2024 में भारत के पड़ोसी देशों में उथल-पुथल का माहौल बना रहा. हालांकि, भारत ने इस उठा-पटक के बीच भी पड़ोसी देशों के साथ अपने रिश्ते में स्थिरता लाने की कोशिशें जारी रखीं. पिछले साल भारत ने अपने पारंपरिक दुश्मन देशों यानी चीन और पाकिस्तान के साथ सतर्कता के साथ संपर्क बनाए रखने की कोशिश की. वहीं, अफ़ग़ानिस्तान और म्यांमार के दलदली हालात से निपटने के लिए कुछ रणनीतिक समझौते भी किए. इसके साथ साथ, भारत ने बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और नेपाल की नई सरकारों के साथ भी संवाद किया. भारत और चीन के बीच अलग अलग स्तर पर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे इन छोटे पड़ोसी देशों में हमने कई बार भारत विरोधी जज़्बात का उबाल आते भी देखा. बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन, भारत के लिए सबसे चिंताजनक तब्दीली के तौर पर उभरा, क्योंकि अभी वहां पर लोकतंत्र की बहाली की उम्मीदें न के बराबर दिख रही हैं. इन चुनौतियों के बीच भूटान, चीन से लगातार दबाव पड़ने के बावजूद, भारत का सबसे भरोसेमंद पड़ोसी साझीदार बना रहा.
बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन, भारत के लिए सबसे चिंताजनक तब्दीली के तौर पर उभरा, क्योंकि अभी वहां पर लोकतंत्र की बहाली की उम्मीदें न के बराबर दिख रही हैं. इन चुनौतियों के बीच भूटान, चीन से लगातार दबाव पड़ने के बावजूद, भारत का सबसे भरोसेमंद पड़ोसी साझीदार बना रहा.
भारत ने पूरे साल ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की अपनी नीति के प्रति मज़बूत प्रतिबद्धता को दिखाया. हालांकि घरेलू परिचर्चाओं में ये भी माना गया कि पड़ोसी देशों के अपनी सामरिक स्वायत्तता को प्रदर्शित करने की हक़ीक़त को हमें स्वीकार करना पड़ेगा, और इसके साथ साथ ये स्वीकारोक्ति भी दिखाई दी कि पड़ोसी देशों में भारत विरोधी जज़्बात के उभार या फिर सत्ता परिवर्तन के पीछे जो कारण हैं, उन पर भारत का कोई नियंत्रण नहीं है. अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देना हमेशा से ही भारत की विदेश नीति की परंपरा रही है. 1950 के दशक में नेहरू के पंचशील के सिद्धांत, जिनमें पड़ोसी देशों में दखल न देने और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की वकालत की जाती थी. वहीं, 1980 के दशक में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) के ज़रिए क्षेत्रीय वाद को बढ़ावा देने से लेकर 1990 के दशक में गुजराल डॉक्ट्रिन के ज़रिए भारत ने हमेशा ही दक्षिण एशिया को अपनी कूटनीति का केंद्रबिंद बनाने की कोशिश की है. 2014 में मोदी सरकार ने ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की पहल के ज़रिए इसी प्रतिबद्धता को दोहराया था. उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित किया था, जिसमें पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को भी न्यौता दिया गया था. 2024 में भी मोदी ने ये परंपरा जारी रखी थी, जब उन्होंने तीसरी बार शपथ ली और पड़ोसी देशों के नेताओं को समारोह में आमंत्रित करके नेबरहुड फर्स्ट नीति के एक दशक पूरे होने का जश्न मनाया; हालांकि, अपने तीसरे शपथ ग्रहण में मोदी ने पाकिस्तान को न्यौता नहीं दिया था.
पिछले साल अगस्त में बांग्लादेश में शेख़ हसीना सरकार के तख़्तापलट और उसके बाद वहां भारत विरोधी बयानबाज़ी में आई तेज़ी ने इस बहस को फिर से ज़िंदा कर दिया है कि क्या पड़ोसी देश भारत को दादागीरी जताने वाले बड़े भाई के तौर पर देखते हैं और क्या इसकी वजह से भारत पड़ोसी देशों में, चीन या फिर दूसरी दुश्मन ताक़तों के हाथों अपनी ज़मीन गंवा रहा है. वैसे तो भारत के सारे पड़ोसी देश, उसको खलनायक के तौर पर नहीं देखते हैं. लेकिन, भारत को तीन स्थायी सच्चाइयों को स्वीकार करना होगा.
