क़रीब एक दशक बाद भारत के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा वर्ष 2022-23 के लिए घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया है. इससे पहले यह सर्वेक्षण वर्ष 2011-12 में किया गया था. इस सर्वेक्षण में देश के ग्रामीण और शहरी इलाक़ों के लगभग 2,62,000 परिवारों से नमूनों को एकत्र किया गया. पिछले पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण में परिवारों से केवल एक ही प्रश्नावली में शामिल सवालों को पूछा गया था, जबकि इस बार के सर्वेक्षण में तीन अलग-अलग विषयों पर प्रश्नावली तैयार की गई थी और उनमें शामिल सवालों के जवाब लिए गए थे. जिन तीन विषयों पर प्रश्नावली तैयार की गई थी उनमें खाद्य पदार्थ, उपभोग्य एवं सेवा से जुड़ी चीज़ों और अत्यधिक टिकाऊ सामान जैसे विषय शामिल थे. इस लेख में भारत में समय के साथ-साथ उपभोग के तौर-तरीक़ों में आए बदलावों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है, साथ ही इस पर भी विस्तार से विचार किया गया है कि इस सर्वेक्षण के नतीज़े उपभोग के तरीक़ों में आए परिवर्तन के अनुसार एक मुकम्मल नीति को बनाने के लिए अहम क्यों हैं.
तालिका 1: वर्ष 2022-23 में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय
स्रोत: पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की फैक्टशीट
इस सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (MPCE) लगभग 3,753 रुपये है, जबकि शहरी इलाक़ों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय क़रीब 6,459 रुपये है. सर्वेक्षण से जो एक अहम बात सामने आती है, वो यह है कि ग्रामीण भारत में खाने-पीने की वस्तुओं पर व्यय शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक है. हालांकि, पहली नज़र में देखें, तो सर्वेक्षण से मिले अनुमानों से कोई ख़ास जानकारी हासिल नहीं होती है, लेकिन लंबे समय के दौरान मिले आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर कई अहम जानकारियां सामने आती हैं. उदाहरण के तौर पर, तालिका-2 के मुताबिक़ मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के परिवारों के बीच फासला वर्ष 2004-05 से लगातार कम होता जा रहा है. इन आंकड़ों को दो तरीक़ों से समझा जा सकता है. पहला, भारत में शहरीकरण की गति लगातार बनी हुई है और दूसरा, औद्योगिकीकरण की वजह से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों की आय में वृद्धि हुई है.
तालिक 2: ग्रामीण और शहरी उपभोग की प्रवृत्ति
स्रोत: पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की फैक्टशीट
औसत एमपीसीई में खाद्य पदार्थों के हिस्से को लेकर पड़ताल करने से जो अहम तथ्य सामने आता है, वो यह है कि चाहे शहरी क्षेत्र हों या फिर ग्रामीण इलाक़े, दोनों ही जगह पर रहने वाले उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग की जाने वाली चीज़ों में खाद्य पदार्थों की हिस्सेदार कम हो गई है. यह तथ्य न केवल उनकी इनकम में बढ़ोतरी की ओर इशारा करती है, बल्कि ग्लोबल साउथ में एक गंभीर वैचारिक परिवर्तन की तरफ भी इशारा करती है. वैश्विक स्तर पर यह वैचारिक परिवर्तन देखा जाए तो कहीं न कहीं "आधुनिकता के लिए विकास" की विचारधारा के फैलाव की वजह से आया है. आधुनिकता के लिए विकास की इस अवधारणा को एक तरफ मीडिया के माध्यम से बढ़ावा मिला है, वहीं उच्च आय वर्ग के लोगों के विलासितापूर्ण रहन-सहन ने भी इस विचारधारा को पोषित करने का काम किया है. ज़ाहिर है कि आधुनिकता एक उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देती है. इस प्रकार की उपभोक्तावादी संस्कृति देखा जाए तो उपभोग के पारंपरिक तौर-तरीक़ों के अलग हटकर ख़र्च के दूसरे तरीक़ों को प्रोत्साहित करती है. उपभोग के इस गैर-पारंपरिक तरीक़ों में खाद्य वस्तुओं पर ख़र्च सीमित हो जाता है, जबकि दूसरी चीज़ों पर व्यय करने की हिस्सेदारी बहुत बढ़ जाती है. गौरतलब है कि यह आकलन स्पष्ट रूप से बताते हैं कि शहरी-ग्रामीण उपभोग में आई इस गिरावट का विश्लेषण शहरीकरण के संदर्भ में भी किया जाना आवश्यक है, यानी इसका सिर्फ़ उच्च आय स्तर या आय बढ़ने के संदर्भ में विश्लेषण करना उचित नहीं होगा, बल्कि शहरीकरण की इसमें कितनी भूमिका है, उसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए.
