सलाफिज़्म या सलाफ़िया आंदोलन का अध्ययन करने वाले ज़्यादातर समीक्षक अक्सर सलाफ़ी समूह की मूल प्रकृति को लेकर दुविधा की स्थिति में रहते हैं.वे दुनिया के किसी हिस्से में सलाफ़ियों को कभी वहाबियों के साथ जोड़ते हैं, तो कभी इस्लामिक स्टेट और अल-क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ उनका संबंध स्थापित करते हैं, ये संगठन सलाफिज़्म के एक आतंकी संस्करण का समर्थन करते हैं. यह लेख सलाफिज़्म आंदोलन को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में राजनीतिक सलाफ़ीवाद के बारे में विस्तार से चर्चा करता है और इसकी सच्चाई जानने की कोशिश करता है.
अहल-ए-हदीस को 18वीं सदी के विचारक शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अपने मज़हबी योगदान के ज़रिए बनाया था. शाह वलीउल्लाह देहलवी सऊदी अरब में अध्ययन करने वाले एक सूफ़ी विद्वान थे और मक्का और मदीना से हदीस (पैगंबर के उपदेशों) का अध्ययन करने की परंपरा को अन्य स्थानों पर लाने वाले शुरुआती लोगों में से थे.
भारतीय उपमहाद्वीप में अहल-ए-हदीस का इतिहास
प्रारंभिक और मूल सलाफ़ी मूवमेंट, जो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अधिकतर हिस्सों में देखने को मिलता है, वो अहल-ए-हदीस (हदीस के लोग) है. अहल-ए-हदीस को 18वीं सदी के विचारक शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अपने मज़हबी योगदान के ज़रिए बनाया था. शाह वलीउल्लाह देहलवी सऊदी अरब में अध्ययन करने वाले एक सूफ़ी विद्वान थे और मक्का और मदीना से हदीस (पैगंबर के उपदेशों) का अध्ययन करने की परंपरा को अन्य स्थानों पर लाने वाले शुरुआती लोगों में से थे. मुख्य रूप से धार्मिक आस्था और विश्वासों को सुधारने पर केंद्रित उनके विचारों को दूसरे विद्वानों, जैसे शाह अब्दुल अज़ीज़ के अलावा भोपाल के सैयद सिद्दीक़ हसन ख़ान (d. 1832) और नज़ीर हुसैन देहलवी (1902) द्वारा आगे बढ़ाया गया.
ऐसे में जबकि यह समूह काफ़ी हद तक मज़हबी सुधार पर केंद्रित था, इसके कई सदस्य ब्रिटिश शासन के दौरान राजनीतिक गतिविधियों में भी शामिल थे. इसी के फलस्वरूप 1857 के विद्रोह में कई नामी-गिरामी मुस्लिम नेता शामिल हुए और बाद में उनमें से कई लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया या फिर फांसी पर लटका दिया गया. कथित तौर पर ये लोग अहल-ए-हदीस आंदोलन का ही हिस्सा थे, जिसने ‘वहाबी ट्रायल’ शब्द को ईजाद किया.वर्ष 1989 में मरक़ज़ जमीयत अहल-ए-हदीस ने तहरीक़-ए-मुजाहिदीन नामक एक आतंकवादी शाखा का भी गठन किया, जो पाकिस्तानी सेना और इंटेलिजेंस के बल पर कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के विरुद्ध लड़ा.
अहम बात यह है कि ब्रिटिश शासन के दौरान जब भारत में इस आंदोलन को पर्याप्त संख्या में अनुयायी नहीं मिले, तब इसमें कई उपर्युक्त विद्वान और नेता, जो कि देश भर के प्रभावशाली परिवारों के सदस्य थे, इस मूवमेंट में शामिल हुए और इस तरह से उन्होंने इस धार्मिक आंदोलन की लौ को जलाए रखा. वर्ष 1906 में एक अखिल भारतीय अहल-ए-हदीस सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसके ज़रिए इस आंदोलन को जमात अहल-ए-हदीस (JAH) के रूप में औपचारिक स्वरूप प्रदान किया गया था. हिंदुस्तान के विभाजन के दौरान, आंदोलन के एक गुट ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. बाद में वर्ष 1971 में बांग्लादेश के गठन के बाद आंदोलन फिर से विभाजित हो गया. इस प्रकार, अहल-ए-हदीस आंदोलन पूरी तरह से अलग-अलग कार्यक्षेत्रों के साथ तीन देशों में तीन अलग-अलग शाखाओं में बंट गया.