पहला, कोई भी पड़ोसी देश पूरी तरह से भारत के हितों के साथ तालमेल नहीं बिठाएगा. ऐसे में भारत को चाहिए कि वो अपने पड़ोसी देशों के साथ जैसे हैं, उनसे उसी तरह का रिश्ता रखे न कि अपनी इच्छा के मुताबिक़ उन्हें ढालने की कोशिश करे. दूसरा, दक्षिण एशिया के देश एशिया की दो बड़ी ताक़तों के बीच संतुलन साधने की कोशिश करते रहेंगे. ऐसे में भारत को स्वयं को एक आकर्षक साझीदार के तौर पर साबित करना होगा. तीसरा, पड़ोसी देशों में समय समय पर भारत विरोधी जज़्बात या फिर सरकारें सामने आएंगे, जिनसे निपटने के लिए सामरिक सब्र और व्यवहारिक संवाद का रास्ता अपनाना होगा.
भारत को पड़ोसी देशों के सामने पूरी स्पष्टता के साथ जैसा मूल्यवान प्रस्ताव रखना चाहिए वो इस तरह का हो: अगर पड़ोसी देश भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करने को तैयार हों, तो भारत उनकी सुरक्षा और समृद्धि दोनों में एक भरोसेमंद साझीदार बनेगा.
भारत की सबसे बड़ी चुनौती तो ये होगी कि वो अपने पड़ोसी देशों के सत्ताधारी तबक़े और वहां की जनता के फौरी और स्थायी फ़ायदे के आकर्षक विकल्प तैयार करे. ऐसे जटिल माहौल में जहां पड़ोसी देश चीन और भारत के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश कर रहे हों, या फिर कुछ देशों में भारत विरोधी तबक़ा ताक़तवर हो रहा हो, वहां भारत को ऐसी अर्थपूर्ण जीतें हासिल करने पर ध्यान देना होगा, जिनसे पड़ोसियों के साथ स्थिरता और भारत के प्रति सद्भावना को बढ़ावा दिया जा सके. भारत को पड़ोसी देशों के सामने पूरी स्पष्टता के साथ जैसा मूल्यवान प्रस्ताव रखना चाहिए वो इस तरह का हो: अगर पड़ोसी देश भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करने को तैयार हों, तो भारत उनकी सुरक्षा और समृद्धि दोनों में एक भरोसेमंद साझीदार बनेगा.
व्यवहारिकता और साझेदारी के बीच संतुलन बनाना
आलोचकों का कहना है कि पड़ोसी देशों में सिर्फ़ दोस्ताना नेताओं और सरकारों के साथ संवाद करने की भारत की आदत से इस क्षेत्र में उसके व्यापक हितों को नुक़सान पहुंचने का जोखिम है. ख़ास तौर से इसलिए भी क्योंकि भारत के प्रति नरमी रखने वाले वर्ग की जगह दुश्मनी रखने वालों के सत्ता में आने का ख़तरा हमेशा बना रहता है. वैसे तो इस आलोचना में कुछ दम है. लेकिन, भारत लगातार इस मामले में व्यवहारिक रवैया अपनाता रहा है और अपने सामरिक हितों के लिए पास पड़ोस की ऐसी सरकारों से भी संवाद करता रहा है, जिनका उसके प्रति दोस्ताना रुख़ नहीं होता.
ऐतिहासिक रूप से पड़ोसी देशों में अपने प्रति नरमी रखने वाले सियासी दलों पर भारत की निर्भरता, इस उथल पुथल भरे, भारत विरोधी जज़्बात और चीन के बढ़ते प्रभाव वाले क्षेत्र में अपने हितों का तालमेल बिठाने की उसकी ज़रूरत को दिखाता है. इस रणनीति की कमियों को स्वीकार करते हुए भारत ने अपने सिद्धांतों और व्यवहारिकता के बीच तालमेल बिठाते हुए दक्षिण एशिया में ज़्यादा व्यवहारिक नीति का रुख़ अपनाया है. अब भारत ने अपने पड़ोसी देशों के राष्ट्रवादी, भारत विरोधी और चीन समर्थक नेताओं के साथ साथ तख़्तापलट करने वाले नेताओं के साथ भी संवाद बढ़ाया है.