उपभोग के इस गैर-पारंपरिक तरीक़ों में खाद्य वस्तुओं पर ख़र्च सीमित हो जाता है, जबकि दूसरी चीज़ों पर व्यय करने की हिस्सेदारी बहुत बढ़ जाती है.
तालिका 3: औसत एमपीसीई में खाद्य पदार्थों का हिस्सा प्रतिशत में
अवधि
|
ग्रामीण
|
शहरी
|
1999-00
|
59.4
|
48.06
|
2004-05
|
53.11
|
40.51
|
2009-10
|
56.98
|
44.39
|
2011-12
|
52.9
|
42.62
|
2022-23
|
46.38
|
39.17
|
स्रोत: पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की फैक्टशीट
भारत की दुविधा
जहां तक भारत की बात है तो भारत में विरोधाभास की स्थिति दिखाई देती है. यानी भारत में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में बढ़ोतरी के बावज़ूद, नागरिकों की आय में ज़बरदस्त असमानता बनी हुई है. पिछले तीन दशकों के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए, तो इस दौरान व्यक्तिगत उपभोग व्यय भारत की आर्थिक प्रगति का मुख्य संचालक रहा है. इसका साफ मतलब यह है कि भारत के विकास के मूल में कहीं न कहीं इनकम में इस विषमता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. साथ ही यह भी पता चलता है कि अगर भारत अपने उभरते मिडिल क्लास की पूरी क्षमता का लाभ उठाना चाहता है, तो चीज़ों को बेहतर सूझबूझ के साथ आगे बढ़ाया जाना चाहिए. भारत में उच्च आय वर्ग के लोगों के उपभोग के तरीक़ों में बदलाव दिखाई देता है और उनके ख़र्च में भी गिरावट दिखती है. गौरतलब है कि भारत का मध्यम वर्ग भी इस मामले में उच्च वर्ग के साथ क़दमताल करता नज़र आ रहा है. यानी इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत में निम्न आय वर्ग के लोग अपनी इनकम का काफ़ी बड़ा हिस्सा ख़र्च कर देते हैं.
ज़ाहिर है कि निम्न आय वर्ग के लोगों के ग़रीबी के भयानक जाल में फंसने की वजह कहीं न कहीं उनकी बहुत कम बचत भी होती है. एक ओर ग़रीबी यानी आय में कमी और दूसरी ओर बचत नहीं होने से निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए उपभोग की वस्तुओं को ख़रीदना मुश्किल हो जाता है,
यद्यपि आय में असमानता बढ़ने से कम इनकम वाले समूहों की आय और कम होती जाती है, जिससे उपभोग के मामले में निम्न आय समूह के लोगों की भागीदारी भी कम हो जाती है, नतीज़तन अर्थव्यवस्था में कुल उपभोग व्यय में और गिरावट आती है. कहने का तात्पर्य है कि इनकम में विषमता बढ़ने से न सिर्फ तरक़्क़ी की राह में रुकावट आती है, बल्कि निम्न-आय समूहों के लोग इनकम और संपत्ति दोनों के मामले में पिछड़ जाते हैं और भयानक ग़रीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं. ज़ाहिर है कि निम्न आय वर्ग के लोगों के ग़रीबी के भयानक जाल में फंसने की वजह कहीं न कहीं उनकी बहुत कम बचत भी होती है. एक ओर ग़रीबी यानी आय में कमी और दूसरी ओर बचत नहीं होने से निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए उपभोग की वस्तुओं को ख़रीदना मुश्किल हो जाता है, इसके परिणामस्वरूप वे कर्ज़ लेने पर मज़बूर हो जाते है और आख़िरकार कर्ज़ में ही फंसे रह जाते हैं. उल्लेखनीय है कि घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण से जो भी नतीज़े और अनुमान सामने आए हैं, उनका इस्तेमाल न सिर्फ़ इस तरह की बातों को जांच-परख करने के लिए किया जाता है, बल्कि इस दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए संभावित नीतिगत समाधान तलाशने के लिए भी किया जाता है.
