म्यांमार का वर्तमान रक्तरंजित है जहां हर तरफ घोर अनिश्चितता का वातावरण है और भविष्य भी अंधेरे में डूबा नज़र आता है. हालांकि कई विश्लेषकों का मानना है कि प्रजातांत्रिक सरकार ने भी शायद ही अपने समतावादी शक्तियों का इस्तेमाल किया था जिसकी वज़ह से रोहिंग्या विस्थापितों का मुद्दा अब तक वहां एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. म्यांमार में हुए अचानक से सेना के सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद से ना सिर्फ रखाइन इलाक़े में रहने वाले बल्कि बांग्लादेश में शरण लेने वाले रोहिंग्याओं का भविष्य भी आशंकाओं से भरा हुआ है.
म्यांमार में हुए अचानक से सेना के सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद से ना सिर्फ रखाइन इलाक़े में रहने वाले बल्कि बांग्लादेश में शरण लेने वाले रोहिंग्याओं का भविष्य भी आशंकाओं से भरा हुआ है.
म्यांमार की सत्ता में प्रजातांत्रिक सरकार की वापसी के साथ ही रोहिंग्या विस्थापितों को यह भरोसा जगा था कि उनकी समस्या का अब अंत हो जाएगा. लेकिन इसके उलट म्यांमार में दशकों तक पूर्ण सैन्य शासन और आंशिक सैन्य सरकारों के सत्ता में बने रहने के बाद जब नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) सरकार की वापसी सत्ता में हुई तो यह समस्या कमोबेश वैसी ही बनी रही या फिर पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई. इसके कुछ कारण गिनाए जा सकते हैं. अव्वल तो ये कि म्यांमार में समाज की मुख्यधारा में रोहिंग्याओं को जोड़ा जा सके इस मक़सद से इस संबंध में कोई नीति तैयार नहीं की गई. और तो और सत्ता पर क़ाबिज़ सरकार भी बहुसंख्यक बौद्ध राष्ट्रवादियों को नाराज़ करने का ज़ोख़िम नहीं उठाना चाहती थी. इन बौद्ध राष्ट्रवादियों की तरह ही सरकार ने भी अपने देश में रोहिंग्याओं को ‘बाहरी’ के तौर पर ही देखा. इतना ही नहीं अपने पूरे कार्यकाल के दौरान एनएलडी और सेना के बीच जुगलबंदी की कोशिशें भी साफ तौर पर स्पष्ट दिखाई दी.
बांग्लादेश के साथ प्रत्यर्पण प्रक्रिया
साल 2017 में रोहिंग्या विस्थापितों पर ‘तत्मादाव’ (म्यांमार की सेना) की आख़िरी बड़ी कार्रवाई के चलते 7 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या आबादी को देश छोड़कर बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी थी. इस कार्रवाई के चलते बांग्लादेश में रोहिंग्या की आबादी क़रीब 866,457 तक बढ़ गई. इससे दोनों देशों के बीच अशांति बढ़ गई और चिंता की लकीरें खींच गई और प्रत्यर्पण की तमाम कोशिशें अभी तक आधी अधूरी और अप्रभावी साबित हुई है.
हाल ही में वर्चुअल चर्चा के दौरान, चीन के साथ मध्यस्थता की बातचीत के दौरान म्यांमार और बांग्लादेश ने इस बात पर सहमति जताई थी कि इस साल के बाद दोनों देश प्रत्यर्पण प्रक्रिया के लिए राजी होंगे. म्यांमार की प्रजातांत्रिक सरकार ने क़रीब 300 से ज़्यादा हिंदू परिवारों को कैंप एरिया में वापस लेने पर रज़ामंदी दिखाई थी. लेकिन बचे हुए बहुसंख्य़कों के सवाल पर कोई चर्चा नहीं की गई. मौज़ूदा समय में सेना की तख़्तापलट की कार्रवाई ने इस व्यव्स्था में बदलाव ला दिया है.
अधिकारियों का कहना है कि रोहिंग्या विस्थापितों को हर तरह की मेडिकल सेवाएं दी जा रही हैं लेकिन जिन लोगों का टेस्ट किया गया उसे लेकर असल संख्या का खुलासा अधिकारियों ने नहीं किया है. इसके अलावा जो गंभीर चिंता का विषय है वो ये है कि कैंप में काम करने वाले कुछ हेल्थ वर्कर और एनजीओ के सदस्य भी कोरोना से संक्रमित हैं.
