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आज के भारत के पास अपनी छोटी अर्थव्यवस्था और संरचनात्मक व संगठनात्मक कमज़ोरियों के बावजूद, चीन से ‘विश्व का कारखाना’ होने की उपाधि छीनने का अवसर है. ख़ासतौर से तब और जब चीन की प्रशासनिक व्यवस्था और इसकी सरकार पर से दुनिया का भरोसा काफ़ी कम हो गया है.
कोविड-19 के बाद के दौर में भारत के पास इस बात के लिए भरपूर अवसर हैं कि वो दुनिया का कारखाना बन जाए. क्योंकि, निर्माण करने वाली कंपनियां एक के बाद एक, चीन को अलविदा कह रही हैं. भारत के कई राज्यों के मंत्री इन कंपनियों को लुभाने के लिए पहले ही आकर्षक योजनाओं का एलान करने लगे हैं. ये देख कर ख़ुशी होती है कि मुख्य तौर पर खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री ने भी दुनियाभर में उथल-पुथल और निराशा के इस दौर में सामने खड़े अवसर को भांप लिया है. मीडिया में आई ख़बरों के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने फेडेक्स, यूपीएस, सिस्को, एडोब, लॉकहीड मार्टिन और बोस्टन साइंटिफ़िक जैसी सौ से अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कई तरह के प्रोत्साहन देने का वादा किया है. उत्तर प्रदेश सरकार ने इन कंपनियों से वादा किया है कि अगर वो उत्तर प्रदेश में अपनी इकाइयां लगाती हैं, तो ख़ास उनके लिए सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी. हालांकि, हम इन कंपनियों के भारत में अपनी इकाइयां लगाने की संभावना से उत्साहित हों, उससे पहले हमें कुछ कड़वी सच्चाइयों का भी सामना कर लेना चाहिए. राजनीतिक अर्थशास्त्र के जनक कहे जाने वाले एडम स्मिथ ने कहा था कि उत्पादन के तीन प्रमुख कारक हैं, ज़मीन, श्रम और पूंजी. आज भी उत्पादन के लिए इन तीन कारकों की अहमियत को दुनिया स्वीकार करती है. अब इसमें एक चौथा पहलू भी जुड़ गया है. और वो है उद्यमिता या आंत्रेप्रेन्योरशिप. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भारत को व्यापार के लिए सुगम राष्ट्र बनाने के लिए कई सकारात्मक क़दम उठाए हैं. इनकी मदद से भारत कारोबार करने के लिहाज़ से बेहतर राष्ट्रों की सूची में वर्ष 2019 में 63वें स्थान पर पहुंच गया है. लेकिन, भारत को मुख्य तौर पर कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था बनाने की दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है.
मोदी सरकार ने इन श्रम क़ानूनों में सुधार की भारी चुनौती का सामना करने की दिशा में क़दम बढ़ाए हैं. और, सरकार इन क़ानूनों को चार कोड में समेटने का प्रयास कर रही है. मगर, इस दिशा में आगे का सफ़र बेहद मुश्किल है. क्योंकि सरकार को इन श्रम क़ानूनों को बदलने के दौरान भारी राजनीतिक विरोध का सामना करना होगा.
इसके लिए जो क़दम उठाए जाने चाहिए उनमें पहला है क़ानूनी सुधार की शुरुआत करना. भारत के मौजूदा क़ानून, ख़ासतौर पर श्रम और रोज़गार से जुड़े क़ानूनों की तो तुरंत समीक्षा करने की ज़रूरत है. क्योंकि अभी तो ये क़ानून केवल लोगों को परेशान करने के काम आते हैं. नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगरिया ने भारत के श्रम क़ानूनों की पेचीदगी को इन शब्दों के माध्यम से बख़ूबी बयां किया था: ‘जब आप छह कामगारों वाली कंपनी से सात श्रमिकों वाली कंपनी की ओर अग्रसर होते हैं, तो ट्रेड यूनियन क़ानून लागू हो जाता है. और जब 19 कर्मचारियों की कंपनी में बीसवां कामगार जुड़ता है, तो कोई और क़ानून लागू होने लगता है. इसी तरह, 49 से 50 और 99 से 100 कर्मचारियों वाली कंपनी बनने पर होता है. सबसे ज़्यादा परेशानी खड़ी करने वाला एक्ट है, औद्योगिक विवाद का क़ानून. इस एक्ट के अनुसार अगर आपकी कंपनी 100 या इससे अधिक कर्मचारियों वाली निर्माण इकाई है, तो आप उनमें से किसी भी कर्मचारी को बिना सरकार से पहले इजाज़त लिए, किसी भी परिस्थिति में बर्ख़ास्त नहीं कर सकते हैं. और सरकार किसी कर्मचारी को बर्ख़ास्त करने की इजाज़त कभी नहीं देती. और ये क़ानून तब भी लागू होता है, अगर कोई कंपनी दिवालिया हो जाए. इस क़ानून के अनुसार दिवालिया होने पर भी आपको कर्मचारियों को भुगतान करना ही पड़ेगा. ऐसे क़ानून के बेहद दूरगामी नतीजे होते हैं. क्योंकि, कोई निवेशक ऐसे बाज़ार में क्यों पैसे लगाना चाहेगा, जहां से मुश्किल वक़्त में उसके निकलने का रास्ता ही न हो. तो, भारत में कई बेहद हानिकारक श्रम क़ानून लागू हैं. और मेरी नज़र में यही सबसे बड़ा कारण है कि औसत भारतीय कंपनियां विकसित होकर विशाल नहीं हो सकी हैं.’
