फिनलैंड और स्वीडन, जिन्होंने हाल ही में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) में बिना और देरी किये शामिल होने की अपनी योजना का एलान किया था, अब औपचारिक रूप से इसके लिए अपने आवेदन जमा कर चुके हैं. दोनों देश, जहां जनमत यूक्रेन युद्ध के मद्देनज़र सैन्य गठबंधन में शामिल होने के पक्ष में बहुत ज़्यादा झुक चुका है, ऐतिहासिक रूप से तटस्थता और गुट-निरपेक्षता की नीति को आगे बढ़ाते रहे हैं. फिनलैंड के नेटो में शामिल होने से परहेज़ करने की वजह तत्कालीन सोवियत संघ (बाद में रूस) के साथ दोस्ती, सहयोग और एक-दूसरे की सहायता के लिए किया गया 1948 और 1992 का समझौता था. वहीं स्वीडन की विदेश नीति 200 साल तक किसी सैन्य गठबंधन का हिस्सा नहीं रहते हुए, बहुपक्षीय संवाद और परमाणु निरस्त्रीकरण पर केंद्रित रही.
लेकिन, यूक्रेन में चल रहे युद्ध ने फिनलैंड को निस्संदेह चौकन्ना कर दिया है, क्योंकि उसकी रूस के साथ 1300 किलोमीटर लंबी सीमा है, और इसी बात ने उसे यह फ़ैसला लेने के लिए प्रेरित किया. दूसरी तरफ़, स्वीडन ने 2014 में क्राइमिया की स्थिति के बाद अनिवार्य सैन्य भर्ती पहले ही दोबारा लागू कर दी थी और रक्षा ख़र्च बढ़ा दिया था, लेकिन माना जाता है कि मौजूदा यूक्रेन युद्ध ने नेटो में शामिल होने के इस निर्णय के लिए ज़रूरी प्रोत्साहन मुहैया कराया है.
पुतिन ने कहा कि नेटो के विस्तार का अमेरिका द्वारा इस्तेमाल, पहले ही कठिन वैश्विक परिदृश्य को और गंभीर बनाने के लिए ‘आक्रामक’ तरीक़े से किया जा रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि रूस की प्रतिक्रिया उन समस्याओं पर निर्भर होगी जो उसके लिए उत्पन्न की जायेंगी और ये समस्याएं बिना किसी कारण के उत्पन्न की जा रही हैं.
राष्ट्रपति पुतिन ने यह कहते हुए मिलेजुले संकेत दिये हैं कि रूस को भी इस क़दम से ‘कोई समस्या नहीं है’ क्योंकि यह उनके देश के लिए कोई ‘फ़ौरी ख़तरा’ पेश नहीं करता. पुतिन ने कहा कि नेटो के विस्तार का अमेरिका द्वारा इस्तेमाल, पहले ही कठिन वैश्विक परिदृश्य को और गंभीर बनाने के लिए ‘आक्रामक’ तरीक़े से किया जा रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि रूस की प्रतिक्रिया उन समस्याओं पर निर्भर होगी जो उसके लिए उत्पन्न की जायेंगी और ये समस्याएं बिना किसी कारण के उत्पन्न की जा रही हैं. अगर यूक्रेन में सैन्य अभियान के पीछे रूस का एक उद्देश्य पूर्व की ओर नेटो का विस्तार रोकना था, तो यह घटनाक्रम इसके ठीक उलट लगता है.
इसके बावजूद, एक यथार्थवादी अर्थ में, दोनों देशों के सैन्य गठजोड़ (अलाइनमेंट) की स्थिति में आये बदलाव से बहुत फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि फिनलैंड और स्वीडन की 1990 के दशक से ही नेटो के साथ काफ़ी ज़्यादा अंतर-संचालनीयता (साथ मिलकर काम करने की क्षमता) रही है.