बांग्लादेश और पाकिस्तान में सलाफ़ीवाद: राजनीतिक और हिंसक गुटों की मौज़ूदगी
पाकिस्तान
देखा जाए तो तीनों देशों में जमात अहल-ए-हदीस का अतीत बेहद ख़ुशनुमा रहा है. वर्ष 1986 में मरक़ज़ जमीयत अहल-ए-हदीस (MJAH) के गठन के साथ पाकिस्तानी जमात अहल-ए-हदीस देश की राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हो गया था. JAH ना केवल पाकिस्तान की एक युवा पार्टी थी, बल्कि देश में सभी अहल-ए-हदीस मदरसों पर भी उसका नियंत्रण था. इस राजनीतिक पार्टी का पहला लक्ष्य पाकिस्तान में पश्चिमी प्रभावों को बेअसर करना और इस्लामिक क़ानून के मुताबिक़ देश में एक राजनीतिक व्यवस्था को स्थापित करना था. हालांकि, इस पार्टी को वर्ष 2002 में हुए एक चुनाव को छोड़कर बहुत ज़्यादा राजनीतिक समर्थन नहीं मिला है. उस वर्ष इस पार्टी ने कई अन्य इस्लामी राजनीतिक दलों और सेना के समर्थन के बल पर कुल वोट का क़रीब 11 प्रतिशत मत प्राप्त किया था. इस चुनाव के बाद, यह ग्रुप पाकिस्तान में एक ना के बराबर वाली राजनीतिक ताक़त बना रहा.
वर्ष 1989 में मरक़ज़ जमीयत अहल-ए-हदीस ने तहरीक़-ए-मुजाहिदीन नामक एक आतंकवादी शाखा का भी गठन किया, जो पाकिस्तानी सेना और इंटेलिजेंस के बल पर कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के विरुद्ध लड़ा. यह भारत में, विशेष रूप से कश्मीर क्षेत्र में शांति भंग करने के पाकिस्तानी सरकार के व्यापक प्रयासों का एक हिस्सा था. इसके अलावा, अहल-ए-हदीस के कई सदस्यों लश्कर-ए-तैयबा (पूरे भारत में हमलों के लिए ज़िम्मेदार संगठन) के साथ-साथ इसके उदारवादी संगठन जमात-उद-दावा में भी शामिल हुए.
बांग्लादेश
बांग्लादेश बनने के बाद, बांग्लादेश के राजशाही विश्वविद्यालय में असदुल्ला ग़ालिब नामक एक अरबी प्रोफेसर के आने तक वहां का सलाफ़ी आंदोलन आम तौर पर राजनीति से अलग था. ग़ालिब ने पहली बार वर्ष 1978 में अहले हदीस जुबो शंघ (AHJS) का गठन किया था, जो बाद में वर्ष 1994 में बांग्लादेश को एक इस्लामिक राष्ट्र में बदलने के उद्देश्य से अहल-ए-हदीस आंदोलन बांग्लादेश (AHAB) में परिवर्तित हो गया. AHAB ने ज़ल्द ही मदरसों और एनजीओ का नेटवर्क तैयार कर बड़े पैमाने पर देश भर में अपनी पैठ बना ली. AHAB को पूरे बांग्लादेश में लोगों का ज़बरदस्त समर्थन मिला. अहल-ए-हदीस आंदोलन बांग्लादेश संगठन का दावा था कि उसे बांग्लादेश में 25 मिलियन सदस्यों, शुभचिंतकों और फॉलोअर्स का समर्थन प्राप्त हुआ. वर्ष 2006 तक समूह ने आगामी चुनावों में लगभग 60 अलग-अलग सीटों पर चुनाव लड़ने की अपनी मंशा का ऐलान किया. हालांकि, एक सैन्य तख़्तापलट के बाद उसकी यह सभी योजनाएं एक तरह से विफल साबित हुईं और इसके बाद यह समूह एक राजनीतिक ताक़त के तौर पर काफ़ी हद तक अप्रासंगिक सा हो गया.
जहां तक हिंसा की बात है तो इस समूह को जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (JMB) का वैचारिक स्रोत माना जाता है. JMB बांग्लादेश में कई बम धमाकों और आतंकी हमलों के लिए ज़िम्मेदार था, साथ ही भारत में भी घुसपैठ कर इसने कुछ घटनाओं को अंजाम दिया. AHAB के नेता ग़ालिब को वर्ष 2005 में आतंकवाद के आरोपों में गिरफ़्तार भी किया गया था, हालांकि सबूतों के अभाव में उसे कुछ वर्षों बाद छोड़ दिया गया था. कुल मिलाकर बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों ही देशों में यह स्पष्ट तौर पर दिखता है कि उनके यहां सलाफ़ियों की काफ़ी अंदर तक मौज़ूदगी है और इस ग्रुप का अनुसरण करने वाले लोग वहां की राजनीति के साथ-साथ आतंकवादी गतिविधियों में भी लिप्त रहे हैं.