हालांकि, मोदी सरकार ने इन श्रम क़ानूनों में सुधार की भारी चुनौती का सामना करने की दिशा में क़दम बढ़ाए हैं. और, सरकार इन क़ानूनों को चार कोड में समेटने का प्रयास कर रही है. मगर, इस दिशा में आगे का सफ़र बेहद मुश्किल है. क्योंकि सरकार को इन श्रम क़ानूनों को बदलने के दौरान भारी राजनीतिक विरोध का सामना करना होगा. 2019 का कोड ऑफ़ वेज़ेस (Code of Wages), जो श्रम क़ानूनों की श्रृंखला की पहली कड़ी है, उसे वर्ष 2019 में संसद में पेश किया गया था. संसद ने इसे मंज़ूरी भी दे दी है. वहीं इस संबंध में लाया गया दूसरा कोड जो रोज़गार के दौरान श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की परिस्थितियों को परिभाषित करेगा, वो अभी भी संसद की स्थायी समिति के पास विचाराधीन है. श्रम क़ानूनों से संबंधित जो तीसरा कोड है, वो यानी इंडस्ट्रियल रिलेशन्स कोड 2019, लोकसभा में पेश किया जा चुका है. ये सबसे अधिक विवादित श्रम क़ानून है. हालांकि, ये नया विधेयक 2017 में लाए गए कोड का ही संशोधित रूप है. जिसे भयंकर विरोध के चलते सरकार को वापस लेना पड़ा था. आज भारत के लिए ये बेहद आवश्यक हो गया है कि वो स्वयं को निवेश के आकर्षक ठिकाने के तौर पर पेश करे. सरकार को चाहिए कि वो इन श्रम क़ानूनों को जल्दी से जल्दी पास कराने की कोशिश करे, ताकि भारत में निवेश के लिए आ रहे प्रस्तावों को जल्द से जल्द मंज़ूरी दी जा सके.
श्रम क़ानूनों के संदर्भ में एक और बदलाव लाना बेहद महत्वपूर्ण है. कारोबार के क्षेत्र में कुछ ऐसी ग़लतियों को सिविल क़ानूनों के दायरे में लाना ज़रूरी है, जिन्हें आपराधिक श्रेणी में रखा गया है. हालांकि, व्यापारिक गतिविधियों के दौरान की जाने वाली ये गड़बड़ियां आम तौर पर सिविल क़ानूनों के दायरे में ही आनी चाहिए. कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) की ज़िम्मेदारियों को न निभाने वालों के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्रवाई के प्रस्ताव को वापस लेना, इस दिशा में सरकार द्वारा उठाया गया बिल्कुल उचित क़दम था. हालांकि, अभी भी कई ऐसे क़ानून हैं, जो किसी कंपनी के उच्च प्रबंधन को आपराधिक जांच के दायरे में लाते हैं. जबकि मूलरूप से ये गड़बड़ियां सिविल क़ानूनों का हिस्सा होनी चाहिए. जैसे कि कंपनीज़ एक्ट या कर्मचारी भविष्य निधि से जुड़े क़ानून व ऐसे ही अन्य एक्ट. सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि इन सभी प्रावधानों में उचित संशोधन किया जाए ताकि आपराधिक जवाबदेही के बजाय ऐसी ग़लतियों के लिए जुर्माने के प्रावधान हों.
