Published on Aug 18, 2023 Updated 0 Hours ago

घरेलू स्तर पर सहायक वातावरण और पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ भारत अपनी आज़ादी के 100वें वर्ष तक हरित विकास का प्रमुख उदाहरण बनने की क्षमता रखता है. 

भारत की अग्निपरीक्षा: हरित ऊर्जा से विकास को रफ़्तार देना

‘हरित विकास’ को G20 के शब्दकोष की मुख्यधारा में लाना भारत की G20 अध्यक्षता के सबसे उल्लेखनीय योगदानों में से एक है. वैसे, तो विकास इस समूह की दीर्घकालिक प्राथमिकता में शामिल है, लेकिन इस विमर्श में ‘हरित’ जोड़े जाने के अहम मायने हैं. ये इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत और उभरती दुनिया, अब हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन को एक दायित्व के रूप में नहीं, बल्कि विकास के सक्षमकारी कारक के तौर पर देख रही है. ये ग्लोबल नॉर्थ यानी विकसित दुनिया की धारणाओं से काफ़ी अलग है. दरअसल, विकसित देश हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन से जुड़ी क़वायदों के स्थापित भू-राजनीतिक सत्ता समीकरणों पर पड़ने वाले प्रभावों की चिंता में ही उलझे हुए हैं. ऐसे प्रभाव परंपरागत रूप से तेल और प्राकृतिक गैस संसाधनों तक पहुंच और नियंत्रण पर आधारित रहे हैं. 

तमाम दस्तावेज़ गवाह हैं कि पिछली सदी में विकास के लाभ, ऊर्जा खपत में उल्लेखनीय वृद्धि से संचालित हुए हैं. मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधनों के व्यापक उपयोग से इनकी पूर्ति की गई. ऐसे में हरित ऊर्जा से संचालित विकास के रास्ते हासिल करना अभूतपूर्व होगा और इसके लिए बिलकुल अलग आर्थिक और ऊर्जा प्रणाली की आवश्यकता होगी.

तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत ने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाते हुए आर्थिक विकास को बनाए रखने में पहले ही आशाजनक प्रगति की है. 2005 और 2016 के बीच ये अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन सघनता को 24 प्रतिशत तक कम करने में कामयाब रहा है. 

तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत ने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाते हुए आर्थिक विकास को बनाए रखने में पहले ही आशाजनक प्रगति की है. 2005 और 2016 के बीच ये अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन सघनता को 24 प्रतिशत तक कम करने में कामयाब रहा है. बिजली ग्रिड में नवीकरणीय ऊर्जा का तेज़ गति से और सुचारू से समावेशन, इस क़वायद का प्रमुख चालक रहा है. फ़िलहाल भारत में तक़रीबन 130 GW की स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता (बड़े पनबिजली संयंत्रों को छोड़कर) मौजूद है. इसका लगभग समूचा हिस्सा पिछले दशक में तैयार हुआ है. ये कामयाबी केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर मज़बूत नीतिगत ढांचे का परिणाम है. नियामक नवाचार और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहनों ने भी इसमें समान रूप से योगदान दिया है. सामूहिक तौर पर इन सभी कारकों ने नवीकरणीय ऊर्जा की लागत को नीचे ला दिया है, और आज ये दुनिया की सबसे प्रतिस्पर्धी दरों में से एक हो गई है.

भारत ने करोड़ों लोगों तक स्वच्छ और किफ़ायती ऊर्जा समाधान पहुंचाने में भी बड़ी सफलता का प्रदर्शन किया है. प्रमुख रूप से ‘उज्ज्वला’ योजना के चलते आज 85 प्रतिशत भारतीय परिवारों को खाना पकाने के लिए LPG तक पहुंच मिल पाई है. इससे प्रतिकूल स्वास्थ्य परिणामों वाले, और बेहद प्रदूषणकारी बायोमास-आधारित ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम हो गई है. LED बल्बों की थोक सरकारी ख़रीद और वितरण से जुड़ी ‘उजाला’ योजना भी बेहद कामयाब रही है. योजना से रोशनी के इस ऊर्जा कुशल स्रोत की लागत कम करने में काफ़ी मदद मिली है. इसके ज़रिए 36.8 करोड़ से भी ज़्यादा बल्ब लगाए जा चुके हैं. 

हाल में हासिल अपनी कामयाबियों से प्रेरित होकर भारत ने UNFCCC को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों का अधिक महत्वाकांक्षी स्वरूप पेश किया है. हिंदुस्तान ऐसा करने वाले मुट्ठी भर देशों में से एक है. भारत ने 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन सघनता को 45 प्रतिशत तक कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को 500 GW तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है. ये घोषणा 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने की भारत की घोषित प्रतिबद्धता के अतिरिक्त है. 

बड़ी चुनौती

महत्वाकांक्षा तो बस एक शुरुआत है, लेकिन इन लक्ष्यों को हासिल करने का रास्ता रुकावटों से भरा होगा. 

