Author : Ankita Dutta

Published on Apr 05, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन में चल रहे संकट को लेकर दक्षिण एशिया के देशों की मौजूदा प्रतिक्रिया इतिहास से प्रभावित है.

यूक्रेन को लेकर दक्षिण एशिया का अनिश्चित रुख: राष्ट्रीय हित और इतिहास का बोझ

यूक्रेन संकट को लेकर दक्षिण एशिया के देशों ने अनूठा, कभी-कभी अलग-अलग रवैया अख्तियार किया है. दक्षिण एशिया के देशों का ये रवैया एक तरफ़ तो पूर्व के सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध के दौरान उनके इतिहास से प्रेरित है, दूसरी तरफ़ महाशक्तियों के बीच मौजूदा वैश्विक प्रतिस्पर्धा और इन स्थापित एवं उभरती महाशक्तियों के साथ दक्षिण एशिया के संबंधों से भी इसे प्रेरणा मिली है. इसी के अनुसार जो देश तटस्थ रहे और जिन देशों ने साफ़ तौर पर रूस का विरोध किया, उनके बीच स्पष्ट बंटवारा है. लेख दक्षिण एशिया के छह देशों (अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका) के द्वारा अपनाए गए रुख का विश्लेषण करता है और इस पर नज़र डालता है कि कैसे यूक्रेन में मौजूदा संकट को लेकर इन देशों की प्रतिक्रिया इतिहास से प्रभावित है. 

यह लेख दक्षिण एशिया के छह देशों (अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका) के द्वारा अपनाए गए रुख का विश्लेषण करता है और इस पर नज़र डालता है कि कैसे यूक्रेन में मौजूदा संकट को लेकर इन देशों की प्रतिक्रिया इतिहास से प्रभावित है.

दक्षिण एशिया में सोवियत संघ का साया

50 के दशक के मध्य में सोवियत संघ ने दक्षिण एशिया के देशों के साथ तेज़ी से अपने संबंधों का विस्तार शुरू कर दिया और ख़ुद को उसने एक तटस्थ, गुटनिरपेक्ष देशों के हितैषी सहयोगी के रूप में पेश किया. कम्युनिस्ट देश चीन और सोवियत रूस के बीच बढ़ते मननुटाव ने संभवत: एक भूमिका निभाई क्योंकि सोवियत संघ एशिया में भरोसेमंद साझेदार के तौर पर किसी और देश की तलाश करने लगा. सोवियत संघ की दक्षिण एशिया नीति में बदलाव के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रमों में उसके योगदान में बढ़ोतरी हुई. 1953 और 1956 के बीच सोवियत संघ ने फंड के रूप में 40 लाख अमेरिकी डॉलर (आज के समय का लगभग 4.20 करोड़ अमेरिकी डॉलर) का योगदान दिया. 60 के दशक से लेकर 80 के दशक तक सोवियत संघ ने श्रीलंका एवं पाकिस्तान को आर्थिक सहायता मुहैया कराई और 1966 में भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर में मध्यस्थ की भूमिका निभाई

ये दलील दी जाती है कि मौजूदा संकट को लेकर दक्षिण एशिया के देशों की प्रतिक्रिया इतिहास और मौजूदा राष्ट्रीय हित के बीच संतुलन की कार्रवाई से प्रेरित है. दक्षिण एशिया के छह देशों में से अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका ने यूक्रेन संकट को लेकर अपने आधिकारिक रुख़ में तटस्थता को अपना लिया है. अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक अमीरात की सरकार ने अपनीतटस्थता की विदेश नीतिके तहत रूस और यूक्रेन- दोनों देशों से कहा है कि वो बातचीत और शांतिपूर्ण तरीक़ों के ज़रिए संकट का समाधान करें. श्रीलंका ने शांति और सुरक्षा बरकरार रखने के लिए बातचीत और कूटनीति की वक़ालत की है. श्रीलंका के लिए रूस एवं यूक्रेन- दोनों देश उसके द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार को जमा करने का महत्वपूर्ण स्रोत हैं क्योंकि इन दोनों देशों से श्रीलंका ने 2020 में क्रमशः 2 और 2.2 प्रतिशत का आयात और निर्यात किया था. इन देशों से श्रीलंका जिन महत्वपूर्ण संसाधनों का आयात करता है उनमें अनाज, लोहा इत्यादि शामिल हैं जबकि यूक्रेन और रूस को श्रीलंका की तरफ़ से निर्यात किया जाने वाला सबसे अहम सामान चाय पत्ती है. श्रीलंका में आने वाले कुल पर्यटकों में रूस और यूक्रेन से आने वाले पर्यटक टॉप 10 देशों में शामिल है. यूक्रेन संकट का नतीजा श्रीलंका में गहराई से महसूस किया जा रहा है. इसकी वजह से ईंधन और अनाज की कमी का संकट बढ़ गया है, श्रीलंका की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर गिर रही है, साथ ही महंगाई चरम पर है.

