साल 2016 में जब से बिहार सरकार ने शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है, तबसे राज्य में इस प्रतिबंध को लागू करने में प्राप्त भारी विफलता एवं इसके विपरीत परिणामों की वजह से उसे इस फैसले के लिये काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है, जिसने बिहार के लोगों का विश्वास तक हिला दिया है. राज्य के वास्तविक राजनीति के अखाड़े में उच्च नैतिक आधार के मापदंड को स्थापित करने का यह प्रयास बग़ैर किसी वजह के पागलपन में उठाया गया एक कदम मात्र है.
शासन व्यवस्था की एक स्वयंसिद्ध नीति ये है कि, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक या कोई भी अन्य मूल्यों हो, तो उसको अमल के स्केल मे लाये जाने से पहले, उसका टेस्ट किया जाना चाहिए कि ये बदलाव कितना व्यवहारिक होगा या फिर कि इसमें कितना नफ़ा-नुकसान हो सकता है. इस तरह के फैसलों के अमल के पीछे चाहे जितनी भी अच्छी नीयत या उद्देश्य भले हो, परंतु अगर उसे अमल मे लाना दुष्कर है, तो उसे कभी भी संचालन में नहीं लाना चाहिए. वर्तमान परिदृश्य में, बिहार इस साधारण सी परीक्षा को अमल में लाने में असफल सिद्ध हुआ है.
अप्रैल 2016 में, बिहार ने भारतीय संविधान के आर्टिकल 47से प्रेरित होकर राज्य में पूर्ण रूप से शराब निषेधाज्ञा लागू किया, जो राज्य मेंऐसी किसी भी नशीली दवा, ड्रग के सेवन को प्रतिबंधित करती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
अप्रैल 2016 में, बिहार ने भारतीय संविधान के आर्टिकल 47 से प्रेरित होकर राज्य में पूर्ण रूप से शराब निषेधाज्ञा लागू किया, जो राज्य में ऐसी किसी भी नशीली दवा, ड्रग के सेवन को प्रतिबंधित करती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. ये मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार का राज्य की महिलाओं को किया गया चुनावी वायदा भी था, जिन्होंने अत्याधिक मात्रा में शराब सेवन की वजह से अपने पतियों,और परिवार के अन्य सदस्यों को खोया था. शराबखोरी से निपटने के लिए ही निषेधाज्ञा कानून को कठोर बनाया गया था. इस कानून के चंद प्रमुख बिंदुओं के अंतर्गत, अगर परिवार के किसीभी सदस्य को कानून का उल्लंघन करते हुए दोषी पाया गया तो, समूचे परिवार को ही गिरफ्त़ार किये जाने का प्रावधानहै.
बिहार में शराब व्यापार
ऐसे कठोर नियमों के बावजूद भी राज्य में शराबखोरी की घटना में कोई कमी नहीं आ रही है. बिहार का लोकेशन या यूं कहे कि उसकी भोगौलिक स्थिती ही वो कारण है जोबिहार की स्थिति को काफी दयनीय बना रही है. राज्य अपनी सीमा को नेपाल, पश्चिम बंगाल, झारखंड और उत्तरप्रदेश से बांटता है. इनमें से कोई भी राज्य शराबबंदी की हिमायती नहीं है, और ये देखते हुए कि पश्चिमबंगाल और झारखंड के आबकारी राजस्व में दर्ज रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी, खुद इस बात के साक्ष्य हैं कि इन पड़ोसी राज्यों से शराब की आवाजाही बिहार में बदस्तूर जारी है. दूसरी तरफ बिहार को राजस्व की भारी हानि भी सहनीपड़ रही थी, और राज्य के पर्यटन और व्यापार क्षेत्र को काफी नुकसान हो रहा था.
अनगिनत शराब त्रासदियों के परिणाम स्वरूप होने वाले मृत्यु, से पीड़ित बिहार, राज्य की इस मद्यनिषेध नीति आलोचनाओं के घेरे मे आ गई है. आलोचना करने वाले प्रमुख लोगों में राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री, लालू प्रसाद यादव भी थे. उन्होंने चेताते हुए कहा था कि काबिज मुख्यमंत्री को इससे राजस्व का नुकसान होगा और शराब तस्करों को अवैध कमाई के अवसर मिलजाएंगे. देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने भी इसकी कड़ी निंदा की थी. 26 दिसंबर 2021 को, एक सार्वजनिक मंच पर से बोलते हुए उन्होंने बिहार सरकार द्वारा शराबबंदी पर किये जा रहे प्रयोग की निंदा की थी. उन्होंने राज्यके इस शराबबंदी कानून को तैयार किए जाने के पीछे में अदूरदर्शिता की बदबू आने की बात कही थी,जिसके परिणामस्वरूप कचहरी में केसों की बाढ़ आ गई है. वो न्यायपालिका पर शराब से जुड़े मामलों के बढ़ते बोझ से नाराज़ दिखे. लाखों शराबबंदी के केस एवं बेल आवेदनों से पटना की निचली कोर्ट एवं हाई कोर्ट के लबरेज होने की वजह से राज्य की न्यायिक प्रशासन केऊपर बढ़ते अनावश्यक बोझ उनकी चिंता की प्रमुख वजह बना.