दरअसल, नवीकरणीय ऊर्जा की वृद्धि के साथ-साथ कोयले का उपयोग तत्काल बंद नहीं होगा. भले ही नवीकरणीय ऊर्जा देश की स्थापित बिजली क्षमता का लगभग 43 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन वास्तविक बिजली उत्पादन का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा कोयले पर आधारित ताप (thermal) बिजली घरों से आता है. ऐसे हालात सौर और पवन ऊर्जा (जो भारत में नवीकरणीय ऊर्जा का बड़ा हिस्सा हैं) की रुकावटों भरी प्रकृति का नतीजा हैं. भारत में लगभग 65 प्रतिशत परिवार अब भी किसी न किसी रूप में ऊर्जा की किल्लत से जूझ रहे हैं. ऐसे में ऊर्जा तक अधिक पहुंच सुनिश्चित करना भारत के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. इसका मतलब ये है कि भारत के पास चौबीसों घंटे बिजली के सबसे किफ़ायती और भरोसेमंद स्वरूप के तौर पर कोयले पर निर्भर रहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. जब तक बिजली, पानी या परिवहन जैसी उपयोगी सेवाओं (utility) के पैमाने पर ऊर्जा भंडारण से जुड़े समाधान किफ़ायती नहीं हो जाते, और बड़ी मात्रा में बिजली के निरंतर उत्पादन के लिए नवीकरणीय ऊर्जा पर विश्वसनीय रूप से निर्भरता नहीं बन जाती, तब तक कोयला ही सबसे बड़ा स्रोत बना रहेगा. 

भारत को अपनी लगातार बढ़ती युवा आबादी के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने के साथ-साथ डीकार्बनाइज़ेशन और औद्योगीकरण की भी दरकार होगी.

भारत को अपनी लगातार बढ़ती युवा आबादी के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने के साथ-साथ डीकार्बनाइज़ेशन और औद्योगीकरण की भी दरकार होगी. आर्थिक वृद्धि को बरक़रार रखने के लिए छोटे और मझौले उद्यमों (जो GDP के तक़रीबन 30 फ़ीसदी हिस्से का निर्माण करते हैं) के अनुकूल स्थितियां बनाने की आवश्यकता होगी, ताकि वो नवीकरणीय ऊर्जा की ओर परिवर्तन का भरपूर लाभ उठा सकें. फ़िलहाल क्षमता और वित्त से जुड़ी बाधाएं छोटे और मझौले उद्यमों द्वारा स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच बनाने में बाधक बन रही हैं. इन रुकावटों से पार पाने के लिए लक्षित मदद की दरकार है. 

इतना ही नहीं, स्टील, सीमेंट और उर्वरक जैसे भारी उद्योगों में अब भी डी-कार्बनाइज़ेशन के स्पष्ट रास्ते का अभाव है. वैसे तो एक प्रमुख आवश्यकता उनकी उत्पादन प्रक्रियाओं में बिजली के उपयोग को बढ़ाने की होगी, यहां ये ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि कुछ उद्योग ऊंची गहनता वाली गर्मी पर निर्भर होते हैं. ये एक ऐसी ज़रूरत है जो फ़िलहाल केवल परंपरागत ईंधन द्वारा ही पूरी की जा सकती है. उम्मीद है कि हरित हाइड्रोजन इन उद्योगों के डीकार्बनाइज़ेशन में बड़ी भूमिका निभाएगा. ताज़ा हरित हाइड्रोजन नीति से प्रेरित होकर हरित हाइड्रोजन उत्पादन के लिए घरेलू क्षमताओं को विकसित करने में भारत जो तरक़्क़ी करेगा, उसका औद्योगिक डीकार्बनाइज़ेशन पर भारी असर होगा.

बेशक़ चुनौतियां बड़ी हैं, लेकिन कुछ कारकों ने पहले ही भारत को पर्याप्त सफलता हासिल करने में मदद की है. इनमें मज़बूत सरकारी समर्थन, जीवंत निजी क्षेत्र और लगातार जागरूक होती आबादी शामिल है, जो भविष्य में भी भारत को बेहतर स्थिति में बनाए रखने में मददगार साबित होगी.

अगर घरेलू स्तर पर ठोस वातावरण को पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ जोड़ा जा सके तो भारत अपनी आज़ादी के 100वें वर्ष (यानी 2047) तक हरित विकास का प्रमुख उदाहरण बनने की क्षमता रखता है. 

भारत जैसे देश, विकास को रफ़्तार देने वाले दूसरे अहम क्षेत्रों के साथ-साथ नई ऊर्जा से जुड़े बुनियादी ढांचे के निर्माण का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि इस रास्ते में वित्तीय बाधाएं आगे भी बरक़रार रहने वाली है. लिहाज़ा फाइनेंसिंग और तकनीकी विकास के मामले में अंतरराष्ट्रीय समर्थन (जो अब तक काफी हद तक नदारद है) एक अहम सक्षमकारी कारक होगा. भारत में ऊर्जा क्षेत्र के कायाकल्प से जुड़ी क़वायद की कामयाबी ये निर्धारित करेगी कि दुनिया, पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त कर पाती है या नहीं! ग्लोबल नॉर्थ (यानी विकसित देशों) को ये बात निश्चित रूप से स्वीकार करनी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय सहयोग की नई प्रणालियां तैयार करने की दिशा में प्रयासों को निर्देशित किए जाने की दरकार है. इस तरह आवश्यक संसाधनों को प्रभावी ढंग से उन देशों तक पहुंचाया जा सकेगा जहां सबसे ज़्यादा क्षमता मौजूद है. 

अगर घरेलू स्तर पर ठोस वातावरण को पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ जोड़ा जा सके तो भारत अपनी आज़ादी के 100वें वर्ष (यानी 2047) तक हरित विकास का प्रमुख उदाहरण बनने की क्षमता रखता है. 

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