नेटो के साझीदार देश
फिनलैंड व स्वीडन दोनों नेटो के साझेदार हैं और बाल्कन क्षेत्र, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ व लीबिया में विभिन्न निर्णायक अभियानों में नेटो के साथ काम किया है. दोनों देश नेटो के साथ ‘ट्राइडेंट जंक्चर’ जैसे सैकड़ों उन्नत अभ्यासों में भी हिस्सा लेते हैं और नेटो मानकों के आधार पर, रक्षा पर पश्चिमी सैन्य गठबंधन के साथ सहयोग करते हैं. इसके अलावा, फिनलैंड और स्वीडन ब्रिटेन के ‘ज्वाइंट एक्सपीडिशनरी फोर्सेज’, जिसमें आठ नेटो सदस्य भी शामिल हैं, की अपनी सदस्यता के ज़रिये भी पश्चिमी सैन्य तंत्र के साथ क़रीब से जुड़े हुए हैं.
यूक्रेन युद्ध छिड़ने के बाद भी, फिनलैंड और स्वीडन कथित तौर पर नेटो के साथ ख़ुफ़िया सूचनाएं साझा करते रहे हैं और नीतियों में समन्वय करते रहे हैं. दोनों देशों के मंत्री भी नेटो की मंत्रीय बैठक में शामिल होते रहे हैं, जो औपचारिक सदस्य नहीं होने के बावजूद इस पश्चिमी गठबंधन से उनके अंतरंग संपर्क को दिखाता है. इसे लेकर काफ़ी अटकलें दिख रही हैं कि इस उकसावे पर रूस की क्या प्रतिक्रिया हो सकती है, ख़ासकर यूक्रेन के बाद. हालांकि, एक मायने में, यह क़दम निश्चित रूप से यूरोप में सुरक्षा स्थिति को और जटिल बनाता है, लेकिन रूस से कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं आनी चाहिए, क्योंकि उसने पहले ही इन देशों को पश्चिम से अत्यधिक संबद्ध देखा है. बदलाव बस लेबल में होगा.
यूक्रेन में युद्ध हमें यह सबक सिखाता है कि सबसे मंझे हुए अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के भी पूर्वानुमान ग़लत साबित हो सकते हैं, फिर भी कई अन्य व्यावहारिक पहलू हैं जो इशारा करते हैं कि फिनलैंड और स्वीडन के हालिया क़दमों के बावजूद रूस के लिए उन पर सैन्य कार्रवाई करना असंभव जैसा होगा.
इसके अलावा, यूक्रेन में युद्ध हमें यह सबक सिखाता है कि सबसे मंझे हुए अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के भी पूर्वानुमान ग़लत साबित हो सकते हैं, फिर भी कई अन्य व्यावहारिक पहलू हैं जो इशारा करते हैं कि फिनलैंड और स्वीडन के हालिया क़दमों के बावजूद रूस के लिए उन पर सैन्य कार्रवाई करना असंभव जैसा होगा. स्वीडन और फिनलैंड के पास नौसेना, वायुसेना, पनडुब्बियों व लड़ाकू विमानों से लैस अत्यधिक दक्ष सेनाएं हैं. इसके साथ ही, लड़ाई का अनुभव और पश्चिम से रक्षा संबंध उन्हें एक बेहद मज़बूत प्रतिपक्ष बनाता है, जिनसे भिड़ना आसान नहीं. रूस ने युद्ध शुरू होते ही यूक्रेन में काफ़ी कुछ हासिल कर लिया है, लेकिन उसे गंभीर आर्थिक नुकसान भुगतना पड़ा है और वह ठीकठाक संख्या में सैनिकों को भी गंवा चुका है (हालांकि यह संख्या पश्चिमी और यूक्रेनी मीडिया में बतायी गयी संख्या से काफ़ी कम हो सकती है). इससे भी ज़्यादा अहम यह है कि युद्ध जारी है, लिहाज़ा, और ज़्यादा धन और मानवशक्ति की ज़रूरत है, जो रूस के लिए यूरोप के दूसरे हिस्सों में (ख़ासकर पश्चिम से निकट संबंध रखने वाले सैन्य रूप से दृढ़ देशों में) सैन्य अभियान की ओर संसाधनों को मोड़ना असंभव बनाता है. रूस पहले ही जनवरी और अप्रैल के बीच रक्षा पर 1.7 ट्रिलियन रूबल (26.4 अरब अमेरिकी डॉलर) ख़र्च कर चुका है, जो पूरे 2022 के लिए बजट में प्रावधान किये गये 3.5 ट्रिलियन रूबल (जीडीपी का 2.6 फ़ीसद) का लगभग आधा है.