भारत
भारत में विभाजन के बाद जो अहल-ए हदीस संगठन रह गया था, उसने अपने राजनीतिक कद को ज़्यादा ऊंचा नहीं किया, यानी राजनीतिक लिहाज़ से ख़ुद को लो प्रोफाइल बनाए रखा. राजनीति में उतरने के बजाए इसने मज़हब के शुद्धिकरण और अन्य मुसलमानों (विशेष रूप से सूफ़ियों) से तीर्थस्थलों पर जाने की प्रथाओं पर चर्चा और बहस करना पसंद किया. बांग्लादेशी और पाकिस्तानी सलाफ़ी समूहों ने जहां राजनीतिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन इसके इंडियन चैप्टर यानी भारत में रहने वाले इस संघठन के लोगों ने चुनाव के दौरान सिर्फ़ मतदान किया, इसके अलावा राजनीति की ओर कोई रुख़ नहीं किया. भारत में सलाफ़ी आंदोलन में शामिल नेताओं के मुताबिक़ वे अक्सर अपने अनुयायियों को मुस्लिम समुदाय के हितों को ध्यान में रखकर वोट देने के लिए प्रोत्साहित करते थे. भारत में JAH कई राजनीतिक मुद्दों पर काफ़ी हद तक चुप्पी साधे रहा है. यहां तक कि इसके नेताओं ने वर्तमान सरकार द्वारा किए गए फैसलों के पक्ष में भी अपने विचार प्रकट किए हैं, जैसे कि जम्मू और कश्मीर को दो अलग-अलग हिस्सों में विभाजित करने के मुद्दे पर इसके नेताओं ने सरकार के फैसले का साथ दिया.
1920 के दशक में मिस्र से वैचारिक प्रभाव के साथ दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में केरला नदवतुल मुजाहिदीन (KNM) नामक एक अलग मूवमेंट (1950) का गठन किया गया था. इस ग्रुप ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) और कुछ मामलों में केरल के वाम मोर्चे के साथ मिलकर JAH की तुलना में राजनीति में अधिक भाग लिया. अक्सर देखा जाता है कि नेता मतदान करना और राष्ट्र के प्रति देशभक्ति को प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य समझते हैं. JAH और KNM दोनों ही हिंसा फैलाने वाले और आतंकवादी समूहों की आलोचना करते हैं. दोनों संगठन कट्टरपंथ को बढ़ने से रोकने और उग्रवाद से निपटने के लिए कई तरह के अभियान चला रहे हैं और दोनों ने किसी भी आतंकवादी समूह से संबंध को लेकर किसी भी बड़े आरोप का सामना नहीं किया है.
टेबल 1: भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में सलाफिस्ट संगठनों पर एक तुलनात्मक नज़र. दक्षिण एशिया के अन्य राष्ट्र इसमें शामिल नहीं हैं.
Country |
Group Name |
Established |
Politics |
Violence |
India (North) |
Markaz Jamaat Ahl e-Hadeeth |
1906 |
Largely Aloof |
Strictly opposed |
India (South) |
Kerala Nadwatul Mujahideen |
1950 |
Indirect (pressure group for the IUML) |
Strictly opposed |
Pakistan |
Markaz Jamaat Ahl e-Hadeeth |
1986 |
Contests Elections |
Some factions open to violence. MJAH has a militant wing and has contributed recruits to Lashkar e-Taiba |
Bangladesh |
Ahl e-Hadeeth Andolan Bangladesh |
1994 |
Contests Elections |
Some factions open to violence. Contributed to Jamaat ul Mujahideen Bangladesh ideologically and via recruits. |
दक्षिण एशिया के सलाफ़ियों के मध्य विविधता को स्वीकार करना
उपरोक्त जिन चारों समूहों की चर्चा की गई है वे मालदीव, श्रीलंका और अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न समूहों के साथ दक्षिण एशिया में सलाफ़ियों के पूरे विस्तार के साथ बमुश्किल से जुड़ाव रखते हैं. फिर भी, उपरोक्त आंकड़ों पर नज़र डालें तो कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं; सबसे पहले, राष्ट्र के व्यापक राजनीतिक संदर्भ के आधार पर सलाफिस्ट राजनीति अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती है. दूसरा, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुसंख्यक मुस्लिम डायनेमिक्स की वजह से सलाफ़ी समूह राजनीतिक दलों के तौर पर चुनाव लड़ने में बेहद सहज रहे हैं, जबकि भारत में उनका राजनीतिक जुड़ाव उतना स्पष्ट नहीं था. तीसरा, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण कुछ (सभी नहीं) पाकिस्तानी और बांग्लादेशी अहल-ए-हदीस गुटों का सैन्यीकरण हुआ है, हालांकि, हिंसा और आतंकवाद को लेकर भारतीय सलाफ़ियों के संबंधों के बारे में कोई ठोस सबूत सामने नहीं आए हैं. चौथा, भले ही 80 के दशक से सालाफी से जुड़े आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए सऊदी फंडिंग ज़िम्मेदार थी, लेकिन सच्चाई यह भी है कि दक्षिण एशिया के सलाफ़ी सऊदी समर्थन से बहुत पहले यहां मौज़ूद थे. इसलिए, दुनिया भर के नीति निर्माताओं के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि वे हर देश में सलाफ़ी मूवमेंट के साथ प्रभावी तरीक़े से जुड़ने के लिए और उसे अच्छी तरह से समझने के लिए पूरे दक्षिण एशिया में अलग-अलग सलाफ़ी आंदोलनों को अलग-अलग नज़रिए से और गंभीरता के साथ देखें.
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