नीति (भारत के पश्चिमी पड़ोसियों ख़ास तौर पर फारस की खाड़ी के देशों से संबंध मज़बूत करने की कोशिश) से स्पष्ट है. अंतर्राष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर, जो कि ईरान में चाबाहार पोर्ट के विकास में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका से जुड़ी हुई है, को भारत के सामरिक लक्ष्यों में गेम-चेंजर के तौर पर देखा जा रहा है. भू-रणनीतिक संदर्भ में देखें तो ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया कॉरिडोर में भारत और EU के लिए एक महत्वपूर्ण भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक धुरी बनने की क्षमता है.
मौजूदा समय में यूरेशिया की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक छवि एक तेज़ और मूलभूत परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है. 16वीं शताब्दी की शुरुआत के समय से पहली बार वैश्विक आर्थिक शक्ति का सबसे बड़ा जमावड़ा न तो यूरोप, न ही अमेरिका में बल्कि एशिया में मिलेगा.
इसलिए भारत-आर्मीनिया के बीच सामरिक साझेदारी का उदय एक उभरती क्षेत्रीय महाशक्ति के द्वारा महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक क्षेत्रीय संदर्भों के भीतर अपने सामरिक उद्देश्यों को बढ़ाने के लिए एक छोटी ताकत के साथ गठजोड़ का एक उदाहरण पेश करता है. उथल-पुथल वाले पड़ोस में एक छोटा सा देश आर्मीनिया और उभरती वैश्विक शक्ति भारत एक-दूसरे के हितों को पूरा करने और दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संबंधों और उनके आपसी भू-सामरिक लाभों पर विचार करते हुए सामरिक साझेदारी को बढ़ाने का रास्ता तैयार करने की प्रक्रिया में हैं.
यूरेशिया में राजनीतिक बदलाव
यूरेशिया के भव्य और भू-राजनीतिक तौर पर अस्थिर क्षेत्र में एक बहुत बड़ी अनिश्चितता को अब प्रतिस्पर्धी भू-राजनीतिक परियोजनाओं से भरा जा रहा है. इनमें रूस की यूरेशियाई एकीकरण परियोजना, चीन की BRI और भारत की साउथ-नॉर्थ पहल शामिल हैं. मौजूदा समय में यूरेशिया की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक छवि एक तेज़ और मूलभूत परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है. 16वीं शताब्दी की शुरुआत के समय से पहली बार वैश्विक आर्थिक शक्ति का सबसे बड़ा जमावड़ा न तो यूरोप, न ही अमेरिका में बल्कि एशिया में मिलेगा. 21वीं सदी के पहले दशक से भारत में अधिक आशावाद और इतिहास की शुरुआत की भावना है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के पूर्व अध्यक्ष किशोर महबुबानी पश्चिमी देशों की सुस्ती और पूर्व के देशों की तेज़ी का विश्लेषण करते हुए सुझाव देते हैं कि एक विश्व और तकनीक के तर्क से प्रेरित एक अपरिवर्तनीय बल पूर्व और पश्चिम व्यापक मेलजोल (ग्रेट कन्वर्जेंस) में मिलते हैं. उनके मुताबिक “चूंकि जो भी चीज़ आगे बढ़ती है उसे अवश्य मिलना चाहिए. दुनिया को छोटा करने के लिए कई ताकतें छोड़ दी गई हैं. दुनिया और छोटी होती जाएगी और एक-दूसरे से अधिक गहराई से जुड़ी और परस्पर निर्भर होगी.” संभावना ये है कि दक्षिण कॉकेशस एक महत्वपूर्ण संपर्क का बिंदु और अलग-अलग महाद्वीपों के मिलने का बहुत बड़ा कॉरिडोर बन जाएगा.
वैसे तो भारत और आर्मीनिया अलग-अलग सुरक्षा क्षेत्रों से आते हैं लेकिन ये बदल भी सकता है. बैरी बुज़ान और ओले वेवर (2003) आने वाले समय में एक क्षेत्रीय सुरक्षा परिसर (रीजनल सिक्युरिटी कॉम्प्लेक्स या RSC) के तीन संभावित विकास की रूप-रेखा खींचते हैं: यथास्थिति बरकरार रहना; RSC के भीतर आंतरिक बदलाव और क्षेत्रीय एकीकरण या विघटन, जीत या वैचारिक परिवर्तन की वजह से मित्रता/शत्रुता के प्रमुख पैटर्न में बदलाव के आधार पर अराजक संरचना या असमानता में बदलाव; और बाहरी सीमा के विस्तार या सिमटने के कारण बाह्य बदलाव, RSC की सदस्यता में परिवर्तन और उसकी आवश्यक बनावट में बदलाव. ये तब होता है जब 2 RSC का विलय हो जाता है या एक से 2 RSC बन जाते हैं. 2 RSC का विलय उस समय हो सकता है जब भू-आर्थिक या भू-राजनीतिक रूप से दो महत्वपूर्ण भव्य बुनियादी ढांचे मौजूद होते हैं. हिंद महासागर और फारस की खाड़ी को काला सागर और ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया के ज़रिए भारत को यूरोप से जोड़ने वाले एक संभावित नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर के मामले में भारत दक्षिण कॉकेशस और पूर्वी यूरोप से जुड़े विषयों में नाटकीय रूप से जुड़ जाएगा. तब हम एक संभावित इंडो-यूरोपियन सुपरकॉम्प्लेक्स की संभावना का विश्लेषण कर सकते हैं. एक सुरक्षा सुपरकॉम्प्लेक्स को RSC के ऐसे समूह के तौर पर परिभाषित किया गया है जिसमें एक या उससे अधिक महाशक्तियां शामिल होती हैं जो अंतरक्षेत्रीय सुरक्षा गतिशीलता (इंटररीजनल सिक्युरिटी डायनैमिक्स) का अपेक्षाकृत ऊंचा और सिलसिलेवार स्तर उत्पन्न करती हैं.
