यह लेख निबंध श्रृंखला “करगिल@25: विरासत और उससे आगे” का हिस्सा है.
किसी भी देश के इतिहास में कुछ ऐसे निर्णायक पल आते हैं, जो उनके द्विपक्षीय संबंधों को बदल सकते हैं, खासकर तब जबकि वो दोनों देश एक विवादित और तनावपूर्ण अतीत साझा करते हों. ऐसे क्षण लोगों की राजनीतिक और रणनीतिक यादों में दर्ज हो जाते हैं. 1999 में हुआ करगिल युद्ध ऐसा ही एक पल था. करगिल युद्ध को इस बात के लिए तो याद किया ही जाता है कि भौगोलिक स्थिति के हिसाब से कमज़ोर होने के बावजूद भारत ने पाकिस्तान पर ऐतिहासिक विजय हासिल की. इसके साथ ही ये युद्ध अमेरिका के साथ भारत के संबंधों की दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ. क्लिंटन प्रशासन ने भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई और दक्षिण एशिया में बदलते समीकरणों के लिए मंच तैयार किया. पाकिस्तान लंबे समय से अमेरिका का प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी रहा लेकिन क्लिंटन प्रशासन ने भारत के खिलाफ संघर्ष में पाकिस्तान की मदद करने से इनकार कर दिया था. इतना ही नहीं अमेरिका ने एक झटके में इस बात को भी मान लिया कि पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा (एलओसी) को पार करके अवैध घुसपैठ की थी. इसके बाद दक्षिण एशिया में अमेरिका द्वारा नीतिगत बदलावों की एक श्रृंखला शुरू हुई, जिसने भारत को अमेरिकी रणनीतिक योजनाओं के केंद्र में ला दिया.
करगिल युद्ध से पहले भारत और अमेरिका के संबंधों में बहुत गतिशीलता नहीं थी. इसकी एक वजह 1998 में भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण और अमेरिका द्वारा लगाए गए ग्लेन संशोधन प्रतिबंध थे.
करगिल युद्ध से पहले और उसके बाद के वर्ष दक्षिण एशिया में महान शक्तियों की भागीदारी को नया आकार देने के हिसाब से निर्णायक थे. करगिल युद्ध से पहले भारत और अमेरिका के संबंधों में बहुत गतिशीलता नहीं थी. इसकी एक वजह 1998 में भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण और अमेरिका द्वारा लगाए गए ग्लेन संशोधन प्रतिबंध थे. लेकिन यही वो समय था जब भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही थी. दुनिया के लिए भारत एक उभरता हुआ बाज़ार था और दुनिया समेत अमेरिका ने भारत की संभावित क्षमता को पहचानना शुरू कर दिया था. यही वो कारण थे, जिन्होंने अमेरिका को भारत पर लगाए प्रतिबंध ख़त्म करने की वजहें दीं. इनमें से कुछ प्रतिबंधों को तो लागू करने के छह महीने से भी कम समय में हटा लिया गया.
एशिया में अमेरिकी हित इन दिनों महत्वपूर्ण बदलावों के दौर से गुज़र रहे थे. 1997 में क्लिंटन प्रशासन ने दक्षिण एशिया की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद नीति समीक्षा का आयोजन किया. इसका नतीजा ये हुआ कि इस क्षेत्र के साथ अमेरिका का सहयोग बढ़ा. एशिया में लगभग एक दशक तक अमेरिका का एकध्रुवीय प्रभुत्व रहा लेकिन यहां के तेज़ी से बदल रहे सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य ने अमेरिका को सामान्य रूप से एशिया और विशेष रूप से भारत को अपने दीर्घकालिक स्ट्रैटेजिक विज़न में शामिल करने के लिए प्रेरित किया. 1990 के दशक में ही पूरे मध्य पूर्व में कट्टरपंथ बढ़ रहा है. इसने भी अमेरिका को प्रशांत क्षेत्र की तरफ पूर्व की ओर देखने के लिए मज़बूर किया, जो बाद में अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति बन गई. एशिया के भू-आर्थिक परिदृश्य में इन संरचनात्मक बदलावों ने अमेरिकी हितों को फिर से स्थापित किया. करगिल संघर्ष ने क्लिंटन प्रशासन को दक्षिण एशिया में अपनी क्षेत्रीय नीति को फिर से व्यवस्थित करने का मौका भी दिया.
