हिंद-प्रशांत क्षेत्र के विशाल विस्तार, हिंद और प्रशांत महासागरों में स्थित छोटे द्वीपीय विकासशील देश (स्मॉल आइलैंड डेवलपिंग स्टेट्स- एसआईडीएस या सिड्स) अक्सर खुद को हाशिए पर पाते हैं, जिन्हें नक्शे पर मात्र एक छोटे से बिंदु के रूप में देखा जाता है और जो बड़े भू-राजनीतिक खिलाड़ियों और उनके हितों की छाया में रहते हैं. हालांकि, अब बेहद छोटे ये देश इस कहानी को नए सिरे से कह रहे हैं और खुद को वैश्विक मंचों पर प्रभावशाली घटक के रूप में पेश कर रहे हैं, ये सिर्फ़ 'दूर समुद्र में स्थित छोटे द्वीपों' से एक शक्तिशाली सामूहिक 'द्वीपों के समुद्र' में बदल रहे हैं. परिवर्तन के सक्रिय घटक के रूप में SIDS अपना कथानक खुद गढ़ रहे हैं, वैश्विक स्तर पर अपने अधिकारों और हितों की वकालत कर रहे हैं. और इस एजेंडे के केंद्र में है जलवायु परिवर्तन का ज्वलंत मुद्दा.
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना सबसे पहले सिड्स देशों को करना पड़ता है, उनके भू-भाग और जनसंख्या का छोटा आकार इसके प्रतिकूल प्रभावों जैसे कि बढ़ते समुद्री स्तर, तटों के कटाव और प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति के प्रति ग़ैर-अनुपातिक रूप से संवेदनशील हैं.
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना सबसे पहले सिड्स देशों को करना पड़ता है, उनके भू-भाग और जनसंख्या का छोटा आकार इसके प्रतिकूल प्रभावों जैसे कि बढ़ते समुद्री स्तर, तटों के कटाव और प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति के प्रति ग़ैर-अनुपातिक रूप से संवेदनशील हैं.
ये परिणाम आर्थिक निहितार्थों से कहीं ज़्यादा हैं और उनके समाजों. संस्कृतियों के लिए अस्तित्व पर ख़तरा बनने तक पहुंच जाते हैं. SIDS जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस कदम उठा रहे हैं और वैश्विक समुदाय से भी इस दिशा में कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं.
सिड्स द्वारा की गई अभूतपूर्व कानूनी पहलों को इस संकल्प के साक्षी के रूप में देखा जा सकता है. अक्टूबर 2022 में, कई देशों के एक गठबंधन का प्रतिनिधित्व करते हुए, वानुअतु ने जलवायु परिवर्तन के संबंध में सदस्य देशों के दायित्वों पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) से परामर्शकारी राय का अनुरोध करते हुए एक मसौदा प्रस्ताव प्रस्तुत किया. इसके बाद, नवंबर 2022 में, छोटे द्वीप देशों के आयोग (कमीशन ऑफ़ स्माल आइलैंड स्टेट्स- सीओसीआईएस या कोसिस) ने औपचारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र के समुद्र के कानून पर समझौते (यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ़ द सी- यूएनसीएलओएस या अन्कलॉस) के तहत समुद्र के स्तर में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानून न्यायाधिकरण (इन्टरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ़ द सी- आईटीएलओएस या इटलॉस) से परामर्शकारी राय मांगी. ये मामले न सिर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये अन्य देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों के सामने प्रस्तुत किए गए पारंपरिक मुद्दों से अलग हैं बल्कि इसलिए भी कि वैश्विक राजनीतिक विमर्श में जलवायु प्रतिरोध क्षमता को आगे रखने के SIDS के प्रयासों का उदाहरण भी बनते हैं.
ऋण-वित्तपोषण व्यवस्था समस्या को और बढ़ा देती है. जलवायु वित्त का लगभग 94 फ़ीसदी ढांचा प्रतिफल-प्राप्ति के रूप में बना है, जिसमें निवेश ऋण या ग़ैर-रियायती अनुदान के ज़रिए किया जाता है - जिसका अर्थ है कि वित्तपोषक अपने निवेश पर वित्तीय प्रतिफल की अपेक्षा करते हैं - लेकिन इससे सिड्स का राजकोषीय लचीलापन बाधित होता है.
यद्यपि ये कानूनी प्रयास सराहनीय हैं, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सिड्स के प्रयास न्यायालयों तक ही सीमित नहीं हैं. वे जलवायु वित्त के परिदृश्य में बदलाव की भी मांग कर रहे हैं और जलवायु वित्त के वितरण में बदलाव के साथ ही इसे वितरित करने के तंत्र में भी परिवर्तन की वकालत कर रहे हैं. मौजूदा वित्तीय साधन उनकी चुनौतियों से पर्याप्त रूप से निपटने में विफल साबित हो रहे हैं, जिसकी वजह से उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेलना पड़ रहा है. इसलिए, उनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप वित्तीय साधन विकसित करने की सख़्त ज़रूरत है.
मौजूदा वित्तीय परिदृश्य अपने काम के लिए अनुपयुक्त कैसे है?