मिसाल के तौर पर, तनाव के बावजूद भारत ने बीच बीच में बांग्लादेश के विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ संवाद की कोशिशें की हैं (हालांकि, शेख़ हसीना के तख़्तापलट तक इस कोशिश में उसे सीमित सफलता ही मिली थी). इसी तरह भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से बातचीत की है और म्यांमार में बाग़ी ताक़तों के साथ भी संपर्क साधने की कोशिश की है. भारत की कूटनीति में आई ये विविधता, क्षेत्र के जटिल समीकरणों को साधने की उसकी विकसित होती रणनीति को ही दिखाते हैं.
दक्षिण एशिया में भारत के व्यवहारिक रवैये का केंद्र बिंदु आर्थिक पहलें बन गई हैं. क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए रेलवे, सड़कों, बंदरगाहों और दूरसंचार के क्षेत्र में निवेश की वजह से पड़ोसी देशों के साथ साझा हित स्थापित हुए हैं. पिछले एक दशक के दौरान, भारत ने पड़ोसी देशों को काफ़ी क़र्ज़ भी दिया है. जैसे कि बांग्लादेश को 8 अरब डॉलर और श्रीलंका को 4 अरब डॉलर देने के साथ साथ अन्य पड़ोसियों को भी काफ़ी आर्थिक मदद दी है. विकास में सहायता और भारत की बढ़ती आर्थिक हैसियत के साथ मिलकर उसकी इन कोशिशों ने पड़ोसी देशों के बीच सतर्कता भरी उम्मीदों को जन्म दिया है.
हालांकि, चीन के साथ प्रतिद्वंदिता भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. दक्षिण एशिया की अंदरूनी राजनीति और चीन का बढ़ता दबदबा भारत द्वारा अपने हित साधने की कोशिशों को और पेचीदा बना देता है. इन जटिलताओं से पार पाने के लिए भारत पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक संबंधों में गहराई लाने के साथ ही व्यवहारिक कूटनीति को अपना रहा है, ताकि अपने लिए जोखिमों को कम करते हुए सामरिक रूप से अहम इस क्षेत्र में अपना प्रभाव क़ायम रख सके.
भारत को चाहिए कि वो तीन अलग अलग दर्जों वाले अपने पड़ोसियों यानी दुश्मन देशों, नाकाम होते देशों और छोटे मोल-भाव करने वाले देशों के लिए अलग नीतियां तैयार कर सके. भारत के दूरगामी हितों को सुरक्षित रखने के लिए हर दर्जे के पड़ोसी देश के लिए अलग रणनीति तैयार करनी होंगी.
इसके साथ ही साथ भारत को अपने रवैये में सुधार लाने की भी ज़रूरत है. उसे ये समझना होगा कि सारे पड़ोसियों के लिए वो एक जैसी नीति पर अमल नहीं कर सकता. भारत को चाहिए कि वो तीन अलग अलग दर्जों वाले अपने पड़ोसियों यानी दुश्मन देशों, नाकाम होते देशों और छोटे मोल-भाव करने वाले देशों के लिए अलग नीतियां तैयार कर सके. भारत के दूरगामी हितों को सुरक्षित रखने के लिए हर दर्जे के पड़ोसी देश के लिए अलग रणनीति तैयार करनी होंगी.
पारंपरिक दुश्मन
2024 में भारत और चीन ने 2020 के टकराव के बाद रिश्ते सामान्य बनाने की कोशिश की. दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय बैठकें भी हुईं. अक्टूबर में प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाक़ात और दिसंबर में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच मुलाक़ात हुई. इन बैठकों का ज़ोर सेनाओं को पीछे हटाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर शांति बनाए रखने पर था. हालांकि, लद्दाख में चीन के आक्रामक रुख़ और भारत के साथ उसकी व्यापक पारंपरिक प्रतिद्वंदी रुख़ को देखते हुए, दोनों देशों के बीच अविश्वास का माहौल बना रहा. चीन के साथ 130 अरब डॉलर के व्यापार को देखते हुए, भारत किसी बड़ी सामरिक सफलता के बजाय फौरी रणनीतिक तालमेल पर ज़ोर दे रहा है. भारत के रुख़ को ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान, और अमेरिका के बीच क्वाड सिक्योरिटी डायलॉग जैसी वैश्विक कूटनीतिक पहलों से ताक़त मिल रही है, जिसे चीन के आक्रामक रुख़ से निपटने का मंच कहा जा रहा है.