अमेरिका की प्रतिक्रिया में इस क्षेत्र में खुद को नए सिरे से स्थापित करने की मज़बूरी भी शामिल थी. पश्चिम एशिया, ख़ासकर अफ़गानिस्तान में बढ़ते कट्टरवाद से उपजी निराशा ने क्लिंटन प्रशासन पर प्रभाव डाला. इसी के बाद अमेरिका ने भारत की सीमा में घुसपैठ के मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव डालने का फैसला किया. अमेरिका ने ये बात दोहराई कि कश्मीर विवाद एक द्विपक्षीय मुद्दा है और उसने इसमें दख़ल देने से इनकार कर दिया. ये अमेरिका की नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक था. ये फैसला अमेरिका के व्यापक रणनीतिक बदलावों का भी प्रतिबिंब था, क्योंकि अमेरिका अपनी वैश्विक रणनीति के हिसाब से तेज़ी से महत्वपूर्ण होते जा रहे क्षेत्रों में अपने हितों को स्थिर करने की कोशिश कर रहा था.
अमेरिका ने ये बात दोहराई कि कश्मीर विवाद एक द्विपक्षीय मुद्दा है और उसने इसमें दख़ल देने से इनकार कर दिया. ये अमेरिका की नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक था.
चूंकि अमेरिका 1998 में किए गए भारत के परमाणु परीक्षणों का पता लगाने में नाकाम रहा था, जिससे उसे शर्मिंदंगी झेलनी पड़ी थी. इतना ही नहीं दक्षिण एशिया के दो देशों के पास परमाणु हथियार होने से इनके प्रसार संबंधी चिंताएं भी बढ़ गई थी, क्योंकि भारत के कुछ दिन बाद ही पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किए थे. ऐसे में रणनीतिक रूप से पश्चिम एशिया में अमेरिकी विदेश नीति और रणनीति के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता काफी कम हो गई थी.
कश्मीर संघर्ष
पाकिस्तान की सीमापार घुसपैठ की कोशिश और 1999 का कश्मीर संघर्ष क्लिंटन प्रशासन के लिए चिंता का एक बड़ा कारण था. यही वो समय था जब भारत और पाकिस्तान द्वारा किए परमाणु परीक्षणों से पैदा हुई उथल-पुथल के बाद अमेरिका एक बार फिर दक्षिण एशिया के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहा था. 1993 में जब क्लिंटन प्रशासन ने सत्ता संभाली थी, तब 1992 में बनाया गया दक्षिण एशिया ब्यूरो सिर्फ़ एक साल पुराना था. इस ब्यूरो का गठन दक्षिण एशिया के साथ अमेरिकी विदेश विभाग के संबंधों को बढ़ाने की दिशा में उठाए हए कदमों का एक हिस्सा था. लेकिन पाकिस्तान के मंसूबों के कारण अमेरिका की ये योजनाएं विफल हो रही थीं. मई और जुलाई 1999 के बीच पाकिस्तान की तरफ से लगातार की जा रही घुसपैठ ने कश्मीर के करगिल सेक्टर में बड़े पैमाने पर कब्जे की कोशिश और संघर्ष का रूप ले लिया. इसका नतीजा ये हुआ कि दोनों देशों के बीच बड़ा युद्ध हुआ और कई लोगों की जान गई. क्लिंटन प्रशासन शांति चाहता था. उसे आशंका थी कि ये संघर्ष कहीं व्यापक युद्ध में ना बदल जए. इसलिए 4 जुलाई को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को वॉशिंगटन बुलाया गया. यहां अमेरिका ने पाकिस्तान को फटकार लगाई और क्लिंटन सरकार ने पाकिस्तान से कहा कि वो अपने घुसपैठियों को वापस बुलाए. लेकिन इस बीच पाकिस्तान में नागरिक और सैन्य संबंधों पूरी तरह टूट हए. पाकिस्तानी आर्मी के चीफ परवेज़ मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ सरकार का तख़्तापलट कर दिया. इसका परिणाम ये हुआ कि अब पाकिस्तान पर अमेरिका उस तरह असर नहीं डाल सकता था, जैसा वो पहले कर सकता था. तख़्तापलट के बाद पाकिस्तान को दी जाने वाली सभी तरह की अमेरिकी सहायता तुरंत रोक दी गई. इस सब घटनाक्रम के बीच भारत ने एक अच्छा काम ये किया कि वाजपेयी सरकार ने कश्मीर में घुसपैठ में पाकिस्तान का हाथ होने को लेकर अमेरिका के साथ पर्याप्त सबूत साझा कर दिए थे.