जिस दूसरे विषय पर केंद्र और राज्यों की सरकारों को ध्यान देने की ज़रूरत है, वो ज़मीन अधिग्रहण का मसला है. भारत के 29 राज्यों में ज़मीन अधिग्रहण के 1200 से अधिक क़ानून लागू हैं. ये सभी क़ानून मिलकर एक ऐसी भूलभुलैया बनाते हैं, जिनसे निकल पाना किसी भी निवेशक के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा राज्यों में स्टैंप कर की भारी भरकम दर और ज़मीन से जुड़े अन्य टैक्स मिल कर उद्योगों के विकास की राह में ऊंची दीवार खड़ी कर देते हैं. वहीं, 2013 का ज़मीन अधिग्रहण क़ानून बेहद सख़्त शर्तों वाला है, जो कारोबारियों के लिए ज़मीन अधिग्रहण करना बेहद पेचीदा चुनौती बना देता है.
ज़मीन का विषय हमारे संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्यों के खाते में दर्ज है. इस कारण से ज़मीन के मसले पर राज्य चाहें, तो वो संघीय क़ानूनों को संशोधित करने के लिए स्वतंत्र हैं. इससे ज़मीन अधिग्रहण का मसला और मुश्किल हो जाता है
हालांकि, मोदी सरकार ने 2013 के ज़मीन अधिग्रहण क़ानून को 2015 में बदलने का प्रयास किया था. और इसकी कुछ गड़बड़ियों को दूर करने की कोशिश की थी. लेकिन, संसद के बाहर और भीतर भयंकर विरोध के कारण, सरकार को इन सुधारों को ठंडे बस्ते में डालने को मजबूर होना पड़ा था. ज़मीन का विषय हमारे संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्यों के खाते में दर्ज है. इस कारण से ज़मीन के मसले पर राज्य चाहें, तो वो संघीय क़ानूनों को संशोधित करने के लिए स्वतंत्र हैं. इससे ज़मीन अधिग्रहण का मसला और मुश्किल हो जाता है. औद्योगिक कंपनियों के चीन से बाहर किसी अन्य देश में कारोबार स्थानांतरित करने की चर्चा को भारतीय राजनेताओं को अपने लिए एक बढ़िया अवसर मान कर उसे फ़ौरन लपक लेना चाहिए. इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रयासों की सराहना किए जाने की ज़रूरत है. जिस सरलता से एक्सप्रेसवे बनाने की योजना और औद्योगिक गलियारों के विकास के लिए ज़मीन का अधिग्रहण किया गया है वो इस बात का शानदार प्रमाण है कि किस तरह राजनीतिक इच्छाशक्ति होने से कई बार औद्योगिक विकास की राह सुगम होती है. और इसकी वजह से राज्य में विकास और समृद्धि आने के द्वार खुलते हैं. आज भारत के अधिकतर राज्यों में बीजेपी का शासन है. इस बात को ध्यान में रखते हुए अगर बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व ये संकेत देता तो ज़मीन अधिग्रण की राह सुगम बनाई जा सकती है. लेकिन, सरकार को चाहिए कि वो एक उचित क़ानूनी संशोधन करे. ताकि, अदालतों में ज़मीन अधिग्रहण से जुड़े विवादों का एक तय समयसीमा के तहत निपटारा हो सके. ज़मीन अधिग्रहण को चुनौती देने के लिए उपलब्ध तमाम विकल्पों (इनमें हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी शामिल हैं) के चलते, अक्सर ज़मीन अधिग्रहण के मुक़दमे बीस बीस साल तक अदालतों में लंबित रह जाते हैं. मोदी सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर ज़मीन अधिग्रहण को लेकर कोई विवाद भी है, तो उसे तय समय सीमा के अंतर्गत बेहद कुशलता से निपटाया जाए. इसके लिए, ज़मीन मामलों के विशेषज्ञों का एक अलग ट्राइब्यूनल बनाना, अदालतों को ऐसे विवादों के बोझ से मुक्त करेगा. साथ ही साथ ज़मीन अधिग्रहण के विवादों का तेज़ और प्रभावशाली तरीक़े से निपटारा भी होगा. ऐसा होने पर कारोबार के लिए सुगम माहौल बनाने में मदद मिलेगी. ज़मीन अधिग्रहण के विवाद के त्वरित निपटारे के लिए, मसले को अदालत में ले जाने से पहले एक पंचायत के ज़रिए आपसी समझौते से निपटाने की कोशिश को बाध्यकारी बनाना भी इस दिशा में उठाया गया उचित क़दम हो सकता है.
किसी भी विकसित होती अर्थव्यवस्था में वाणिज्यिक विवाद होना बेहद क़ुदरती प्रक्रिया है. ऐसे में न्यायिक व्यवस्था के लिए ये आवश्यक है कि वो तेज़ी और असरदार तरीक़े से ऐसे विवादों का निपटारा करे. और ऐसी व्यवस्था की कमी से किसी भी देश में निवेशकों का भरोसा कमज़ोर होता है.