लंबे समय से चले आ रहे तनाव के बावजूद, भारत ने पाकिस्तान से भी संपर्क साधा. पिछले साल, भारत के विदेश मंत्री शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान के दौरे पर गए. पिछले नौ साल में भारत के किसी विदेश मंत्री का ये पहला पाकिस्तान दौरा था. इसके बाद दोनों देशों ने श्रद्धालुओं की वीज़ा मुक्त आवाजाही के लिए करतारपुर कॉरिडोर समझौते का भी नवीनीकरण किया. इनसे दोनों देशों के रिश्तों में कुछ स्थिरता आने के संकेत ज़रूर मिले. लेकिन, भारत इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि संबंध सामान्य बनाने के लिए पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में सीमा पार से आतंकवाद की गतिविधियों पर क़ाबू पाना ही होगा. 2025 में दोनों देशों के बीच ताल्लुक़ बेहतर होने की उम्मीद बनी हुई है.
नाकाम होते मुल्क
तख़्तापलट के तीन साल बाद म्यांमार में भयंकर गृह युद्ध छिड़ा हुआ है. अब सत्ता पर क़ाबिज़ सेना का देश के केवल 14 प्रतिशत इलाक़े पर ही स्थायी क़ब्ज़ा रह गया है. हिंसा की वजह से लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. इससे विशाल मानवीय संकट खड़ा हो गया है, जिसकी चपेट में 1.86 करोड़ लोग आ गए हैं. म्यांमार में गृह युद्ध की वह से भारत के उत्तरी पूर्वी राज्यों में उग्रवाद, आतंकवाद और ड्रग तस्करी का जोखिम बढ़ गया है. म्यांमार की स्थिरता से भारत की 48.4 करोड़ डॉलर लागत वाली कलादान मल्टीमॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट परियोजना के लिए भी ख़तरा पैदा हो गया है. ये परियोजना, पूर्वी तट को उत्तरी पूर्वी राज्य से जोड़ने के लिहाज से काफ़ी अहम है. म्यांमार की सैन्य सरकार और बाग़ी जातीय संगठनों के साथ रिश्तों में संतुलन बनाए रखना भारत के सामरिक हित साधने की दृष्टि से काफ़ी महत्वपूर्ण है.
वहीं, तालिबान के राज में अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक तबाही, खाद्य असुरक्षा और इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (ISIS-K) की तरफ़ से उग्रवादी हिंसा का ख़तरा मंडरा रहा है. भारत ने अफ़ग़ानिस्ता को लेकर व्यवहारिक रुख़ अपनाते हुए मानवीय सहायता देने के लिए तालिबान से समन्वय के मिशन के ज़रिए संवाद बना रखा है. इसके साथ साथ अफ़ग़ानिस्तान में भारत विरोधी गतिविधियों का विरोध करते हुए समावेशी नीतियों और ख़ास तौर से महिलाओं की शिक्षा पर भारत ज़ोर देता रहा है. भारत ने विकास की 500 से अधिक परियोजनाओं के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान की मदद की है और वहां की जनता भारत को सकारात्मक नज़रिए से देखती है. इस तरह भारत ने तालिबान की हुकूमत को न्यूनतम संभव मान्यता देते हुए, वहां पर अपनी सुरक्षा के जोखिमों पर नज़र बनाए रखी है.
मोल-भाव करने वाले पड़ोसी
अगस्त में शेख़ हसीना के तख़्तापलट के बाद से ही बांग्लादेश ने ख़ुद को भारत से दूर कर लिया है. शेख़ हसीना के 15 सालों के राज के दौरान भारत समर्थक रुख़ अपनाने से बांग्लादेश और भारत के बीच सुरक्षा और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा मिला. लेकिन, मुहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार ने इसमें बदलाव का संकेत देते हुए, पाकिस्तान और दूसरे देशों से नज़दीकी बढ़ानी शुरू की है. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और दूसरे इस्लामिक संगठनों के ताक़तवर होने से भारत की सुरक्षा और वहां के अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर चिंताएं पैदा हुई हैं. भारत को चाहिए कि वो बांग्लादेश की नई सरकार के साथ संवाद बढ़ाने के साथ साथ अपनी सुरक्षा और अल्पसंख्यकों को लेकर चिंताओं पर भी ज़ोर देता रहे.
प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के नेतृत्व में नेपाल का चीन के प्रति झुकाव, पिछले महीने उनके चीन के दौरे से साफ़ ज़ाहिर हुआ था, जब ओली ने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को लेकर चीन से समझौते किए और भारत पर निर्भरता कम करने की कोशिश की. चीन और भारत के बीच मोल-भाव करते हुए नेपाल, भारत से अनूठे लाभों की अपेक्षा रखता है. भारत को इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए और साझा हितों के ज़रिए आपसी रिश्तों में गहराई लाने का प्रयास जारी रखना चाहिए.