न्यायपालिका की हताशा, पटना हाई कोर्ट के हालिए दिए गये निर्णय में (अक्तुबर 2022) स्पष्ट झलकती है. इस निर्णय में ये स्पष्ट कहा गया है कि शराबबंदी के अमलीकरण में बिहार सरकार पूरी तरह से असफल सिद्ध हुई है.राज्य ने पिछले कुछ समय मेंऐसी कई शराब त्रासदियां देखी हैं जिसमें नागरिकों का जीवन ख़तरे में पड़ा है. इस वजह से काफी विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, जिस वजह से नाबालिगों, किशोरों, ग्रामीणों, राजनीतिज्ञों और पुलिस द्वारा बूटलेगिंग यानी कि शराब की तस्करी जैसे अपराध में बढ़ोत्तरी हुई है. न्यायाधीशने आगे ये भी ग़ौर किया कि राज्य में शराब बिल्कुल आसानी से उपलब्ध हैं, और नाबालिग लड़के ही शराब लाने-पहुंचाने का काम कर रहे थे, और शराब-बंदी के उपरांत ड्रग आदि की खपत काफी बढ़ गई है. उन्होंने पाया कि, शराब पीते गरीब लोगों की तुलना में, शराब उत्पादकों के ऊपर काफी कम मुकद्दमे दर्ज किए गए हैं. जांचकर्ता अधिकारी जानबूझ कर साक्ष्य के आधार पर आरोपों की पुष्टी करने से कतरा रहे हैं, ताकि ये माफ़िया आराम से अपना काम करते रहे और क़ानून की पहुंच से दूर रहे.
न्यायपालिका की हताशा, पटना हाई कोर्ट के हालिए दिए गये निर्णय में स्पष्ट झलकती है.इस निर्णय में ये स्पष्ट कहा गया है कि शराबबंदी के अमलीकरण में बिहार सरकार पूरी तरह से असफल सिद्ध हुई है.
देशभर में, बिहार जो आर्थिक रूप से सबसे पिछड़े राज्य के रूप में जाना जाता हैं, उसने इस शराबबंदी को लागू करके राजस्व के एक बहुत बड़े रेवेन्य के स्रोत को नजरंदाज़ कर दिया. जबकि, इस प्रतिबंध से किसीभी प्रकार की कोई सकारात्मक नतीजे नहीं आये हैं, वरन इस निर्णय ने राज्य को बदहाली की राह परजाने को मजबूर कर दिया है. 2015-16 के वर्ष के लिए, राज्य का आबकारी धन 4,000 करोड़ रूपये तक होनाअनुमानित किया गया था. प्रतिबंध लगाए जाने के सात वर्षों के उपरांत, आबकारी की कमाई में आमबढ़ोत्तरी दिए जाने के बावजूद राज्य को लगभग 40,000 करोड़ रुपयों का नुकसान हो चुका है.
ये ऐसे सभी राज्यों के लिये ज़रूरी हो जाता है कि इस तरह के सार्वजनिक प्रतिबंध की राह पर चलने से पूर्व वे ऐसे सभी देशों और राज्यों के बारे ज़रूर जानकारी इकट्ठा कर लें, जहां इस तरह के फैसले लागू किये हैं कि, उसकी अंतिम परिणितीक्या रही है, और उन मामलों के बारे में अवश्य पढ़ लें, जो इस राह पर चले थे. उदाहरण के लिए अमेरिका में,1920 में लागू किए गए शराब पर प्रतिबंध के उपरांत, अधिकारियों ने मिलावट वाली शराबखोरी की खपत में भारी वृद्धि दर्ज की थी. सुनियोजित अपराधों में भी काफी तेज़ी से वृद्धि पाया गया गया था. न्यायालय और जेल व्यवस्था असहनीय रूप से तनावपूर्ण हो गई थी. भारी संख्या में लोगों को जेलों मे ठूंस दिया गया था, और जेल का खर्च आसमान छूने लग गए थे. 1929 में, उप-अटर्नी जनरल नेबताया कि, शराब लगभग हर जगह, हर वक्त़, दिन-रात उपलब्ध है. शराब पर लगे प्रतिबंध से लोगों में इस तरह का संदेश गया कि मानो ये शराब उद्योग पर ही मौत का कील ठोंकने जैसा है, जिसकी वजह से लोगों ने बड़ी संख्या में नौकरी से हाथ धोया और लोगों की आजीविका में कमी उत्पन्न हो गयी. एक तरफ जहां देशको टैक्स से मिलने वाले राजस्व में तक़रीबन11 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ, वहीं इस कानून को लागू करने में300 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करना पड़ा. 1931के कमिशन ऑन लॉ ऑब्सर्वेंस एंड इनफोर्समेंट रिपोर्ट में इससे जुड़े व्यापक पुलिस और राजनैतिक भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा किया.अंततः दिसम्बर 1933 में, इस निषेधाज्ञा पर से लगे रोक को हटा लिया गया.