और आख़िर में एक और विषय जो हमारे दिल के क़रीब है, और जो किसी भी निवेशक को हतोत्साहित करने का काम करता है. वो है विवादों के त्वरित गति निपटारे की मज़बूत व्यवस्था का न होना. किसी भी विकसित होती अर्थव्यवस्था में वाणिज्यिक विवाद होना बेहद क़ुदरती प्रक्रिया है. ऐसे में न्यायिक व्यवस्था के लिए ये आवश्यक है कि वो तेज़ी और असरदार तरीक़े से ऐसे विवादों का निपटारा करे. और ऐसी व्यवस्था की कमी से किसी भी देश में निवेशकों का भरोसा कमज़ोर होता है. और इससे ये धारणा बनती है कि अगर किसी ने निवेश किया, तो उसका पैसा फंस भी सकता है.
जैसा कि ज़्यादातर विकसित देशों में होता है, भारत सरार को भी चाहिए कि वो वैकल्पिक विवाद निस्तारण की व्यवस्थाओं को बढ़ावा दे. जैसे कि मध्यस्थता अथवा पंचायत के माध्यम से. हालांकि, मोदी सरकार ने 1996 के आर्बिट्रेशन एक्ट में संशोधन किया है. ताकि, इस क़ानून को बदलते हुए समय की मांग पूरी करने लायक़ बनाया जा सके. लेकिन, अभी भी पंचायती व्यवस्था के माध्यम से विवाद का निपटारा करना बेहद महंगा पड़ता है. इसी वजह से छोटी कंपनियां इस व्यवस्था का लाभ नहीं ले पाती हैं. आर्बिट्रेशन को बढ़ावा देने के लिए संस्थागत व्यवस्था जैसे कि LICA (London Internation Court of Arbitraion) का अभाव होने के कारण ही पंचायत के ज़रिए विवाद निपटाने की व्यवस्था में लोगों का अविश्वास बना हुआ है. सरकार को चाहिए कि वो विधायिकी व्यवस्था के ज़रिए इस बात को अनिवार्य बना दे कि किसी भी कारोबारी विवाद के निपटारे को अदालत में ले जाने से पहले पंचायत के माध्यम से उसका निपटारा करने की कोशिश होनी चाहिए. इससे हमारी न्यायिक व्यवस्था पर दबाव को कम करने में भी मदद मिलेगी और साथ ही साथ विवाद का सामना कर रहे पक्षों को भी त्वरित गति से राहत मिल सकेगी.
और जहां तक अदालतों में न्याय की पूरी प्रक्रिया का पालन करने की बात है, तो अब इस बात का समय आ गया है कि किसी भी मुक़दमे के निपटारे के लिए एक समय सीमा निर्धारित होनी चाहिए. और साथ में उनका पालन भी होना चाहिए. ख़ासतौर से वाणिज्यिक विवादों में मामले में तो ये और भी ज़रूरी है. इस देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी सुस्त है कि किसी भी सामान्य सिविल विवाद का निपटारा होने में बरसों बीत जाते हैं. क्योंकि एक अदालत के फ़ैसले के बात उसके ख़िलाफ़ अपील करने के लिए कई ऊपरी न्यायालय, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मौजूद हैं. इस कारण से क़ानूनी प्रक्रिया, इसका उल्लंघन करने वालों को परेशान करने के लिए औज़ार की तरह इस्तेमाल की जाने लगती है. और ऐसा माहौल किसी भी संभावित विदेशी निवेशक को हतोत्साहित करने का काम करता है. ऐसा धीमा और प्रतिक्रियाविहीन सिस्टम निवेश की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता. जो कि कोई भी निवेशक, पैसा लगाने से पहले चाहेगा. वर्ष 2019 में संसद के सामने प्रस्तुत किए गए आर्थिक सर्वे में न्यायिक सुधारों का ज़िक्र किया गया था. सर्वे में कहा गया था कि न्यायिक विवादों के निपटारे में देर होने का प्रमुख कारण न्यायिक अधिकारियों का अभाव है. इस सर्वे के अनुसार देश भर में कुल लंबित मामलों में से 87 प्रतिशत केस इस समय निचली अदालतों में निपटारे का इंतज़ार कर रहे हैं. सर्वे में आगे कहा गया है कि इसकी प्रमुख वजह निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के पदों का ख़ाली होना है. सर्वे में इसके लिए तीन राज्यों, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल का ख़ासतौर से ज़िक्र किया गया है. और साथ ही कहा गया है कि निचली अदालतों का कामकाज सुधारने के लिए इन तीन राज्यों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है. ख़ाली पदों को भरने के अलावा, इकोनॉमिक सर्वे में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया था कि न्यायिक अधिकारियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी ज़रूरी उपाय किए जाने चाहिए. न्यायालयों की प्रशासनिक व्यवस्था में नई तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाने और उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में काम काज के दिनों में वृद्धि करने जैसे कई और सुझाव भी इकोनॉमिक सर्वे में दिए गए थे.