करगिल युद्ध क्लिंटन प्रशासन के लिए एक अवसर और चुनौती दोनों था. भारत और पाकिस्तान सबसे नए परमाणु संपन्न देश थे. दोनों देशों ने परमाणु प्रतिरोध की सीमाओं का परीक्षण किया था. दक्षिण एशिया में अब तक ऐसा नहीं हुआ था.
क्लिंटन प्रशासन की कोशिश क्षेत्रीय शांति स्थापित करने की थी. अमेरिका जानता था कि अगर ये युद्ध बढ़ा तो फिर परमाणु संघर्ष में भी बदल सकता है. इसलिए इसे रोका जाना ज़रूरी था. साल 1959 में आइजनहावर के बाद से किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत की यात्रा नहीं की थी. करगिल युद्ध क्लिंटन प्रशासन के लिए एक अवसर और चुनौती दोनों था. भारत और पाकिस्तान सबसे नए परमाणु संपन्न देश थे. दोनों देशों ने परमाणु प्रतिरोध की सीमाओं का परीक्षण किया था. दक्षिण एशिया में अब तक ऐसा नहीं हुआ था. स्थिति ये हो गई थी कि पारंपरिक युद्ध के दायरे में रहकर ही भारत एक व्यापक जवाबी रणनीति तैयार कर रहा था. ये एक बड़े युद्ध का संकेत था. भारत अपने ऑपरेशन तलवार के ज़रिए कराची के आसपास एक नौसैनिक नाकाबंदी की योजना बना रहा था. इन मजबूरियों ने क्लिंटन प्रशासन को अमेरिका के परंपरागत रुख़ से हटकर अपने एक प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगी पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए प्रेरित किया. वाजपेयी सरकार ने भी भारत के पक्ष में बात करने के अमेरिकी रुख़ की सराहना की. ये पहली बार था जब युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान की बजाए खुलकर भारत का समर्थन किया.
21वीं सदी के लिए साझा दृष्टिकोण
मार्च 2000 में क्लिंटन की दक्षिण एशिया यात्रा निर्णायक भी थी और नाटकीय भी. इस दौरे ने ये दिखाया कि दक्षिण एशिया को अमेरिकी कूटनीतिक गलियारे में नए सिरे से अहमियत मिल रही है. इस दौरान क्लिंटन ने बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान की यात्रा की. भारत में उनका स्वागत एक रॉकस्टार की तरह हुआ. लेकिन उनकी पाकिस्तान यात्रा इस चिंता से घिरी हुई थी कि कहीं अल-क़ायदा आतंकवादी हमला ना करे दे. एक आशंका ये भी जताई जा रही थी कि उनकी यात्रा मुशर्रफ़ सरकार और तख़्तापलट को वैध बना देगी. बांग्लादेश यात्रा में भी उनकी हत्या का डर था. क्लिंटन की इस यात्रा में भारत की बड़ी खुली अर्थव्यवस्था और स्थिर लोकतंत्र के साथ दक्षिण एशिया के अन्य क्षेत्रीय देशों का विरोधाभास स्पष्ट रूप से दिखाया.
वाजपेयी और क्लिंटन ने "अमेरिका-भारत संबंध: 21 वीं सदी के लिए एक विज़न" शीर्षक से एक संयुक्त बयान जारी किया. इस बयान में दोनों देशों और उनके लोगों के बीच मूल्य-आधारित समानताओं का उल्लेख किया गया था. स्वतंत्रता और लोकतंत्र को शांति और समृद्धि का मजबूत आधार बताते हुए इस साझा बयान में भारत और अन्य क्षेत्रीय देशों के बीच के अंतर को भी स्पष्ट रूप से दिखाया गया था. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि ये क्षेत्र सैन्य तानाशाही, आतंकवाद, गृहयुद्ध और आंतरिक संघर्ष से उत्पन्न अस्थिरता में घिरा हुआ था. लोकतंत्र पर क्लिंटन प्रशासन का मज़बूत ज़ोर एशियन सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस की स्थापना के रूप में भी दिखा. इसका उद्देश्य गणतांत्रिक शासन के लिए एक लोकतांत्रिक समुदाय बनाना था.