लिंक वेस्ट नज़रिया
2019 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने एक अधिक सक्रिय कूटनीति एवं ‘लिंक वेस्ट’ दृष्टिकोण अपनाया है और इस तरह अधिक महत्वाकांक्षी मानदंड संबंधी प्रतिरक्षा दिखाई है. उभरती वैश्विक शक्ति की संरचना में भारत एक अगली पंक्ति (फ्रंटलाइन) के देश के रूप में उभरा है और उसके पास टिकाऊ शांति और स्थिरता की दिशा में ज़बरदस्त योगदान देने की क्षमता है. चीन की वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव के साथ-साथ चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) के लिए रूस का समर्थन भी भारत को यूरेशिया में समावेशी, गुटनिरपेक्ष बहुपक्षीय साझेदारी की तरफ ले जा रहा है. ध्यान देने की बात है कि मार्च 2021 में ईरान में भारत के राजदूत गद्दम धर्मेंद्र ने साउथ-नॉर्थ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर बनाकर ईरान के चाबाहार पोर्ट और आर्मीनिया के ज़रिए हिंद महासागर को यूरोप और रूस के साथ जोड़ने के इरादे का एलान किया था. भारत की भू-सामरिक महत्वाकांक्षा के पीछे मुख्य उद्देश्य अपने विरोधी पाकिस्तान और इस तरह से पाकिस्तान-अज़रबैजान-तुर्किए के गठजोड़ को दरकिनार करना है.
भारत-आर्मीनिया सामरिक साझेदारी व्यापक क्षेत्रीय सुरक्षा की संरचना को बदलेगी या नहीं, ये इस बात पर निर्भर है कि हिंद महासागर और फारस की खाड़ी को काला सागर और ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया के ज़रिए भारत को यूरोप से जोड़ने वाले संभावित नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का इंफ्रास्ट्रक्चर कितना महत्वपूर्ण होगा.
ईरान के साथ विशेष संबंध आर्मीनिया को अपनी ऊर्जा आपूर्ति में विविधता लाने और भावी नॉर्थ-साउथ भू-आर्थिक कॉरिडोर में ख़ुद को एक संभावित क्षेत्र के रूप में पेश करने की अनुमति देंगे जो भारत के लिए यूरोप के बाज़ारों को खोलेगा. जैसा कि मैकिंडर ने भविष्यवाणी की थी, यूरेशियाई भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में रेलवे एक प्रमुख फैक्टर के तौर पर उभरना जारी रखेगा. इस मामले में एक भावी ईरानी-आर्मीनियाई रेल रोड में फारस की खाड़ी को काला सागर से जोड़ने और भारत को यूरोप के साथ जोड़ने के लिए एक वैकल्पिक और छोटा रास्ता प्रदान करने की विशाल क्षमता है. आर्मीनिया को पार करने वाला ये रेलवे आर्मीनिया को ईरान और भारत के साथ जोड़कर उसके भौगोलिक अलगाव को ख़त्म कर देगा. इस तरह अमेरिका-ईरान के बीच संभावित सुलह और दक्षिण-उत्तर दिशा में ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया कॉरिडोर आर्मीनिया को अपनी असुरक्षा से उबरने में सक्षम बनाएगा और इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए एक अधिक स्थिर डिज़ाइन तैयार करेगा.
इस तरह दक्षिण कॉकेशस में सुरक्षा गतिशीलता का एक उल्लेखनीय अंतरक्षेत्रीय स्तर है जो इस उप-परिसर (सब-कॉम्प्लेक्स) में महाशक्तियों के फैलाव और क्षेत्रीय स्तर पर राष्ट्रीय एवं वैश्विक सुरक्षा की परस्पर क्रिया (इंटरप्ले) के चरम से पैदा होता है. चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और रूस के नेतृत्व में EAEU (यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन) समेत यूरेशियाई भू-राजनीति के प्रतिस्पर्धी विकल्पों के संदर्भ में अपनी नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर की पहल के साथ भारत की अधिक भागीदारी यूरेशिया में गेम-चेंजर बनने की क्षमता रखती है. आर्मीनिया की बात करें तो अमेरिका एवं EU, ईरान और भारत के साथ एक ही समय में प्रभावी साझेदारी पारगमन (ट्रांज़िट) भू-आर्थिक और अंतरक्षेत्रीय भागीदारी के माध्यम से इन कमज़ोरियों को दूर करने में मदद कर सकती है.
भारत-आर्मीनिया सामरिक साझेदारी व्यापक क्षेत्रीय सुरक्षा की संरचना को बदलेगी या नहीं, ये इस बात पर निर्भर है कि हिंद महासागर और फारस की खाड़ी को काला सागर और ईरान-आर्मीनिया-जॉर्जिया के ज़रिए भारत को यूरोप से जोड़ने वाले संभावित नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का इंफ्रास्ट्रक्चर कितना महत्वपूर्ण होगा. अगर भविष्य का ये कॉरिडोर भू-आर्थिक और भू-राजनीतिक रूप से काफी शानदार होगा तो भारत दक्षिण कॉकेशस और पूर्वी यूरोप के मामलों को लेकर नाटकीय रूप से जुड़ जाएगा. शायद तब हम एक कथित इंडो-यूरोपियन सुरक्षा सुपरकॉम्प्लेक्स की संभावना का विश्लेषण कर सकते हैं.
(तिगरान येप्रिम्यान आर्मीनिया की येरेवान स्टेट यूनिवर्सिटी में फैकल्टी ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस के डीन और वर्ल्ड हिस्ट्री एंड इंटरनेशनल रिलेशंस के एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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