रूस का सब कुछ दाँव पर
पश्चिम ने पहले ही साफ़ कह दिया था कि चूंकि यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं है इसलिए वह सैनिकों को नहीं भेजेगा, बल्कि यूक्रेन की केवल सैन्य और वित्तीय संसाधन के ज़रिये मदद करेगा. हालांकि, फिनलैंड और स्वीडन की सदस्यता और रूस के संभावित आक्रमण का मतलब होगा नेटो के अनुच्छेद 5 का लागू होना, जो सामूहिक रक्षा के इसके मुख्य सिद्धांत का ज़िक्र करता है : अगर गठबंधन के किसी सदस्य पर हमला किया गया, तो इसे सभी सदस्यों पर हमला माना जायेगा. और अगर ऐसा हमला होता है, तो प्रत्येक सदस्य ‘उत्तर अटलांटिक क्षेत्र की सुरक्षा को बहाल करने और बरकरार रखने’ के वास्ते हमले के शिकार सहयोगी की मदद के लिए ज़रूर समझी जाने वाली कार्रवाई करेगा. लिहाज़ा, रूस को 30 से ज़्यादा देशों के पश्चिमी सैन्य गठबंधन की पूरी ताक़त का सामना करना होगा. इसके अलावा, अगर रूस सैन्य जवाबी कार्रवाई करना भी चाहे (जिसकी संभावना बेहद कम है), तो यथार्थवादी दृष्टि से ऐसा तभी तक संभव है जब तक कि फिनलैंड और स्वीडन नेटो के आधिकारिक सदस्य नहीं बने हैं, लेकिन पश्चिम यह बिल्कुल साफ़ कर चुका है कि यह प्रक्रिया त्वरित गति से निपटायी जायेगी.
इसके अतिरिक्त, यूक्रेन रूस के लिए ऐतिहासिक महत्व रखता है, जो स्वीडन और फिनलैंड नहीं रखते. यह सुनिश्चित करने के क्रम में कि यूक्रेन अपनी तटस्थ स्थिति बनाये रखे, राष्ट्रपति पुतिन ने स्पष्ट कहा कि यूक्रेन में इस विशेष सैन्य अभियान का एक उद्देश्य यूक्रेन के उन रूसी-भाषी अल्पसंख्यकों की हिफ़ाजत करना है जिन्हें देश के बहुसंख्यकों द्वारा पराधीनता में रखा गया माना जाता है. फिनलैंड या स्वीडन जैसे किसी देश पर हमला करने के लिए, रूस के पास अन्य बातों के साथ इस तरह का कोई मज़बूत प्रोत्साहन नहीं है, जिसके चलते वह अपनी असहमति के बावजूद सैन्य कार्रवाई से परहेज कर सकता है. रूस जिस तरह से यूक्रेन जैसे देश (जहां अपेक्षाकृत बहुत कुछ दांव पर लगा है) में सैन्य व आर्थिक रूप से इतने बड़े पैमाने पर लगा हुआ है, साथ में इस तथ्य को देखते हुए कि स्वीडन और फिनलैंड आधिकारिक रूप से गुट-निरपेक्ष देश थे, रूस से उन्हें ख़ामख़ाह ऐसा कोई ख़तरा था नहीं. बल्कि, समकालीन सुरक्षा स्थिति के संदर्भ में तटस्थता को छोड़ देने से स्थिति केवल और जटिल हुई है तथा यह रूस को शायद केवल और ज़्यादा शत्रु बनायेगा.
इसके बावजूद, यूक्रेन में सैन्य अभियान ने दिखाया है कि रूस के रणनीतिक आकलन हमेशा बहुसंख्यक नज़रिये के अनुरूप नहीं होते. एक और सैन्य संघर्ष में उलझना रूस के लिए आदर्श स्थिति नहीं होगी, ख़ासकर ऐसे देशों के साथ जो बहुत लंबे समय से अनाधिकारिक रूप से नेटो का हिस्सा रहे हैं. फिर भी, अंत में कार्रवाई की दिशा क्या होगी, यह इस मामले की पुतिन की रणनीतिक समझ से ही तय होगा और इसलिए, कोई अनुमान लगा पाना कठिन है.
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