व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो पता लगता है कि जलवायु वित्त का मौजूदा परिदृश्य इसलिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह बहुत ज़्यादा खंडित और अत्यधिक जटिल है. इसमें विशेष रूप से, दो मुख्य मुद्दे हैं.
पहली बात तो यह कि मौजूदा वित्तीय साधन SIDS की ज़रूरतों के अनुरूप नहीं हैं. विशेष रूप से आधिकारिक विकास सहायता (ऑफ़िशियल डेवलपमेंट असिस्टेंस- ओडीए) के माध्यम से, रियायती वित्तपोषण, इस मामले का उदाहरण है. सिड्स की कमज़ोरियों को स्वीकार करते हुए भी यह एक सच है कि रियायती वित्त तक इनकी पहुंच में पात्रता मानदंड बाधा बनते हैं जो परंपरागत समृद्धि मैट्रिक्स (समृद्धि को मापने के तरीके) जैसे प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय पर आधारित हैं. ये मापदंड या मैट्रिक्स, जो आमतौर पर सिड्स के लिए ऊंचे होते हैं और बाहरी झटकों, उनके सीमित कर आधार और विकास परियोजनाओं की उच्च लागतों के बढ़ते जोखिम को नज़रअंदाज करते हैं, इस प्रकार ये संरचनात्मक कमियों को कायम रखते हैं. सुधार की वकालत करने वाली पहलों, जिन पर व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के 15वें सत्र में उल्लेखनीय रूप से ज़ोर दिया गया था, में इन पात्रता मानदंडों को संशोधित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया ताकि समृद्धि के पारंपरिक मापदंडों के मुकाबले भेद्यता सूचकांक को प्राथमिकता दी जाए.
ऋण-वित्तपोषण व्यवस्था समस्या को और बढ़ा देती है. जलवायु वित्त का लगभग 94 फ़ीसदी ढांचा प्रतिफल-प्राप्ति के रूप में बना है, जिसमें निवेश ऋण या ग़ैर-रियायती अनुदान के ज़रिए किया जाता है - जिसका अर्थ है कि वित्तपोषक अपने निवेश पर वित्तीय प्रतिफल की अपेक्षा करते हैं - लेकिन इससे सिड्स का राजकोषीय लचीलापन बाधित होता है. इससे कर्ज़ का भारी बोझ बना रहता है और SIDS वित्तीय तनाव के चक्र में फंस जाते हैं, जिससे सतत विकास के प्रयासों में बाधाएं आती हैं.
मौजूदा समय में सिड्स को अन्य देशों की तुलना में लचीलापन वित्त का बहुत कम हिस्सा प्राप्त हो रहा है. यह हक़ीक़त प्रतिरोध क्षमता वाले समुदायों के निर्माण के उनके प्रयासों का समर्थन करने के लिए और अधिक वित्त पोषण की आवश्यकता को रेखांकित करती है.
दूसरी बात यह है कि जलवायु निधि का वितरण सिड्स की ज़रूरतों के अनुरूप नहीं है. सिड्स की प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाने के लिए अनुकूलन वित्त बहुत ज़रूरी है. हालांकि, जलवायु वित्त के आवंटन की मौजूदा प्रवृत्ति अनिवार्य अनुकूलन उपायों की तुलना में शमन प्रयासों को ज़्यादा तरजीह देती है. वैसे तो अब कुल मिलाकर अनुकूलन वित्त में क्रमिक वृद्धि हो रही है, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा मध्यम आय वाले देशों की ओर जाता है और सबसे कमज़ोर देशों की उपेक्षा करता है, जिनमें SIDS भी शामिल हैं.
इसके अलावा, जलवायु-प्रेरित नुक़सान और क्षति के लिए मुआवज़े पर चल रही चर्चा सिड्स की ख़ास तरह की कमज़ोरियों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देती है. नुक़सान और क्षति का आकलन करने के लिए मौजूदा तरीके मोटे तौर पर ग़ैर-आर्थिक प्रभावों को अनदेखा करते हैं, जैसे सांस्कृतिक विरासत और पहचान को होने वाला नुक़सान. यह अनदेखी इन समुदायों को 'आज की तारीख़ के अटलांटिस' जैसी स्थिति में पहुंचा देती है, जो अपने आसन्न विनाश को देख रहे हैं. उदाहरण के लिए, फ़ालेपिली यूनियन संधि 2023 को लें, जिसे जलवायु गतिशीलता पर पहला द्विपक्षीय समझौता माना जाता है. सतर्कता के साथ स्वागत करने के बावजूद, आलोचक तर्क देते हैं कि यह एकतरफ़ा संधि परिमाणीकरण को ख़ारिज करने वाले पहलुओं जैसे कि संस्कृति, पहचान और विरासत के नुक़सान पर विचार करने में विफल साबित होती है. एक प्रलय के कथानक पर कायम रहते हुए, जिसमें SIDS के निवासियों के पास अपनी मातृभूमि को छोड़ने और दूसरे देशों में पलायन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, यह संधि उन लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में मोटे तौर पर नाकाम हो जाती है जो अपने पूर्वजों की धरती पर ही रहना चाहते हैं, उनकी धरती की प्रतिरोध क्षमता को और मज़बूत करने के लिए वित्त की उनकी ज़रूरत को नज़रअंदाज़ कर देती है. सिड्स हानि और क्षति को महज़ परिवर्तनीयता के मामलों से परे देखते हैं, जिससे वर्तमान तंत्र और उनकी वास्तविक ज़रूरतों के बीच का अंतर सामने आता है.