एक और मसला जो अतीत में गंभीर चिंता का कारण बना है वो है न्यायिक अति सक्रियता है. यहां पर लोगों को 2G स्पेक्ट्रम घोटाले और कोयला घोटाले में अदालत के फ़ैसलों का ध्यान आता है. जहां पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़ कर निवेशकों के लाइसेंस रद्द कर दिए थे. जबकि निवेशकों ने इन्हें हासिल करने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारी पूंजी का निवेश किया था. न्यायिक सक्रियता का सबसे ताज़ा मामला टेलीकॉम कंपनियों द्वारा सरकार को एजीआर (AGR) के भुगतान का है. इस विषय में अदालत के आदेश ने संचार कंपनियों को उस समय तगड़ा झटका दिया, जब वो पहले से ही भारत जैसे बाज़ार में वित्तीय संकट का सामना कर रही थीं. इस मामले में बेहतर ये होता कि बीच का रास्ता निकाला जाता. ताकि, अदालत के आदेश से अर्थव्यवस्था पर इतना विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता. साथ ही साथ दोषियों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई भी की जाती. अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों में न्यायालयों की अति सक्रियता की चुनौती से निपटने के लिए सिविल सेवाओं की ही तरह अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जा सकता है. ऐसी सेवा के गठन से सरकार न्यायिक अधिकारियों को इस बात के लिए प्रशिक्षित कर सकेगी जिससे वो अपने फ़ैसलों के आर्थिक दुष्प्रभावों का आकलन कर सकें. और किसी भी केस का फ़ैसला सिर्फ़ क़ानूनी और संवैधानिक पहलुओं के आधार पर न करें.
और आख़िर में हम सोलहवीं सदी के एक क़िस्से का ज़िक्र करना चाहेंगे, जो विश्व के मौजूदा माहौल पर बिल्कुल सटीक बैठता है. वर्ष 1588 में ब्रिटेन में महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम के शासन काल में, स्पेन के साम्राज्य ने अपने एक नौसैनिक बेड़े को उनके प्रोटेस्टेंट साम्राज्य को नष्ट करने के लिए भेजा था. ब्रिटेन का नौसैनिक बेड़ा उस समय जहाज़ों के लिहाज़ से भी और उनकी विशालता के लिहाज़ से भी, स्पेन के आगे कहीं नहीं ठहरता था. उस समय स्पेन, यूरोप की सबसे बड़ी समुद्री और औपनिवेशिक ताक़त था. लेकिन, अपने छोटे जहाज़ों और छोटी सी नौसेना से ही ब्रिटेन ने स्पेनिश आर्माडा पर हमला बोला और उसे तबाह कर दिया था. जिससे स्पेन की समुद्री बादशाहत हमेशा के लिए ख़त्म हो गई थी. और उसके बाद विश्व का शक्ति संतुलन बदल गया. ब्रिटेन, साम्राज्यवाद की सबसे बड़ी ताक़त बन कर उभरा. स्पेन पर इस विजय के बाद, ब्रिटेन कई सदियों तक दुनिया की सबसे बड़ी नौसैनिक सुपरपावर बना रहा था. आज के भारत के पास अपनी छोटी अर्थव्यवस्था और संरचनात्मक व संगठनात्मक कमज़ोरियों के बावजूद, चीन से ‘विश्व का कारखाना’ होने की उपाधि छीनने का अवसर है. ख़ासतौर से तब और जब चीन की प्रशासनिक व्यवस्था और इसकी सरकार पर से दुनिया का भरोसा काफ़ी कम हो गया है. आज चीन की कम्युनिस्ट सरकार के कई व्यापारिक साझीदार उसे लेकर आशंकित हैं. अब हम इस अवसर का लाभ उठा पाने में सफल होते हैं या नहीं. ये एक बड़ा सवाल है, जिसका जवाब मिलना अभी बाक़ी है.
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Mr. Raghav Awasthi is a graduate of the NALSAR University of Law and practises law before the Supreme Court of India. He is also a ...
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