Author : Harsh V. Pant

Published on Apr 10, 2019 Updated 0 Hours ago

अब जबकि भारत में चुनावी माहौल अपनी गति पकड़ चुका है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द ही लोकसभा चुनाव सिमटता दिख रहा है। यह तो 23 मई को पता चलेगा कि वह फिर से जनादेश पाने में सफल हुए हैं या नहीं, लेकिन भारत की विदेश नीति को नया रूप देने में पिछली सरकार जरूर कामयाब मानी जाएगी।

चुनाव अभियान के दौर में विदेश नीति पर सवाल

चुनाव प्रचार में बेशक पाकिस्तान के हावी होने की संभावना अधिक होती है, पर मोदी की विदेश नीति काफी हद तक चीन के बढ़ते कदम के बरअक्स भारत को खड़ा करने की रही। हालांकि भारत के आसपास भौगोलिक संरचना ही ऐसी है कि कोई भी सरकार चीन के उदय को हल्के में नहीं ले सकती। ऐसा आगे भी होता रहेगा। इसीलिए आम चुनावों के बाद जो पार्टी सत्ता में आएगी, उसे चीन के इस उभार से मिल रही चुनौतियों से जूझना ही होगा।

चीन की नीतियों का मुकाबला करने के लिए भारत ने अपनी कूटनीति में उल्लेखनीय तब्दीली की है। भले ही परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता हासिल करने की भारत की कोशिशों और पाकिस्तान-पोषित जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक आतंकी घोषित करने की पहल में चीन अड़ंगा डालता रहा, पर चीन की पहेली को हल करने में भाजपा सरकार खासा सफल साबित हुई। भारत जहां डोकाला में उसके सामने मजबूती से डटा रहा और उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ को उसने सीधी चुनौती दी, वहीं वुहान में चीन के मुखिया के साथ भारतीय प्रधानमंत्री की सफल बैठक भी हुई।

बहरहाल, भारत ने जब अपनी कूटनीति की दिशा तय कर ली है, तो इसके राजनीतिक नेतृत्व को भी अब दलगत रिश्ते को दरकिनार करते हुए चीन से टकराना होगा। भारत दो दशक से ज्यादा का वक्त चीन से मिलने वाली चुनौतियों का सटीक आकलन न कर पाने में जाया कर चुका है। अब और उदासीन रहना कतई उचित नहीं होगा। नई दिल्ली अपने पूर्व और पश्चिम, दोनों तरफ चीन के बढ़ते कदम से काफी ज्यादा प्रभावित होने वाली है। इसे समान-विचार वाले साझेदार देशों से तमाम तरह की मदद की दरकार भी होगी। ऐसे में, अच्छी बात यह है कि मोदी सरकार ने पश्चिम को लेकर भारत की नीतिगत-अनिश्चितता को पीछे छोड़ते हुए खासतौर से अमेरिका के साथ नया रिश्ता गढ़ा है। यही कारण है कि अब दोनों देश मजबूत आर्थिक व रक्षा संबंधों की ओर बढ़ चले हैं। इतना ही नहीं, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर भारत ने चतुष्कोणीय रिश्ते को भी फिर से जीवित किया है, जो चीन के आक्रामक रुख का जवाब है। अब वह वक्त नहीं रहा कि हम इसलिए चुप्पी साध जाएं कि हमारे कदम से कहीं चीन की भावना आहत न हो जाए। हमारा ऐसा करना अब व्यावहारिक नहीं रहा।

भारत द्वारा अपनी हिंद-प्रशांत नीति में आसियान को केंद्र में रखना दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की इस चिंता को कम करने की कोशिश है कि अगर नीतियां सावधानी से नहीं बनीं, तो उनका मुल्क चीन का उपनिवेश बन सकता है। इस संदर्भ में हमारी सरकार का ध्यान भारत के पूर्वी पड़ोसी देशों से सांस्कृतिक रिश्ता बनाने पर रहा, जिसने पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के रिश्ते को नया आयाम दिया है। इसी तरह, भारत ने बंगाल की खाड़ी की ओर अपना सामरिक भूगोल फिर से परिभाषित किया है, जो पूर्वोत्तर भारत के माध्यम से दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के स्वाभाविक रिश्ते को फिर से गढ़ सकता है। बड़े भूगोल के साथ-साथ इससे दक्षिण-पूर्व एशिया के विकास का भी हमें फायदा मिल सकता है।

हालांकि भारत के लिए, पश्चिमी हिंद महासागर का महत्व यूं ही बना रहेगा। और यही कारण है कि भारत ने कुछ अन्य क्षेत्रीय ताकतों, खासकर अमेरिका की तुलना में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विस्तार को काफी तवज्जो दी है। इस क्षेत्र में पिछले पांच वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी भारत की ऐसी केंद्रीय भूमिका तलाशते रहें, जिसका विस्तार उनके मुताबिक, अफ्रीका के तटों से लेकर अमेरिका तक हो। मध्य-पूर्व में भारत के बढ़ते कदम व गहराते कूटनीतिक रिश्ते और दक्षिण-पूर्व एशिया से अफ्रीका तक संपर्क साधने की कोशिश मोदी की इसी सोच को दर्शाती है। हालांकि अब सवाल यह है कि क्या चुनावी नतीजों के बाद भी यह तस्वीर बनी रहेगी? इसका जवाब जाहिर तौर पर नई सरकार ही देगी।


यह लेख मूल रूप से हिंदुस्तान में प्रकाशित हो चुका है जो लेखक के अपने विचार हैं।

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