भारत ने विकास की 500 से अधिक परियोजनाओं के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान की मदद की है और वहां की जनता भारत को सकारात्मक नज़रिए से देखती है. इस तरह भारत ने तालिबान की हुकूमत को न्यूनतम संभव मान्यता देते हुए, वहां पर अपनी सुरक्षा के जोखिमों पर नज़र बनाए रखी है.
आर्थिक संकट के बाद से राष्ट्रपति अनुरा दिसानायके के नेतृत्व में श्रीलंका, चीन और भारत के प्रभुत्व के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है. पिछले साल दिसंबर में दिसानायके के भारत दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार, निवेश और सुरक्षा में सहयोग पर ज़ोर रेखांकित हुआ. दोनों देशों ने क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने और चीन के बढ़ते दबदबे से निपटने को लेकर प्रतिबद्धता को भी दोहराया. भारत ने सक्रिय संवाद के ज़रिए श्रीलंका की अलग अलग सरकारों के साथ मज़बूत रिश्ते क़ायम रखे हैं.
मालदीव के राष्ट्रपति मुहम्मद मुइज्ज़ू के पहले द्विपक्षीय भारत दौरे ने उनके पहले के भारत विरोधी रुख़ में तब्दीली आने के संकेत दिए. आर्थिक चुनौतियों ने मालदीव के राष्ट्रपति को अपनी नीतियों में परिवर्तन करने को मजबूर किया है. उन्होंने ‘इंडिया आउट’ अभियान से रुख़ बदलते हुए दोनों देशों के रिश्तों को सामान्य बनाने पर ज़ोर देना शुरू किया है.
फ़ौरी फ़ायदों के साथ सामरिक सब्र बनाए रखने की ज़रूरत
इस क्षेत्र को लेकर भारत की रणनीति एक नाज़ुक संतुलन बनाने की कोशिश दिखाती है: भारत दुश्मन देशों के साथ रिश्ते सामान्य करने का प्रयास कर रहा है. नाकाम होते देशों से पैदा हुए दुष्प्रभावों से बचने का प्रयास कर रहा है और वैश्विक ताक़तों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे अपने पड़ोसियों के ऊपर अपना प्रभाव बनाए रखने का प्रयास कर रहा है. इस जटिल और लगातार बदलते माहौल में अपने हितों की रक्षा करने के लिए भारत को कूटनीतिक व्यवहारिकता और ठोस आर्थिक पहलों के मेल को अपनाने की ज़रूरत है.
पड़ोसी देशों को लेकर भारत की नीति में धैर्य बनाए रखने, अक्सर उभर आने वाले भारत विरोधी सरकारों से संवाद करने, चीन के साथ होड़ करने और सिर्फ़ लेन-देन का रिश्ता क़ायम करने के रुख़ को ख़ारिज करने की ज़रूरत है. क्षेत्रीय सुरक्षा और समृद्धि के एक स्थायी ढांचे के लिए क़र्ज़ के बजाय सहायता देने, आर्थिक और सुरक्षा संबंधी सहयोग बढ़ाने, कनेक्टिविटी और मानवीय सहायता पर ज़ोर देना चाहिए. पड़ोसी देशों से जिन अहम क्षेत्रों में रिश्ते प्रगाढ़ किए जा सकते हैं, वो ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग, विकास में सहायता, रक्षा क्षेत्र में साझेदारी, आपदा राहत और सांस्कृतिक आदान प्रदान के साथ साथ मूलभूत ढांचे की परियोजनाओं के विकास के हैं. भारत को चाहिए कि इस क्षेत्र में स्थिरता के लिए वो क्वाड के साझीदारों जैसे कि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया को भी दक्षिण एशिया की आर्थिक पहलों में भागीदार बनाए, भले ही कभी कभार इन देशों से उसके मतभेद ही क्यों न हों. संवाद के लिए सार्क में नई जान डालने के साथ साथ बे ऑफ बेंगाल, इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकॉनमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC) और भारत, बांग्लादेश, भूटान, और नेपाल के बीच BBIN जैसे उप-क्षेत्रीय संगठनों को पूरक के तौर पर इस्तेमाल करने से भारत, चीन की अगुवाई वाले शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का विकल्प प्रस्तुत कर सकेगा.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.