तालिका 4: वर्ष 2022-23 में सभी वर्गों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय
स्रोत: पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की फैक्टशीट
तालिका 4 में दिए गए आंकड़ों से साफ पता चलता है कि विभिन्न आय वर्गों के लोगों में उपभोग व्यय कितना अलग-अलग होता है. आय में अंतर के लिहाज़ से अगर इन आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो, यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय जनसंख्या के शीर्ष स्तर के 10 प्रतिशत अमीरों को जीडीपी का 57 प्रतिशत हिस्सा मिलता है. इसी तरह से इन आंकड़ों से यह भी सामने आता है कि उच्चतम मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय करने वाली 5 प्रतिशत आबादी निम्नतम 5 प्रतिशत एमपीईसी करने वालों से लगभग 10 गुना अधिक उपभोग करती है. उपभोग में व्यय के इन आंकड़ों के बावज़ूद मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय इनकम के अंतर को दूर नहीं करता है. इतना ही नहीं, इससे यह भी साफ तौर पर पता चलता है कि निम्न-आय समूहों के बीच अधिक उपभोग करने की प्रवृत्ति कितनी अधिक महत्वपूर्ण है. साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि इनकम में विषमता किस प्रकार से उपभोग असमानता को भी बढ़ाने का काम करती है.
तालिका 5: वर्ष 2022-23 में वस्तुओं के उपभोग के लिहाज़ से एमपीईसी का विवरण
उपभोग की वस्तुएं
|
MPCE (INR)
|
कुले MPCE में प्रतिशत शेयर
|
ग्रामीण
|
शहरी
|
ग्रामीण
|
शहरी
|
अनाज और अनाज के विकल्प
|
185
|
235
|
4.91
|
3.64
|
दालें और उनसे बने उत्पाद*
|
76
|
90
|
2.01
|
1.39
|
चीनी और नमक
|
35
|
39
|
0.93
|
0.60
|
दूध और दुग्ध उत्पाद
|
314
|
466
|
8.33
|
7.22
|
सब्जियां
|
203
|
245
|
5.38
|
3.80
|
फल
|
140
|
246
|
3.71
|
3.80
|
अंडा, मछली, मीट
|
185
|
231
|
4.91
|
3.57
|
खाद्य तेल
|
136
|
153
|
3.59
|
2.37
|
मसाले
|
113
|
138
|
2.98
|
2.13
|
पेय पदार्थ, अल्प आहार, प्रसंस्कृत भोजन
|
363
|
687
|
9.62
|
10.64
|
खुल खाद्य पदार्थ
|
1,750
|
2,530
|
46.38
|
39.17
|
पान, तंबाकू और नशे की चीज़ें
|
143
|
157
|
3.79
|
2.43
|
ईंधन और लाइट
|
251
|
404
|
6.66
|
6.26
|
शिक्षा
|
125
|
374
|
3.30
|
5.78
|
चिकित्सा
|
269
|
382
|
7.13
|
5.91
|
परिवहन
|
285
|
555
|
7.55
|
8.59
|
परिवहन के अलावा उपभोक्ता सेवाएं
|
192
|
382
|
5.08
|
5.92
|
अन्य सामान, मनोरंजन
|
234
|
424
|
6.21
|
6.56
|
किराया
|
30
|
423
|
0.78
|
6.56
|
टैक्स और सेस
|
5
|
16
|
0.13
|
0.24
|
कपड़े, जूते-चप्पल, बिस्तर
|
230
|
350
|
6.10
|
5.41
|
टिकाऊ सामान
|
260
|
463
|
6.89
|
7.17
|
कुल गैर-खाद्य पदार्थ
|
2,023
|
3,929
|
53.62
|
60.83
|
सभी वस्तुएं
|
3,773
|
6,459
|
100.00
|
100.00
|
स्रोत: पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की फैक्टशीट
इस लेख में जिस प्रकार से पहले भी बताया जा चुका है कि ग्रामीण क्षेत्र में परिवारों द्वारा उपभोग की जाने वाली चीज़ों में बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थों का होता है, यानी उनकी आय का ज़्यादातर हिस्सा खाने-पीने की चीज़ों को ख़रीदने में ख़र्च होता है. जबकि शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बात की जाए, तो उनकी आय का अधिकतर हिस्सा गैर-खाद्य वस्तुओं पर व्यय होता है. अर्थात शहरी परिवारों द्वारा परिवहन, टिकाऊ वस्तुओं को ख़रीदने, मनोरंजन, किराया आदि जैसे मदों में मुख्य रूप से ज़्यादा धनराशि ख़र्च की जाती है. ज़ाहिर है कि इस तरह के अनुमान का पता लगाना बेहद ज़रूरी होता है, क्योंकि ये अनुमान न केवल