अब जबकि रोहिंग्याओं ने इस कानून की आलोचना की है लेकिन वो अपनी ज़िंदगी को लेकर चिंतित हैं. वर्तमान में क़रीब 6 लाख रोहिंग्या आबादी साल 2012 में साम्प्रदायिक हिंसा के बाद रखाइन राज्य के केंद्रीय इलाक़े के कैंप में मौज़ूद है, जिसमें क़रीब 126,000 रोहिंग्या आंतरिक रूप से विस्थापित हैं. ये लोग बेहद ही ख़राब हालत में रहने को मज़बूर हैं जो हमेशा सेना की निगरानी में रहती हैं, जिन्हें किसी भी तरह की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं होती हैं .
यहां तक कि कोरोना महामारी के दौरान भी इन इलाक़ों में सरकार द्वारा संचालित दो स्वास्थ्य केंद्र ही हैं, जिनमें बहुत कम बिस्तर हैं और जिनकी पहुंच सुदूर कैंप में रहने वाले लोगों के लिए आसान भी नहीं है. इसमें ज़्यादातर वैसे मेडिकल स्टाफ हैं जो प्राथमिक उपचार करते हैं लेकिन उन्हें बेहद कम ट्रेनिंग हासिल है. वैसे लोग जिन्हें गंभीर बीमारियां हैं उनके लिए सितवे जनरल हॉस्पिटल में ट्रांसफर करवाना तमाम दुश्वारियों से भरा होता है. कोरोना महामारी के चलते आवाजाही पर लगे प्रतिबंध और वित्तीय मज़बूरियों के चलते भी ऐसा कर पाना मुश्किल हो जाता है. कैंप में रहने वाले महज़ 16 फ़ीसदी रोहिंग्या आबादी को ही ज़रूरी मेडिकल सेवाएं मुहैया हो पाती हैं. हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि रोहिंग्या विस्थापितों को हर तरह की मेडिकल सेवाएं दी जा रही हैं लेकिन जिन लोगों का टेस्ट किया गया उसे लेकर असल संख्या का खुलासा अधिकारियों ने नहीं किया है. इसके अलावा जो गंभीर चिंता का विषय है वो ये है कि कैंप में काम करने वाले कुछ हेल्थ वर्कर और एनजीओ के सदस्य भी कोरोना से संक्रमित हैं.
इतना ही नहीं, कैंप एरिया के अंदर व्यापक पैमाने पर खाद्यान्न की असुरक्षा व्याप्त है. चूंकि विस्थापित लोगों को बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं है इसकी वज़ह से वो पूरी तरह मानवाधिकार संगठनों द्वारा दिए जाने वाली मदद पर आधारित हैं. इस इलाक़े में विश्व खाद्य कार्यक्रम को लेकर कई चुनौतियां व्याप्त हैं, ना सिर्फ लॉजिस्टिक्स, मौसम और आंतरिक कलह बल्कि कई दूसरी चुनौतियां भी यहां मुंह बाये खड़ी हैं. इस वज़ह से विस्थापितों तक खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की अपनी सीमा बंधी हुई है. कैंपों में ज़रूरत से ज़्यादा लोगों के रहने की वज़ह से सोशल डिस्टेंसिंग और सेल्फ़ आइसोलेशन लगभग नामुमकिन जैसा है. इतना ही नहीं पानी के प्वाइंट और शौचालयों जिन्हें 600 लोग इस्तेमाल में लाते हैं, इसकी वज़ह से पानी से संबंधित साफ सफाई रख पाना बेहद मुश्किल है.
इसके अलावा साल 2019 से इंटरनेट कनेक्शन का अभाव भी बेहतर संवाद क़ायम करने और चुनौतियों से निपटने में तमाम तरह की समस्याएं पैदा करता रहा है. मानवाधिकार संगठनों ने कई बार सरकार को पत्र लिख कर मौज़ूदा स्थितियों के आलोक में इंटरनेट पर लगी रोक को हटाने की गुज़ारिश कर चुके हैं, लेकिन अभी तक इस बावत किसी भी तरह की पहल सरकार द्वारा नहीं की गई है और सत्ता में बदलाव के बावज़ूद भी विस्थापितों की ज़िंदगी में उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखाई देती है. बल्कि आने वाले दिनों में हिंसा और विस्थापितों को नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में और बढ़ोतरी ही होने की आशंका है.