SIDS की ओर से कार्रवाई का आह्वान
यह स्पष्ट है कि जिन चुनौतियों का सामना सिड्स कर रहे हैं उनकी जटिलता को देखते हुए पारंपरिक वित्तीय साधनों से हटकर एक समग्र, संदर्भ-संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. लेकिन जलवायु वित्त के बारे में बातचीत में इन द्वीप देशों की प्राथमिकता है क्या?
सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात जलवायु वित्त में वृद्धि की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन से ग़ैर आनुपातिक रूप से प्रभावित होने और वैश्विक उत्सर्जन के लिए 1 प्रतिशत से भी कम ज़िम्मेदार होने के बावजूद उन्हें 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर, जिसका वादा 2019 में किया गया था, में से केवल 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक ही पहुंच मिली है. यह असमानता बढ़ी हुई और अधिक सुलभ जलवायु वित्त की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है.
इसके अलावा, लचीलापन निधि (रेज़िलियंस फंडिंग) को तत्काल बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है, विशेष रूप से अनुकूलन और आपदा जोख़िम न्यूनीकरण के लिए निधि पर ध्यान केंद्रित करना होगा. यह द्वीप देशों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां अनुकूलन की लागत आम तौर पर उनके आर्थिक आकार से बड़ी होती है. उदाहरण के लिए, 1970 से 2020 तक, SIDS को मौसम, जलवायु और जल-संबंधी संकटों के कारण 153 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुक़सान हुआ, जो कि उनके 13.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के औसत सकल घरेलू उत्पाद को देखते हुए एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है. उनके सीमित राजकोषीय आधार और ऋण बाज़ारों तक सीमित पहुंच को देखते हुए, जलवायु से अप्रभावित रहने वाले बुनियादी ढांचे के लिए उनके सकल घरेलू उत्पाद से ज़्यादा अनुदान की आवश्यकता होगी. हालांकि, मौजूदा समय में सिड्स को अन्य देशों की तुलना में लचीलापन वित्त का बहुत कम हिस्सा प्राप्त हो रहा है. यह हक़ीक़त प्रतिरोध क्षमता वाले समुदायों के निर्माण के उनके प्रयासों का समर्थन करने के लिए और अधिक वित्त पोषण की आवश्यकता को रेखांकित करती है.
तूफ़ानों और आपदाओं का सामना कर चुके, इन देशों में आगे आने वाली चुनौतियों का सामना करने की क्षमता है. हालांकि, यह काम वे अकेले नहीं कर सकते. अपने प्रयासों को मज़बूत करने के लिए उन्हें एक सहायक प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता है, जिसमें वित्तीय सुधार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
सिड्स नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश के लिए राजकोषीय अंतराल का विस्तार करने की भी मांग कर रहे हैं. हालांकि, अनुकूलन के लिये फाइनेंस पहली प्राथमिकता है, लेकिन ये देशों द्वारा आयात किये गये जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता की स्थिति को बदलने और अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाकर नवीकरणीय ऊर्जा को मज़बूत करने की आवश्यकता को स्वीकार कर रहे हैं. हालांकि, SIDS को इन परियोजनाओं की उच्च लागत और उपयुक्त वित्तपोषण की कमी की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. पर्याप्त वित्त तक पहुंच के बिना, वे अपनी क्षमता के खुलकर इस्तेमाल किए जाने की इस कोशिश में संघर्ष कर रहे हैं.
निष्कर्ष
तूफ़ानों और आपदाओं का सामना कर चुके, इन देशों में आगे आने वाली चुनौतियों का सामना करने की क्षमता है. हालांकि, यह काम वे अकेले नहीं कर सकते. अपने प्रयासों को मज़बूत करने के लिए उन्हें एक सहायक प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता है, जिसमें वित्तीय सुधार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसका मतलब यह है कि भेद्यता सूचकांकों को प्राथमिकता देने, प्रतिरोध क्षमता वित्तपोषण को बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने के लिए मौजूदा ढांचों पर पुनर्विचार करना होगा कि जलवायु वित्त तंत्र सिड्स के दृष्टिकोण और आवश्यकताओं के अनुरूप हों. वैश्विक उत्सर्जन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार होने के बावजूद, SIDS जलवायु परिवर्तन के तीव्र प्रभावों के प्रति ग़ैर-अनुपातिक रूप से संवेदनशील हैं. इसका अर्थ यह है कि बड़े देशों को SIDS का समर्थन अनिवार्य रूप से केवल एक आवश्यकता के रूप में नहीं, बल्कि इसलिए करना चाहिए क्योंकि वे इनके कर्ज़दार हैं.
(विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में वरिष्ठ अध्येता हैं.)
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