बांग्लादेश ने तटस्थता की अनाधिकारिक नीति अपना ली है. बांग्लादेश संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर मतदान से अनुपस्थित रहा और उसने दोनों पक्षों को संकट का समाधान करने के लिए शांतिपूर्ण तरीक़ों को अपनाने की सलाह दी है. बांग्लादेश का ये रुख़ एक तरफ़ तो महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा से दूरी बनाए रखने की उसकी नीति के कारण है और दूसरी तरफ़सभी से दोस्ती, किसी से दुर्भावना नहींके विचार पर आधारित संवाद के लिए कूटनीतिक क्षेत्र को खुला रखने के रवैये की वजह से. यूक्रेन संकट को लेकर बांग्लादेश का रुख़ उसकी दीर्घकालीन नीति की कूटनीतिक निरंतरता थी. सोवियत संघ के साथ बांग्लादेश का भी ऐतिहासिक संबंध रहा है. सोवियत संघ ने 1971 के युद्ध के दौरान केवल भारत और बांग्लादेश को अपना समर्थन प्रदान किया बल्कि तुरंत युद्ध विराम और सैनिकों को बुलाने के लिए अमेरिका समर्थित प्रस्तावों पर वीटो भी किया. शीत युद्ध के बाद के समय में रूस बांग्लादेश का महत्वपूर्ण विकास साझेदार बना जिसने ऊर्जा, बुनियादी ढांचा, इत्यादि के क्षेत्रों में सहयोग मुहैया कराया. ये ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान बांग्लादेश की अनुपस्थिति को अमेरिका के साथ उसके अनिश्चित संबंध की रोशनी में देखा जा सकता है. अमेरिका ने 1971 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान के समर्थन में अपनी नौसेना के टास्क फोर्स को बंगाल की खाड़ी में भेजा था. हाल के समय में अमेरिका की सरकार ने जिहादी समूहों के ख़िलाफ़ तैनात अर्धसैनिक बल रैपिड एक्शन बटालियन पर मानवाधिकार के उल्लंघन के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया. इसकी वजह से बांग्लादेश और अमेरिका के बीच तनाव में बढ़ोतरी हुई

श्रीलंका में आने वाले कुल पर्यटकों में रूस और यूक्रेन से आने वाले पर्यटक टॉप 10 देशों में शामिल है. यूक्रेन संकट का नतीजा श्रीलंका में गहराई से महसूस किया जा रहा है. इसकी वजह से ईंधन और अनाज की कमी का संकट बढ़ गया है, श्रीलंका की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर गिर रही है, साथ ही महंगाई चरम पर है.

रूस और यूक्रेन के साथ नेपाल, भूटान और मालदीव सीमित संबंध साझा करते हैं. हालांकि रूस के साथ इन देशों के रिश्ते यूक्रेन के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है. नेपाल के लिए रूस ने हेलीकॉप्टर, निवेश और मानवीय सहायता मुहैया कराई है. भूटान और मालदीव के मामले में वहां के पर्यटन क्षेत्र को रूस से लाभ मिलता है. यूक्रेन संकट की शुरुआत के समय से ही रूस के क़दम की नेपाल ने आलोचना की है और उसने यूक्रेन के ख़िलाफ़ ताक़त के इस्तेमाल और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के उल्लंघन के लिए रूस की निंदा की है. नेपाल ने जहां रूस की आलोचना की है वहीं भूटान ने छोटे देशों पर इस संकट के असर और संयुक्त राष्ट्र के मूल्यों एवं सिद्धांतों को बरकरार रखने के महत्व को उजागर करने का काम किया है. संयुक्त राष्ट्र महासभा में भूटान ने इसे स्पष्ट किया जब भूटान के स्थायी प्रतिनिधि ने कहा किसंघर्ष के क्षेत्र से हज़ारों मील दूर भूटान इस लड़ाई की गूंज को महसूस कर सकता है.” वहीं मालदीव ने दोनों पक्षों से शांति को अवसर देने और राजनीतिक समाधान की मांग की है. रूस के ख़िलाफ़ इन देशों की प्रतिक्रिया उनकी भौगोलिक स्थिति और इस क्षेत्र में महाशक्तियों के मुक़ाबले की वजह से भू-राजनीतिक बेचैनी का नतीजा दिखाई देती है

संयुक्त राष्ट्र में इन देशों का वोटिंग पैटर्न काफ़ी हद तक एक जैसा रहा है. ये देश अपनी-अपनी विदेश नीति के निर्णय को लेकर एक गहन जानकारी प्रस्तुत करते है, भू-राजनीति एवं आर्थिक कारणों के एक-दूसरे से जुड़े होने को उजागर करते है. इन देशों का वोटिंग पैटर्न इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव और इन देशों के द्वारा अपनी विदेश नीति की स्वायत्तता को महाशक्तियों के बीच मुक़ाबले में खोने को लेकर बढ़ती चिंता पर प्रकाश डालता है

तालिका: संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर मतदान

स्रोत: अलग-अलग स्रोतों से लेखक के द्वारा जुटाया हुआ

प्रस्तावना के रूप में अतीत

मौजूदा परिस्थिति की विडंबना ये है कि दक्षिण एशिया के देशों की

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