बांग्लादेश रोहिंग्याओं का विरोध
बांग्लादेश के रोहिंग्याओं ने यह साफ कर दिया है कि मौज़ूदा समय में सेना की कार्रवाई का वो समर्थन नहीं करते हैं और ना ही उन्हें आंग सान सू की के भविष्य के बारे में कोई चिंता है. क्योंकि सू की ने भी उनकी, जब वो म्यांमार में रह रहे थे तब उनकी सुरक्षा और भविष्य को बेहतर बनाने के लिए कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठाया था. विस्थापितों ने तब अपने घरों को जलते हुए देखा , अपनी आंखों के सामने अपने प्रियजनों की हत्या होते देखा था. इन लोगों के वहां से पलायन के बाद भी उनके गांवों को तहस नहस कर दिया गया और मौज़ूदा समय में सैटेलाइट इमेज़ से यह साफ होता है कि उन इलाक़ों में बहुत ही कम कैंपों का निर्माण किया गया है. नतीज़तन इन विस्थापितों के पास अब ना तो कोई घर है और ना ही ज़मीन जिससे कि वो अपने इलाक़ों में वापसी कर सकें.
कई लोगों को तो ये चिंता सता रही है कि सत्ता पर सेना के कब्ज़े के बाद प्रत्यर्पण की प्रक्रिया में उनके हितों का शायद ही ध्यान रखा जाएगा और उनकी नागरिकता, सम्मान और सुरक्षा को तवज्जो दी जाएगी.
हालांकि, केंद्र में प्रजातांत्रिक सरकार के रहने से अभी भी उनमें उम्मीद बची है कि उनकी वापसी एक दिन मुमकिन हो पाएगी. कई लोगों को तो ये चिंता सता रही है कि सत्ता पर सेना के कब्ज़े के बाद प्रत्यर्पण की प्रक्रिया में उनके हितों का शायद ही ध्यान रखा जाएगा और उनकी नागरिकता, सम्मान और सुरक्षा को तवज्जो दी जाएगी.
बांग्लादेश की सरकार हालांकि मौज़ूदा सैन्य तख़्तापलट के बाद पूरी तरह से हिली हुई है, लेकिन सरकार के बयान में कहा गया है कि म्यांमार में सत्ता में हुए बदलाव का ये मतलब नहीं है कि प्रत्यर्पण प्रक्रिया को रोक दिया जाएगा. म्यांमार की सत्ता पर अब क़ाबिज़ सैन्य सरकार ने हालांकि कहा है कि इस साल के बाद फिर से रोहिंग्या विस्थापितों की प्रत्यर्पण की प्रक्रिया शुरू की जाएगी लेकिन पहले हुए प्रत्यर्पण के दौरान जिस तरह की स्थिति और उनसे बर्ताव किया गया वो मानवाधिकार के ख़िलाफ़ था और दुनिया भर में उसकी घोर आलोचना हुई थी. इस सबंध में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने जो फ़ैसला दिया था जिसे म्यांमार की प्रजातांत्रिक सरकार ने कुछ हद तक स्वीकार भी किया था, उस फ़ैसले को ‘तात्मादाव’ (म्यांमार की सेना) किसी भी सूरत में मानने वाले नहीं हैं. ऐसे में रखाइन और बांग्लादेश में रहने वाले रोहिंग्या विस्थापितों का भविष्य ख़तरे में है.
रोहिंग्या यहां तक कि वो भी जो बांग्लादेश में मौज़ूदा वक़्त में रह रहे हैं, म्यांमार में होने वाले वर्तमान विरोध प्रदर्शन के साथ जुड़ रहे हैं. वो तीन उंगलियों वाले सैल्यूट दिखा कर, जिसे म्यांमार के युवाओं ने विरोध के तौर पर प्रचारित किया है, इस आस में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में उन्हे ‘बाहरी’ बता कर उनके साथ किए जाने वाले विभेदीकरण में कमी आएगी. हालांकि उनका भविष्य अभी भी अधर में लटका हुआ है. ये बेहद ज़रूरी है कि उनके ख़िलाफ़ जारी विभेदीकरण की नीति में पूरी तरह बदलाव हो और इस लिहाज़ से इस संबंध में चौतरफा अंतर्राष्ट्रीय दबाव बेहद अहम हो जाता है. म्यांमार में फिर से प्रजातांत्रिक सरकार की सत्ता में वापसी होती है या नहीं लेकिन रोहिंग्या को लेकर तमाम सवाल बार बार उठाए जाने की तब तक ज़रूरत है जब तक कि इस समस्या का हल एक औपचारिक पॉलिसी फ्रेमवर्क बनाकर नहीं ढूंढ लिया जाता है. इतना ही नहीं, पहले प्रत्यर्पण को लेकर बांग्लादेश की नीति में भी पूरी तरह से बदलाव किए जाने की ज़रूरत है और रोहिंग्याओं के लिए एक मीडियम टर्म पॉलिसी को अमल में लाए जाने की आवश्यकता है. ऐसी ही कार्रवाई के द्वारा विस्थापित लोगों के सम्मान की रक्षा की जा सकेगी.
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