उपभोक्ताओं के ख़र्च के रुझानों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं, बल्कि इनका उपयोग करके ख़र्च के पैटर्न का सटीक पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है, यानी यह पता लगाया जा सकता है कि भविष्य में किन-किन मदों में ख़र्च की प्रवृत्ति बढ़ सकती है. इसके अलावा इस सर्वेक्षण के प्राप्त अनुमान व्यापक तौर पर यह भी बताते हैं कि शहरीकरण के साथ किस प्रकार से गैर-खाद्य वस्तुओं पर ख़र्च बढ़ता जा रहा है. साथ ही है ये अनुमान मुद्रास्फ़ीति को निर्धारित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. शहरी क्षेत्र में खाद्य पदार्थों पर होने वाले ख़र्च में कमी आने साफ-साफ अर्थ यह भी है कि महंगाई के लिए मुख्य रूप से वस्तुओं और सेवाओं की लागत में बढ़ोतरी हो सकती है (यानी, भोजन और ईंधन की क़ीमतों की इस महंगाई में कोई भूमिका नहीं है). दूसरी ओर, सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक़ खाद्य श्रेणी में जिस प्रकार से दूध और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के उपभोग में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है, उसके हिसाब से महंगाई का आकलन करने वाले उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के ढांचे को नए सिरे से निर्धारित करना चाहिए, अर्थात इसमें दूध और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.
इस सर्वेक्षण के ज़रिए मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय से मिले रुझानों तक ही सीमित नहीं रहना है, बल्कि इन आंकड़ों में छिपे अनुमानों को भी विस्तार से समझने की आवश्यकता है.
निष्कर्ष
देश के व्यापक आर्थिक वातावरण और कमोडिटी मार्केट के उतार-चढ़ाव, दोनों पर ही मुद्रास्फ़ीति सूचकांकों की परिभाषा को बदलने का दूरगामी असर पड़ता है. ज़ाहिर है कि अगर मुद्रास्फ़ीति के अत्यधिक बढ़ने की उम्मीद जताई जाती है, तो अल्पावधि में यह न केवल मंहगाई में इज़ाफा कर सकती है, बल्कि निम्न-आय वर्ग की क्रय शक्ति को और भी कम कर सकती हैं. यानी पहले से ही ग़रीबी के दुष्चक्र में फंसे निम्न-आय वर्ग की परेशानियों को और अधिक बढ़ा सकती है. इसके अतिरिक्त, अगर यह पता चल जाए कि उपभोक्ताओं की प्राथमिकताएं क्या हैं, यानी उनका रुझान किन वस्तुओं को ख़रीदने पर अधिक है, या यह पता चल जाए कि वे किन मदों में अधिक ख़र्च करने के बारे में सोच रहे हैं, तो इस जानकारी का उपयोग ऐसे नीतिगत क़दमों को उठाने में किया जा सकता है, जो ज़रूरी चीज़ों की अधिक से अधिक आपूर्ति सुनिश्चित करने वाले हों. उदाहरण के तौर पर अगर अनुमानों से यह पता चल जाए कि आने वाले दिनों में दूध की खपत बढ़ने वाली है, तो भविष्य में दूध की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए पुख्ता प्रयास किए जा सकते हैं और इसके लिए टिकाऊ डेयरी फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा सकता है, साथ ही डेयरी सेक्टर की बढ़ोतरी के लिए पर्याप्त नीतियां बनाई जा सकती हैं. ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सर्वेक्षण के ज़रिए मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय से मिले रुझानों तक ही सीमित नहीं रहना है, बल्कि इन आंकड़ों में छिपे अनुमानों को भी विस्तार से समझने की आवश्यकता है. साथ ही इस सर्वेक्षण के नतीज़ों से यह भी सुनिश्चित होता है कि भारत की आर्थिक प्रगति का लाभ उठाने के लिए आर्थिक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी है.
आर्य रॉय बर्धन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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