करगिल युद्ध के बाद के हालात ने अमेरिका को ये एहसास करा दिया कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय देशों के साथ इसके सहयोग की कितनी गुंजाइश है और इसकी सीमाएं क्या हैं. इस अनुभव ने अमेरिका-भारत द्विपक्षीय संबंधों में नए द्वार खोले.
भारत और अमेरिका ने अपने नेतृत्व में एक नए सूचना युग की शुरुआत की घोषणा भी की. भारत को आर्थिक विकास पहल (आईईडी) के लिए इंटरनेट में शामिल किया गया. इसका उद्देश्य सभी लोगों तक सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों की पहुंच बनाना और डिजिटल विभाजन को पाटना था. संयुक्त बयान ने शांति में साझेदारी की घोषणा करते हुए एक नए सूचना युग में नेतृत्व की नींव रखी. इसका मक़सद "क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक समान हित और पूरक ज़िम्मेदारी के साथ" काम करना था. लेकिन इस साझा बयान में शायद सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि भारत और अमेरिका ने इस बात को स्वीकार किया कि दक्षिण एशिया की समस्याओं को सिर्फ इस क्षेत्र के देशों द्वारा हल किया जा सकता है. इस कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की पाकिस्तान की कोशिशों को तगड़ा झटका दिया.
इस समय तक भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण को करीब एक दशक बीत चुका था. भारत की स्थिर आर्थिक साख और छोटे व्यवसायों की क्षमता ने अमेरिका के सामने एक अवसर पेश किया. क्लिंटन प्रशासन ने भारत के साथ व्यापार संबंध मज़बूत करने के लिए कई बड़े फैसले किए. भारत में अमेरिकी निर्यात बढ़ाने के लिए क्लिंटन प्रशासन ने 2 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता की घोषणा की. अमेरिकी निर्यात-आयात बैंक ने भारत को छोटे व्यवसायों के निर्यात के लिए पर्याप्त वित्तीय मदद, भारतीय आयातकों को रुपया-मूल्यवर्ग की ऋण की गारंटी और जेट एयरवेज द्वारा 10 बोइंग यात्री विमानों की खरीद के लिए वित्तीय सहायता की पेशकश की. स्वास्थ्य के क्षेत्र में तीन बीमारियों यानी पोलियो उन्मूलन, तपेदिक और एचआईवी/एड्स पर नियंत्रण के लिए भी दोनों देशों के बीच सहयोग मज़बूत हुआ.
20वीं सदी में अलग-अलग हितों के कारण भारत और अमेरिका एक दूसरे की विपरीत दिशा में थे. 1993 में जब बिल क्लिंटन ने कार्यभार संभाला, तब भी भारत और अमेरिका का दृष्टिकोण एक जैसा नहीं था. लेकिन करगिल युद्ध और भारत में तेज़ी से हो रहे विकास ने भारत-अमेरिका संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया. करगिल युद्ध के बाद के हालात ने अमेरिका को ये एहसास करा दिया कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय देशों के साथ इसके सहयोग की कितनी गुंजाइश है और इसकी सीमाएं क्या हैं. इस अनुभव ने अमेरिका-भारत द्विपक्षीय संबंधों में नए द्वार खोले. इसके बाद की अमेरिकी सरकारों को ये समझ आ गया कि गैर-नाटो सहयोगी के रूप में पाकिस्तान अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा. यही वजह है कि अमेरिकी प्रशासन ने भारत के साथ अपनी साझेदारी को मज़बूत बनाना जारी रखा. बाइडेन प्रशासन द्वारा अफ़गानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का फैसला और उसके बाद काबुल और इस्लामाबाद में राजनीतिक-सुरक्षा अराजकता ने इस बात के संकेत दे दिए हैं कि दक्षिण एशिया में अमेरिका को अपना ध्यान कहां केंद्रित करना चाहिए.
विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं
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