भारत में,हरियाणा ने अवैध डिस्टिलेशन और शराब तस्करी पर क़ाबू पाने में अक्षमता की वजह से अपने शराब परप्रतिबंध लगाने के प्रयास से हाथ खींच लिया. उसी तरह से तमिलनाडु और केरल ने भी शराब-निषेध लागू कियापर उसे पूरी तरह से अमल में लाये जाने में नाकाम रहने की वजह से क़ानून लाने से खुद को रोक लिया. उसीतरह से, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और मणिपुर ने भी प्रतिबंध लगा पाने में अपनी अक्षमता कीवजह से इस क़ानून को वापस ले लिया. यहाँ तक कि गुजरात राज्य में लागू शराबबंदी,एक पहेली साबित हो सकती है, ख़ासकर कि तब, जब उसकी सीमा पड़ोस में केंद्र शासित प्रदेश दमन से सटा हुआ है, जहां शराब का सेवन व बिक्री बेरोक-टोक होता है और प्रशासनिक मिलीभगत,की मदद से गुजरात को दमन से शराब की अनवरत सप्लाइ जारी है.
इसका ताज़ा परीक्षण हाल ही में महाराष्ट्र में हुआ जहां राज्य ने सन 2015 में चंद्रपूर ज़िले में शराबबंदी लागू की और फिर उसे 2021 में वापस ले लिया. सरकारी महकमों से प्राप्त आधिकारिक दावों केआधार पर, कलेक्टर को दिये गये रिपोर्ट में इसके परिणाम का उल्लेख किया गया है,जो कि बिहार में घट रही घटनाओं की ही नकल है. इस रिपोर्ट ने चंद्रपूर में शराबबंदी के प्रयास को पूरी तरह से असफल घोषितकिया. उसमें पाया गया कि इस दौरान अवैध और काला बाज़ारी के ज़रिये भारी मात्र में,अवैध और नकली शराब बाज़ार में फैलने लगा है. ज़िले में शराब के व्यापार के बढ़ने के बावजूद राज्य सरकार को राजस्व का काफी नुकसान हुआ हैं, चूंकि शराब से प्राप्त होने वाली राजस्व पूरी तरह से काले बाज़ारियों और निजी हाथों में घूमने लगी थी. इन पाँच वर्षों की शराबबंदी के दौरान ज़िले के सामाजिक, स्वास्थ्य,और आर्थिक मापदंड पर इसके प्रतिकूल प्रभाव दिखे. इस शराबबंदी की वजह से आपराधिक गतिविधियों में वृद्धि देखी गयी और काफी गिरफ्तारियां भी दर्ज हुईं. सबसे ज्य़ादा चिंतनीय मुद्दा था अवैध शराब के व्यापारमें बढ़ती महिलाओं और बच्चों की संलिप्तता.
आगे की राह
इन उदाहरणों से यह साबित हो चुका है कि इन प्रतिबंधों की सफलता के काफी कम अवसर है. जिन्हें पीने की लत लग चुकी है वे किसी भी प्रकार का जोख़िम लेने को तैयार होते हैं. आसान और ज्य़ादा धन कमाने की चाह, अंडरग्राउंड शराब माफियाओं और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के बीच की साझेदारी को फलने-फूलने का भरपूर मौका प्रदान करती है. यह प्रशासन के हाथों को ज़बरदस्त तरीके से मज़बूत कर देता है जिसकी आड़ में वो नागरिकों को परेशान कर सकें और उनपे दबाव डाल सकें. उसके साथ ही, राज्य को अपने राजस्व का भारी नुकसान उठाना पड़ता है जबकि बग़ैर किसी परिणाम की आशा के, इस कानून के अमलीकरण हेतु उन्हें काफी धन खर्च करना पड़ता है. इसलिए, समाज में वैध तौर पर, सामाजिक राक्षस समझे जाने वाले व्यसन से मुक्त़ एवं साफ-सुथरा करने की नैतिक संतुष्टि के अलावे, राज्य को और कोई खास उपलब्धि प्राप्त नहीं होती है. अब तो ये सार्वभौमिक तौर पर स्वीकृत है कि महिलाओं के नेतृत्व वाला समुदाय-आधारित दृष्टिकोण प्रतिबंध की तुलना में बेहतर परिणाम दे सकता है और बिहार जितनी जल्दी इस बात को समझ ले,ये राज्य और उसके नागरिक दोनों के लिए बेहतर होगा.
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